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Monday, November 21, 2011

सपने सच नहीं होते, काटजू साहब

इन दिनों मीडिया में प्रेस काउंसिल के टटके अध्यक्ष और दुनिया के प्रकांडतम विद्वानों में से एक, सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड न्यायाधीश जस्टिस मार्केंडेय काटजू के विवादास्पद बयानों पर बहस चल रही है । काटजू ने अपने बयानों में न्यूज चैनलों को निहायत ही गैरजिम्मेदार और समाज को बांटने वाला करार देकर विवाद को जन्म दिया । सुप्रीम कोर्ट से रिटायर होने के बाद जस्टिस काटजू को भारत सरकार ने फौरन ही प्रेस काउंसिल का अध्यक्ष नियुक्त कर दिया । अपनी नियुक्ति से उत्साहित काटजू ने पद संभालते ही मीडिया को सुधारने का अपना अभियान शुरू कर दिया । उनको लगता है कि न्यूज चैनलों पर भडैंती के अलावा कुछ नहीं होता । उनको अपने ज्ञान के आगे सारे पत्रकार बौने लगते हैं । उनको लगता है कि पत्रकारिता मूर्ख लोगों के हाथों में है, जिन्हें ककहरा भी नहीं आता । जस्टिस काटजू ने जिस तरह से पूरे इलेक्ट्रानिक मीडिया को खारिज कर दिया है उससे उनके इरादों के साफ संकेत मिलते हैं । हर क्षेत्र की तरह पत्रकारिता में भी गलत लोग हो सकते हैं, हैं भी, लेकिन क्या चंद लोगों की बिना पर सारे लोगों को खारिज कर दिया जाना । क्या जस्टिस सौमित्र सेन और जस्टिस पी डी दिनाकरन पर लगे आरोपों की बिना पर हम पूरी न्यापालिका को कठघरे में खड़ा कर दे सकते हैं । नहीं । उसी तरह चंद लोगों और चंद चैनलों की बिना पर पूरी मीडिया को सवालों के घेरे में लेना उचित नहीं है ।
न्यूज चैनल में काम करते हुए मैं अपने अनुभवों से यह मानता हूं कि कुछ चैनलों ने गलतिया की हैं । खबरों के नाम पर मनोरंजन, खबरों के नाम फिक्शन, खबरों के नाम पर नाच गाना, खबरों के नाम पर मरते लोगों की तस्वीरें, खबरों के नाम पर फिल्मों के विवाद, खबरों के नाम पर ज्योतिष के कार्यक्रम आदि दिखाए गए और अब भी दिखाए जा रहे हैं। कुछ चैनलों पर ऐश्वर्या राय के बच्चे के जन्म को लेकर भी आपत्तिजनक और निजता का हनन करनेवाले कार्यक्रम दिखाए गए । उन कार्यक्रमों की आलोचना भी हुई और खुद मीडिया के लोगों ने उस पर आपत्ति उठाई । ना सिर्फ आपत्ति उठाई बल्कि उसको लेकर संपादकों के बीच जमकर बहस भी हुई । लेकिन ये बातें सार्वजनिक नहीं होती इस वजह से लोगों को लगता है कि न्यूज चैनलवाले तो बस खबरों के अलावा सबकुछ करते हैं । लोगों के बीच बन रहे इसी परसेप्शन का प्रतिरोध करने के लिए संपादकों की संस्था ब्रॉडकास्ट एडिटर्स एसोसिएशन ने ऐश्वर्या राय के बच्चे के जन्म को लेकर जो गाइडलाइन बनाई उसको जारी कर दिया । यह पहली बार नहीं हुआ है कि मीडिया ने खुद को नियंत्रित करने के लिए इस तरह की गाइडलाइन जारी की है । पहले भी कई बार इस तरह के गाइडलाइंस बने और उसका सभी ने पालन भी किया ।
कुछ चैनलों पर इस तरह के कार्यक्रम दिखाए जा रहे हैं तो कुछ चैनलों पर बुंदेलखंड में भूख से मरते किसानों की व्यथा, बुंदेलखंड में ही रोटी के लिए जिस्म बेचती औरतें, सूखे की भयावहता से परेशान किसानों पर स्पेशल सीरीज से लेकर समसामयिक मुद्दों पर घंटे घंटे भर के कार्यक्रम भी दिखाए गए हैं । लेकिन जब आपने तय कर लिया है कि न्यूज चैनल सिर्फ कूड़ा परोसते हैं तो फिर आपको ये कार्यक्रम नहीं दिखाई देंगे । पिछले तकरीबन साल भर से जिस तरह से न्यूज चैनलों ने भ्रष्टाचार को उजागर करने में आक्रामकता दिखाई है क्या वो भी भारतीय प्रेस परिषद के नवनियुक्त अध्यक्ष को दिखाई नहीं देता । न्यूज चैनलों पर जिंदगी लाइव जैसे कार्यक्रम भी आते हैं जहां समाज के उन तबके के लोगों के दुखदर्द शेय़र किए जाते हैं जिनकी और ना तो सरकार का और ना ही किसी और का ध्यान जाता है । पिछले गुरुवार को दिल्ली में समारोह पूर्वक जिंदगी लाइव अवॉर्ड्स दिए गए । जिन दस लोगों को इस पुरस्कार से सम्मानित किया गया उनके बारे में, उनके अनुभवों के बारे में जस्टिस काटजू जैसे लोगों को बताना और जानना जरूरी है । मक्का मस्जिद धमाके का आरोपी कैसे करीब दो साल तक जेल में रहता है और फिर अदालत से बरी होने के बाद जब अपने परिवेश में वापस लौटना चाहता है तो समाज उसे अस्वीकार कर देता है । उसी दौर में जिंदगी लाइव के शो में उससे बातचीत होती है । कार्यक्रम में बातचीत के दौरान इमरान अपना दर्द, अपनी पीड़ा और समाज से अस्वीकार होने की व्यथा बयान करते है । उसने पुरस्कार को स्वीकार करते हुए यह बात बताई कि जिंदगी लाइव कार्यक्रम पर आने के बाद उसकी जिंदगी बदल गई । उसे न केवल समाज ने स्वीकार किया बल्कि उसे कॉलेज में वापस दाखिला भी मिला। पढ़ाई खत्म करते ही उसे नौकरी मिली और आज वो आतंकवादी होने के सदमे से उबर पाया है । जस्टिस काटजू साहब यही है मीडिया की ताकत और यही है मीडिया के सामाजिक सरोकार जिसका निर्वहन वो पूरी जिम्मदारी से कर रहा है । लेकिन जब अच्छी चीजों की तरफ से मुंह मोड़ लेंगे और सिर्फ वही देखना चाहेंगे जिसके बारे में राय बना चुके हैं तो जिंदगी लाइव जैसे कार्यक्रम आपको दिखाई नहीं देंगे । इसी कार्यक्रम में सामने आकर कई घरेलू हिंसा की शिकार महिलाओं को अन्याय और शोषण के खिलाफ आवाज उठाने की हिम्मत मिली । बाल यौन शोषण के शिकार लड़के की कहानी सुनकर इस अपराध के शिकार बच्चों को वाणी मि्ली और उन्होंने प्रतिकार करना शुरू कर दिया । दंगा पीड़तों के दर्द को भी इस मंच ने अपनी आवाज उठाने की सहूलियत दी । मुझे अब भी याद है कि 1984 के सिख दंगों की शिकार एक महिला किस तरह से कार्यक्रम के अंत में खड़ी होती हैं और भावनाओं के ज्वार में उसकी एंकर ऋचा से कहती हैं- जा बेटी जा ! तु्म्हें मेरी उमर लग जाए । आजतक किसी ने मेरी बात नहीं सुनी थी तुमने मेरा दर्द सुनकर कलेजा हल्का कर दिया । जस्टिस काटजू साहब अगर आपने दंगा पीड़ित उस महिला की वो आवाज सुनी होती तो आपकी राय बदल गई होती, शायद आंखें भी खुल गई होती । लेकिन क्या करें आपको तो सिर्फ राखी सावंत और नाच गाना ही दिखता है ।
काटजू ने एक और घोर आपत्तिजनक और निहायत ही गैरजिम्मदाराना बयान दे डाला । उन्होंने तहा कि मीडिया समाज को बांटने का काम कर रहा है । काटजू जैसे विद्वान और सुप्रीम कोर्ट जैसी सर्वोच्च गरिमामय संस्थान में रहने के बाद भी काटजू से इस तरह के हल्के बयान की अपेक्षा तो दूर की बात कल्पना भी नहीं की जा सकती थी । अपने इस बयान के समर्थन में काटजू ने जो तर्क दिए वो भी बेहद हास्यास्पद और लचर थे । काटजू साहब को अयोध्या के बाबरी विवाद के समय इलाहाबाद होईकोर्ट की लखनऊ बेंच के फैसले के वक्त की न्यूज चैनलों की कवरेज भी याद नहीं रही । अयोध्य़ा विवाद के फैसले की जिस तरह से रिपोर्टिंग की गई या उसके पहले संपादकों और न्यूज चैनल में काम करनेवाले पत्रकारों ने माथापच्ची की उसका एहसास काटजू को नहीं है । होना भी नहीं चाहिए । क्योंकि ये तो हमारा काम है । लेकिन जब प्रेस काउंसिल का अध्यक्ष इस तरह का गैर जिम्मेदाराना बयाने देकर समाज में एक भ्रम का वातावरण तैयार करे तो उसका प्रतिकार और प्रतिरोध हर स्तर पर किया जाना चाहिए । प्रेस काउंसिल का अध्यक्ष बनने के बाद काटजू मुंगेरी लाल की तरह हसीन सपने भी देखने लगे हैं । वो मीडिया पर अंकुश लगाने और उसे डंडे के जोर पर चलाने की वकालत कर रहे हैं । सरकार से पद मिलने के बाद अब वो मीडिया पर अंकुश लगाने की ताकत भी पाना चाहते हैं । लेकिन जस्टिस काटजू यह भूल गए हैं कि सपने सपने ही होते हैं और वो कभी सच नहीं होते । काटजू तो मीडिया पर अंकुश लगाने का सपना दिन के उजाले में देख रहे हैं । काटजू जैसा विद्वान यह कैसे भूल सकता है कि इमरजेंसी के दौर को भी भारतीय मीडिया ने देखा और उस समय भी अपनी साख और प्रतिरोध की ताकत के बल पर अपने को बचाए रखने में कामयाब हो गया । इमरजेंसी के दौर में भी मीडिया पर अंकुश लगाया गया था । अंकुश लगाने का सपना देखने वाले तो इतिहास के पन्नों में गुम हो गए हैं लेकिन प्रतिरोध करनेवाले आज भी समाज के हीरो हैं । मीडिया पर अंकुश या उसे डंडे के जोर पर हांकने का दिवास्वपन देखना छोड़ दीजिए । रही बात न्यूज चैनलों की गलतियों की तो उसमें हर दिन सुधार किया जा रहा है । ब्रॉडकास्टर्स की आत्म नियंत्रण की एक संस्था है जिसके अध्यक्ष सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस जे एस वर्मा है । इसके अलावा संपादकों की संस्था बीईए ने भी इस दिशा में मजबूती से कदम उठाए हैं । जनता के प्रति हमारी जवाबदेही है और हम लोकतंत्र के प्रहरी के तौर पर इस जिम्मेदारी को बखूबी समझते हैं । आपके उपदेश की हमें जरूरत नहीं है ।

Monday, November 14, 2011

लेखको, माफी मांगो !

पिछले दिनों लखनऊ में हिंदी के महान रचनाकारों में से एक श्रीलाल शुक्ल जी का निधन हो गया । मैं श्रीलाल जी से दो बार मिला । एक बार राजकमल प्रकाशन के लेखक से मिलिए कार्यक्रम में और दूसरी बार राजेन्द्र यादव के जन्मदिन की पार्टी में । लेखक से मिलिए कार्यक्रम में तो बेहद ही औपचारिक सी मुलाकात थी । लेकिन कवि उपेन्द्र कुमार के घर पर हुई राजेन्द्र यादव की पार्टी में पर तो मेरा अनुभव एकदम ही अलहदा था । किस वर्ष की बात है ये ठीक से याद नहीं है । लेकिन इतना याद है कि नब्बे के दशक के उत्तर्राद्ध की बात है । यादव जी की पार्टी चल रही थी । दिल्ली का पूरा साहित्यिक समाज वहां मौजूद था । पार्क स्ट्रीट के बंगले में हो रही पार्टी में जमकर रसरंजन भी हो रहा था । रसरंजन के बाद खाने का इंतजाम था । पार्टी अपने शबाब पर थी । जमकर रसरंजन हो रहा था । नामवर जी, अजित कुमार, श्रीलाल शुक्ल एक ही टेबल पर जमे हुए थे । हमलोग खाना खाने पहुंचे तो देखा कि श्रीलाल जी भी आ रहे हैं । कतार में खड़े सभी लोगों ने श्रीलाल जी के लिए जगह छोड़ दी । शुक्ला जी ने खाना लिया और प्लेट लेकर गेट की ओर बढ़ चले । सभी लोग अपनी मस्ती में थे, रसरंजन का भी असर था । खाना लेकर श्रीलाल जी जब गेट से बाहर हो गए तो हम दो तीन लोग लपके । लेकिन श्रीलाल जी कहां मानने वाले थे वो तो सड़क पार करके जाकर डिवाइडर पर बैठ गए । अब सोचिए कि हिंदी का इतना बड़ा लेखक पार्टी से निकलकर डिवाइडर पर बैठकर खाना खा रहा है । पार्क स्ट्रीट पर ठीक-ठाक ट्रैफिक होता है । लेकिन पार्टी के शोरगुल से बेफिक्र श्रीलाल जी खाने में मगन थे । हम लोग उनके आसपास खड़े थे । मैं मंत्रमुग्ध सा उनको देख रहा था । हिंदी के इतने बड़े साहित्यकार से इतने नजदीक से मिलने का मौका । जब खाना खत्म होने लगा तो उन्होंने कहा कि सब्जी चाहिए । खैर हमारे कहने पर माने और खुद चलकर अंदर आ गए । लेकिन तबतक रसरंजन का असर काफी हो चुका था । किसी तरह हम उनको लेकर अंदर आए और फिर वहां बिठाया । यह मेरे लिए एक स्वपन सरीखा था । राग दरबारी जैसी कालजयी कृति के रचियता से बातचीत कर मैं धन्य हो रहा था । खैर पार्टी खत्म हो गई और हम अपने अपने घर चले गए । लेकिन तबतक कई लोगों से श्रीलाल जी के बारे में बात कर काफी जान चुका था । कई सालों बाद जब तद्भव के प्रवेशांक में श्रीलाल शुक्ल पर रवीन्द्र कालिया का संस्मरण पढ़ा तो यादव जी के जन्मदिन की घटना एक बार फिर से स्मरण हो आया । कालिया जी ने लिखा था- लखनऊ में मेरे एक आईएएस मित्र हैं, एक बार उनसे मिलने उनके निवास स्थान पर गया । बाहर एक चौकीदार तैनात था । मैंने उससे पूछा, साहब हैं ? हां हैं । क्या कर रहे हैं ? शराब पी रहे हैं । उसने निहायत सादगी से जवाब दिया । श्रीलाल शुक्ल जब इलाहाबाद नगर निगम के प्रशासक थे, तो अक्सर उनसे भेंट होती थी, उनका चौकीदार भी कुछ कुछ लखनऊ के मित्र के चौकीदार जैसा था । एक बार उनसे मिलने गया और चौकीदार से यह पूछने पर कि श्रीलाल जी घर पर हैं या नहीं, उसने बताया, साहब हैं । क्या कर रहे हैं- मैंने पूछा । बाहर बगीचे में बैठे हैं और टकटकी लगाकर चांद की तरफ देख रहे हैं । उसने बगीचे की ओर संकेत करते हुए कहा था । बाद में कालिया जी को श्रीलाल जी ने पत्र लिखकर उपरोक्त प्रसंग पर हल्की सी नाराजगी भी दिखाई थी और लिखा था कि काल्पनिक आईएएस मित्र की बजाए सीधे सीधे उनका नाम भी लिख देते तो कुछ नहीं हो जाता । तद्भव का वह अंक बेहतरीन था । लकिन वो अंक मेरे पास नहीं हैं , बाद में राजकमल से ही अखिलेश के संपादन में श्रीलाल शुक्ल की दुनिया के नाम से वो पुस्तकाकार छपा । श्रीलाल जी को जानने के लिए वो किताब मुकम्मल है । तकरीबन दस साल बाद लखनऊ जाना हुआ । श्रीलाल जी से मिलने के लिए उनके घर फोन किया । यह याद नहीं कि किसने उठाया लेकिन यह बताया गया कि उनकी तबियत खराब है और मुलाकात मुमकिन नहीं है ।
श्रीलाल जी के निधन से एक और हसरत मन में ही रह गई । दो हजार दो में मेरे श्वसुर (अब स्वर्गीय) प्रो प्रियवत नारायण सिंह जी ने मुझे रागदरबारी का पहला संस्करण भेंट किया । मेरे लिए यह एक अमूल्य भेंट थी । मेरे पास राग दरबारी का पेपर बैक संस्करण था । राग दरबारी का पहला संस्करण 1968 में राजकमल प्रकाशन प्रा लिमिटेड दिल्ली-6 से छपा था । उस संस्करण पर उपन्यास का मूल्य 15 रु अंकित है । पहले संस्करण का कवर रिफार्मा स्टूडियो, दिल्ली ने बनाया था । लेकिन जब मुझे राग दरबारी का पहला संस्करण मिला तो उसका कवर नहीं था । मैंने यूं ही राजकमल प्रकाशन के मालिक अशोक महेश्वरी को पहले संस्करण की प्रति के बारे में चर्चा की । उन्होनें सुनते ही प्रस्ताव रखा कि मैं उनको पहले संस्करण की प्रति दे दूं, बदले में वो मुझे राग दरबारी की पांच प्रतियां दे देंगे । मैंने विनम्रतापूर्वक उनके प्रस्ताव को मना कर दिया । थोड़ी निराशा उनके चेहरे पर अवश्य दिखी लेकिन मेरी भावनाओं को उन्होंने समझा । मेरे पास राग दरबारी का कवर नहीं था। मैंने अशोक जी से एक कवर मांग लिया । अब मेरे पास जो राग दरबारी है वो पहला संस्करण है लेकिन कवर बाद के संस्करण का है । मैं जब भी लखनऊ जाता था तो सोचता था कि इस बार श्रीलाल शुक्ल से मिलूंगा और उनसे किताब पर दस्तखत लूंगा और कवर के बारे में मालूम करूंगा । लेकिन श्री लाल जी के निधन के बाद ये इच्छा पूरी नहीं हो सकी ।
लेकिन श्रीलाल जी की बीमारी और उनके निधन के बहाने मैं एक और बात शिद्दत से उठाना चाहता हूं । जब श्रीलाल जी बीमार थे और लखनऊ के अस्पताल में भर्ती थे तो अचानक से एक दिन दिल्ली के कुछ लेखकों की ओर से एक अपील जारी हुई । जिसमें सरकार से श्रीलाल जी की बीमारी के मद्देनजर सरकार से उनके समुचित इलाज की व्यवस्था करवाने की अपील की गई थी । अपील पर दस्तखत करनेवालों में सर्वश्री अशोक वाजपेयी, राजेन्द्र यादव, मुरली मनोहर प्रसाद सिंह, चंचल चौहान, पंकज विष्ट और रेखा अवस्थी के नाम प्रमुख हैं । इस मुहिम के अगुवा मुरली मनोहर प्रसाद थे । श्रीलाल जी वरिष्ठ आईएएस अफसर थे और उत्तर प्रदेश में प्रमुख सचिव के पद से रिटायर हुए थे । लिहाजा उनके पास सीजीएचएस की सुविधा होनी चाहिए । उसके अलावा उनका भरा पूरा समृद्ध परिवार है जो उनके इलाज के लिए स्वत सक्षम है । दिल्ली में 3 नवंबर को श्रीलाल जी की श्रद्धांजलि सभा का भव्य आयोजन हुआ था । उससे भी जाहिर होता है कि परिवार को कोई कमी नहीं है । लेखकों ने इस तरह की अपील जारी कर श्रीलाल जी का अपमान किया । बेवजह उनको दयनीय बनाने की कोशिश की गई । मुझे लगता है कि अगर जीते जी श्रीलाल जी को इस बात का पता चल गया होता तो तो वो बेहद नाराज होते । लखनऊ के उनके कई करीबी लोगों से मेरी बात हुई सबने यही कहा कि श्रीलाल जी बेहद स्वाभिमानी व्यक्ति थे और अगर वो इसका प्रतिरोध करने की स्थिति में होते तो जरूर करते । मेरे हिसाब से सरकार से मदद की अपील अनावश्यक और गैरजरूरी थी । यह अपील जारी करके लेखकों ने श्रीलाल जी का घोर अपमान किया है और उसको माफी मांग कर अपनी गलती को सुधारना चाहिए । क्या अशोक वाजपेयी, राजेन्द्र यादव, पंकज बिष्ठ, मुरली मनोहर प्रसाद सिंह यह साहस दिखा पाएंगे और श्रीलाल जी और उनके परिवार से माफी मांग कर मिसाल कायम करेंगे । करना चाहिए । बड़प्पन इसी में है ।