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Thursday, January 26, 2012

2011: उल्लेखनीय कृति का रहा इंतजार

साल 2011 खत्म हो गया । देश भर की तमाम साहित्यिक पत्र पत्रिकाओं में पिछले वर्ष प्रकाशित किताबों का लेखा-जोखा छपा । पत्र-पत्रिकाओं में जिस तरह के सर्वे छपे उससे हिंदी प्रकाशन की बेहद संजीदा तस्वीर सामने आई । एक अनुमान के मुताबिक तकरीबन डेढ से दो हजार किताबों का प्रकाशन पिछले साल भर में हुआ । लेखा-जोखा करनेवाले लेखकों ने हर विधा में कई पुस्तकों को उल्लेखनीय तो कई पुस्तकों को साहित्यिक जगत की अहम घटना करार दिया । कुछ समीक्षकों ने तो चुनिंदा कृतियों को महान कृतियों की श्रेणी में भी रख दिया । मैं उन समीक्षकों पर कोई टिप्पणी नहीं करना चाहता लेकिन अगर हम वस्तुनिष्ठता के साथ पिछले वर्ष के हिंदी साहित्य पर नजर डालें तो पाते हैं कि बीता वर्ष रचनात्मकता के लिहाज से उतना उर्वर नहीं रहा, जितना साहित्यिक सर्वे में हमें दिखा । मैंने पिछले वर्ष जितना पढ़ा या फिर यह कह सकता हूं कि जिन कृतियों के बारे में पढ़ा उसके आधार पर जो एक तस्वीर उभर कर सामने आती है वह बहुत निराशाजनक है । अगर हम हर विधा के हिसाब से बात करें तो भी हिंदी साहित्य में कोई आउटस्टैंडिंग कृति के आने का दावा नहीं कर सकते । अगर हम हिंदी साहित्य में उपन्यास के परिदृश्य को देखें तो पिछले साल साहित्य की इस विधा में दर्जनों किताबें प्रकाशित हुई, कईयों की चर्चा भी हुई लेकिन कोई भी किताब साहित्य में धूम मचा दे, यह हो नहीं सका । कुछ दिनों पहले सोशल नेटवर्किंग साइट पर समीक्षक साधना अग्रवाल ने पिछले वर्ष प्रकाशित दस किताबों की सूची जारी की । साधना अग्रवाल ने उन्हीं किताबों के आधार पर तहलका में लेख भी लिखा । फेसबुक पर मेरा और साधना जी का संवाद भी हुआ । वहां भी मैंने यह संकेत करने की कोशिश की थी कि इस वर्ष कुछ भी उल्लेखनीय नहीं छपा । यहां मैं अगर उल्लेखनीय कह रहा हूं तो उसका मतलब यह है कि वर्ष भर उसकी चर्चा हो और उस कृति के बहाने साहित्य में विमर्श भी हो । इसके अलावा साहित्यिक पत्रिका हंस और पाखी में भी साल भर की किताबों पर विस्तार से लेख छपे । हंस में अशोक मिश्र ने उपन्यासों की पूरी सूची दी । अशोक मिश्र के मुतबिक हरिसुमन विष्ठ का उपन्यास-बसेरा- साल का सबसे अच्छा उपन्यास है । उन्होंने श्रमपूर्वक उपन्यासों की एक पूरी सूची गिनाई है लेकिन विष्ठ के उपन्यास को सबसे अच्छा उपन्यास क्यों माना इसकी वजह नहीं बताई । हो सकता है अशोक मिश्र की राय में दम हो लेकिन हिंदी जगत में बिष्ठ का यह उपन्यास अननोटिस्ड रह गया । हंस के सर्वेक्षण में आलोचना विधा में पहला नाम निर्मला जैन की किताब कथा समय में तीन हमसफर का है । पता नहीं अशोक मिश्र को निर्मला जैन की किताब आलोचना की किताब कैसे लगी, ज्यादा से ज्यादा उस किताब को संस्मरणात्मक समीक्षा कह सकते हैं । निर्मला जैन की उक्त किताब में अपनी तीन सहेलियों के घर परिवार से लेकर नाते रिश्तेदार सभी मौजूद हैं । उस किताब को पढ़ने के बाद जो मेरी राय बनी वह यह है कि निर्मला जैन का लेखन बेहद कंफ्यूज्ड है और वो क्या लिखना चाहती थी यह साफ ही नहीं हो पाया । लेकिन आलोचना में जिन नामों को उन्होंने प्रमुख किताबें माना है उसमें से ज्यादातर लेखों के संग्रह हैं या फिर कुछ संपादित किताबें ।
पाखी में भारत भारद्वाज के लेख पर टिप्पणी करने से मैं अपने आप को रेस्कयू कर रहा हूं । तहलका में साधना अग्रवाल ने अपने चयन को सीमित किया है और सिर्फ दस किताबों पर बात की है । इसका एक फायदा यह हुआ कि दस किताबों के बारे में संक्षिप्त ही सही जानकारी तो मिली । साधना अग्रवाल ने पहला नाम मेवाराम के उपन्यास सुल्तान रजिया का दिया है । हो सकता है कि मेवाराम का यह उपन्यास बेहतर हो लेकिन अगर यह इतना अच्छा था तो हिंदी जगत में इस पर चर्चा होनी चाहिए थी जो सर्वेक्षणों के अलावा ज्यादा दिखी नहीं । सूची में और नाम हैं- मंजूर एहतेशाम का मदरसा, प्रदीप सौरभ का उपन्यास तीसरी ताली, ओम थानवी का यात्रा संस्मरण मुअनजोदड़ो । तीसरी ताली मैंने पढ़ी है और मुझे लगता है कि इस उपन्यास का ना तो विषय नया है और न ही कहने का अंदाज । इस विषय पर अंग्रेजी में कई किताबें लिखी जा चुकी हैं । प्रदीप सौरभ के उपन्यास तीसरी ताली और पूर्व में प्रकाशित रेवती के उपन्यास अ ट्रूथ अबाउट में संयोगवश कई समानताएं देखी जा सकती है । अब अगर जनसत्ता संपादक ओम थानवी के यात्रा संस्मरण मुअनजोदड़ों पर बात करें तो हम देखतें हैं कि इस किताब की समीक्षा हिंदी की लगभग सभी पत्र-पत्रिकाओं में छपी । एक अनुमान के मुताबिक इस किताब की तकरीबन दो से तीन दर्जन समीक्षा तो मेरी ही नजर से गुजरी होगी। ओम थानवी यशस्वी संपादक हैं, देश विदेश में घूमते रहते हैं । उनका यह यात्रा संस्मरण अच्छा है लेकिन हिंदी में जो यात्रा संस्मरणों की समृद्ध परंपरा रही है उसमें मुअनजोदड़ों ने थोड़ा ही जोड़ा है । इसके अलावा साधना अग्रवाल की सूची में जो अहम नाम है वह है विश्वनाथ त्रिपाठी की किताब व्योमकेश दरवेश । इस किताब की भी खूब समीक्षा छपी लेकिन हिंदी के आलोचकों में इसको लेकर दो मत हैं । कुछ लोगों को यह कृति कालजयी लग रही है तो कई नामवर आलोचकों ने इस कृति को एक साधारण करार दिया जिसमें तथ्यात्मक भूलों के अलावा बहुत ज्यादा दुहराव है ।
मैंने दो सर्वेक्षणों का जिक्र इसलिए किया ताकि एक अंदाजा लग सके कि हिंदी में पिछले वर्ष किन रचनाओं को लेकर सर्वेक्षणकर्ताओं ने उत्साह दिखाया । मैं जो एक बड़ा सवाल खडा करना चाहता हूं वह यह कि हिंदी में पिछले वर्ष जो रचनाएं छपी उसको लेकर हिंदी साहित्य में कोई खासा उत्साह देखने को नहीं मिला । मैं यह बात पाठकों के पाले में डालता हूं कि वो यह तय करें और विचार करें कि क्या पिछले वर्ष कोई गालिब छुटी शराब, मुझे चांद चाहिए, चाक, आंवा, कितने पाकिस्तान जैसी कृतियां छपी । मैं सर्वेक्षणकर्ताओं और हिंदी के आलोचकों के सामने भी यह सवाल खड़ा करता हूं कि वो इस बात पर गौर करें कि बीते वर्षों में क्यों कोई अहम कृति सामने क्यों नहीं आ पा रही है । क्या हिंदी लेखकों के सामने रचनात्मकता का संकट है या फिर जो स्थापित लेखक हैं वो चुकने लगे हैं और नए लेखकों के लेखन में वो कलेवर या फिर कहें उनकी लेखनी पर अभी सान नहीं चढ़ पाई है कि हिंदी साहित्य जगत को झकझोर सकें । पिछले दिनों सामयिक प्रकाशन के सर्वेसर्वा और मित्र महेश भारद्वाज से बात हो रही थी तो मैंने यूं ही उनसे पूछ लिया कि पिछले कई सालों से आंवा जैसी कृति क्यों नहीं छाप रहे हैं । महेश जी ने जो बात कही उसने मुझे झकझोर दिया । महेश भारद्वाज के मुताबिक- आज का हिंदी का लेखक डूब कर लेखन नहीं कर रहा है और पाठकों के बदलते मिजाज को समझ भी नहीं पा रहा है, लेखकों से पाठकों की नब्ज छूटती हुई सी प्रतीत होती है । आज हिंदी के लेखकों का ज्यादा ध्यान लेखन की बजाए पुरस्कार और सम्मान पाने की तिकड़मों में लगा है । अगर हिंदी का लेखक इन तिकड़मों की बजाए अपने विषय पर ध्यान केंद्रित करे और विषय में डूब कर लिखे तो हिंदी जगत को पिछले एक दशक से जिस मुझे चांद चाहिए, आंवा और चाक जैसी कृतियों का इंतजार है वह खत्म गहो कता है । बातों बातों में महेश भारद्वाज ने बहुत बड़ी बात कह दी है जिसपर हिंदी के लेखकों को ध्यान देना चाहिए क्योंकि प्रकाशक होने की वजह से वो पाठकों के बदलते मन मिजाज से तो वाकिफ हैं ही ।

1 comment:

Nil nishu said...

पढ़कर अच्छा लगा.....