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Thursday, May 24, 2012

दक्षिण में कमजोर होती कांग्रेस

कांग्रेस के नेतृत्व में केंद्र में यूपीए ने लगातार आठ साल पूरे कर लिए । लेकिन राज्यों में कांग्रेस पार्टी की हालत अच्छी नहीं है । गिनती के चंद राज्यों में कांग्रेस की सरकार है । हालिया विधानसभा चुनावों में पार्टी की उत्तर प्रदेश, पंजाब और गोवा विधानसभा चुनावों में करारी हार हुई । हार के बाद एंटनी कमेटी ने उसके वजहों पर माथापच्ची की और पार्टी अध्यक्ष अपनी रिपोर्ट सौंप दी । रिपोर्ट में नेताओं के बेतुके बयानबाजी, बड़बोलापन को उत्तर प्रदेश में हार के लिए जिम्मेदार माना गया है लेकिन जो एक वजह तीनों जगह हार की बनी वो है गलत उम्मीदवारों को टिकट दिया जाना । दूसरी तरफ दिल्ली के नगर निकाय चुनाव में भी कांग्रेस का एक तरह से सफाया हो गया । लेकिन उस हार के लिए बीजेपी से ज्यादा कांग्रेस खुद जिम्मेदार है । पार्टी में उस हार के बाद से सर फुटौव्वल जारी है । लेकिन उत्तर भारत के इन राज्यों में चुनावी हार के शोरगुल के बीच कांग्रेस को दक्षिणी राज्यों में पार्टी की लगातार होती बुरी गत की चिंता है, इसके संकेत भी नहीं मिल रहे हैं । कुछ मौकों को छोड़कर दक्षिण हमेशा से परंपरागत रूप से  कांग्रेस के पक्ष वाले राज्य रहे हैं । इंदिरा गांधी भी अपने सबसे बुरे दौर में आंध्र प्रदेश के मेढक से चुनाव लड़ी थी । उसी तरह सोनिया गांधी ने भी उत्तर प्रदेश के अलावा कर्नाटक के बेल्लारी से चुनाव लड़ा था । लेकिन अगर राज्यवार विश्लेषण करें तो दक्षिण के राज्यों में कांग्रेस का ग्राफ लगातार नीचे जा रहा है । दक्षिणी राज्यों से कांग्रेस के पास चक्रवर्ती राजगोपालाचारी, के कामराज और जी के मूपनार जैसे मजबूत नेता हुए । लेकिन तमिलनाडू (उस वक्त के मद्रास)में भाषाई आधार पर 1962 के हिंसक आंदोलन के बाद से सूबे में कांग्रेस लगभग खत्म सी हो गई है । कभी करुणानिधि के डीएमके तो कभी जयललिता के एआईएडीएमके की उंगली पकड़कर कुछ सीटें हासिल कर लेती है । कांग्रेस पार्टी ने तमिलनाडू में अपनी स्थिति सुधारने की कोई कोशिश की हो ऐसा सतह पर तो दिखाई देता नहीं है । मूपनार तमिलनाडू से आखिरी मजबूत कांग्रेंसी नेता थे । उनको भी पार्टी संभाल नहीं पाई और अब चिंदबरम जैसे नेता तो हैं लेकिन कोई जमीनी नेता नहीं दिखता जो जयललिता या करुणानिधि को टक्कर दे सके । पांडिचेरी में भी पार्टी की हालत कमोबेश एक जैसी है ।

आंध्र प्रदेश में दो हजार नौ के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने शानदार प्रदर्शन किया और बयालीस में से तैंतीस सीटें जीती । आंध्र प्रदेश में वाई एस राजशेखर रेड्डी कांग्रेस के खेवनहार बने। राजशेखर रेड्डी के मुख्यमंत्री रहते उनके बेटे जगन रेड्डी पर अकूत दौलत कमाने का आरोप लगा । सीबीआई इसकी जांच कर रही है, हो सकता है जगम मोहन रेड्डी गिरफ्तार भी हो जाएं । राजशेखर रेड्डी की मौत के बाद आंध्रप्रदेश में कांग्रेस बिखर गई । पार्टी आलाकमान उनके बेटे जगन रेड्डी की महात्वाकांक्षाओं को समझने में गलती कर बैठी और उसके खिलाफ मोर्चा खोलकर पार्टी के लिए मुसीबत मोल ले ली । आज की तारीख में आंध्र प्रदेश की राजनीति में जगन एक मजबूत प्लेयर है । हो सकता है कि अगले लोकसभा चुनाव के पहले चंद सीटों के लिए कांग्रेस जगन से समझौता कर लेकिन उस संभावित समझौते से जगन की ही ताकत बढ़ेगी, कांग्रेस पार्टी और आलाकमान की तो कम होगी । आंध्र के हालात को समझने में सिर्फ जगन ही नहीं बल्कि चिरंजीव और तेलंगाना के मुद्दे पर भी कांग्रेस आलाकमान बुरी तरह से असफल रहा । केंद्रीय नेतृत्व चिरंजीव को तो साथ ले आए लेकिन बुरी तरह से बेइज्जत करने के बाद उनको राज्यसभा में लेकर आए । उसी तरह तेलंगाना के मुद्दे को चिदंबरम ने एक बयान में लगभग नए राज्य के गठन की बात मान ली थी । बाद में उससे पलटने से पार्टी की खासी किरकिरी हुई । यह सब इस वजह से हो रहा है कि पार्टी का शीर्ष नेतृत्व कड़े फैसले नहीं ले रहा या फिर उनके फैसलों पर अमल नहीं हो पा रहा । इंदिरा गांधी पर तानाशाह होने का आरोप लगता है लेकिन उनके वक्त किसी भी पार्टी क्षत्रप की औकात नहीं थी कि केंद्रीय नेतृत्व के फैसले को हल्के में ले ले । जब तेलंगाना में जबरदस्त हिंसा हो रही थी तो केंद्र की ओर से बातचीत की पहल हो रही थी लेकिन कोई भी केंद्रीय नेता आंदोलनकारियों के बीच जाने की हिम्मत नहीं कर पाया था । इस मामले में इंदिरा गांधी के साहस और दूरदर्शिता की कमी खलती है । 1965 की बात है जब 26 जनवरी को अंग्रेजी की जगह हिंदी को राष्ट्र भाषा का स्थान लेना था । उलके विरोध में तमिलनाडू में जबरदस्त हिंसा शुरू हो गई थी । उस वक्त के प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री को ये भरोसा था कि वक्त के साथ आंदोलन थम जाएगा । हिंसा और कांग्रेस विरोध इतना था कि कामराज जैसा बड़ा कांग्रेसी नेता भी वहां जाने की हिम्मत नहीं कर पा रहे थे और दिल्ली में बैठे थे । उसी वक्त इंदिरा गांधी ने तय किया और प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री को बिना बताए मद्रास पहुंच गई । वहां जाकर उन्होंने स्थानीय नेताओं से बात की और उन्हें ये भरोसा दिलाने में कामयाब हो गई कि केंद्र सरकार तमिलनाडू की जनता को विश्वास में लिए बगैर कोई कदम नहीं उठाएगी । इंदिरा गांधी के वहां पहुंचते और स्थानीय नेताओं से बातचीत के फौरन बाद हिंसा रुक गई । देश-विदेश में इंदिरा के इस कदम की तारीफ हुई थी । लेकिन जब तेलंगाना जल रहा था तो कांग्रेस के किसी नेता में यह साहस नहीं था कि वो आंदोलनकारियों के बीच जाकर उनसे बात कर उनका भरोसा जीतें । लिहाजा आंध्र प्रदेश के तेलांगना इलाके में पार्टी बेहद कमजोर हो गई है । रही सही कसर आंध्र के मुख्यमंत्री किरण रेड्डी ने पूरी कर दी है । उन्हें तो क्लू लेस चीफ मिनिस्टर तक कहा जाने लगा है ।

यही हालत कर्नाटक की भी है । वहां बीजेपी में घमासान मचा है और पार्टी नेताओं पर जिस तरह से भ्रष्टाचार के आरोप लग रहे है उस स्थित में वहां कांग्रेस आसानी से कम मेहनत से सत्ता में वापस आ सकती है । लेकिन कांग्रेस के नेता हालात से फायदा उठाने की बजाए एक दूसरे की जड़ें काटने में लगे हैं । वहां भी आलाकमान जमीन से जुड़े नेताओं को तवज्जो ना देकर डी के शिवकुमार और बी के हरिप्रसाद जैसे हवाई नेताओं की सलाह पर फैसले कर रहा है । कुछ दिनों पहले इस तरह की खबरें आई थी क बार फिर से विदेश मंत्री एस एम कृष्णा को कर्नाटक की कमान सौंपी जाएगी। अगर ऐसा होता है तो सिद्धरमैया, बी एल शंकर, कृष्णा बायरे गौड़ा और शरण प्रकाश जैसे जमीनी नेताओं से पार्टी को सहयोग मिल पाएगा इसकी उम्मीद कम ही है । आज वहां जरूरत इस बात की है कि कृष्णा जैसे बुढाते नेताओं की बजाए शंकर और बायरे गौड़ा जैसे नेताओं को आलाकमान मजबूती से आगे बढ़ाए । नहीं तो येदुरप्पा की सत्ता वापसी की तड़प और बेल्लारी बंधुओं की बेहिसाब दौलत फिर से भारतीय जनता पार्टी को सूबे में सत्तारूढ कर सकती है ।

केरल के पिछले विधानसभा चुनाव में बमुश्किल कांग्रेस की सरकार बन पाई थी । इसी के आधार पर कांग्रेस को लोकसभा चुनाव की तैयारी करनी चाहिए । हलांकि पार्टी के नेता ओमान चांडी की क्षमताओं पर कोई शक नहीं है लेकिन हाल के दिनों में उन्होंने मुस्लिम लीग के सामने जो समझौतावादी चेहरा दिखाया है वह अच्छा संकेत नहीं है । मुस्लिम लीग को एक मंत्रिपद देने के उनके फैसले पर पार्टी के अंदर गहरा असंतोष है । अब वक्त आ गया है कि सोनिया गांधी पार्टी को लेकर कुछ कड़े फैसले लें और असंतुष्ट नेताओं के मामलों में इंदिरा गांधी की तरह कड़ा रुख अख्तियार करे वर्ना उत्तर भारत में जो हश्र पार्टी का हुआ वही दक्षिण भारत में दुहराया जा सकता है । तीन साल पूरे होने के मौके पर सोनिया ने इस बात के संकेत अवश्य दिए हैं ।


  

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