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Saturday, May 19, 2012

रिश्तों की गर्माहट का संग्रह

चौथी दुनिया में लगभग तीन साल से ज्यादा से लिख रहे अपने स्तंभ में कविता और कविता संग्रह पर बहुत कम लिखा । साहित्य से जुड़े कई लोगों ने शिकायती लहजे में इस बात के लिए मुझे उलाहना भी दिया । कईयों ने कविता की मेरी समझ पर भी सवाल खड़े किए । दोनों चीजें जायज हैं । शिकायत भी लाजिमी है क्योंकि इतने लंबे समय से हर हफ्ते लिखे जाने वाले स्तंभ में मैंने दो या तीन बार कविता पुस्तकों की चर्चा की । जहां तक समझ की बात है वो भी बहुत हद तक सही ही है । मेरी कविता में इस वजह से रुचि नहीं है या फिर समझविकसित नहीं हो पाई कि क्योंकि जिस तरह की ज्यादातर कविताएं पिछले तीन-चार दशकों में लिखी गई वो या तो बहुत दुरुह हैं या फिर उसमें बेहद सपाट बयानी है । दोनों हालत में कविता का जो रस होता है वह गायब है, लिहाजा उसको समझना कम से कम मेरे लिए आसान नहीं है । उस तरह की कविताओं में क्रांति की, यथार्थ का, सामाजिक विषमताओं का इतना ओवरडोज है कि वह आम हिंदी पाठकों से दूर होती चल गई । यह अनायास नहीं है कि आज कविता के पाठक क्यों कर कम होते जा रहे हैं । क्यों कवि सम्मेलनों का आयोजन सिमटता चला जा रहा है । जो हो भी रहे हैं वो दस बीस कवियों के बीच बैठकर एक दूसरे की कविताओं को सुन लेने भर जैसा आयोजन होता है । पाठकों और कविता प्रेमियों से कविता दूर होती चली जा रही है । मुझे जो वजह समझ में आती है वह यही है कि कविता में जो रस तत्व होता था या जिसको सुनना अच्छा लगता था वह यथार्थ की बंजर जमीन पर सूख गया । लिहाजा कविता में एक रूखापन सा आ गया । कविताएं नारेबाजी में तब्दील हो गई । कविताएं क्रांति करवाने में जुट गई । मेरे तर्कों को कविता प्रेमी यह कह कर खारिज करने की कोशिश करेंगे कि यह बहुत पुरना तर्क है  और तुकांत और अतुकांत कविताओं को लेकर उठे विवाद में ये तर्क लंबे समय से दिए जाते रहे हैं । चलिए अगर एक बारगी यह मान भी लिया जाए तो कि तर्क पुराने हैं और उसकी बिनाह पर किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा जा सकता है तो फिर उन आलोचकों को मैं चुनौती देता हूं कि वो इस बात की खोज करें और हिंदी साहित्य को यह बताएं कि कविता की लोकप्रियता कम क्यों हो रही है । मैं यहां जानबूझकर लोकप्रियता शब्द का इस्तेमाल कर रहा हूं क्योंकि जन और लोक की बात करनेवाले कवियों और आलोचकों ने ही कविता को लोकप्रिय होने से रोक दिया है । कविता को शोध आधारित कथ्य और अति बौद्धिक बनाने के चक्कर में यथार्थ से भर दिया गया । इसी अति बौद्धिकता और भोगे हुए यथार्थ ने कविता को लोक और जन से दूर कर दिया और उसको किताबों में या फिर आलोचकों के लेखों का विषय बना दिया । अंग्रेजी के कवि विलियम वर्ड्सवर्थ का भी मानना था कि पॉएट्री इज द स्पांटेनियस ओवरफ्लो ऑफ पॉवरपुल फीलिंग्स रीकलेक्टेड उन ट्रैंक्विलिटीज ।
काफी दिनों पहले मुझे कवि मित्र तजेन्दर लूथरा के घर पर आयोजित छोटी से कवि गोष्ठी में जाने का अवसर मिला था । जिसमें विष्णु नागर, मदन कश्यप, लीलाधर मंडलोई, पंकज सिंह, सविता सिंह, लक्ष्मी शंकर वाजपेयी, राजेन्द्र शर्मा समेत कई दिग्गज कवियों को सुनने का अवसर मिला था। उस कवि गोष्ठी में कुछ कवियों को छोड़कर वैसी ही दुरूह कविताएं सुनने को मिली । मैं उन कवियों का नाम लेकर नाहक विवाद खड़ा नहीं करना चाहता लेकिन कई कवियों की कविताएं तो मुझे बिल्कुल समझ में नहीं आई थी । मैं उनकी कविताओं को नहीं बल्कि अपनी समझ को इसके लिए जिम्मेदार मानता हूं । हां उस कवि गोष्ठी में ही कई कवियों की कविताएं बेहतरीन थी और समझ में आनेवाली भी थी । मैं उन कवियों का भी नाम नहीं ले रहा हूं क्योंकि इससे भी एक अलग तरह का खतरा है । हिंदी साहित्य की राजनीति को जाननेवालों के लिए उस खतरे को समझना आसान है । मैं यहां सिर्फ एक कवयित्री का नाम ले रहा हूं जिनकी कविताएं मुझे पसंद आई थी- उनका नाम है ममता किरण । मैं उनकी कविताओं का जिक्र चौथी दुनिया के अपने स्तंभ में पहले भी कर भी चुका हूं । ममता किरण का नाम मैंने जरूर सुना था लेकिन कविता की राजनीति और उसका भविष्य तय करनेवालों की सूची में कभी उनका नाम देखा-पढ़ा नहीं था । अगर मेरी स्मृति मेरा साथ दे रही है तो पहली कवि गोष्ठी में उन्होंने स्त्री और नदी नाम की कविता का पाठ किया था । कविता मुझे पसंद आई । गोष्ठी खत्म होने के बाद मैं उनको बधाई देना चाहता था लेकिन किन्हीं वजहों से वह संभव नहीं हो पाया । छह आठ महीने बाद एक बार फिर से तजेन्दर जी के यहां ही गोष्ठी हुई । फिर से अन्य कवियों के अलावा ममता किरण ने अपनी कविताएं सुनाकर वहां मौजूद लोगों की प्रशंसा बटोरी । दूसरी गोष्ठी के बाद मैंने उनको उनकी कविताओं के लिए बधाई दी । स्त्री और नदी कविता के लिए भी ।
अभी हाल ही में जब मुझे डाक से ममता किरण का नया कविता संग्रह- वृक्ष था हरा भरा (किताबघर प्रकाशन, अंसारी रोड, नई दिल्ली) मिला तो मैंने संग्रह की 56 कविताएं एक झटके में पढ़ ली। कविताओं से गुजरते हुए मुझे अच्छा लगा । कवयित्री का रेंज बहुत व्यापक है । उनकी कविताओं में परिवार प्रमुखता से आता है वहां मां है, मां का हठ है , बेटी है , बड़े भैया हैं । मां पर लिखते हुए कवयित्री परोक्ष रूप से बेटे के नौकरी या फिर कारोबार(जो भी कवयित्री ने सोचा हो ) करने को लेकर बाहर चले जाने के बाद मां के दर्द को समेटा है । मां अपने बेटे को खत लिखवाती हैं जिसमें होता है अब जरूरत नहीं/तुम्हारे भेजे/पैसे और दवाओं की/सिर्फ तुम आ जाओ/बैठो मेरे पास/तुम्हारे बचपन की स्मृतियों में/ तलाशूं /अपना अतीत/अपने जीवन की संतुष्टि । इस एक छोटी सी कविता में गांव से लेकर महानगर तक की मां का दर्द है । जिस बच्चे को पढ़ा लिखाकर अपने सीने से लगाकर पाला पोसा बड़ा किया वह उसे छोड़कर चला गया है । उसका ख्याल भी रखता है । उम्र के उस पड़ाव पर जब देखभाल से ज्यादा जरूरत होती है इमोशनल सपोर्ट की तब मां को अकेलेपन का दंश झेलना पड़ता है । ठीक उसी तरह बड़े भैया कविता में भी कवयित्री ने एक पूरी पीढ़ी के ट्रांसफॉर्मेशन को अपनी कविकता के माध्यम से कहा है । एक लड़का जब पिता बनता है तो उसमें अपने मां की वही सारी आदतें आ जाती है जिसका वो जवानी में मजाक उड़ाया करता था । उम्र के साथ संतान मोह में किस तरह से लोगों की मानसिकता बदलती है उसका चित्रण है इस कविता में । इस संग्रह में एक कविता है संबोधन- कंक्रीट के इस जंगल में/एकदमन अप्रत्याशित/एक बुजुर्ग से अपने लिए/बहूरानी संबोधन सुनकर/जिस तरह मैं चौंकी/उसी तरह अनायास/श्रद्धा से झुक भी गई/बहूरानी कहनेवाले के सामने । इस कविता के बारे में संग्रह के ब्लर्ब पर कवि केदारनाथ सिंह लिखते हैं- इस संग्रह में जहां जाकर मैं रुका वह संबोधन शीर्षक कविता थी । इन पंक्तियों में एक मानवीय संस्पर्श है जो अच्छा लगता है । कहीं कहीं शुभाकांक्षा की प्रतिध्वनि भी सुनाई पड़ती है कुछ पंक्तियों में और शायद इस रचनाकर्मी की कविता का मूल स्वर भी यही है । केदार जी को इस बात का संशय क्यों है कि शुभाकांक्षा की प्रतिध्वनि ममता किरण की कविताओं का मूल स्वर है । मूल ना भी कहें तो अनेक स्वरों में से एक स्वर यह भी है जो एक छुपी हुई धारा की तरह कमोबेश हर जगह मौजूद है । इस कविता की भूमिका अनामिका ने लिखी है और उन्होंने बिल्कुल सही लिखा है कि ग्रहण के समय खाने-पीने की चीजों में मां तुलसी-पत्र डाल देती थी जैसे हम किताबों में फूल डाले देते थे परंपरा के पन्नों में ममता किरण जी की कविता ऐसा ही कुछ डाल देती है और काफी नफासत से । अब यहां मैं पाठकों पर छोड़ता हू कि वो तय करें कि कविता को लेकर मेरी जो राय है उसको अनामिका का कथन पुष्ट करता है या नहीं । क्योंकि अनामिता ग्रहण और तुलसी-पत्र के प्रतीकों में बहुत बड़ी बात कह गई हैं। सोचिए समझिए और निषकर्ष पर पहुंचिए । आमीन ।

5 comments:

ब्लॉग बुलेटिन said...

इस पोस्ट के लिए आपका बहुत बहुत आभार - आपकी पोस्ट को शामिल किया गया है 'ब्लॉग बुलेटिन' पर - पधारें - और डालें एक नज़र - बामुलिहाज़ा होशियार …101 …अप शताब्दी बुलेट एक्सप्रेस पधार रही है

sweta said...

नमस्ते सर ...मै श्वेता आकाशवाणी में एक सम्पादक के रूप में कार्य करती हूँ !मैंने आपकी समीक्षा रिश्तो की गर्माहट का संग्रह ममता मैम की कविता वृक्ष था हरा भरा के बारे में पढ़ा ..आपने कम शब्दों में जिस प्रकार कविता की समीक्षा की है वो मुझे बहुत अच्छा लगा ! बिना कविता पढ़े ही कविता की गहराई और मार्मिकता पता चल गयी..शुक्रिया

sweta said...

नमस्ते सर ...मै श्वेता आकाशवाणी में एक सम्पादक के रूप में कार्य करती हूँ !मैंने आपकी समीक्षा रिश्तो की गर्माहट का संग्रह ममता मैम की कविता वृक्ष था हरा भरा के बारे में पढ़ा ..आपने कम शब्दों में जिस प्रकार कविता की समीक्षा की है वो मुझे बहुत अच्छा लगा ! बिना कविता पढ़े ही कविता की गहराई और मार्मिकता पता चल गयी..शुक्रिया

sweta said...

शुक्रिया सर ...ये तो बहुत अच्छी कोशिश एक दूसरे से सम्पर्क में रहने के लिए और अपनी अभिव्यक्ति व्यक्त करने की ..मुझे बहुत ख़ुशी है की आपने मुझे शामिल किया .....

अशोक जमनानी said...

Badhai Sach kahne ke liye