हिंदी की साहित्यक पत्रिका पाखी में श्रवण कुमार गोस्वामी के छपे एक लेख ने सर्द साहित्यिक माहौल को गरमा दिया है । अपने लंबे लेख में,वरिष्ठ उपन्यासकार (उनके परिचय में छपा विशेषण) श्रवण कुमार गोस्वामी ने उपन्यासकार महुआ माजी पर अपनी स्मृतियों और डायरी के आधार पर कई संगीन इल्जाम लगाए हैं । गोस्वामी के लेख में कई आरोप हैं लेकिन उनका दर्द ये है महुआ माजी ने उनसे अपने उपन्यास -मैं बोरिशाइल्ला- की पांडुलिपि ठीक करवाई लेकिन जब उपन्यास छपकर आया तो उसमें उनके लिए आभार के दो शब्द भी नहीं थे । अगर ये सही है तो महुआ माजी को अपना भूल सुधार करना चाहिए लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या श्रवण कुमार गोस्वमी ने इस शर्त और करार पर महुआ की पांडुलिपि ठीक की थी कि उनको आभार प्रकट किया जाएगा । लगभग पांच पृष्ठों के अपने लेख में श्रवण कुमार गोस्वामी ने जो लिखा है उससे यह लगता है कि महुआ माजी का उपन्यास -मै बोरिशाइल्ला -उन्होंने या तो लिखा नहीं है या जो अंश लिखा है वो बेहद कमजोर है । गोस्वामी के इस लेख में पूरे तौर पर उनकी मर्दवादी सोच हावी है । इस पूरे लेख में पुरुष की अहंकारी सोच भी नजर आती है जो हमेशा से यह सोचती है कि एक स्त्री इस वजह से मशहूर हो रही है कि वो रूपसी है । गोस्वामी भी 31 जुलाई 2004 की अपनी डायरी में लिखते हैं - चूंकि यह उपन्यास एक रूपसी का है इसलिए लोग इसे फुलाएंगे जरूर । महुआ को अभी ही ऐसा सत्कार मिल चुका है कि वह गलतफहमी में जीने लगी है । कभी कभी मुझे ऐसी प्रतीति भी होती है कि यह कुछ पाने के लालच में कुछ गंवा भी सकती है । यहां गोस्वामी ने कुछ गंवाने को स्पष्ट तो नहीं किया है लेकिन उनका इशारा साफ है । और यही इशारा हमें उनकी मर्दवादी सोच को जानने का रास्ता भी देती है । यह वही मानसिकता है जिसमें कांग्रेस के नेता संजय निरुपम टेलीविजन चैनल की डिबेट में भारतीय जनता पार्टी की सांसद स्मृति ईरानी को कह देते हैं कि कल तो तुम टीवी में ठुमके लगाती थी और आज राजनीति पर ज्ञान दे रही हो । यह वही मानसिकता है जिसमें कोई मुल्ला शबाना आजमी को नाचने गाने वाली करार देता है । यह वही मानसिकता है जिसमें एक केंद्रीय मंत्री यह कहता है कि पुरानी होनी पर बीबी का मजा खत्म हो जाता है । यह वही मानसिकता हो जो किसी भी महिला की प्रसिद्धि को पचा नहीं पाते हैं और अवसर आने पर उसके इर्द गिर्द ऐसा ताना बाना बुनते हैं कि वो उसमें उलझकर रह जाए ।
श्रवण कुमार गोस्वामी का साहित्यिक
पत्रिका पाखी में छपा लेख उसी मानसिकता का बेहतरीन नमूना है । इस लेख में पहले तो श्रवण
कुमार गोस्वामी ने यह साबित करने की कोश्श की है कि महुआ माजी उनके बहुत करीब थी और
उनके घर मिठाई और पेस्ट्री लेकर आया करती थी । लेकिन बाद में उनकी भयंकर बीमारी के
बारे में जानने के बावजूद भी उन्हें अपनी गाड़ी से घरतक छोड़ने के बारे में पूछने तक
की औपचारिकता नहीं निभाती । अरे इन व्यक्तिगत बातों से साहित्य का क्या लेना देना ।
साहित्य का भले ही लेना देना नहीं हो लेकिन इस पूरे लेख का इन्हीं सब से लेना देना
है – कि कल तक मेरे घर पर मिठाई और पेस्ट्री का डब्बा पहुंचानेवाली
लेखिका अब मुझे इग्नोर कैसे कर रही है । यहां महुआ माजी से चूक होती है । उन्हें गोस्वामी
जी की वरिष्ठता और उनके साथ के अपने वर्षों के संबंधों का ध्यान रखना चाहिए था । महुआ
की इसी चूक पर गोस्वामी जी कुपित हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि इसी क्रोध के वशीभूत
होकर यह लेख लिखा गया है । जाहिर सी बात है जब क्रोध में कोई भी काम होता है तो वहां
ना बुद्धि पर नियंत्रण रहता है ना ही विवेक पर । और जब बुद्धि और विवेक दोनों का सहारा
लिए बगैर लेख लिखे जाते हैं तो उसमें कई तथ्यात्मक भूलें हो जाती हैं । जैसे अपने इस
लेख में गोस्वामी जी ने लिखा है कि- आश्चर्य इस बात का है कि हिंदी के प्रखर आलोचक
नामवर सिंह, कृष्णा सोबती और हिंदी फिल्मों के सुप्रसिद्ध पटकथा लेखक एवं गीतकार तीनों
व्यक्तियों ने मिलकर महुआ माजी के उपन्यास (?) ‘मरंग गोड़ा नीलकंठ हुआ’ की पांडुलिपि को तीसरे राजकमल कृति सम्मान के लिए चुना और
महुआ माजी को फणीश्वरनाथ रेणु पुरस्कार प्रदान किया । गोस्वामी जी ने तथ्यों को जाने
बगैर कृष्णा सोबती और जावेद अख्तर पर सवाल खड़े कर दिए । जबकि महुआ को फणीश्वरनाथ रेणु
पुरस्कार को चुनने के लिए बनी समिति में नामवर सिंह के अलावा आलोचक विजय मोहन सिंह
और विश्वनाथ त्रिपाठी थे । इतना ही नहीं श्रवण कुमार गोस्वामी अपनी तथ्यात्मक भूल के
आधार पर हिंदी आलोचना के शीर्ष पुरुष नामवर सिंह से सवाल करते हुए उनपर तंज भी कस रहे
हैं । गोस्वामी जी को यह नहीं मालूम कि हिंदी के पाठक बेहद सजग हैं और उन्हें बरगलाना
आसान काम नहीं है । गोस्वामी जी का दावा है कि -मैं बोरिशाइल्ला- की पांडुलिपि के प्रत्येक
पृष्ठ पर उनकी अंगुलियों के स्पर्श के चिन्ह हैं । हो सकता है कि उनका यह दावा सही
भी हो लेकिन जब वो लिखते हैं कि – मैं बोरिशाइल्ला उपन्यास के
पाठकों को अच्छी तरह पता है कि इस उपन्यास में कहां कहां फांक है । इसके पूर्वाद्ध
में बांग्लादेश की मुक्ति की कथा आती है और उतरार्ध में बंबई (बेकरी कांड) तथा कलकत्ता
की घटनाएं आती हैं । पूर्वार्ध में बांग्लादेश का जो चित्रण है उसमें एक सधी हुई लेखनी
के दर्शन होते हैं और उत्तरार्ध में कथानक को तोड़-जोड़ के सहारे और आगे बढ़ाने की
चेष्टा देखने को मिलती है । इस हिस्से में लेखक का वह लेखन कौशल दिखाई नहीं देता है,
पूर्वार्ध में जो दर्शनीय है ।‘ यहां भी गोस्वामी जी से चूक
हो जाती है और वो उत्तरार्ध को पूर्वार्ध और पूर्वार्ध को उत्तरार्ध लिख देते हैं ।
इससे भी इस लेख और आरोपों की मंशा पर सवालों के कठघरे में आ जाती है ।
दरअसल जिस मर्दवादी प्रवृत्ति
और मानसिकता का संकेत मैंने उपर किया है वो
हिंदी में काफी लंबे अरसे से चल रहा है । जिस भी महिला लेखिका ने अपने दौर में उपन्यास
या कहानी लिखकर प्रसिद्धि के पायदान पर कदम रखा तो उसके खिलाफ एक खास किस्म का माहौल
तैयार कर उनके लेखन को कमतर कर आंकने की कोशिश की गई । किसी दौर में मृदुला गर्ग पर
भी आरोप लगे थे कि उनके लिए कोई और ही लेखन करता है । कालांतर में यह बात गलत साबित
हुई और मृदुला जी ने एक के बाद एक बेहतरीन कृति देकर हिंदी साहित्य में अपनी प्रतिभा
का लोहा मनवा लिया । उसके बाद नब्बे के दशक में जब मैत्रेयी पुष्पा की सफलता का परचम
हिंदी साहित्य के आकाश पर लहराने लगा तो उनके खिलाफ भी इस तरह के आरोप लगे थे । मैत्रेयी
पुष्पा पर आरोप लगे कि राजेन्द्र यादव उनके उपन्यासों को रिराइट करते हैं । मैत्रेयी
पर आरोप लगाने वाले यह भूल गए थे वो जिस भावभूमि पर लिखती हैं वो यादव जी के लेखन क्षेत्र
में कभी रहा नहीं है । फिर किसी और को लेकर आरोप लगे लेकिन बाद में सब के सब गलत साबित
हुए । मैत्रेयी पुष्पा पर पुरुषों के अलावा महिलाओं ने भी आरोप लगाए थे । तो हिंदी
में इस तरह की एक गलत परंपरा रही है जिसपर लगाम लगाने की जरूरत है । हिंदी में हाल
के दिनों में अगर देखा जाए तो चर्चित कृतियों का नितांत अभाव नजर आता है । अब कोई इदन्नम,
चाक, आवां, तत्तवमसि, कितने पाकिस्तान, बशारत मंजिल जैसी कृति नहीं आ रही जिसपर गंभीर
विमर्श हो सके । बजाए इसपर चिंता करने के आज हमारा हिंदी समाज इस बात में उलझा हुआ
है कि कौन किसके लिए लिखता है और किसने किसका अहसान नहीं चुकाया । बड़ा सवाल यह है
कि हिंदी के रचनाकारों के चिंता के केंद्र में जो बात होनी चाहिए वो हाशिए पर है ।
आज हिंदी में रचनाशीलता पर सवाल खड़े हो रहे हैं । हिंदी के नए लेखक पाठकों की मनोदशा
को भांप नहीं पाने की वजह से पिछड़ते नजर आ रहे हैं । प्रकाशकों के लाख कोशिशों के
बावजूद, आलोचकों की सराहना के बावजूद आज अगर हिंदी की कोई कृति सारा आकाश या आपका बंटी
या चितकोबरा या राग दरबारी को नहीं छू पा रहा है तो साहित्यक पत्रिकाओं में इस बात
पर बहस की जानी चाहिए । आज हमारे यहां इस बात पर क्यों कोई विमर्श नहीं होता कि हिंदी
के लेखक को अबतक नोबेल पुरस्कार क्यों नहीं मिला । विमर्श के केंद्र में रचना होनी
चाहिए रचनाकार का व्यक्तिगत व्यवहार नहीं । जबतक हम हिंदी के लोग इन बातों से उपर उठकर
नहीं सोचेंगे तबतक इसी तरह के आरोप लगते रहेंगे और मर्दवादी सोच से लबरेज लेखक प्रसिद्धि
के पायदान पर कदम रखनेवाली महिला लेखिकाओं को अपनी आलोचनाओं से छलनी करते रहेंगे ।
वक्त आ गया है कि हिंदी समाज अब गंभीरता से लेखन पर बात करे और आरोपों प्रत्यारोपों
के चक्रव्यूह से निकलकर हिंदी की पताका को फहराने के लिए प्रयत्नशील हो ।