इन दिनों उत्तर प्रदेश में साहित्यिक
पुरस्कारों की बाढ़ आई हुई है । मायावती के शासनकाल के दौरान रुके या रोके गए साहित्यक
पुरस्कारों को अर्पित किया जा रहा है । मुख्यमंत्री अखिलेश यादव इन पुरस्कार अर्पण
समारोह में शिरकत कर रहे हैं और गाजे बाजे के साथ पुरस्कृत साहित्यकारों का सम्मान
किया जा रहा है । पुरस्कार समारोह में युवा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की उपस्थिति से
उम्मीद भी जगती है कि अब उत्तर प्रदेश की समृद्ध साहित्यक विरासत को इस शासनकाल में
फिर से अहमियत मिलेगी । मुख्यमंत्री ने पिछले शासनकाल में पुरस्कारों के बंद होने को
दुर्भाग्यपूर्ण करार देते हुए अगले साल से सम्मान राशि बढ़ाने का भी ऐलान किया । अखिलेश
यादव ने यह भी कहा कि साहित्य शाश्वत होता है और वो समाज को रास्ता भी दिखाता है ।
यह सब तो ठीक था, उम्मीद भी जगा गया । लेकिन इन पुरस्कारों से कई सवाल भी खड़े हो गए
हैं । इस बार का यश भारती पुरस्कार हंस के यशस्वी संपादक राजेन्द्र यादव को दिया गया
है और सम्मान स्वरूप उन्हें ग्यारह लाख रुपए भी मिलेंगे । आमतौर पर यादव जी पुरस्कार
नहीं लेते लेकिन लखटकिया पुरस्कारों से उन्हें परहेज भी नहीं है । उनका तर्क होता है कि पुरस्कार राशि को
वो हंस में लगा देते हैं और हंस पत्रिका को चलाने के लिए वो कहीं से भी राशि ले सकते
हैं । तमाम विरोध के बावजूद बीजेपी शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों का गुणगान करनेवाले
विज्ञापन तो वो छापते ही रहते हैं । लेकिन यह एक अवांतर प्रसंग हैं । लेकिन यादव जी
के अलावा जिन दो लेखकों को यह पुरस्कार दिया गया है, साहित्य जगत अबतक उनसे अपरिचित
है । यह उसी तरह से है जब साहित्य अकादमी के जनरल काउंसिल में प्रोफेसरों के कॉकस एक
दूसरे को चुनते हैं जिनका साहित्य में कोई योगदान नहीं है ।
बात हिंदी में पुरस्कारों की हो रही
थी । हिंदी में पुरस्कारों की महत्ता और प्रतिष्ठा लगातार कम होती जा रही है । हिंदी
में सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कार साहित्य अकादमी सम्मान को माना जाता था लेकिन पिछले एक
दशक से जिस तरह से साहित्य अकादमी पुरस्कारों की बंदरबांट हुई है उससे अकादमी पुरस्कारों
की साख पर बट्टा लगा है । दो हजार एक से लेकर दो हजार दस तक की साहित्य अकादमी पुरस्कारों
के लिए बनाई गई पुस्तकों की आधार सूची पर नजर डालने से यह बात और साफ हो जाती है ।
दो हजार तीन में जब कमलेश्वर को उनके उपन्यास - कितने पाकिस्तान - पर साहित्य अकादमी
पुरस्कार दिया गया था तो उस वक्त की आधार सूची में इकतीस लेखकों के नाम थे जिसे मृदुला
गर्ग ने तैयार किया था । इस सूची में तेजिन्दर, गौरीनाथ, हरि भटनागर, संजना कौल और
जयनंदन आदि के नाम शामिल थे । तब अकादमी पर यह आरोप लगा था कि कमलेश्वर का नाम पहले
से तय था । कई अखबारों ने तो उस वक्त पुरस्कारों के ऐलान के पहले ही उनके नाम का खुलासा
कर दिया था । दो हजार चार में तो और भी आरोप लगे थे । पुरस्कार मिला था वरिष्ठ और चर्चित
कवि वीरेन डंगवाल को उनके कविता संग्रह दुश्चक्र में स्रष्टा पर। उस वक्त के संयोजक
थे उपन्यासकार गिरिराज किशोर और आधार सूची तैयार की थी कहानीकार प्रियंवद ने । हद तो
तब हो गई थी जब निर्णायक मंडल के तीन सदस्यों में से दो कमलेश्वर और श्रीलाल शुक्ल
बैठक में उपस्थित ही नहीं हो सके थे । अपनी टिप्पणी में निर्णायक मंडल के तीसरे सदस्य
से रा यात्री ने लिखा- दुश्चक्र में स्रष्टा- काव्य कृति को हम सभी निर्णायक मंडल के
सदस्य एक समान प्रथम वरीयता देते हैं और साहित्य अकादमी के दो हजार चार के पुरस्कार
के लिए सहर्ष प्रस्तुत करते हैं । लेकिन संस्तुति पत्र पर सिर्फ उनके ही दस्तखत हैं
। उसी जगह हिंदी भाषा के तत्कालीन संयोजक गिरिराज किशोर ने लिखा- श्री श्रीलाल शुक्ल
एवं कमलेश्वर जी उपस्थित नहीं हो सके । उन्होंने अपनी लिखित संस्तुति बंद लिफाफे में
भेजी है । श्रीलाल जी ने ज्यूरी के उपस्थित सदस्य से रा यात्री से फोन पर लंबी बातकर
दुश्चक्र में स्रष्टा को 2004 के पुरस्कार के लिए समर्थन दिया । हलांकि साहित्य अकादमी
के दस्तावेजों में श्रीलाल जी की संस्तुति मौजूद नहीं है । कमलेश्वर का बीस दिसंबर
खत है जो इक्कीस दिसंबर की बैठक के पहले प्राप्त हो गया था । इस तरह की जल्दबाजी ने
सवाल भी खड़े किए । वीरेन डंगवाल की प्रतिष्ठा पर किसी को कोई शक नहीं है । वो साहित्य
अकादमी पुरस्कार डिजर्व भी करते थे लेकिन जिस तरह की अफरातफरी में उन्हें पुरस्कार
देने का ऐलान किया गया उससे उसकी विश्वसनीयता संदिग्ध हो गई । कालांतर में अकादमी पुरस्कारों
के चयन को लेकर कई गंभीर आरोप लगे । नतीजा यह हुआ कि अकादमी पुरस्कार को हिंदी जगत
में उस तरह का उत्साह नहीं रहा जो नब्बे के दशक में हुआ करता था । अब अकादमी में पहली
बार हिंदी भाषा के प्रतिनिधि प्रोफेसर विश्वनाथ तिवारी अध्यक्ष बने हैं । उनपर यह महती
जिम्मेदारी है कि अकादमी पुरस्कारों की विश्वसनीयता और साख बहाल करें । इसके अलावा भी हिंदी में कई पुरस्कार दिए जाते हैं । कुछ पुरस्कार तो ऐसे हैं जो बकायदा लेखकों से एक निश्चित राशि के बैंक ड्राफ्ट के साथ आवेदन मांगते हैं । हिंदी के पुरस्कार पिपासु लेखक बड़ी संख्या में इस तरह के पुरस्कारों के लिए आवेदन भेजते हैं । कहना नहीं होगा कि हिंदी के बहुतायत लेखकों में बगैर काम किए या यों कहे कि हल्का काम करके भी प्रसिद्धि की ललक ऐसे पुरस्कारों को प्राणवायु प्रदान करती है । उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में कई ऐसे पुरस्कार हैं जिनकी धनराशि तो पांच से दस हजार रुपए तक होती है लेकिन उन पुरस्कारों की आड़ में साहित्य का खेल खेला जाता है । जिस पत्रिका की कोई पहचान नहीं बन पाती है या उसके दो एक अंक निकले होते हैं वह भी अपने नाम पर शॉल श्रीफल देकर साहित्याकारों और लेखकों को उपकृत करते हैं और उसके एवज में जाने क्या क्या होता है । लेकिन जो भी होता है वह हिंदी साहित्य की प्रतिष्ठा को धूमिल करता है । सवाल यह उठता है कि हिंदी के लेखकों में पुरस्कार को लेकर इतनी भूख क्यों है । क्योंकर वो हजार दो हजार के पुरस्कार के लिए सारे दंद फंद और पुरस्कार देनेवालों की चापलूसी पर उतारू है । अगर हम विस्तार से इसकी पड़ताल करते हैं तो जो तस्वीर सामने आती है वह बेहद निराशाजनक है । हिंदी के लेखकों जिस एक प्रवृत्ति का लागातार क्षय हो रहा है वह है मेहनत से दूर भागने का । बगैर व्यापक शोध के और कल्पना के आधार पर यथार्थ लिखने की प्रवृत्ति ने साहित्य का बड़ा नुकसान किया है । विचारधारा वाली साहित्य ने तो नुकसान किया ही । इसके अलावा जो एक और प्रवृत्ति नई पीढ़ी के साहित्यकारों लेखकों में दिख रहा है वह है जल्दबाजी, धैर्य की कमी, कम वक्त में सारा आकाश छेक लेने की तमन्ना और वह भी किसी कीमत पर । इसी मानसिकता का फायदा उठाकर कुछ साहित्य के कारोबारी पुरस्कारों का कारोबार करते हैं और उसमें फंसा कर लेखकों को उलझा देते हैं । नवोदित लेखक तो कोंपल की तरह होता है जिसे बहुत सावधानी से विकसित किया जाता है लेकिन हिंदी के नए लेखक तो शुरू से ही आसमान पर चढ़ने की तमन्ना पाले बैठे रहते हैं । महात्वाकांक्षी होना बुरी बात नहीं है। हर किसी को महात्वाकांक्षी होना चाहिए लेकिन उसमें अति के जुड़ने से जो बेचैनी आ जाती है वह एक खतरनाक संकेत है और पुरस्कार देनेवाले इस प्रवृत्ति को बढ़ाकर खतरा और बढ़ा देते हैं । हिंदी के कर्ता धर्ताओं की यह जिम्मेदारी है कि वो इस वक्त आगे आएं और टुटपुंजिए पुरस्कारों को चिन्हित कर उसके बहिष्कार का विरोध करें ताकि हिंदी से पुरस्कारों के कारोबार पर रोक लगाई जा सके ।
1 comment:
यह वही यश भारती पुरस्कार है जिसे अभिषेक बच्चन को प्रदान करते हुए तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने उनकी तुलना विवेकानंद से करते हुए कहा था,जब विवेकानंद कम उम्र में महान हो सकते हैं तो अभिषेक क्यों नहीं.....
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