एक अनुमान के मुताबिक हिंदी में कहानी कविता
उपन्यास आदि को मिलाकर तकरीबन पचास छोटे बड़े पुरस्कार दिए जाते हैं । इसके अलावा अनेक
राज्य सरकारें भी थोक भाव से पुरस्कार बांटती हैं । इस साल भी हिंदी में काफी पुरस्कार
दिए गए लेकिन अपेक्षाकृत कम पुरस्कार विवादित हुए । साहित्य के क्षेत्र में सबसे बड़ा
नोबेल पुरस्कार इस बार फ्रांस के लेखक पैट्रिक मोदियानों को दिया गया । भारत के सबसे
प्रतिष्ठित पुरस्कारों में से एक ज्ञानपीठ पुरस्कार कवि केदारनाथ सिंह को दिया गया
। हलांकि यह 2013 का पुरस्कार था लेकिन एलान दो हजार चौदह में किया गया । केदारनाथ
सिंह को पुरस्कार देनेवाली छह सदस्यीय समिति के अध्यक्ष मशहूर ओडिया कवि सीताकांत महापात्र
थे । इस साल का साहित्य अकादमी पुरस्कार भोपाल के लेखक रमेशचंद्र शाह को उनके उपन्यास
विनायक के लिए अकादमी पुरस्कार से नवाजा गया । मशहूर शायर मुनव्वर राणा को उर्दू में
लेखन के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला है जबकि पंजाबी भाषा के जसविंदर को साहित्य
अकादमी पुरस्कार देने का एलान किया गया । धन के लिहाज से समृद्ध श्रीलाल शुक्ल इफको
सम्मान कथाकार मिथिलेश्वर को दिया गया । इस बार का सरस्वती सम्मान बुजुर्ग लेखक गोविंद
मिश्र को उनके उपन्यास धूल पौधों पर के लिए दिया गया । जबकि प्रतिष्ठित मूर्तिदेवी
सम्मान मशहूर ओडिया लेखक हरप्रसाद दास को दिया गया । नवलेखन के लिए भारतीय ज्ञानपीठ
का पुरस्कार योगिता यादव को उसकी कहानी क्लीन चिंट पर और कविता के लिए अरुणाभ सौरभ
को दिया गया । इस बार साहिक्य अकादमी का युवा पुरस्कार कुमार अनुपम के खाते में गया
। लखनऊ से शैलेन्द्र सागर कथाक्रम सम्मान देते हैं जो इस बार वरिष्ठ लेखिका नासिरा
शर्मा को समारोहपूर्वक दिया गया । कविता के लिए शमशेर सम्मान वरिष्ठ कवि ऋतुराज को
जबकि सृजनात्मक लेखन के लिए यह पुरस्कार सुधीर विद्यार्थी को दिया गया । कविता के लिए
ही प्रतिष्ठित भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार आस्तीक वाजपेयी को देने का फैसला हुआ । महाकवि
निराला के नाम पर स्थापित पहला निराला स्मृति सम्मान राजेश जोशी को दिया गया । मुंबई
से दिया जानेवाला विजय वर्मा कथा सम्मान हिंदी अकादमी दिल्ली के सचिव हरिसुमन विष्ट
को उनकी कृति बसेरा के लिए दिया गया । जबकि कविता के लिए हेमंत स्मृति कविता पुरस्कार
नवोदित कवयित्री अर्चना राजहंस मधुकर को उनके काव्य संग्रह भीगा हुआ सचके लिए देने
का एलान किया गया । इन दोनों पुरस्कारों के निर्णायक वरिष्ठ आलोचक भारत भारद्वाज थे
। हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के लिए काम करनेवाली संस्था कलमकार फाउंडेशन के अखिल
भारतीय कहानी प्रतियोगिता के विजेताओं को भी पुरस्कृत किया गया । इक्कीस हजार रुपए
का पहला पुरस्कार भोपाल की कथाकार इंदिरा दांदी को उनकी कहानी शहर की सुबह के लिए दिया
गया जबकि ग्यारह हजार के दो पुरस्कार जम्मू की लेखिका योगिता यादव और लखनऊ की कथाकार
रजनी गुप्त को दिया गया । इसके अलावा कमल, प्रदीप जिलवाने और सुषमा मुनीन्द्र को तृत्तीय
पुरस्कार से सम्मानित किया गया । इस साल का रमाकांत स्मृति सम्मान और वागेश्वरी सम्मान
भी इंदिरा दांगी को ही दिया गया । इसके अलावा उत्तर प्रदेश सरकार ने भी कई साहित्कारों
को सम्मानित और पुरस्कृत किया जिनमें उपन्यासकार ममता कालिया, विभूति नारायण राय, रजनी
गुप्त, सूर्यनाथ सिंह के अलावा तकरीबन दो दर्जन साहित्यकार और लेखक हैं ।
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Wednesday, December 31, 2014
Tuesday, December 30, 2014
काल का साल
साहित्य और कला की दुनिया के लिए वर्, दो हजार चौदह को
काल का साल कहा जा सकता है । इस साल साहित्य के दुनिया के कई चमकते सितारे हमसे बिछुड़
गए । सबसे पहले 15 जनवरी को मराठी के वरिश्ठ
कवि और दलित पैंथर्स आंदोलन की शुरुआत करनेवाले नामदेव ढसाल 15 जनवरी को कैंसर से हार
गए । दलितों और पीड़ितों को अपनी लेखनी के माध्यम से वाणी देनेवाले नामदेव ढसाल को
पद्मश्री और साहित्य अकादमी के लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड से नवाजा गया था । उन्नीस
सौ बहत्तर में जब उनका पहला कविता संग्रह गोलपीठ छपा था तो उसने मराठी साहित्य को झकझोर
दिया था । नामदेव ढसाल की मृत्यु से साहित्य की एक सशक्त आवाज खामोश हो गई । नामदेव
ढसाल की मौत के सदमे से अभी साहित्य जगत उबर भी नहीं पाया था कि दो दिन बाद ही हिंदी
में प्रेमचंद की परंपरा के कथाकार अमरकांत का निधन हो गया । बेहद सरल भाषा में अपनी
बात कहनेवाले कथाकार अमरकांत को दो हजार आठ में ज्ञानपीठ सम्मान से सम्मानित किया गया
था । इसके अलावा उनको साहित्य अकादमी पुरस्कार से भी नवाजा जा चुका है । अमरकांत का
उपन्यास इन्हीं हथियारों से खासा मशहूर हुआ था । आम आदमी की समस्या को अमरकांत ने अपनी
कहानियों के माध्यम से समाज के सामने रखा । उनके कहानी संग्रहों में से – जिंदगी
और जोंक, देश के लोग, बीच की दीवार आदि प्रमुख हैं ।
वर्ष दो हजार चौदह में आजाद भारत के सबसे बड़े लेखकों
में से एक खुशवंत सिंह को भी हमसे छीन लिया । जिंदगी की पिच पर खुशवंत सिंह शतक से चूक गए और निन्यानवे साल की उम्र में उनका निधन हो गया । विदेश सेवा में अफसर से लेकर संपादक,
इतिहासकार और राजनेता तक का जीवन जिया और हर जगह अपनी अमिट छाप छोड़ी । खुशवंत सिंह को विवादों में बड़ा मजा आता था और उनके करीबी बताते हैं कि वो जानबूझकर विवादों को हवा देते थे । उनका स्तंभ- विद मलाइस टुवर्ड्स वन एंड ऑल लगभग पचास साल तक चला और माना जाता है कि भारत में सबसे लंबे समय तक चलनेवाला और सबसे लोकप्रिय स्तंभ था । अबतक खुशवंत सिंह की लगभग अस्सी किताबें छप चुकी हैं। उनकी किताब ट्रेन टू पाकिस्तान
और
दो
खंडों
में
सिखों
का
इतिहास
काफी
चर्चित
रहा
था
। उनकी आत्मकथा का हिंदी अनुवाद – सच, प्यार और थोड़ी सी शरारत जब छपा तो अपने प्रसंगों की वजह से काफी चर्चित हुआ था । खुशवंत सिंह पाकिस्तान
के
हदाली
में
उन्नीस
सौ
पंद्रह
में
पैदा
हुए
थे
और
बंटवारे
के
बाद
भारत
आ
गए
थे
।
इसी साल इक्कीस मई को मुर्दाघर जैसा मशहूर उपनयास लिखनेवाले
जगदंबा प्रसाद दीक्षित का जर्मनी में निधन हो गया । जगदंबा प्रसाद दीक्षित ने मुर्दाघर
के अलावा कटा हुआ आसमान और अकाल जैसे उपन्यास लिखे । उनकी कहानियां भी खासी चर्चित
रही । जगदंबा प्रसाद दीक्षित समान अधिकार से हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में लेखन
करते थे । उन्होंने कई नाटक भी लिखे और करीब आधी दर्जन फिल्मों के लिए भी लेखन किया
। इसी साल प्रगतिशील लेखक मधुकर सिंह भी हमसे बिछुड़ गए । अस्सी साल की उम्र में मधुकर
सिंह ने बिहार के धरहरा में अंतिम सांसे ली । मधुकर सिंह ने बहुत छोटी उम्र में लिखना
शुरू कर दिया था । उन्होंने विपुल लेखन किया । उनके उन्नीस उपन्यास और दस कहानी संग्रह
प्रकाशित हैं । इसके अलावा उन्होंने कई नाटक भी लिखे । रॉबिन शॉ पुष्प मूलत कथाकार थे और उन्होंने आधा दर्जन से ज्यादा उपन्यास लिखे और
तकरीबन उनके इतने ही कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं । उन्होंने कुछ लघु फिल्मों
का निर्माण और लेखन भी किया । अभी हाल ही में उनके लेखन का समग्र भी प्रकाशित हुआ था
। पचास के दशक से रॉबिन शॉ पुष्प कथा लेखन में सक्रिय रहे और हिंदी के तमाम पत्र पत्रिकाओं
में छपते रहे । उनकी कई कहानियों में भारतीय ईसाई समाज की समस्याओं और उनके जीवन को
उभारती थी । फणीश्वर नाथ रेणु पर लिखा उनका संस्मरण रेणु-सोने की कलम वाला हिरामन बेहद
चर्चित रहा था और पाठकों ने उसे खूब सराहा था । बीस दिसंबर उन्नीस सौ चैंतीस को बिहार
के मुंगेर में जन्मे रॉबिन शॉ पुष्प ने पटना में 30 अक्तूबर को अंतिम सांस ली । इनके
अलावा मशहूर समाजवादी चिंतक और कथाकार अशोक सेक्सरिया, बांग्ला कवि नवारुण भट्टाचार्य
का भी इस साल निधन हो गया । यू आर अनंतमूर्ति कन्नड़ के सबसे बड़े साहित्यकारों में
से एक थे । उन्होंने पचास और साठ के दशक में कन्नड़ साहित्य को परंपरा की बेड़ियों
से मुक्त कर नव्य आंदोलन की शुरुआत की थी । इस आंदोलन के अगुवा होने की वजह से यू आर
अनंतमूर्ति ने उस वक्त तक चली आ रही कन्नड़ लेखन की परंपरा को ध्वस्त कर दिया, वो भी
इस साल दुनिया का अलविदा कह अपनी अंतिम यात्रा पर निकल पड़े । विश्व साहित्य में मार्केज
और नादिन गार्डिमर का भी निधन इसी साल हुआ । नादिन गार्डिमर का जन्म इस्ट रैंड में
उन्नीस सौ तेइस को हुआ था और पंद्रह साल की उम्र में उनकी पहली कहानी- द सीन फॉर क्वेस्ट
गोल्ड प्रकाशित हुई थी । उसके बाद से वो लगातार लिखती रही और उनके खाते में सौ से ज्यादा
कहानियां और तेरह चौदह उपन्यास हैं । जादुई यथार्थवादी लेखक मार्केज का जाना साहित्य
की दुनिया के लिए बड़ी क्षति है ।
आयोजनों का 'साल'
पिछले सात साल से साहित्य
का कैलेंडर जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के आयोजन से शुरू होता है । इस साल भी साहित्यक
आयोजनों में सबसे पहला आयोजन जयपुर साहित्य महोत्सव ही रहा । जयपुर के दिग्गी पैसेल होटल परिसर में सत्रह से पच्चीस जनवरी
तक पांच दिनों तक जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल आयोजित था । जनवरी की हा़ड़ कंपा देनेवाली
सर्द सुबह में तत्कालीन राज्यपाल मारग्रेट अल्वा और नोबेल पुरस्कार से सम्मानित अमर्त्य
सेन ने इसकी औपचारिक शुरुआत की थी । जयपुर के इस साहित्योत्सव में अब विमर्श कम भीड़
ज्यादा होने लगी है । पिछले दो सालों से जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल विवादों की वजह से
चर्चा में रहा । पिछले साल समाजशास्त्री आशीष नंदी ने के पिछड़ों पर दिए गए बयान और
आशुतोष के प्रतिवाद ने पूरे देश में एक विवाद खड़ा कर दिया था । आशीष नंदी ने कहा था
कि – इट इज अ फैक्ट दैट मोस्ट ऑफ द करप्ट कमन फ्राम दे ओबीसी एंड शेड्यूल कास्ट एंड
नाऊ इंक्रीजिंगली शेड्यूल ट्राइब्स । आशीष नंदी के उस बयान का उस वक्त पत्रकार रहे
और अब आम आदमी पार्टी के नेता आशुतोष ने जमकर प्रतिवाद किया था । कुछ नेता भी इस विवाद
में कूद पड़े थे और आयोजकों और आशीष नंदी पर केस मुकदमे भी हुए थे, वारंट जारी हुआ
था । बाद में जब मामला सुप्रीम कोर्ट में पहुंचा और सुलझा तबतक लिटरेचर फेस्टिवल हर
किसी की जुबां पर था । आशीष नंदी के बयान पर उठे विवाद के पहले पहले भारतीय मूल के
लेखक सलमान रश्दी के जयपुर आने को लेकर अच्छा खासा विवाद हुआ था । कुछ कट्टरपंथी संगठनों
ने सलमान के जयपुर साहित्य महोत्सव में आने का विरोध किया था । उनकी दलील थी कि सलमान
ने अपनी किताब- सैटेनिक वर्सेस में अपमानजन बातें लिखी हैं जिनसे उनकी धार्मिक भावनाएं
आहत हुई थी । उस वक्त उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव होनेवाले थे लिहाजा सियासी दलों
ने भी इस विवाद को जमकर हवा दी और नतीजा यह हुआ कि सलमान रश्दी को आखिरकार भारत आने
की मंजूरी नहीं मिली । इस वर्ष कोई विवाद नहीं हुआ । हलांकि इस साल फ्रीडम जैसा उपन्यास
लिखकर दुनियाभर में शोहरत पा चुके अमेरिकी उपन्यासकार जोनाथन फ्रेंजन ने यह कहकर आयोजकों
को सकते में डाल दिया कि- जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल जैसी जगहें सच्चे लेखकों के लिए खतरनाक
है, वे ऐसी जगहों से बीमार और लाचार होकर घर लौटते हैं । इसके पहले नोबेल पुरस्कार
से सम्मानित अमर्त्य सेन ने आम आदमी पार्टी के उभार को भारतीय लोकतंत्र की खूबसूरती
के तौर पर पेश किया । वहीं अमेरिका में रहने वाले भारतीय मूल के नेत्रहीन लेखक वेद
मेहता ने मोदी पर निशाना साधा था और कहा था कि अगर वो देश के प्रधानमंत्री बनते हैं तो वो भारत
जैसे धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के लिए खतरनाक होगा । अस्सी वर्षीय मेहता ने अपने विचारों
और वक्तव्य से स्पंदन पैदा करने की कोशिश की लेकिन उनके विचारों में मौजूद पूर्वग्रह
साफ झलक रहा था लिहाजा लोगों ने उनको गंभीरता से नहीं लिया ।
दूसरा बड़ा आयोजन दिल्ली में हुआ विश्व पुस्तक मेला रहा । विश्व पुस्तक मेले के दौरान
नौ दिनों तक अलग अलग विषयों और पुस्तकों के विमोचवन के बहाने से तकरीबन सौ गोष्ठियां
और संवाद हुए थे । पुस्तक मेला में हिंदी, अंग्रेजी और अन्य भारतीय भाषाओं के लेखकों
का सिर्फ जमावड़ा ही नहीं था बल्कि उन्होंने पाठकों के साथ अपने विचार भी साझा किए
। हिंदी महोत्सव तक आयोजित किए गए । पुस्तक मेला के आयोजक नेशनल बुक ट्रस्ट ने इस बार
मेला का चरित्र बदलने की भरसक कोशिश की । कुछ हद तक उसको बदलने में उनको सफलता भी मिली
। पुस्तक मेला के इस बदले हुए स्वरूप को देखकर मुझे ये कहने में कोई हिचक नहीं है कि
ये मेला पुस्तकों के अलावा साहित्योत्सव के लिए भी मंच प्रदान कर रहा था । यह पुस्तक मेला लेखकों के महात्वाकांक्षाओं का उत्सव
था, खासतौर पर वैसे लेखकों का जिन्हें लेखक होने का भ्रम है और वो सोशल मीडिया पर अपनी
रचनाओं की बाढ़ से पाठकों का आप्लावित करते रहते हैं । इस बार के पुस्तक मेले में फेसबुकिया
लेखकों का ही जोर था । हालात यहां तक पहुंच गए थे कि इन लेखकों में वरिष्ठ साहित्यकारों
के साथ फोटो खिंचवाने और उसे फौरन फेसबुक पर पोस्ट करने की होड़ लगी थी ।
तीसरा बड़ा आयोजन साहित्य अकादमी ने मार्च में 10 से
15 तारीख तक आोजित किया था । यह अकादमी का सालाना जलसा होता है जिसमें अकादमी पुरस्कार
विजेताओं को पुरस्कृत किया जाता है । उनसे बातचीत होती है । इस बार पहली बार सभी भाषाओं
के अकादमी पुरस्कार विजेताओं और मीडिया से बातचीत रखी गई थी । इस बातचीत के दौरान भाषा
को लेकर कई तीखे सवाल जवाब हुए । साहित्य अकादमी ने ही भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय
के सहयोग से चार दिनों का विश्व कविता समारोह सबद का आयोजन किया था । इसमें कई देश
के कवियों ने कविता पाठ किया । इस आयोजन को लेकर जिस तरह का उत्साह दिखाई देना चाहिए
था वो दिल्ली में दिखा नहीं । जरूरत इस बात की है कि इस तरह के आयोजनों को देश के अन्य
हिस्सों में किया जाए ताकि ज्यादा से ज्यादा श्रोताओं को लाभ मिल सके । रवीन्द्र कालिया
के ज्ञानपीठ से रिटायर होने के बाद हिंदी कवि लीलाधर मंडलोई को कमान सौंपी गई । लीलाधर
मंडलोई ने वाक के नाम से मासिक आयोजन की शुरुआत की । तीन जुलाई को वाक के कार्यक्रम
में नामवर सिंह के संवाद था जो काफी दिलचस्प रहा था ।
कथा मासिक हंस की सालाना गोष्ठी देशभर के साहित्यकारों
के लिए एक सालाना साहित्यक जलसे की तरह है । दो दशक से ज्यादा समय से आयोजित हो रही
यह गोष्ठी पहली बार राजेन्द्र यादवव की अनुपस्थिति में हुई । रादेन्द्र यादव के निधन
के बावजूद उनकी बेटी रचना यादव ने ना केवल हंस को संभाला बल्कि अच्छे से इस गोष्ठी
को भी आयोजित किया । इस साल गोष्ठी का विषय था- वैकल्पिक राजनीति की तलाश । पटना पुस्तक
मेला का आयोजन भी हिंदी साहित्य के लिहाज से अहम रहा । इसके कई सत्रों में जमकर संवाद
हुए । वरिष्ठ कथाकार भगवानदास मोरवाल के नए उपन्यास – नरक मसीहा-
का लोकार्पण वरिष्ठ आलोचक नंदकिशोर नवल, समाजशास्त्री सैबल गुप्ता और उषाकिरण खान ने
किया। इस बीच दिल्ली में रजा फाउंडेशन ने मुक्तिबोध पर एक अहम आयोजन ग्यारह सितंबर
को किया । यह वर्ष मुक्तिबोध की प्रसिद्ध कविता अंधेरे में के प्रकाशन का पचासवां वर्ष
है । इल आयोजन में मुक्तिबोध की रचनात्मकता और उसके छोरों पर गंभीर चर्चा हुई । दिल्ली
में जनवादी लेखक संघ का राज्य सम्मेलन भी एक नवंबर को आयोजित किया गया था । बिहार सरकार
के संस्कृति मंत्रालय ने पटना में भारतीय कविता समारोह
आयोजित किया था । इस कविता समारोह में हिंदी समेत गुजराती, मलयालम, मराठी, बांग्ला,
तेलुगू, ओडिया काक बरोत, मणिपुरी कई भारतीय भाषाओं के कवियों ने शिरकत की । शिरकत करनेवालों
ज्ञानपीठ पुरस्कार से हाल ही सम्मानित कवि केदारानाथ सिंह, हिंदी के वरिष्ठ कवि अशोक
वाजपेयी, साहित्य अकादमी के अध्यक्ष विश्वनाथ प्रसाद तिवारी आदि थे । महाराष्ट्र के रायगढ़ में
12-13 दिसबंर को महाराष्ट्र हिंदी परिषद का बाइसवां अधिवेशन आयोजित किया गया था । लेकिन
इस साल का सबसे ज्यादा चर्चित आयोजन रहा रायपुर साहित्य महोत्सव । छत्तीसगढ़ सरकार ने तीन दिनों का रायपुर साहित्य महोत्सव आयोजित किया था । यह एक
सरकारी आयोजन था । इस आयोजन में हिंदी के वरिष्ठ कवियों और लेखकों की भागीदारी रही
। इनमें विनोद कुमार शुक्ल, नरेश सक्सेना , अशोक वाजपेयी, मैत्रेयी पुष्पा से लेकर
ह्रषिकेश सुलभ, विभा रानी, अराधना प्रधान, पंकज दूबे, प्रभात रंजन, परमिता सत्पथी जैसे
दिग्गज लेखक, रंगकर्मी शामिल हुए इन वरिष्ठ लेखकों के अलावा पत्रकारिता के अच्युतानंद
मिश्र और रमेश नैयर जैसे वरिष्ठ स्तंभ ने भी इस साहित्योत्सव में शिरकत की । इस आयोजन को लेकर कई वामपंथी
लेखकों ने आपत्ति जताई और सोशल मीडिया पर अब भी इसको लेकर पक्ष विपक्ष में जमकर लिखा
जा रहा है
Sunday, December 28, 2014
ऑनलाइन बुक स्टोर के खतरे और चुनौतियां
दो हजार चौदह को किताबों की दुनिया या कहें कि प्रकाशन के कारोबार के लिहाज से
भी अहम वर्ष के तौर पर देखा जाएगा । किताबों की दुनिया में दो ऐसी घटनाएं घटी जिसने
भारत में कम होती जा रही किताबों की दुकानों के लिए खतरे की घंटी बजा दी है । पहले
मशहूर लेखक चेतन भगत के उपन्यास हाफ गर्ल फ्रेंड के लिए उसके प्रकाशक ने ऑनलाइन बेवसाइट
फ्लिपकार्ट से समझौता किया । उस करार के मुताबित प्रकाशक ने फ्लिपकार्ट को यह अधिकार
दिया था कि पहले कुछ दिनों तक चेतन भगत की किताब सिर्फ फ्लिपकार्ट के ऑनलाइन बुकस्टोर
पर ही मौजूद रहेगी । बदले में फ्लिपकार्ट ने भी प्रकाशक को एकमुश्त साढे सात लाख प्रतियों
का ऑर्डर दिया । चेतन भगत के उपन्यास की प्रबुकिंग ही जमकर हुई । इस एक्सक्लूसिव करार
की वजह से भारत में चेतन के लाखों प्रशंसकों ने फ्लिपकार्ट के ऑनलाइन स्टोर से जाकर
किताब खरीदी । जबतक उनका उपन्यास किताबों की दुकान तक पहुंचता तब तक उसके पाठक उसको
खरीद चुके थे । चेतन भगत के ज्यादातर पाठक इंटरनेट की दुनिया से जुड़े हैं, लिहाजा
उनके लिए फ्लिपकार्ट से खरीद करना सुविधाजनक भी रहा था । उस वक्त भारत के प्रकाॆशन
जगत के लिए यह बिल्कुल नई घटना थी, लिहाजा देश के किताब विक्रेता खामोश रहे । अब इसी
तरह का करार भारत के राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की नई किताब द ड्रामेटिक डिकेड, द इंदिरा
गांधी इयर्स भी सामने आया है । राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की किताब के प्रकाशक ने एक
बार फिर एक दूसरी बड़ी ऑनलाइन कंपनी अमेजन से करार किया। इस करार के मुताबिक किताब
के जारी होने के इक्कसी दिन तक यह सिर्फ अमेजन पर उपलब्ध होगी । मतलब यह कि इक्कीस
दिनों तक अगर कोई पाठक प्रणब मुखर्जी की यह किताब एक्सक्लूसिव तौर पर इसी बेवसाइट से
खरीद सकता था । उसके बाद यह देशभर के पुस्तक विक्रेताओं के पास पहुंचेगा । इसका नतीजा
यह हुआ कि प्री बुकिंग के दौर में ही महामहिम की इस किताब लोकप्रियता के लिहाज से चेतन
भगत और सचिन तेंदुलकर की किताब के बाद तीसरे पायदान पर पहुंच गई । प्री बुकिंग के आंकड़ों
को देखकर तो यही लग रहा था कि इससे पुस्तक विक्रेताओं को खासा नुकसान हुआ होगा । यहां
भी एक अलग तरह का तंत्र है । बेवसाइट ने प्रणब मुखर्जी की इस किताब की प्री बुकिंग
शुरू की । जैसे जैसे किताब रिलीज होने की तारीख पास आने लगी तो ऑनलाइन स्टोर ने इसके
मूल्य में भी कमी करनी शुरू की । किताब पर छपे मूल्य पांच सौ पचानवे की बजाय प्रीबुकिंग
में इसका मूल्य चार सौ छियालीस रुपए रखा गया था । रिलीज वाले दिन इस किताब का मूल्य
घटाकर तीन सौ निन्यानवे कर दिया गया । यह बिक्री का अपना गणित भी है और मुनाफा का अर्थशास्त्र
भी है । इस खेल का एक और पक्ष भी है वो यह कि अमेजन पर एक ग्राहक प्रणब मुखर्जी की
सिर्फ एक ही किताब खरीद सकता था । अगर किसी को दो या उससे अधिक किताबें चाहिए तो उसे
उतने ही ग्राहक प्रोफाइल या अकाउंट बनाने होंगे । यह बाजार में थोक बिक्री के आसन्न
खतरे के मद्देनजर किया गया है । इसी तरह से मार्केटिंग के दांव चेतन की किताब की बिक्री
के वक्त भी किया गया था । चेतन की किताब ने बिक्री के सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए । प्रकाशन
जगत से जुड़े लोगों का कहना है कि प्रणब मुखर्जी की किताब भी खूब बिक रही है । एक तो
प्रणब मुखर्जी का लेखन, दूसरे किताब के केंद्र में इंदिरा गांधी । इन दोनों को मजबूती
प्रदान करने के लिए जबरदस्त मार्केटिंग के तौर तरीके ।
अंग्रजी में किताब बिक्री के इस नए चलन से एक सवाल भी उठा है । क्या दुकान पर जाकर
पुस्तक खरीदनेवाले किताब प्रेमियों को अब कुछ खास किताबों के लिए इंतजार करना होगा
या फिर उन्हें भी किताबों की दुकान से मुंह मोड़कर ऑनलाइन स्टोर की ओर जाना पड़ेगा
। भारत में कम हो रही किताबों की दुकान के लिए बिक्री का यह नया अर्थशास्त्र एक गंभीर
चुनौती है । वक्त बदला है । वक्त के साथ प्रकाशन जगत के कायदे कानून भी बदल रहे हैं
। लेकिन बदलाव की इस बयार में ऑनलाइन स्टोर्स की एक्सक्लूसिविटी पुस्तकों की दुकान
में पूंजी लगानेवालों को हतोत्साहित करनेवाली है । इसको रोकने के लिए दिल्ली के मशहूर
खान मार्किट में मौजूद एक बुक स्टोर और दिल्ली और अन्य महानगरों में बुक स्टोर की श्रंखला
के मालिकों ने कड़ा रुख अख्तियार किया है । इन दोनों ने तो चेतन भगत और प्रणब मुखर्जी
की किताबों के प्रकाशक की अन्य किताबें उनको वापस भेजने का फैसला लिया है । उनका कहना
है कि ये पाठकों के साथ धोखधड़ी है । उनका एक तर्क यह भी है कि इस तरह से किताबों का
कारोबार नहीं चलता है । अगर किसी भी प्रकाशक को ऑनलाइन बुक स्टोर पर जाना है तो फिर
सारी किताबें वहीं बेचनी होंगी । ये नहीं हो सकता है कि चर्चित शख्सियतों और लेखकों
की किताबें ऑनलाइन बेची जाएं और कम चर्चित और गंभीर किताबें दुकानों के माध्यम से बेची
जाएं । कुछ अन्य बुक स्टोर्स ने प्रकाशक को
पत्र लिखकर विरोध जताया है और भविष्य में ऐसा नहीं करने की चेतावनी दी है । चेतन भगत
और प्रणब मुखर्जी की किताबों की मार्केटिंग के बरक्श अगर हम हिंदी प्रकाशन की दुनिया
को देखें तो हमारे हिंदी के प्रकाशक मित्र अभी इस स्तर पर बाजार का का इस्तेमाल नहीं
कर पा रहे हैं । बाजार के इस खेल को समझने और लागू करने की दिशा में अगर सोच भी रहे
हों तो मैदान में उतरने का साहस नहीं जुटा पा रहे हैं । हिंदी के प्रकाशकों का अभी
इन ऑनलाइन बुक स्टोर से राफ्ता कायम नहीं हो सका है । हिंदी की कुछ गिनी चुनी किताबें
ही इन बेवसाइ्टस के ऑनलाइन बुक स्टोर पर मौजूद हैं । उसमें भी कई बार लिंक क्लिक करने
पर एरर ही आ जाता है । जिससे पाठकों को कोफ्त होती है । हिंदी के प्रकाशकों को बाजार
के इस खेल में शामिल होना पड़ेगा । इसका एक फायदा यह होगा कि हिंदी में लिखनेवाले लेखकों
की पहुंच ज्यादा होगी और हिंदी के किताबों के संस्करणों की जो संख्या लगातार कम होता
जा रही है उसमें बढ़ोतरी होगी । बाजार के अपने खतरे भी हैं लेकिन पाठकों तक पहुंचने
के लिए इन खतरों का उठा लेना चाहिए ।
जिस तरह से हमारे देश में पुस्तक विक्रेताओं का आभाव है उसकी कमी को पूरा करने
के लिए भी कदम उठाने होंगे । विशाल हिंदी पाठक वर्ग को ध्यान में रखते हुए यह आवश्यक
है कि ऑनलाइन स्टोर के साथ साथ हिंदी के प्रकाशक इस तरह की कोई योजना बनाएं जिससे वो
पाठकों तक पहुंच सकें । छोटे शहरों में तो फिर भी किताबें मिल जाती हैं लेकिन बड़े
शहरों और मेट्रो में किताबों की अनुपल्बधता पाठकों को खिन्न करती हैं । अभी हाल ही
में साहित्य अकादमी ने दिल्ली मेट्रो के साथ स्टेशनों पर किताब की दुकान खोलने के लिए
करार किया है । लेकिन दो मेट्रो स्टेशनों पर किताब की दुकान से काम नहीं चलनेवाला है
। साहित्य अकादमी को इस दिशा में और पहल करनी होगी और भारत सरकार को इसमें सहयोग करना
होगा । साहित्य अकादमी के माध्यम से अगर किताबों की दुकानें शुरू करने का प्रयोग सफल
होता है तो भारत सरकार को अकादमी को इस मद में बजट देना होगा । इसके लिए आवश्यक है
कि भारत सरकार एक नई पुस्तक नीति बनाए । पुस्तकों को लेकर सरकार का रुख नरम है । अभी
जिस तरह से पुस्तकों के कारोबार को जीएसटी के दायरे से बाहर कर दिया गया है वह संकेत
उत्साहजनक है । सरकार को राष्ट्रीय पुस्तक नीति बनाने से पहले इसपर राष्ट्रव्यापी बहस
करवाने की जरूरत है । इस व्यवसाय से जुड़े और इसको जाननेवाले सारे पक्षों की बातों
को सुनकर, समझकर नीति बनाने की कोशिश की जानी चाहिए लेकिन प्राथमिकता किताबों की उपलब्धता
को ध्यान में रखकर तय की जानी चाहिए । हमारे देश में हर तरह की नीति बनती है लेकिन
किताबों को लेकर एक समग्र नीति के आभाव में आजादी के इतने सालों बाद भी पुस्तक संस्कृति
का विकास नहीं हो पाया है । सरकार के अलावा गैर सरकारी संस्थाओं को भी पुस्तकों की
संस्कृति विकसित करने की दिशा में कोशिश करनी होगी । सबकी सामूहिक कोशिशों से ही किताबों
को लेकर नई पीढ़ी में ललक पैदा करनी होगी । अगर यह हो सकता है तो फिर ऑनलाइऩ स्टोर
पर एक्सक्लूसिव किताबें बेचने की मार्केंटिंग के तरीकों पर रोक भी लग सकती है और मुनाफे
का समावेशी वितरण हो सकेगा । दूसरा फायदा हिंदी के लेखकों को भी होगा और उनकी आय में
बढ़ोतरी होगी । अबतक बाजार से भागनेवाले लेखकों को बाजार के तौर तरीके अपनाने ही होंगे
। अगर ऐसा हो पाता है तो यह पुस्तक प्रकाशन कारोबार के लिए अच्छे दिन लेकर आएगा ।
Sunday, December 21, 2014
हाय हुसैन हम ना हुए !
छत्तीसगढ़ सरकार ने तीन दिनों का रायपुर साहित्य महोत्सव आयोजित किया था । यह एक
सरकारी आयोजन था । इस आयोजन में हिंदी के वरिष्ठ कवियों और लेखकों की भागीदारी रही
। इनमें विनोद कुमार शुक्ल, नरेश सक्सेना , अशोक वाजपेयी, मैत्रेयी पुष्पा से लेकर
ह्रषिकेश सुलभ जैसे दिग्गज लेखक शामिल हुई । इन वरिष्ठ लेखकों के अलावा पत्रकारिता
के अच्युतानंद मिश्र और रमेश नैयर जैसे वरिष्ठ स्तंभ ने भी इस साहित्योत्सव में शिरकत
की । वरिष्ठ लेखकों के अलावा साहित्य के समकालीन कथाकार कवियों ने भी अपनी उस्थिति
से इस साहित्योत्सव को जीवंत बना दिया । इन दिनों साहित्य में जिस एक प्रवृत्ति ने
जोर पकड़ा है वह यह है कि सभी तरह के आयोजनों की समीक्षा फेसबुक पर होती है । लिहाजा
रायपुर साहित्य महोत्सव के आयोजन के पहले उसके दौरान और उसके बाद इसको लेकर पक्ष विपक्ष
में विमर्श प्रारंभ हो गया । विरोध में यह तर्क दिया जाने लगा कि
चूंकि छत्तीसगढ़ सरकार नक्सलियों के खिलाफ सख्ती से पेश आ रही है लिहाजा उसके आयोजन
में जनपक्षधरता की पैरोकारी करनेवाले और वाम दलों में अपनी आस्था का सार्वजनित प्रदर्शन
करनेवालों के शिरकत नहीं करनी चाहिए । जैसा कि आमतौर पर फेसबुक पर होता है कि वहां
विमर्श के दौरान हर तरह की मर्यादा का उल्लंघन होता है । इस बार भी हुआ । हिंदी के
वरिष्ठ कवि मंगलेश डबराल और कोलकाता के लेखक जगदीश्वर चतुर्वेदी के बीच हुई तीखी बहस
गाली गलौच तक पहुंच गई । व्यक्तिगत हमले हुए । इसके अलावा साहित्य जगत में जुगनू की
तरह चमकनेवाले कुछ लेखक कवि और कुछ छद्म लेखक भी फेसबुक पर रायपुर साहित्य महोत्सव
में शामिल होनेवाले लेखकों को घेरने में जुटे । वहां मैत्रेयी पुष्पा और अन्य लोगों
को सफाई देना पड़ा । फेसबुक के विमर्श की अराजकता एक बार फिर उजागर हो गई । लोगों ने
एक दूसरे पर लाभ लोभ लेने का सस्ता और घटिया आरोप जड़ा ।
दरअसल रायपुर साहित्य महोत्सव का विरोध करनेवालों में ज्यादातर लोग हाय हुसैन हम
ना हुए सिंड्रोम के शिकार नजर आए । ज्यादातर फेसबुकिया साहित्यकारों की पीड़ा यह थी
कि उनको वहां आमंत्रित क्यों नहीं किया गया । उनकी यह पीड़ा बार बार झलक रही थी । हिंदी
के एक कवि ने अपने ना बुलाने के दर्द को अपनी कविता के माध्यम से सार्वजनिक कर दिया
। छत्तीसगढ़ सरकार पर आरोप लगानेवाले लेखकों को यह नहीं मालूम था कि साहित्य महोत्सव
के दौरान मुक्तिबोध की कविता अंधेरे में की अर्धसती पूरे होने पर एक पूरा का पूरा सत्र
रखा गया था जिसमें इस कविता और मुक्तिबोध की जनपक्षधरता पर जमकर विमर्श हुआ । कवि नरेश
सक्सेना, प्रभात त्रिपाठी और लीलाधर मंडलोई ने इस कविता को नए सिरे से व्याख्यायित
करने का उपक्रम किया था । नरेश सक्सेना ने तो इस कविता पर बोलते हुए एक नई स्थापना
दी । उनका कहना था कि अंधेर में के प्रकाशन के बाद कविता की धुरी उत्तर प्रदेश से हटकर
मध्य प्रदेश पहुंच गई । उन्होंने अपनी इस स्थापना के पीछे कवियों की पूरी सीची गिनाई
। उनका तर्क था कि अंधेर में की ताकत ने कवियों को ताकतवर बनाया । विरोध करनेवालों
को यह तक नहीं मालूम कि एक सत्र- प्रतिरोध का साहित्य में हिंदी की वरिष्ठ लेखिका रमणिका
गुप्ता ने तो आदिवासियों के मुद्दे पर छत्तीसगढ़ सरकार से लेकर केंद्र सरकार तक को
कठघरे में खड़ा कर दिया था । इस साहिय्य महोत्सव में इस तरह के कई सत्र आयोजित किए
गए थे जिनमें सत्ता पर जमकर हमले हुए । दूसरा आरोप यह लगाया गया कि इसमें राष्ट्रीय
स्वयंसेवक संघ की भागीदारी रही । दरअसल मार्क्स के अंधानुयायियों के साथ सबसे बड़ी
दिक्कत यह है कि वो संघ से बुरी तरह से आक्रांत रहते हैं । उन्हें जब किसी भी शख्स
या आयोजन को डिफेम करना होता है तो वो संघ का सहारा लेते हैं । वामपंथियों का संघ पर
अफवाह तंत्र में मजबूत होने का आरोप रहता है लेकिन वामपंथियों से बेहतर अफवाहतंत्र
देश में किसी का नहीं है । क्योंकि वो अफवाह उड़ाने और उसको वैधता प्रदान करने के लिए
विचारधारा का जमकर इस्तेमाल करते हैं और हर चीज को जनपक्षधरता से जोड़ देते हैं । इस
पूरे कार्यक्रम के दौरान कहीं भी संघ का कोई पदाधिकारी नजर नहीं आया । किसी भी सत्र
और वक्ताओं को सुनने के बाद यह नहीं लगा कि संघ इस कार्यक्रम के पीछे हैं । साहित्य
से जुड़े हर व्यक्ति को इस तरह के आयोजनों की सराहना करनी चाहिए । साहित्य, कला और
संस्कृति को लेकर सरकारों में अगर अनुराग का भाव पैदा होता है तो यह एक अच्छी शुरुआत
है । क्योंकि आयोजन में जो धन लगता है वह हम टैक्स देनेवालों का ही है । जनपक्षधरता
की बात करनेवालों को जनता के पैसों पर होनेवाले आयोजनों का विरोध करते देखकर मुझे सलमान
खान की फिल्म का एक डॉयलॉग याद आता है- तुम करो तो रासलीला, हम करें तो कैरेक्टर ढीला
।
दरअसल हाल के दिनों में यह देखने को मिल रहा है कि राज्य सरकारें साहित्य आयोजनों
में रुचि लेने लगी हैं । अभी हाल ही में बिहार सरकार के कला संस्कृति विभाग से सौजन्य
दो दिनों का भारतीय कविता समारोह आयोजित किया गया । इस कविता समारोह में हिंदी समेत
गुजराती, मलयालम, मराठी, बांग्ला, तेलुगू, ओडिया काक बरोत, मणिपुरी कई भारतीय भाषाओं
के कवियों ने शिरकत की । शिरकत करनेवालों ज्ञानपीठ पुरस्कार से हाल ही सम्मानित कवि
केदारानाथ सिंह, हिंदी के वरिष्ठ कवि अशोक वाजपेयी, साहित्य अकादमी के अध्यक्ष विश्वनाथ
प्रसाद तिवारी आदि थे । इस जानकारी को साक्षा करने का उद्देश्य सूचना देना मात्र नहीं
है बल्कि यह बताना है कि सरकारें साहित्य को लेकर सहृद्य हो गई हैं । बिहार में हुए
इस कविता समारोह में सरकार ने कवियों को हवाई यात्रा के अलावा पांच सितारा होटलों में
रुकवाया साथ ही पांच दस मिनट के कविता पाठ के लिए पच्चीस हजार रुपए का मानदेय भी दिया
। यह एक सुखद संकेत है कि हमारी सरकारें रचनाकारों को आर्थिक सम्मान भी देने लगी है
। बिहार में तीन दिन के भारतीय कविता समारोह की तुलना में रायपुर के साहित्य महोत्सव
का फलक काफी बड़ा था । पटना में जहां काव्य पाठ हुआ वहीं रायपुर में काव्यपाठ के अलावा
साहित्य की विभिन्न विधाओं और पत्रकारिता पर कई सत्र आयोजित थे । रायपुर साहित्य महोत्सव
के विज्ञापन और होर्डिंग पूरे देश भर में लगाए गए थे । इन दोनों समारहों में एक बात
जो कॉमन दिखाई दे रही है वो ये है कि यहां स्थानीय भाषा को भी प्रमुखता दी जा रही है
। जैसे पटना के भारतीय कविता महोत्सव में अन्य भारतीय भाषाओं के अलावा बिहार की लोकभाषाओं
के कवि भी आमंत्रित किए गए थे । उन्होंने मैथिली, अंगिका, वज्जिका और मगही में काव्यपाठ
किया । इसी तरह से रायपुर में छत्तीसगढ़ी पर भी कई सत्र आयोजित हैं । इस तरह से अगर
हम देखें तो यह राज्य सरकारों की स्थानीय भाषाओं को बढ़ावा देने का एक उपक्रम है ।
बहुत ज्यादा दिन नहीं बीते हैं जबकि हिंदी में सरकारी आयोजनों या नेताओं के साथ
मंच साक्षा करने पर लेखक एक दूसरे की लानत मलामत किया करते थे । नेताओं के साथ मंच
साक्षा करनेवालों को हेय दृष्टि से देखा जाता था । हिंदी में इस तरह का वातावरण तैयार
कर दिया गया था कि सरकारी आयोजनों को हेय दृष्टि से देखा जाता था । जब भारत भवन में
अशोक वाजपेयी ने अर्जुन सिंह की सरपरस्ती में लेखकों को जोड़ने का काम शुरू किया था
तब भी उली तरह का दुष्प्रचार किया गया था । वह दौर था जब देश में विचारधारा वाले साहित्य
और साहित्यकार की तूती बोलती थी । उस दौर ने हिंदी साहित्य का जितना भला किया उससे
ज्यादा उसका नुकसान किया । इमरजेंसी के समर्थन के एवज में इंदिरा गांधी ने साहित्य
संस्कृति को वामपंथी विचारधारा वाले लेखकों के हवाले कर दिया । अब इन वामपंथी विचारकों
ने इस तरह का ताना-बाना बुना कि सामान्य लेखकों को सरकार से दूर कर दिया । सरकार किनके
पैसे पर चलती है । वह आम जनता का पैसा होता है । हमारे अपने पैसे पर आयोजित होनेवाले
समारोहों से लेखकों को काट देने का एक षडयंत्र रचा गया । उसके तहत यह बात फैलाई गई
कि सरकारी कार्यक्रमों में शामिल होनेवाले कवि-लेखक दरबारी हैं । जबकि उक्त विचारधाऱा
के पोषक शीर्ष लेखक सरकारों से फायदा लेते रहे । तमाम कमेटियों में नामित होकर अपना
स्वार्थ सिद्ध करते रहे । विचारधाऱा के प्रभाव के कम होने के बाद अब ये सारी बातें
सामने आने लगी हैं । ये उसी तरह के लोग हैं जो सरकारें चाहें किसी की भी रही हों साहित्यक
संस्थाओं पर उनका ही कब्जा रहता आया है । हर सरकारी शिष्टमंडल में कुछ नाम घूमंफिर
आते जाते रहे हैं । अब यह वक्त आ गया है कि सत्तर के दशक के बाद देश में जिस तरह से
साहित्य संस्कृति को लेकर खेल खेला गया उसपर गंभीरता से विचार हो कि उस खेल से कितना
फायदा हुआ और कितना नुकसान हुआ अनुभव और संवेदना का संग्रह
उन्नीस सौ सत्तावन में नयी कहानी पर टिप्पणी करते हुए
हरिशंकर परसाईं ने कहा था- ‘जहां तक कहानी के शिल्प और तंत्र का प्रश्न है, यह समान्यत: स्वीकार किया जाता है कि हम आगे बढ़े हैं । नये जीवन
की विविधताओं को, मार्मिक प्रसंगों को, सूक्ष्मतम समस्याओं को चित्रित करने के लिए
कहानी के शिल्प ने विविध रूप अपनाये हैं । हमसे पहले की कहानी का एक पूर्व निर्धारित
चौखटा था, छन्दशास्त्र की तरह उसके भी पैटर्न तय थे । पर जैसे नवीन अभिव्यक्ति के आवेग
से कविता में परंपरागत छन्द-बन्धन टूटे, वैसे ही अभिव्यक्ति की मांग करते हुए नये जीवन
प्रसंगों, नये यथार्थ ने, कहानी को इस चौखटे से निकाला । आज जीवन का कोई भी खण्ड, मार्मिक
क्षण, अपने में अर्थपूर्ण कोई भी घटना या प्रसंग कहानी के तंत्र में बंध सकता है ।
जीवन के अंश को अंकित करनेवाली हर गद्य रचना, जिसमें कथा का तत्व हो, आज कहानी कहलाती है । ...सामाजिक जीवन की वर्तमान जटिलता, उसके अंतर्विरोध,
उसकी नयी समस्याएं अभिव्यक्त करने के लिए कहानी ने विभिन्न नवीन निर्वाह-पद्धतियां
अपनायी हैं ।‘ कथाकार और चित्रकात्र प्रभु जोशी का कहानी संग्रह
पढ़ते हुए अनायास ही स्मृति में हरिशंकर परसाईं की उक्त उक्ति कौंध गई । अपने इस कहानी
संग्रह में प्रभु जोशी ने कहानी के परंपरागत चौखटे को ध्वस्त किया है । जीवन के अंश
को अंकित करनेवाली घटनाओं को उसकी जटिलताओं और अंतर्रविरोधों को एक साथ प्रभु जोशी
ने उठाया है । इन सबके होने के बावजूद इसमें कथा तत्व है, लिहाजा ये कहानी हैं । पितृऋण
कहानी संग्रह की कहानियां उन्नीस सौ तेहत्तर से लेकर उन्नीस सौ सतहत्तर तक की आठ कहानियां
संग्रहीत हैं । इन कहानियों के पहले लेखक का आत्मकथ्य है । प्रभु जोशी का यह आत्मकथ्य
सारिका के मशहूर स्तंभ गर्दिश के दिन के लिए लिखा गया था । प्रभु जोशी का यह जो आत्मकथ्य
है वह उनकी कहानियों की पृष्ठभूमि बता देता है । प्रभु जोशी का किसी भी बात को कहने
का अंदाज निराला है । यह अंदाज उनकी कहानियों में बार बार आता है जो पाठकों को कभी
हंसाता है, कभी उदास कर जाता है, कभी उसको विस्मित या चकित भी कर देता है, तो कभी गंभीर
मंथन के लिए विवश कर देता है । जैसे आत्मकथ्य में अपने जन्म का वर्णन करते हैं – ‘उस रात मां का चैन छिना था, मां बताया करती है, पहले ऐन सुबेरे से हथौड़े मार दर्द
सिर में हुआ । शाम को धंसती कटार की तरह पेट में । और अंत में पौ फटने के पहले कोई
चार बजे ग्रामीण दाई ने दरांती की दरकार की और मां के पेट में चीरा लगाने के बाद मुझे
पैर खींचकर बाहर निकाला था । शायद यह सिलसिला उसी दिन के बाद से शुरू हो गया कि सुरक्षा
की कोशिश में ढूंढ ली गई हर जगह से, मैं टांग खींचकर ही बाहर निकाला जाता रहा हूं ।‘ किसी भी घटना को बताने के बाद उसके साथ जोचिप्पणी चिपकाते
हैं प्रभु जोशी वह उनके कथा कौशल या यों कहें कि कहने के अंदाज को बेमिसाल बनाता है
। अपनी कहानी मोड़ पर में वो लिखते हैं- स्वयं को भले घर का लड़का सिद्ध करने के लिए
हमेशा मैंने झुक कर रूपायन बाबू के बाकायदा चरण स्पर्श भी कर लिये थे । इस कार्रवाई
को मैंने चापलूसी के खाने से निकालकर, भविष्य के श्वसुर के सम्मान में डाल दिया था
। यह मेरी समझ की सांस्कृतिक दूर दृष्टि थी । अब यह जो सांस्कृतिक दूर दृष्टि वाली
टिप्पणी है वह इस पूरे प्रसंग को यकायक उंचा उटा देता है ।
पितृऋण इस संग्रह की सबसे अच्छी कहानी कही जा सकती है
। इसमें कथा तत्व के साथ साथ एक मध्यवर्गीय परिवार की कशमकश की दास्तान भी है । पिता
के साथ बनारस जाने का वर्णन और यात्रा के दौरान पिता के साथ अपनी पहचान छुपाने का प्रसंग
इस कहानी को भीष्म साहनी की कहानी चीफ की दावत के आसपास ले जाकर खड़ी कर देती है ।
चीफ का दावत में भी एक निम्न मध्यवर्गीय परिवार के सड़के का चीफ उसके घर आ रहा होता
है । घर को साफ सुथरा करने के क्रम में वो अपनी मां को भी छिपा देता है । वहां बिडंबवा
यह होती है कि चीफ की नजर उसकी मां पर पड़ जाती है । इसी तरह से प्रभु जोशी की इस कहानी
में एक गरीब परिवार का बेटा अपने पिता की त्वचा रोग की वजह से उसको ट्रेन में अपमानित
होते देखता रहता है, फिर भी उसके बचाव में नहीं उतरता है, अपमानित होने के लिए छोड़
देता है । ट्रेन में जब टीटीई अपमानजनक भाषा में उनसे टिकट मांगता है तो उसको रोग पिता
को सार्वजनिक रूप से पिता कहकर संबोधित करने में हिचक होती है । अंग्रेजी में टीटीई
को बताता है कि उसने बुजुर्ग को टिकट दिलवाया है क्योंकि उसके पास टिकट नहीं थे । एक
प्रसंग में वह ठंड से ठिठुरते पिता को अपना कंबल इस वजह से नहीं देता है कि महंगा लाल
इमली का कंबल खराब हो जाएगा । लेकिन टीटीई के इस अपमानजनक प्रसंग के बाद सोचता है कि
अगर पिताजी को अपना एक्सट्रा कंबल ओढ़ने को दे देता तो इस अप्रिय प्रसंग से बचा जा
सकता था । पिता के व्यवहार से बेटे को लगता है कि
वो ‘अनपढ़ होने के बावजूद
मूर्ख नहीं हैं ।‘ यह कहानी मध्यमवर्गीय परिवार के संपन्न
होने के बाद अपनी पुरानी पहचान से पीछा छुड़ाने की दास्तां है । इसका अंत बेहद मार्मिक
है ।
इसी तरह से इस संग्रह की कहानी किरिच भी एक अद्भुत प्रेम कहानी है ।जहां लड़का
और लड़की के बीच के प्रेम को संवाद के जरिए कभी मूर्त किया गया है तो कभी प्रतीकों
में उसको कहानीकार ने पेश किया है । हाल के दिनों में कहानी बहुत तेजी से और अनेक दिशाओं
फैल रही है । प्रसिद्धि के भागदौड़ में थोक के भाव से फॉर्मूलाबद्ध और रुटीन कहानियां
लिखी जा रही हैं । बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में कई कहानीकारों को लेकर हो हल्ला
मचा लेकिन वो साहित्य के बियावान में खो गए । दरअसल कविता की तरह इन दिनों ज्यादातर
कहानियां भी मांग पर लिखी जा रही हैं । जिस तरह की कहानियां प्रभु जोशी सत्तर के दशक
में लिख रहे थे उस तरह की कहानियां अब देखने को नहीं मिल रही हैं । प्रभु जोशी के इस
संग्रह में फलसफा भी है, शिल्प भी है, अनुभव भी है, संवेदना भी है और किस्सागोई तो
है ही । प्रभु जोशी की कहानियों की भाषा बहुत
सुंदर है लेकिन संवाद में जानबूझकर डाले गए अंग्रेजी के वाक्य कभी कभार गैर जरूरी लगते
हैं । प्रभु जोशी की कहानियों में बेवजह भी अंग्रेजी के शब्द आते हैं । जैसे पितृऋण
में एक्सट्रा कंबल की जगह अतिरिक्त कंबल से काम चल जाता । ये बातें मैं इसलिए रेखांकित
कर रहा हूं कि कहानीकार की भाषा बेहतरीन है और उसमें अंग्रेजी के शब्द बहुधा खटकते
हैं । संवाद में अंग्रेजी के वाक्य अटपटे नहीं लगते है बल्कि वो प्रसंग और स्थितियों
को सामान्य बनाते हैं । कुळ मिलाकर अगर हम देखें तो प्रभु जोशी का यह समीक्ष्य संग्रह
पितृऋण नए पाठकों को हिंदी के महत्वपूर्ण कथाकार से परिचय करवाता है ।
Sunday, December 7, 2014
साहित्य पर मेहरबान सरकार
अभी हाल ही में बिहार सरकार के कला संस्कृति विभाग से सौजन्य दो दिनों का भारतीय
कविता समारोह आयोजित किया गया । इस कविता समारोह में हिंदी समेत गुजराती, मलयालम, मराठी,
बांग्ला, तेलुगू, ओडिया काक बरोत, मणिपुरी कई भारतीय भाषाओं के कवियों ने शिरकत की
। शिरकत करनेवालों ज्ञानपीठ पुरस्कार से हाल ही सम्मानित कवि केदारानाथ सिंह, हिंदी
के वरिष्ठ कवि अशोक वाजपेयी, साहित्य अकादमी के अध्यक्ष विश्वनाथ प्रसाद तिवारी आदि
थे । इस जानकारी को साक्षा करने का उद्देश्य सूचना देना मात्र नहीं है बल्कि इसके माध्यम
से यह जानने की कोशिश है कि क्या हमारी सरकारें साहित्यको लेकर सहृद्य हो गई हैं ।
बिहार में हुए इस कविता समारोह में सरकार ने कवियों को हवाई यात्रा के अलावा पांच सितारा
होटलों में रुकवाया साथ ही पांच दस मिनट के कविता पाठ के लिए पच्चीस हजार रुपए का मानदेय
भी दिया । यह एक सुखद संकेत है कि हमारी सरकारें रचनाकारों को आर्थिक सम्मान भी देने
लगी है । इसी तरह से दिसबंर के मध्य में छत्तीसगढ़ की सरकार भी रायपुर साहित्य महोत्सव
का आयोजन करने जा रही है । बिहार में तीन दिन के भारतीय कविता समारोह की तुलना में
रायपुर के साहित्य महोत्सव का फलक काफी बड़ा है । पटना में जहां काव्य पाठ हुआ वहीं
रायपुर में काव्यपाठ के अलावा साहित्य की विभिन्न विधाओं और पत्रकारिता पर कई सत्र
आयोजित हैं । रायपुर साहित्य महोत्सव के विज्ञापन और होर्डिंग पूरे देश भर में लगाए
गए हैं । इन दोनों समारहों में एक बात जो कॉमन दिखाई दे रही है वो ये है कि यहां स्थानीय
भाषा को भी प्रमुखता दी जा रही है । जैसे पटना के भारतीय कविता महोत्सव में अन्य भारतीय
भाषाओं के अलावा बिहार की लोकभाषाओं के कवि भी आमंत्रित किए गए थे । उन्होंने मैथिली,
अंगिका, वज्जिका और मगही में काव्यपाठ किया । इसी तरह से रायपुर में छत्तीसगढ़ी पर
भी कई सत्र आयोजित हैं । इस तरह से अगर हम देखें तो यह राज्य सरकारों की स्थानीय भाषाओं
को बढ़ावा देने का एक उपक्रम है ।
बहुत ज्यादा दिन नहीं बीते हैं जबकि हिंदी में सरकारी आयोजनों या नेताओं के साथ
मंच साक्षा करने पर लेखक एक दूसरे की लानत मलामत किया करते थे । नेताओं के साथ मंच
साक्षा करनेवालों को हेय दृष्टि से देखा जाता था । हिंदी में इस तरह का वातावरण तैयार
कर दिया गया था कि सरकारी आयोजनों को हेय दृष्टि से देखा जाता था । वह दौर था जब देश
में विचारधारा वाले साहित्य और साहित्यकार की तूती बोलती थी । उस दौर ने हिंदी साहित्य
का जितना भला किया उससे ज्यादा उसका नुकसान किया । इमरजेंसी के समर्थन के एवज में इंदिरा
गांधी ने साहित्य संस्कृति को वामपंथी विचारधारा वाले लेखकों के हवाले कर दिया । अब
इन वामपंथी विचारकों ने इस तरह का ताना-बाना बुना कि सामान्य लेखकों को सरकार से दूर
कर दिया । सरकार किनके पैसे पर चलती है । वह आम जनता का पैसा होता है । हमारे अपने
पैसे पर आयोजित होनेवाले समारोहों से लेखकों को काट देने का एक षडयंत्र रचा गया । उसके
तहत यह बात फैलाई गई कि सरकारी कार्यक्रमों में शामिल होनेवाले कवि-लेखक दरबारी हैं
। जबकु उक्त विचारधाऱा के षोषक शीर्ष लेखक सरकारों से फायदा लेते रहे । तमामा कमेटियों
में नामित होकर अपना स्वार्थ सिद्ध करते रहे । विचारधाऱा के प्रभाव के कम होने के बाद
अब येसारूी बातें सामने आने लगी हैं । अब यह वक्त आ गया है कि सत्तर के दशक के बाद
देश में जिस तरह से साहित्य संस्कृति को लेकर खेल खेला गया उसपर गंभीरता से विचार हो
कि उस खेल से कितना फायदा हुआ और कितना नुकसान हुआ ।
Thursday, December 4, 2014
कालेधन के चक्रव्यूह में सरकार
एक तरफ जहां काले धन के मुद्दे पर संसद के बाहर और अंदर
हंगामा मचा हुआ था, गर्मागर्म बहस चल रही थी वहीं दूसरी ओर उत्तर प्रदेश के नोएडा में
आयकर विभाग की छापेमारी चल रही थी । एक तरफ जहां मुलायम सिंह यादव सरकार पर काला धन
वापस नहीं लाने के मुद्दे पर हमलावर थे तो दूसरी ओर नोएडा के चीफ इंजीनियर के घर के
बाहर खड़ी गाड़ी से दस करोड़ रुपए बरामद हो रहे थे । नोएडा के चीफ इंजीनियर के घर से
करोड़ो की नकदी और दो किलो हीरे के अलावा देश विदेश में निवेश के दस्तावेज बरामद हुए
हैं । संसद में बहस और छापेमारी में मिला घूस का अकूत पैसा । एक बार फिर से देश की
राजनीति के केंद्र में काला धन का मुद्दा वापस आ गया । नरेन्द्र मोदी सरकार के कदमों
और प्रधानमंत्री के विदेश दौरे के बीच काला धन का मुद्दा नेपथ्य में चला गया था । जबकि विदेशों में जमा कालेधन के मुद्दे को लोकसभा
चुनाव के दौरान नरेन्द्र मोदी और उनकी पार्टी ने खूब हवा दी थी । बीजेपी समर्थक रामदेव
और बीजेपी से निष्कासित मशहूर वकील राम जेठमलानी ने भी कालेधन के खिलाफ एक माहौल तैयार
किया था । उस वक्त की कालेधन के खिलाफ बने माहौल से यह संदेश गया था कि अगर विदेशों
में जमा काला धन वापस आ गया तो देश के हर शख्स को पंद्रह लाख रुपए मिलेंगे । समाजवादी
पार्टी के नेता मुलायम सिंह यादव ने यही आरोप लोकसभा में लगाया भी । लोकसभा चुनाव के
दौरान ग्लोबल फाइनेंसियल इंटेग्रिटी ऑर्गेनाइजेशन की उस रिपोर्ट का बार बार जिक्र किया
गया था जिसमें यह बताया गया था कि दो हजार तीन से दो हजार ग्यारह के बीच भारत से करीब
इक्कीस लाख करोड़ रुपए बाहर गए । इस बात का आकलन करना मुश्किल है कि विदेशी बैंकों
में कितना कालाधन जमा है । विदेशों में जमा कालेधन को वापस लाने का मुद्दा इतना आसान
नहीं है जितना कि चुनावों के वक्त भाषणों में बताया जा रहा था । यह एक बेहद जटिल प्रक्रिया
है जिसमें कई कूटनीतिक पेंच भी हैं । सरकार में आने के बाद बीजेपी के नेताओं को इस
बात का एहसास हुआ जब वित्त मंत्री ने साफ कियाकि सरकार के हाथ कई अंतराष्ट्रीय संधियों
से बंधे हुए हैं । सरकार के वरिष्ठ मंत्री
अब कह रह रहे हैं कि सौ दिनों में काला पैसा वापस लाने की बात नहीं हुई थी बल्कि सौ
दिनों में प्रक्रिया शुरू करने का वादा था । वित्त मंत्री अरुण जेटली के मुताबिक अबतक
चार सौ सत्ताइस विदेशी खातों की जानकारी मिली है जिसमें से ढाई सौ खाताधारकों ने विदेशी
बैंकों में खाता होने की बात स्वीकार की है । सरकार के मुताबिक इन चार सौ सत्ताइस बैक
खातों और उनके आयकर की गणना 31 मार्च 2015 तक कर ली जाएगी, उसके बाद ही कुछ नाम सामने
आ सकते हैं । यह बात अब साफ हो चुकी है कि कालाधन का मुद्दा एनडीए सरकार के लिए बड़ी
चुनौती है । दो हजार दस के जी 20 के सम्मेलन में फ्रांस और जर्मनी ने कालेधन के खिलाफ
आवाज उठाई थी और इस बार ऑस्ट्रेलिया में इस बैठक में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने
इसके खिलाफ एकजुट होने की अपील की । दरअसल कई देशों की अर्थव्यवस्था कालेधन के कारोबार
से चलती है । परोक्ष रूप से वो देश अन्य देशों में निवेश करते हैं । इस तरह के कालेधन
की विषबेल कई देशों में फैली हुई है । उसके खिलाफ प्रबल इच्छा शक्ति और ईमानदार नेतृत्व
चाहिए तभी कुछ सकारात्मक नतीजे सामने आ सकेंगे ।
सरकार के सामने इससे भी बड़ी चुनौती है देश में जमा
कालेधन को बाहर निकालने की । विदेशों में जमा काला धन आयकर की चोरी के साथ साथ देश
के राजकोष को कमजोर करता है वहीं देश में इकट्ठा कालाधन आयकर चोरी और विकास के काम
को प्रभावित करता है । झारखंड के एक मंत्री ने तो आय से अधिक संपत्ति के मामले में
गिरफ्तारी के बाद अजीबोगरीब बयान देकर सबको चौका दिया था । करीब सौ करोड़ की संपत्ति
बरामद होने के बाद भी लवो अपने आपको देशभक्त भ्रष्ट करार होने का दावा कर रहा था ।
उसने आय से अधिक संपत्ति के मामले में गिरफ्तारी के बाद यह कहा था कि पैसा भारत में
ही निवेश किया है स्विस बैंक में तो नहीं भेजा । इसी तरह से नोएडा के चीफ इंजीनियर
के बारे में अनुमान लगाया जा रहा है कि वो करीब दस हजार करोड़ का मालिक है और उसने
खाड़ी और यूरोपीय देशों में निवेश किया है । इस तरह के न जाने कितने अफसर देश के अलग
अलग राज्यों में फैले हैं । मध्य प्रदेश में तो आए दिन लोकायुक्त के छापे में सरकारी
कर्मचारी बेनकाब होते हैं जो करोडो़ं की संपत्ति के मालिक हैं । मध्य प्रदेश के ही
आईएएस जोशी दंपति का केस अब भी चल ही रहा है । दो हजार बारह में मध्य प्रदेश के स्वास्थ्य
विभाग में काम करनेवाले एक कर्मचारी के घर से सौ करोड़ रुपए की बेनामी संपत्ति का पचा
चला था तो छत्तीसगढ़ के स्वास्थ्य सचिव के घर से बावन लाख नकद बरामद हुआ था । अभी हाल
ही में एक सहारा के नोएडा और दिल्ली के ठिकानों पर छापे में डेढ सौ करोड़ से ज्यादा
की बरामदगी गुई । चुनाव के ऐन पहले बीजेपी के नेता गिरिराज सिंह के घर से करीब सवा
करोड़ नकद चोरी चले गए थे जो बाद में बरामद हुए । बताया गया कि वो उनके एक कारोबारी
रिश्तेदार का पैसा है । यह सूची बताने का मकसद सिर्फ इतना है कि समाज के हर वर्ग के
लोगों पर शक की सुई जाती रही है । समाज के हर तबके में भ्रष्ट लोगों की वजह से कालेधन
का धंधा फल फूल रहा है । दरअसल काला धन हमारे देश में नासूर की तरह फैल चुका है । आयकर
विभाग के कर्मचारियों और अफसरों से इस बात की उम्मीद करना बेमानी है कि वो देश में
काला धन को बरामद करने में सक्रियता दिखाएंगे । काले धन की धुरी में नेता, पुलिस और
सरकारी कर्मचारी का ऐसा गठजोड़ है जिसको तोड़ पाना आसान नहीं है । अब वक्त आ गया है
कि सरकार देश में मौजूद कालेधन को बाहर निकालने के लिए संजीदगी से कोशिश करे । विदेशों
में मौजूद कालेधन को लाने में लाख दिक्कतें हो लेकिन देश में मौजूद कालेधन को बाहर
निकालने में तोसिर्फ इच्छाशक्ति की आवश्यकता है और अब तक के ट्रैक रिकॉर्ड से तो लगता
है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के पास वह इच्छाशक्ति है । इंतजार है देश की जनता
को ।
Saturday, November 29, 2014
आलोचक का बुढभस
‘राग दरबारी’ तो घटिया उपन्यास है । मैं उसे हिंदी के पचास उपन्यासों
की सूची में भी नहीं रखूंगा । पता नहीं ‘राग दरबारी’ कहां से आ जाता है ? वह तीन कौड़ी का उपन्यास है । हरिशंकर
परसाईं की तमाम चीजें राग दरबारी से ज्यादा अच्छी हैं । वह व्यंग्य बोध भी श्रीलाल
शुक्ल में नहीं है जो परसाईं में है । उनके पासंग के बराबर नहीं है श्रीलाल शुक्ल और
उनकी सारी रचनाएं – यह बात कही है हिंदी के बुजुर्ग लेखक
और कथालोचक विजय मोहन सिंह ने । महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय विश्वविद्लाय की पत्रिका
बहुवचन में कृष्ण कुमार सिंह ने विजय मोहन सिंह का साक्षात्कार किया है । इस इंटरव्यू
में विजय मोहन सिंह ने और भी कई ऐसी मनोरंजक बातें कहीं हैं । एक जगह विज मोहन सिंह
कहते हैं – नागार्जुन का जिक्र मैंने अपनी किताब में काका हाथरसी
के संदर्भ में भी किया था जो बाद में मैने हटा दिया । केदारजी उसको पढ़कर दुखी हो गए
थे ।उन्होंने ही उसे निकलवा दिया । नागार्जुन की कमजोरियों का हाल तो यह है कि कई जगह
उन्हें पढ़ते हुए लगा और मैंने लिखा भी कि वे बेहतर काका हाथरसी हैं । केदार जी इससे
दुखी और कुपित हो गए थे कि येक्या कर रहे हैं । मैने वह वाक्य हटा जरूर दिया लेकिन
मेरी ऑरिजिनल प्रतिक्रिया यही थी । कुल मिलाकर नागार्जुन की कमजोरियां वह नहीं हैं
जो निराला की हैं । इस तरह की कई बातें और फतवे विजयमोहन जी के इस साक्षात्कार में
है जहां वो प्रेमचंद के गोदान से लेकर शिवमूर्ति तक को खारिज करते हुए चलते हैं । विजयमोहन
सिंह के इस पूरे इंटरव्यू को पढ़ने के बाद लगता है कि वो हर जगह पर रचनाकारो का सतही
मूल्यांकन करते हुए निकल जाते हैं । इसकी वजह से उनका यह साक्षात्कार सामान्यीकरण के
दोष का भी शिकार हो गया है ।
जिस तरह से विजय मोहन सिंह ने श्रीलाल शुक्ल के कालजयी उपन्यास राग दरबारी को घटिया
और तीन कौ़ड़ी का उपन्यास कहा है वह उनकी सामंती मानसिकता का परिचायक है । इस तरह की
भाषा बोलकर विजय मोहन सिंह ने खुद का स्तर थोड़ा नीचे किया है । साहित्य में भाषा की
एक मर्यादा होनी चाहिए । किसी भी कृति को लेकर किसी भी आलोचक का अपना मत हो सकता है
, उसके प्रकटीकरण के लिए भी वह स्वतंत्र होता है लेकिन मत प्रकटीकरण मर्यादित तो होना
ही चाहिए । अपनी किताब हिंदी उपन्यास का इतिहास में गोपाल राय ने भी राग दरबारी को
असफल उपन्यास करार दिया है । उन्होंने इसकी वजह उपन्यास और व्यंग्य जैसी दो परस्परविरोधी
अनुशासनों को एक दूसरे से जोड़ने के प्रयास बताया है । गोपाल राय लिखते हैं – व्यंग्य के लिए कथा का उपयोग लाभदायक होता है पर उसके लिए उपन्यास का ढांचा भारी
पड़ता है । उपन्यास में व्यंग्य का उपयोग उसके प्रभाव को धारदार बनाता है पर पूरे उफन्यास
को व्यंग्य के ढांचे में फिट करना रचनाशीलता के लिए घातक होता है । व्यंग्यकार की सीमा
यह होती है कि वह चित्रणीय विषय के साथ अपने को एकाकार नहीं कर पाता है । वह स्त्रटा
से अधिक आलोचक बन जाता है । स्त्रष्टा अपने विषय से अनुभूति के स्तर पर जुड़ा होता
है जबकि व्यंग्यकार जिस वस्तु पर व्यंग्य करता है उसके प्रति निर्मम होता है । यहां
गोपाल राय ने किसी आधार को उभारते हुए राग दरबारी को असफल उपन्यास करार दिया है लेकिन
उन्होंने भी इसे घटिया या तीन कौड़ी का करार नहीं दिया है । ऐसा नहीं है कि राग दरबारी
को पहली बार आलोचकों ने अपेन निशाने पर लिया है । जब यह 1968 में यह उपन्यास छपा था
तब इसके शीर्षक को लेकर श्रीलाल शुक्ल पर हमले किए गए थे और उनके संगीत ज्ञान पर सावल
खड़े किए गए थे । आरोप लगानेवाले ने तो यहां तक कह दिया था कि श्रीलाल शुक्ल को ना
तो संगीत के रागों की समझ है और ना ही दरबार की । लगभग आठ नौ साल बाद जब भीष्म साहनी
के संपादन में 1976 में आधुनिक हिंदी उपन्यास का प्रकाशन हुआ तो उसमें श्रीलाल शुक्ल ने लिथा था- दूसरों की प्रतिभा और कृतित्व
पर राय देकर कृति बननेवाले हर आदमी को बेशक दूसरों को अज्ञानी और जड़ घोषित करने का
हक है, कुछ हद तक यह उसके पेश की मजबूरी भी है, फिर भी किताब पढ़कर कोई भी देख सकता
है कि संगीत से इसका कोई सरोकार नहीं है और शायद मेरा समीक्षक भी जानता है कि यह राग
उस दरबार का है जिसमें हम देश की आजादी के बाद और उसके बावजूद, आहत अपंग की तरह डाल
दिए गए हैं या पड़े हुए हैं ।
हिंदी के आलोचकों के निशाने पर होने के बावजूद राग दरबारी अबतक पाठकों के बीच लोकप्रिय
बना हुआ है । अब भी पुस्तक मेलों में राग दरबारी और गुनाहों का देवता को लेकर पाठकों
में उत्साह देखनो को मिलता है । इसकी कोई तो वजह होगी कि अपने प्रकाशन के छयालीस साल
बाद भी राग दरबारी पाठकों की पसंद बना हुआ है । अब तक इसके हार्ड बाउंड और पेपर बैक
मिलाकर बहत्तर से ज्यादा संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं । इनमें छात्रोपयोगी संस्करणों
की संख्या शामिल नहीं है । यह सही है कि आजादी के बाद हिंदी लेखन में सरकारी तंत्र
पर सबसे ज्यादा व्यंग्य हरिशंकर परसाईं ने किया और उनके व्यंग्य बेजोड़ होते थे, मारक
भी । लेकिन हरिशंकर परसाईं के व्यंग्य की तुलना श्रीलाल शुक्ल के राग दरबारी के व्यंग्य
से करना उचित नहीं लगता है और इस आधार पर राग दरबारी को घटिया और तीन कौड़ी को कह देना
तो अनुचित ही है । रेणु के उपन्यासों में सरकारी तंत्र का उल्लेख यदा कदा मिलता है
। कुछ अन्य लेखकों ने भी सरकारी तंत्र को अपने कथा लेखन का विषय बनाया लेकिन पूरे उपन्यास
के केंद्र में सरकारी तंत्र को रखकर श्रीलाल शुक्ल ने ही लिखा । इसके बाद गिरिराज किशोर
ने यथा प्रस्तावित और गोविन्द मिश्र ने फूल इमारतें और बंदर में सरकारी तंत्र के अधोपतन
को रेखांकित किया । इस पूरे उपन्यास को व्यंग्य के आधार पर देखने की भूस विजय मोहन
सिंह जैसा आलोचक करे तो यह बढ़ती उम्र का असर ही माना जा सकता है । दरअसल हिंदी में
आलोचकों को लंबे अरसे से यह भ्रम हो गया है कि वो किसी लेखक को उठा या गिरा सकते हैं
। इसी भ्रमवश आलोचक बहुधा स्तरहीन टिप्पणी कर देते हैं और विजय मोहन सिंह की राग दरबारी
और नागार्जुन के बारे में यह टिप्पणी उसकी एक मिसाल है ।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने बहुत कोशिश की थी वो जायसी को हिंदी कविता की शीर्ष त्रयी-
सूर, कबीर और तुलसी – के बराबर खड़ा कर दें । रामचंद्र शुक्ल
ने जायसी पर बेहतरीन लिखा है, इसमें कोई दो राय नहीं लेकिन बावजूद इसके लोक या पाठकों
के बीच वो जायसी को सूर कबीर और तुलसी की त्रयी के बराबर खड़ा नहीं कर सके । दरअसल
आलोचकों की जो दृष्टि है वो वहां तक नहीं पहुंच पाती है जहां तक रचनाकारों की दृष्टि
पहुंचती है । या फिर कहें कि आलोचकों की दृष्टि रचनाकारों के बाद वहां तक पहुंच पाती
है । आलोचकों के उठाने गिराने के खेल के बारे में मिजय मोहन सिंह ने अपने इसी इंटरव्यू
में इशारा भी किया है । आलोचकों की अपनी एक भूमिका होती है, उनका एक दायरा होता है
लेकिन जब उनके दंभ से यह दायरा टूटता है तो फिर इस तरह की फतवेबाजी शुरू होती है कि
फलां रचना दो कौड़ी या तीन कौड़ी की है । इसका एक दुष्परिणाम यह हुआ है कि आलोचना में
संवाद कम वाद विवाद ज्यादा होने लगे हैं । यह वक्त आलोचना और आलोचकों के लिए गंभीर
मंथन का है कि कयोंकर वो साहित्य की धुरी नहीं रह गया है । एक जमाने में सूर्यकांत
त्रिपाठी निराला ने कहा था कि यदि उनकी कविताएं आचार्य रामचंद्र शुक्ल सुन रहे हैं
तो जैसे समूचा हिंदी जगत सुन रहा है । आज लेखकों और आलोचकों के बीच में यह विश्वास
क्यों खत्म हो गया । क्या इसके पीछे आलोचक के पूर्वग्रह हैं या फिर विजय मोहन सिंह
जैसी फतवेबाजी का नतीजा है । विजय मोहन सिंह ने अपने उसी इंटरव्यू में कहा है कि मापदंड
और कसौटी उनको कर्कश लगते हैं । उनेक मुताबिक रचना के समझ के आधार पर रचना का मूल्यांकन
किया जाता है । तो क्या यह मान लेना चाहिए कि विजय मोहन सिंह ना तो राग दरबारी को समझ
पाए और ना ही नागार्जुन की अकाल पर लिखी कविता को । जिस तरह से उन्होंने अपने इंटरव्यू
में लेखकों के लिए शब्दों का इस्तेमाल किया है वह आपत्ति जनक है – राग दरबारी तीन कौड़ी की, नागार्जुन बेहतर काका हाथरसी, शिवमूर्ति औसत दर्जे का
कहानी कार । आलोचना और रचना के बीच विश्वास कम होने की यह एक बड़ी वजह है ।
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