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Sunday, March 16, 2014

ताकि मिल सके नोबेल पुरस्कार...

साहित्य अकादमी ने इस साल से एक बेहद अहम शुरुआत की है । अकादमी ने चौबीस भाषाओं के सम्मानित साहित्यकारों से संवाद का एक खुला कार्यक्रम आयोजित किया था । साहित्य अकादमी के सालाना साहित्योत्सव में अकादमी पुरस्कार से पुरस्कृत लेखकों के साथ संवाद कार्यक्रम में एक सुधी पाठक ने बेहद ही अहम सवाल उठाया । एक पाठक ने वहां मौजूद लेखकों से पूछा कि रवीन्द्र नाथ टैगोर के बाद किसी भी भारतीय लेखक को नोबेल पुरस्कार क्यों नहीं मिला । अलग अलग लेखकों के अलग अलग तर्क थे लेकिन कोई भी इस सवाल का सही जवाब नहीं दे पा रहे थे। लेकिन इस बात पर लेखकों के बीच मतैक्य था कि साहित्य अकादमी को लेखकों की रचनाओं को एक वृहत्तर पाठक वर्ग तक पहुंचाने और पढ़वाने के लिए और काम करना होगा । जिस वक्त साहित्य अकादमी के मुख्यालय रवीन्द्र भवन के लॉन में लेखकों के साथ यह संवाद चल रहा था ठीक उसी वक्त अकादमी भवन में साहित्य अकादमी की साधारण सभा के सदस्यों की समांतर बैठक चल रही थी । उस बैठक में भी इस बात पर चिंता व्यक्त की गई कि गुरुदेव टैगोर के बाद भारत के किसी लेखक को नोबेल पुरस्कार क्यों नहीं मिल पाया । भारतीय प्रकाशकों के प्रतिनिधि के तौर पर जनरल काउंसिल के सदस्य अरुण माहेश्वरी ने इस इस बात पर जोर दिया कि साहित्य अकादमी में भारतीय भाषा के लेखकों और उनकी रचनाओं के अंतराष्ट्रीय स्तर पर प्रचार प्रसार के लिए एक इंटरनेशनल सेल का गठन किया जाना चाहिए । अरुण माहेश्वरी ने बैठक में अपनी तरफ से एक चार सूत्रीय प्रस्ताव भी पेश किया जिसमें किताबों की मार्केटिंग से लेकर उनके अनुवाद तक के बारे में सुझाव दिए गए थे । साहित्य अकादमी की आमसभा के सदस्य अरुण माहेश्वरी ने इस बात पर भी अफसोस जाहिर किया कि नोबेल पुरस्कार को छोड़कर अन्य अंतराष्ट्रीय पुरस्कारों के लिए भारतीय भाषा के लेखकों की भागीदारी सुनिश्चित करवाने के लिए साहित्य अकादमी के पास कोई योजना नहीं है । इन तर्कों में दम भी है । हमें अगर अपने देश के लेखकों को अंतराष्ट्रीय स्तर पर स्थापित करना है तो इसके लिए सुनियोजित तरीके से काम करना होगा । अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार के जूरी के सदस्यों तक उनकी भाषा में कृतियों को पहुंचाने का इंतजाम करना होगा । यह जिम्मेदारी साहित्य अकादमी को ही उठानी होगी ।  

दरअसल साहित्य अकादमी की सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि वहां विश्वविद्यालय शिक्षकों का बोलबाला है । इन शिक्षकों का कॉकस इस तरह से काम करता है कि बाहर के लोगों को ये अकादमी में घुसने ही नहीं देते हैं और ना ही उनके किसी रचनात्मक प्रस्ताव को आगे बढ़ाने में रुचि दिखाते हैं । साहित्य अकादमी का एक मुख्य काम एक भाषा की श्रेष्ठ रचना का अनुवाद दूसरी भाषा में करवाना भी है । अनुवाद का यह काम जितनी तेजी से होना चाहिए वो हो नहीं पाता है । चार-पांच साल पहले लेखकों से अनुवाद करवाकर रख लिए जाते हैं । अनुवादक को भुगतान भी हो जाता है लेकिन किताबें नहीं छप पाती हैं । वितरण की बात तो छपने के बाद सामने आती हैं । अनुवाद की इस धीमी गति से चलने की वजह से कई बार अच्छी कृतियों को पढ़ने से दूसरी भाषा का पाठक महरूम रह जाता है । अकादमी को भारतीय भाषा के लेखकों को अंतराष्ट्रीय स्तर पर ले जाने के लिए बहुत यत्न करने होंगे । विश्वविद्यालय के शिक्षकों से इतर लेखकों को अपने साथ जोड़ना होगा और उनकी सलाह पर विचार भी करना होगा । घिसे पिटे ढर्रे पर चलकर भारतीय भाषाओं को अंतराष्ट्रीय स्तकर पर मान्यता नहीं मिल सकती है । 

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