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Monday, June 23, 2014

सबका साथ तभी हिंदी का विकास

राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने कहा था कि सरकार का धर्म है कि वह काल की गति को पहचाने और युगधर्म की पुकार का बढ़कर आदर करे । दिनकर ने यह बात साठ के दशक में संसद में भाषा संबंधी बहस के दौरान कही थी । अपने उसी भाषण में दिनकर ने एक और अहम बात कही थी जो आज के संदर्भ में भी एकदम सटीक है । दिनकर ने कहा था कि हिंदी को देश में उसी तरह से लाया जाना चाहिए जिस तरह से अहिन्दी भाषी भारत के लोग उसको लाना चाहें । यही एक वाक्य हमारे देश में हिंदी के प्रसार की नीति का आधार है भी और भविष्य में भी होना चाहिए । गृह मंत्रालय के राजभाषा विभाग के सत्ताइस मई के एक आदेश के बाद हिंदी को लेकर कुछ अहिन्दी भाषी राज्यों के नेताओं ने खासा हंगामा मचाया । राजभाषा विभाग ने अपने सर्कुलर में कहा था कि सरकारी विभागों के आधिकारिक सोशल मीडिया अकाउंट में हिंदी अथवा अंग्रेजी और हिंदी में लिखा जाना चाहिए । अगर अंग्रेजी और हिंदी में लिखा जा रहा है तो हिंदी को प्राथमिकता मिलनी चाहिए । इस सर्कुलर में यह बात साफ तौर पर कही गई है कि अंग्रेजी पर हिंदी को प्राथमिकता मिलनी चाहिए । यह कहीं नहीं कहा गया कि हिंदी का ही प्रयोग होना चाहिए । सवाल यही है कि इससे हिंदी थोपने जैसी बात कैसे सामने आ गई । दरअसल हमारे देश के नेताओं के साथ दिक्कत यही है कि वो किसी भी मसले की ऐतिहासिकता की पृष्ठभूमि में कोई बात नहीं कहते हैं । वो वोट बैंक पक्का करने के लिहाज से बयानबाजी करते हैं । लोकसभा चुनाव के दौरान चेन्नई के हिंदी भाषी बहुल इलाके में हिंदी में पोस्टर लगवाने वाले डीएमके नेता करुणानिधि को अब हिंदी विरोध में सियासी संभावना नजर आ रही है । साठ के दशक में जब दक्षिण भारत में हिंदी के खिलाफ हिंसक आंदोलन हुए थे तब भी और उसके पहले भी सबों की राय यही बनी थी कि हिंदी का विकास और प्रसार अन्य भारतीय भाषाओं को साथ लेकर चलने से ही होगा, थोपने से नहीं । महात्मा गांधी हिंदी के प्रबल समर्थक थे और वो इसको राष्ट्रभाषा के तौर पर देखना भी चाहते थे लेकिन गांधी जी ने भी कहा भी था कि हिंदी का उद्देश्य यह नहीं है कि वो प्रांतीय भाषाओं की जगह ले ले । वह अतिरिक्त भाषा होगी और अंतरप्रांतीय संपर्क के काम आएगी ।
हमारा देश फ्रांस या इंगलैंड की तरह नहीं है जहां एक भाषा है । विविधताओं से भरे हमारे देश में दर्जनों भाषा और सैकड़ों बोलियां हैं लिहाजा यहां एक भाषा का सिद्धांत लागू नहीं हो सकता है । इतना अवश्य है कि राजकाज की एक भाषा होनी चाहिए । आजादी के पहले और उसके बाद हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा देने की कोशिश हुई लेकिन अन्य भारतीय भाषाओं के विरोध के चलते वह संभव नहीं हो पाया । हिंदी राजभाषा तो बनी लेकिन अंग्रेजी का दबदबा कायम रहा । जनता की भाषा और शासन की भाषा अलग रही । ना तो हिंदी को उसका हक मिला और ना ही अन्य भारतीय भाषाओं को समुचित प्रतिनिधित्व । हिंदी के खिलाफ भारतीय भाषाओं को खड़ा करने में अंग्रेजी प्रेमियों ने नेपथ्य से बड़ी भूमिका अदा की थी । यह अकारण नहीं था कि बांग्ला भाषा के तमाम लोगों ने आजादी पूर्व हिंदी भाषा का समर्थन किया था । चाहे वो केशवचंद्र सेन की स्वामी दयानंद को सत्यार्थ प्रकाश हिंदी में लिखने की सलाह हो या बिहार में भूदेव मुखर्जी की अगुवाई में कोर्ट की भाषा हिंदी करने का आंदोलन हो । जब हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की कोशिश हुई तो बंगला के लोग अपनी साहित्यक विरासत की तुलना हिंदी से करते हुए उसे हेय समझने लगे थे । जहां के चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने हिंदी के विकास के लिए अनथक प्रयास किया वहीं के तमिल भाषी अपने महाकाव्यों की दुहाई देकर हिंदी को नीचा दिखाने लगे । अंग्रेजी के पैरोकारों ने ऐसा माहौल बनाया कि हिंदी को अन्य भारतीय भाषा के लोग दुश्मन की तरह से समझने और उसी मुताबिक बर्ताव करने लगे । आज अंग्रेजी उन्हीं अन्य भारतीय भाषाओं के विकास में सबसे बड़ी बाधा है । इस बात को समझने की जरूरत है।
आज हिंदी बगैर किसी सरकारी बैसाखी के खुद लंबा सफर तय कर चुकी है और विंध्य को लांघते हुए भारत के सुदूर दक्षिणी छोर तक पहुंच चुकी है और पूर्वोत्तर में भी यह धीरे धीरे लोकप्रिय हो रही है । सरकार अगर सचमुच हिंदी के विकास को लेकर संजीदा है तो उसको सभी भारतीय भाषाओं के बीच के संवाद को तेज करना होगा । एक भाषा से दूसरी भाषा के बीच के अनुवाद को बढ़ाना होगा । सर्कुलर जारी करने से ज्यादा जरूरी है सभी भाषाओं के मन में यह विश्वास पैदा करना कि हिंदी के विकास से उनका भी विकास होगा । सरकार को साहित्य अकादमी की चूलें कसने के तरीके ढूंढने होंगे । साहित्य अकादमी के गठन के वक्त उद्देश्य था कि वो भारतीय भाषाओं के बीच समन्वय का काम करेगी । लेकिन कालांतर में साहित्य अकादमी ने साहित्य में अपना रास्ता तलाश लिया और भाषाओं के समन्वय का काम छोड़ दिया । एक भाषा से दूसरी भाषा के बीच अनुवाद का काम भी अकादमी सीरियसली नहीं कर पा रही है । साहित्य अकादमी के आयोजनों की अकादमी बनने से भी हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के बीच समन्वय बुरी तरह फेल रही । नतीजा यह हुआ कि अन्य भारतीय भाषाओं की हिंदी को लेकर शंकाए दूर नहीं हो पाईं । अब वक्त आ गया है कि सरकार काल की गति को पहचाने और युगधर्म के मुताबिक आगे बढ़कर सभी भाषाओं के मन में हिंदी के प्रति द्वेष को दूर करने का उद्यम करे ।

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