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Wednesday, August 27, 2014

जिंदगी का रफ ड्राफ्ट

और क्या यह जिंदगी यों ही व्यर्थ गई । यह मेरी व्यक्तिगत अर्थहीनता है या विशेष समय में होने की नियति जहां कुछ भी सार्थक नहीं रह गया है ? मुझे अक्सर चेखव के नाटक तीन बहनें की याद आती हैं । इस व्यर्थता बोध की मारी इरीनी अवसाद के क्षणों में कहती है,काश, जो कुछ हमने जिया है वह सिर्फ जिंदगी का रफ ड्राफ्ट होता और इसे फेयर करने का एक अवसर और मिलता । इसी वाक्य से प्रेरित होकर एक साहब इस रफ ड्राफ्टको फेयर करने बैठे हैं और जिंदगी की एक-एक निर्णायक घटना को उठाकर जांच परख रहे हैं कि अगर फिर से वह क्षण आए तो वे क्या करेंगे? ...मित्रो, प्रेमिका या जीवन के एक विशेष ढर्रे लेकर हर जगह वे पाते हैं कि उस समय जो निर्णय उन्होंने लिए हैं, सिर्फ वही लिए जा सकते थे । जो कुछ उन्होंने किया, उसके सिवा वो कुछ और कर भी नहीं सकते थे । रफ हो या फेयर, उनकी जिंदगी वही होती, जो है ...। यह बात राजेन्द्र यादव ने अपनी लगभग आत्मकथ्य, मुड़ मुड़ के देखता हूं... में लिखी थी । भले ही उन्होंने यह बात इरीनी और अपने एक कथित साहब के मार्फत कही हो लेकिन यादव जी के जीवन और लेखन दोनों का फलसफा यही था । वो अपनी जिंदगी को रफ ड्राफ्ट ही रहने देना चाहते थे और अंत तक उसको फेयर करने में उनकी कोई रुचि थी नहीं । वो तो बल्कि जिंदगी के कई कई रफ ड्राफ्ट तैयार करते चलते थे और उसको संभाल कर रखने में भी उनकी कोई रुचि नहीं थी । इस अरुचि की वजह यह भी थी कि उनकी पसंद का रेंज बहुत व्यापक था । उन्होंने बहुत ज्यादा विश्व साहित्य पढ़ लिया था । उनेक जीवन पर विश्व साहित्य का गहरा प्रभाव था । वो हिंदी साहित्य में एक सिमोन की तलाश में रहते थे ताकि खुद को सार्त्र साबित कर सकें । और इसी सिमोन की तलाश में वो एक दिन अंतिम यात्रा पर निकल पड़े ।
आज यदि राजेन्द यादव जीवित होते तो 28 अगस्त को जीवन के पचासी वसंत पूरे कर रहे होते । राजेन्द्र यादव के निधन से साहित्य का कितना नुकसान हुआ इसका आकलन तो विद्वान आलोचक करेंगे लेकिन उनके जाने से दिल्ली का साहित्यक माहौल सूनेपन का दंश झेल रहा है । राजेन्द्र यादव के खिलंदड़ेपन और युवाओं को उकसाने और बुजुर्ग लेखकों को लगातार छेड़ने से साहित्यक परिदृश्य जीवंत रहता था । निकट भविष्य में साहित्य के इस सूनेपन की भारपाई होती भी नहीं दिख रही है । आज पूरे देश में युवाओं को लेकर खूब बातें होती हैं लेकिन जब राजेन्द्र यादव ने उन्नीस सौ छियासी में हंस पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया उस वक्त से ही उन्होंने युवा रचनाकारों को तवज्जो देनी शुरू कर दी । हंस के माध्यम से यादव जी ने हिंदी कहानी की कम से कम दो पीढ़ी तैयार कर दी । मोहन राकेश और कमलेश्वर के साथ मिलकर नई कहानी का डंका बजानेवाले राजेन्द्र यादव ने अकेले दम पर हंस का प्रकाशन शुरु किया और नए कहानीकारों को मंच प्रदान कर स्थापित किया । इसके अलावा राजेन्द्र यादव ने अपने संपादकीय के माध्यम से अछूते सवालों को उठाते हुए समाज को झकझोरने का काम भी किया । स्त्री और दलित विमर्श को साहित्य की केंद्रीय विधा बनाने के लिए यादव जी को काफी संघर्ष करना पड़ा । आलोचकों ने उनपर जमकर हमले किए लेकिन राजेन्द्र यादव अपने धुन के पक्के थे, जिद्दी भी । जब अड़ गए तो अड़ गए । सांप्रदायिकता के खिलाफ लिखे उनके लेखों की वजह से कई मुकदमे झेले और कई दिन पुलिस सुरक्षा में गुजारने पड़े । तनाव के उन क्षणों में उनके व्यक्तित्व का खिलंदड़ापन जारी रहता था । कथाकार राजेन्द्र यादव का, संभव है, मूल्यांकन हो गया हो, लेकिन एक संपादक और एक्टिविस्ट राजेन्द्र यादव का मूल्यांकन होना अभी शेष है ।

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