पिछले कुछ वर्षों के साहित्यक परिदृश्य पर अगर हम नजर डालते हैं तो ये पाते हैं
कि पूरे देश में लिटरेचर फेस्टिवल की संख्या में इजाफा हुआ है । ऐसा नहीं है कि ये
लिटरेचर फेस्टिवल सिर्फ अंग्रेजी या हिंदी में ही हो रहे हैं । ये भारत की अन्य भाषाओं
में भी आयोजित होने लगे हैं । लिटरेचर फेस्टिवल की लोकप्रियता इतनी बढ़ी है कि अब ये
महानगरों से निकलकर शहरों में पहुंचने लगा है । कई बड़े अखबार समूहों ने भी अपने नाम
के साथ लिटरेचर फेस्टिवल शुरू कर दिए हैं । साहित्यक हलचलों पर नजर रखनेवालों का मानना
है कि लिटरेचर फेस्टिवल की लोकप्रियता की वजह जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल की सफलता है ।
देश के जिस भी कोने में लिटरेचर फेस्टिवल आयोजित होता है लगभग सभी के लिए आदर्श जयपुर
लिट फेस्ट ही होता है । उसी की तर्ज पर आयोजन होते हैं यानि समांतर सत्र चलते हैं ।
जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल की सफलता के पीछे कम से कम तीन शख्सियतों का बड़ा हाथ है ।
अंग्रेजी की मशहूर लेखिका नमिता गोखले, मशहूर इतिहास लेखक विलियम डेलरिंपल और इस आयोजन
को सफल बनाने में महती भूमिका निभाने वाले संजोय रॉय । जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल भी जब
शुरू हुआ तो दिग्गी पैलेस होटल के फ्रंट लॉन में श्रोताओं की संख्या बहुत कम थी । कालांतर
में आयोजकों की मेहनत, नया कांस्पेट, मशहूर शख्सियतों का उसमें शिरकत करना और फिर कई
साल यहां होने वाले विवाद ने जयपुर लिट फेस्ट को विश्व प्रसिद्ध बना दिया । अब तो यह
माना जाता है कि भारत में लिटरेचर का नया साल जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के आयोजन के साथ
शुरू होता है । अट्ठाइस फरवरी और एक मार्च को मुंबई के मशहूर जे जे कॉलेज ऑफ फाइन आर्ट्स
में लिट ओ फेस्ट के नाम से दो दिनों का साहित्यक जलसा हुआ । कई सत्र समांतर रूप से
चले । कई पुस्तकों का विमोचन हुआ । गुलजार, जावेद सिद्दिकी से लेकर आशुतोष की किताब
वहां रिलीज की गई । मुंबई में आयोजित इस लिट ओ फेस्ट में सत्रों का कैनवस बहुत बड़ा
था । कार्यक्रम का शुभारंभ राजनीति से हुआ और फिर सिनेमा, साहित्य, प्रगतिशील आंदोलन,
आत्मकथा और जीवनी लेखन में समस्याएं, हिंदी की मौजूदा स्थिति से लेकर मीडिया मंडी के
बदलते नियम तक को दो दिनों में समेटा गया । गुलजार तो अब इस तरह के साहित्यक आयोजनों
में स्थायी मेहमान के तौर पर मौजूद रहते हैं । यहां भी थे । उनकी उपस्थिति लिटरेचर फेस्टिवल के आयोजकों को संबल
देता है । उनकी लोकप्रियता की वजह से श्रोता भी जुट जाते हैं ।
मीडिया मंडी के बदलते नियम को लेकर सत्र में बेहद गर्मागर्म बहस हुई । इस बात पर
सहमति थी कि सोशल मीडिया के आने की वजह से न्यूजरूम का एजेंडा बदल रहा है । लेकिन इस
बात को लेकर बेहद गहरे मतभेद थे कि सोशल मीडिया के आने से मुख्यधारा की मीडिया का अंत
हो जाएगा । दरअसल सोशल मीडिया के आगमन के बाद से ही मुख्य धारा की मीडिया का मर्सिया
लिखा जाने लगा है । विशेषज्ञ इस दोष के बहुधा शिकार होते रहे हैं । जब देश में कंप्यूटर
आया तो इस बात को लेकर खूब हो हल्ला मचा कि अब लोग बेरोजगार हो जाएंगे । लेकिन कंप्यूटर
के आने के बाद इस देश में किस तरह की क्रांति हुई वो सबके सामने है । किस तरह से कंप्यूटर
ने देश के नौजवानों के लिए नौकरियां बढाई इसके लिए तफसील में जाने की जरूरत नहीं है
और ना ही वो इस लेख का विषय है । इसी तरह से देश में जब निजी न्यूज चैनलों का फैलाव
शुरू हुआ तो फिर कुछ विशेषज्ञ छाती कूटने लगे कि अब तो अखबारों का बंद हो जाना तय है
। उस वक्त यह तर्क दिया गया था कि दिनभर जो खबरें चलती रहेंगी उसको लोग अगले दिन क्यों
कर पढ़ना चाहेंगे । रात को दर्शक अगर वही खबर देख लेगा तो सुबह अखबार का इंतजार क्यों
करेगा । लेकिन तमाम आशंकाओं के विपरीत हुआ यह कि न्यूज चैनलों के फैलाव के साथ साथ
अखबारों की प्रसार संख्या और पाठक संख्या दोनों बढ़े । साल दर साल आने वाले इंडियन
रीडरशिप सर्वे और नेशनल रीडरशिप सर्वे के आंकड़े इस बात की चीख चीख कर गवाही देते हैं
। तो हर नए बदलाव के साथ पुरानी व्यवस्था के अंत की घोषणा करना बेहद आसान होता है क्योंकि
वो भावुकता और अपने विचारों की पूर्वग्रहों से जकड़ा होता है । इस बात का भी एलान किया
गया कि आनेवाले दिनों में भारत के बड़े प्रकाशन संस्थान बंद हो जाएंगे क्योंकि जनता
अब इंटरनेट पर किताबें पढ़ेगी । यहां बेहद विनम्रता पूर्वक यह बताना जरूरी है कि फ्रांस
और जर्मनी के अलावा यूरोप और अमेरिका में किताबों की बिक्री पर ईबुक्स के बढ़ते चलन
का असर लगभग नगण्य है ।
सोशल मीडिया के बढ़तेचले जाने से एक अच्छी बात यह अवश्य हुई है कि वहां जो ट्रेंड
करने लगता है उसको मुख्यधारा की मीडिया में जगह मिलने लगी है । बेवसाइट्स पर सबसे ज्यादा,
न्यूज चैनलों में उससे कम और अखबारों में सबसे कम । सोशल मीडिया की वजह से एक और बात हुई है जिसको रेखांकित
करना आवश्यक है वह ये कि अब पाठकों की फौरन प्रतिक्रिया मिल जाती है या ये भी फौरन
पता चल जाता है कि किस टॉपिक को पाठक सबसे ज्यादा पसंद कर
रहे हैं । इस सहूलियत का लाभ मीडिया संस्थान उठाने लगे हैं । दरअसल अगर हम देखें तो भारत में इस वक्त तकरीबन
नब्बे करोड़ मोबाइल उपभोक्ता है । एक अनुमान के मुताबिक इन उपभोक्ताओं में से करीब
तीस करोड़ के मोबाइल में इंटरनेट मौजूद है । वो टू जी या थ्री जी कोई भी हो सकता है
। इसका मतलब यह हुआ कि ये तीस करोड़ लोग इंटरनेट पर एक साथ मौजूद हैं । इतनी बड़ी संख्या
किसी भी विशेषज्ञ को आशावान बना सकती है लेकिन किसी के लिए आशा करना अलहदा बात है लेकिन
उस आशा और अपेक्षा के बोझ तले दबकर किसी अन्य की मृत्यु की घोषणा कर देना पूरे परिदृश्य
को नहीं समझ पाने का नतीजा है ।
गैर हिंदी प्रदेश मुंबई में आयोजित लिट ओ फेस्ट में हिंदी को लेकर कई सत्र थे ।
यह बात खौस तौर पर रेखांकित की जानी चाहिए कि चाहे वो हिंदी कविता पाठ का सत्र हो या
फिर हिंदी कितनी लोकप्रिय नामक सत्र हो, सबमें श्रोताओं की खासी उपस्थिति रही । सत्र
के पहले दिन की शुरुआत राजनीतिक विषयों से हुई तो दूसरे दिन कविता रसिकों के लिए गगन
गिल से लेकर सुंदर ठाकुर और स्मिता पारिख से लेकर अशोक चक्रधर तक अपनी कविताओं के साथ
मंच पर जमे थे । कवियों में भी रेंज काफी बड़ा था । रविवार की सुबह सभागार लगभग भरा
हुआ था । हिंदी कविता को लेकर गैर हिंदी प्रदेश में श्रोताओं की उपस्थिति आश्वस्ति
कारक रही क्योंकि हिंदी में तो यह माना जाने लगा है कि कविता के पाठक नहीं हैं । प्रकाशकों
ने कविता पुस्तकें छापने से कन्नी काटनी शुरू कर दी है । हिंदी की लोकप्रियता के सत्र
में अरुण माहेश्वरी ने हिंदी और भारतीय भाषाओं को लेकर कई जरूरी सवाल उठाए । इस सत्र
का विषय था कि क्या प्रकाशक हिंदी के लेखकों को समान अवसर देते हैं । यह सवाल वहां
अवश्य उठा लेकिन इसको लिट ओ फेस्ट से बाहर ले जाकर बड़े फलक पर देखने की आवश्यकता है
। इस विषय के आलोक में अगर हम विदेशी प्रकाशकों को देखें तो साफ झलकता है कि हिंदी
के लेखक वहां दोयम दर्जे के माने जाते हैं । उनकी प्राथमिकता अंग्रेजी होती है। अंग्रेजी
में भी वो वैसे लेखकों को तरजीह देते हैं जिनके नाम या पद से किताबें बिक जाएं । अंग्रेजी
की पुस्तकों के बरक्श अगर हम भारत में काम कर रहे विदेशी प्रकाशकों या मूल रूप से अंग्रेजी
के प्रकाशकों की बात करें तो यह साफ दिखाई देता है कि वो ना सिर्फ हिंदी बल्कि अन्य
भारतीय भाषाओं को भी तरजीह नहीं देते हैं । लिट ओ फेस्ट में एक और मह्वपूर्ण सत्र रहा
जिसने साहित्य जगत को झकझोरा और जिसने फिर से बड़े सवाल खड़े कर दिए । प्रगतिशील लेखक
आंदोलन को लेकर जावेद सिद्दिकि, रक्षंदा जलील और सलीम आरिफ अवश्य प्रगतिशील लेखक आंदोलन
पर उठ रहे सवालों से टकराते रहे । जावेद सिद्दिकि ने तो यहां तक कह दिया कि अदब जमाने
का मोहताज नहीं होता लेकिन इस सत्र में इस बात को लेकर वक्ता कन्नी काटते रहे कि क्या
वजह रही कि प्रगतिशील लेखकों का आंदोलन की सांसे फूल रही हैं । क्या वजहें रही है प्रगतिशील
आंदोलन लगातार बिखरते चला गया । गुलजार ने बांबे के जमाने में डबल डेकर बस में लेखकों
की बैठकी के किस्से सुनाए लेकिन प्रगतिशील आंदोलन पर कोई भी गंभीर बात नहीं की । इस
तरह के लिटरेचर फेस्टिवल में श्रोताओं की यह अपेक्षा रहती है कि विषय विशेष पर बड़े
लेखकों की राय जानें । संस्मरणों को सुनना अच्छा लगता है लेकिन वैचारिकी के स्तर पर
उससे ज्यादा कुछ हासिल नहीं होता है ।