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Sunday, April 19, 2015

साहित्य में कब आएगा पैसा ?

हिंदी साहित्य में यह बात हमेशा से कही और सुनी जाती रही है कि कोई सिर्फ साहित्य लिखकर अपना जीवन यापन नहीं कर सकता है । यह बात बहुत हद तक सही भी है क्योंकि हिंदी साहित्य में ऐसा कोई उदाहरण नहीं है कि किसी लेखक ने सिर्फ साहित् रच कर अपनी जिंदगी बेहतर तरीके से जी हो । हिंदी लेखकों की ऐसी छवि सायास निर्मित की गई कि वो बेचारा होता है । उसकी किताबों से होने वाली आय पर भी कई बार बात होती रही है । कॉपीराइट को लेकर प्रकाशकों और लेखकों के अपने अपने पक्ष हैं । प्रकाशकों का कहना है कि जितनी किताबें बिकती हैं उसकी रॉयल्टी लेखकों को वित्त वर्ष के अंत में भेज दी जाती है । उधर लेखकों को लगता है कि उनके साथ अन्याय होता है । कई लेखक और प्रकाशक अनुबंध करने में कोई रुचि नहीं रखते हैं दोनों की चाहत होती है किताब छप जाए । प्रोफेशनलिज्म की इसी कमी की वजह से किताबों की बिक्री और कॉपीराइट भुगतान का कोई बेहतर मैकेनिज्म नहीं बन पाया । इसका नुकसान यह हुआ कि लेखक और प्रकाशक के बीच बहुधा अविश्वास की स्थिति पैदा होती रही है । इस लेख का मकसद लेखक प्रकाशक संबंध नहीं है बल्कि हम इस पर बात कर रहे थे कि किस तरह से हिंदी में साहित्य में लिखकर कोई भी लेखक स्वावलंबी नहीं हो सकता है । इसके बरक्श अगर हम कला और संगीत को देखते हैं तो वहां काफी पैसे हैं । वहां कलाकार सिर्फ कला को समर्पित होकर ठाठ से रह सकता है । पेंटिंग की स्थिति तो बहुत ही अच्छी है । बड़े और स्थापित चित्रकारों की तो बात ही छोड़ दीजिए । अगर हम कला बाजार की बात करें तो हमें स्थिति बहुत सुखद दिखाई देती है 
करीब सात आठ साल पहले की बात है जब अमेरिकी अर्थशास्त्री पॉल कुर्गमैन ने वैश्विक मंदी की आशंका जताई थी । उन्होंने उस वक्त के अमेरिका के राष्ट्रपति जार्ज बुश के प्रशासन को आगाह किया था कि पूरा विश्व भयानक आर्थिक मंदी की चपेट में सकता है  । एक तरफ कुर्गमैन दुनिया में आर्थिक मंदी को लेकर चिंता जता रहे थे वहीं दूसरी ओर विश्व कला बाजार में कलाकृतियों की कीमतें आसमान छू रही थी । उस वक्त भारतीय कलाकारों की पेंटिग्स करोंड़ों रुपये में नीलाम हुई थीं । यूपीए शासन काल के अंतिम दो तीन वर्षों में जब अर्थव्यवस्था दबाव में थी तो उसका थोड़ा बहुत असर भारतीय कला बाजार पर भी दिखा था । उस वक्त बाजार के जानकार इसे शेयर बाजार से जोड़कर  देख रहे थे । उनका तर्क था कि शेयर बाजार से कमाए गए पैसे लोग कला बाजर में निवेशक करते थे जो कि एक बेहद सुरक्षित विकल्प माना जाता था । अंतर्राष्ट्रीय और भारतीय कला बाजार में  ना तो आर्थिक मंदी का कोई बहुत ज्यादा असर दिखा और ना ही अर्थवयवस्था के कमजोर होने का बहुत असर दिखा । कई नामचीन भारतीय पेंटर हैं जिनकी कलाकृतियां करोड़ों रुपये में  बिकीं । एम एफ हुसैन, एस एच रजा, तैयब मेहता जैसे महान चित्रकारों के अलावा भी कई आधुनिक चित्रकार हैं जिनकी कलाकृतियों की कीमत लाखों में रहती हैं । इनके बारे में कम लिखा जाता है और इनका काम चर्चित नहीं हो पाता है चंद सालों पहले लंदन में नीलामी करने वाली कंपनी सॉदबी ने जोगेन चौधरी की कलाकृति- डे ड्रीमिंग- को तीन करोड़ रुपये में बेचा था   गौरतलब है कि दो हजार सात में सॉदबी ने रॉकिब शॉ की पेंटिंग गॉर्डन ऑफ अर्थली डिलाइट्स को इक्कीस करोड़ में बेचकर इतिहास रच दिया था इसी तरह अनीश कपूर की एक पेंटिग को अट्ठाइस लाख डॉलर,टी वी संतोष की कलाकृति -टेस्ट टू- को डेढ लाख डॉलर और रॉकिब शॉ की पेंटिंग को इक्यानवे हजार डॉलर मिले थे जो कि नीलामीकर्ता की उम्मीदों से कहीं ज्यादा थे ये फेहरिस्त बेहद लंबी है चिंतन उपाध्याय की पेंटिग को तेहत्तर हजार डॉलर, रियास कोमू की सिस्टमेटिक सिटीजन फोर्टीन तो उनासी हजार डॉलर तो बोस कृष्णामचारी की पेंटिंग को चालीस हजार डॉलर मिले थे इस फेहरिश्त में युवा चित्रकार मनीष फुष्कले को भी शामिल कर सकते हैं जिनकी एक कलाकृति दो हजार छह में अठहत्तर लाख में बिकी थी । भारतीय कलाकारों का एक बड़ा वर्ग है जिसकी अंतर्राष्ट्रीय कला बाजार में धाक है
इन दिनों मनीष पुष्कले के चित्रों की प्रदर्शनी दिल्ली के आकार प्रकार गैलरी में चल रही है । प्रदर्शनियां भारतीय कला बाजार को समझने और चित्रकार की सोच सो समझने का एक मौका देती है । मनीष पुष्कले से बात करके मुझे लगा कि भारत के जो युवा चित्रकार इस वर्त कला बाजार में तेजी से स्थापित हो रहे हैं उनके पीछे एक सोच है, एक विचार है, एक विरासत है, एक अध्ययन है । मनीष ने पानी के बारे में जो बातें कहीं उसपर काफी गंभीरता से विचार करने की जरूरत है । मनीष पुष्कले के मुताबिक उसके दादा ने कहा था कि अलग अलग स्त्रोतों के पानी को मिलाना एक पवित्र कार्य है । अब ये एक ऐसा वाक्य है जिसका काफी बड़ा संदर्भ लिया जा सकता है लेकिन मनीष ने इसको अपनी चित्रकारी के संदर्भ में लिया । मनीष ने बताया कि वो पिछले तेइस सालों से जहां भी जाते हैं वहां का पानी जरूर लेकर आते हैं और जमा करते हैं । गांव से लेकर शहर तक, देश से लेकर विदेश तक, जंगल से लेकर गुफा तक, रेगिस्तान से लेकर पहाड़ तक मनीष ने जितनी यात्राएं की हैं हर जगह का पानी उनके पास है । मनीष के मुताबिक जब वो उस पानी के भंडार को देखते हैं तो उनको अपने जेहन में बसी उन जगहों की परंपरा और विरासत की याद ताजा हो जाती है । इसको फिर वो अपनी कला में स्थान देते हैं । अब इल तरह की सोच और विरासत को लेकर जब चित्रकारी की जाती है तो कला प्रेमियों को बातें समझ में आती हैं । माना यह जाता है कि कला प्रेमियों को किसी खास कलाकारी के पीछे की सोच अगर पसंद आ जाती है तो फिर वो उसकी कीमत पर ध्यावन नहीं देते हैं । मनीष की कला के पीछे एक सोच है । मनीष का मानना है कि आधुनिक समाज ने कोई सभ्यता नहीं बनाई है, उसने म्यूजियम बनाया है जहां हम अपनी समृद्ध विरासत को संभाल कर रखते हैं । इन संग्रहालयों में हम पूर्वजों की यादों और उनकी समृद्ध विरासत को संजो रहे हैं । मनीष की इस प्रदर्शनी का नाम भी है म्यूजियम ऑफ अननोन मेमरीज । इस प्रदर्शनी के चित्रों में इस थीम को साफ तौर पर रेखांकित किया जा सकता है । हमारे देश के इस युवा चित्रकार के सोचने का कैनवस बहुत बड़ा है । वो अपनी चित्रकारी के माध्यम से जिस तरह की संप्रेषणीयता को अपनाता है वही तकनीक अपने लेखन में भी अपनाता है । मनीष पुष्कले ने बहुत कम समय में पेंटिग की दुनिया में काफी यश कमा लिया । चित्रकारी में यश के साथ पैसा स्वत आता है । उनके चित्रों की प्रदर्शनी देश विदेश में लगती रहती है । मनीष पुष्कले चित्रकारी की इस विधा में औपचारिक रूप से दीक्षित नहीं हैं बल्कि उन्होंने अपनी लगन और मेहनत के बल पर ये मकाम हासिल किया है । मनीष ने अपनी किताब सफेद साखी में लिखा है कैनवस दिगम्बरा है,चारो तरफ से खुली हुई सफेद, शांत, पवित्र । उनकी न स्मृति है न इतिहास । इस दिगम्बरा को उनके चित्रों में महसूस भी किया जा सकता है ।

कला का जो बाजार है उसमें ग्राहकों का मनोविज्ञान बेहद अहम भूमिका अदा करता है किसी भी देश में राजनैतिक हालात बेहतर रहते हैं तो निवेशकों का भरोसा मजबूत रहता है और वो वेफिक्र होकर निवेश करते हैं हाल के दिनों में कला बाजार में निवेश करनेवालों की तादाद बढ़ रही है और आनेवाले समय में इस बाजार में और बढ़ोतरी और स्थिरता देखने को मिल सकती है घरेलू कला बाजार और सोना दो निवेश ऐसे हैं जिसमें निवेशकों का विश्वास लगातार बना हुआ है एक अनुमान के मुताबिक भारत का कला बाजार लगभग दो से तीन  हजार करोड़ रुपये का है शेयर बाजार में सुधार के बाद कला बाजार में और बेहतरी की उम्मीद है । कला का भारत में एक बाजार बना लेकिन साहित्य का बाजार होते हुए वो बन नहीं सका । दरअसल हिंदी के लेखकों को बाजार से बेहद तकलीफ है । ये उनका दोहरा रवैया है । रोई भी लेखक जैसे ही किताब छपने के लिए तैयार करता है तो उसकी ख्वाहिश होती है कि वो बिकी । बिकेगी कहां, बाजार में । बाजार में किताब की बिक्री की ख्वाहिश पाले लेखक उसी बाजार का विरोध करते हैं लिहाजा बाजार उनको अपने तरीके से हाशिए पर डाल देता है । बाजार का विरोध ठीक है, आप करो लेकिन फिर उसी से अपेक्षा तो ना करो । दरअसल हिंदी साहित्य में निवेश के पीछे यही मानसिकता जिम्मेदार है । इससे आगे निकलना होगा, वर्ना स्थिति में सुधार की उम्मीद बेमानी है ।  

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