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Sunday, December 31, 2017

पुस्तकों के केंद्र में व्यक्ति और प्रवृत्तियां

आज खत्म हो रहे वर्ष पर अगर नजर डालें तो यरह बात साफ तौर पर उङर कर आती है कि फिल्मी सितारों की जीवनियों और आत्मकथाओं के अलावा भी अंग्रेजी में प्रकाशित कुछ किताबें रहीं जो खासी चर्चित रहीं। कोई अपने लेखन शैली की वजह से तो कोई शोध-प्रविधि की वजह से, तो कोई विषयगत नवीनता की वजह से। हम वैसी पांच चुनिंदा पुस्तकों की चर्चा करेंगे जो जरा अलग हटकर रही। जिस एक पुस्तक ने वैश्विक पटल पर खासी चर्चा बटोरी वो है मशहूर अमेरिकी लेखिका वेंडि डोनिगर की किताब द रिंग ऑफ ट्रुथ, मिथ ऑफ सेक्स एंड जूलरी। अपनी इस कृति में वेंडि इस सवाल का जवाब तलाशती हैं कि अंगूठियों का स्त्री पुरुष संबंधों में इतनी महत्ता क्यों रही है। क्यों पति-पत्नी से लेकर प्रेमी-प्रेमिका और विवाहेत्तर संबंधों में अंगूठी इतनी महत्वपूर्ण हो जाती है। अंगूठी प्यार का प्रतीक तो है लेकिन इससे वशीकरण की कहानी भी जुड़ती है। बहुधा यह ताकत के प्रतीक के अलावा पहचान के तौर पर भी देखी जाती रही है। अंगूठी और संबंधों के बारे में मिथकों में क्या कहा गया है, आदि आदि। इस पुस्तक में वेंडि डोनिगर ने बताया है कि किस तरह से सोलहवीं शताब्दी में इटली में पुरुष जो अंगूठियां पहनते थे उसमें लगे पत्थरों में स्त्रियों के नग्न चित्र उकेरे जाते थे। माना जाता था कि इस तरह की अंगूठी को पहनने वालों में स्त्रियों को अपने वश में कर लेने की कला होती थी ।
वेंडि डोनिगर के मुताबिक करीब हजारों साल पहले जब सभ्यता की शुरुआत हुई थी तभी से कविताओं में गहनों का जिक्र मिलता है । उन कविताओं में स्त्री के अंगों की तुलना बेशकीमती पत्थरों की गई थी। वेंडि डोनिगर इस क्रम में जब भारत के मिथकीय और ऐतिहासिक चरित्रों की ओर आती हैं । सीता के अलावा वो दुश्यंत का भी उदाहरण देती हैं कि कैसे उसको अंगूठी को देखकर अपनी पत्नी शकुंतला की याद आती है। वेंडि डोनिगर ने अपनी इस किताब में मेसोपोटामिया की सभ्यता से लेकर हिंदी, जैन, बौद्ध, ईसाई और इस्लाम धर्म के लेखन से तथ्यों को उठाया है और उसको व्याख्यायित किया है वो अद्धभुत है।  
दूसरी जिस पुस्तक की इस वर्ष खासी चर्चा रही वो थी कांग्रेस के नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश की इंदिरा गांधी पर लिखी -इंदिरा गांधी, अ लाइफ इन नेचरइंदिरा गांधी के व्यक्तित्व पर कई पुस्तकें आ चुकी हैं। इस वर्ष भी पत्रकार सागरिका घोष की पुस्तक – इंदिरा, इंडियाज मोस्ट पॉवरफुल प्राइम मिनिस्टर प्रकाशित हुई। जयराम की किताब में पर्यावरण प्रेमी के तौर पर इंदिरा गांधी के व्यक्तित्व को सामने रखा गया है। इस किताब पर जयराम रमेश ने गहन शोध के साथ तथ्यों को जुटाया है और उसको रोचक तरीके से पिरोते हुए पाठकों के सामने पेश किया है। इंदिरा गांधी की इस गैरपारंपरिक जीवनी में अन्य कई रोचक और दिलचस्प प्रसंग है जिससे इंदिरा गांधी की पर्यावरण प्रेमी के तौर पर एक नई छवि का निर्माण होता है। तमाम तरह के सरकारी पत्रों, फाइल नोटिंग्स और व्यक्ति प्रसंगों के आधार पर श्रमपूर्व जयराम रमेश ने इंदिरा गांधी के व्यक्तित्व के इस अनछुए पहलू को सामने लाया है। लेखक ने इस पुस्तक के शुरुआती अध्यायों में इस बात की कोशिश की है कि पाठकों को इंदिरा गांधी के पर्यावरण प्रेमी होने की प्रामाणिक जानकारी हो सके। कांग्रेस में होने के बावजूद जयराम रमेश ने कई मसलों पर इंदिरा गांधी के फैसलों से अपनी असहमति भी प्रकट की है। जैसे मथुरा में रिफाइनरी लगाने के इंदिरा गांधी के फैसले को वो गलत ठहराते हैं। इस पुस्तक में पाठकों को इंदिरा गांधी से जुड़े कुछ दिलचस्प व्यक्तिगत प्रसंग भी पढ़ने को मिलते हैं। जयराम कहते हैं कि अपने पिता से दूर रहने और बीमार मां की देखभाल करने की वजह से जो एकाकीपन उनकी जिंदगी में आया उसको उन्होंने प्रकृति और पर्यावरण से दोस्ती करके भरने की कोशिश की। पर्यानरण को लेकर उनका अपने ही मुख्यमंत्रियों अर्जुन सिंह, जे बी पटनायक और श्यामाचरण शुक्ला के साथ गहरे मतभेद हुए थे और उन्होंने उनको पत्र लिखकर अपनी चिंताओं से अवगत कराया था । अपनी इस पुस्तक में जयराम रमेश इस बात को जोर देकर कहते हैं कि भारत में पर्यावरण को लेकर इंदिर गांधी की पहल से ही जागरूकता आई थी। इस तरह की और किताबों की आवश्यकता है ताकि अन्य नेताओं के भी व्यक्तित्व के अनछुए पहलू सामने आ सकें।
तीसरी चर्चिच कृति आई पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की राजनीतिक आत्मकथा का तीसरा खंड द कोलीशन इयर्स 1996-2012 । प्रणब मुखर्जी की इस किताब से देश के लंबे संसदीय इतिहास की झलक मिलती है। इसमे उनसे जुड़े कई दिलचस्प प्रसंग भी हैं। जैसे 2004 के लोकसभा चुनाव के पहले बंगाल के कांग्रेस नेता अधीर रंजन चौधरी ने उनपर जांजीपुर से लोकसभा चुनाव लड़ने का दबाव बनाया। दादा को इस बात का भरोसा नहीं था कि वो लोकसभा चुनाव जीत सकेंगे क्योंकि इसके पहले के प्रयासों में उनको असफलता हाथ लगी थी। प्रणब मुखर्जी जब चुनाव लड़ने के लिए तैयार हो गए तो सोनिया गांधी ने उनके कशमकश को समझते हुए कहा था कि आप चिंता ना करें, हम आपको किसी अन्य राज्य से राज्यसभा में ले आएंगें अगर बंगाल में हमारे पास पर्याप्त वोट नहीं होते हैं। पार्टी अध्यक्ष का ये आश्वासन उनके आत्मविश्वास को बढ़ा गया।

जिस गुस्से का जिक्र ऊपर किया गया है वैसे ही गुस्से का एक वाकया है । जब नवंबर 2014 में कांची के शंकराचार्य जयेन्द्र सरस्वती को गिरफ्तार किया गया था तब भी प्रणब मुखर्जी का गुस्सा फूट पड़ा था। पूरा देश दीवाली मना रहा था और शंकराचार्य गिरफ्तार कर लिए गए थे। प्रणब मुखर्जी का दावा है कि उन्होंने कैबिनेट में साफ गिरफ्तारी के समय को लेकर सवाल खड़ा किया था और कहा था कि क्या धर्मनिरपेक्षता सिर्फ हिंदू संतों को लेकर ही होती है। उन्होंने ये सवाल भी खड़ा किया था कि क्या सरकार ईद के दौरान किसी मौलाना को गिरफ्तार करने की हिम्मत कर सकती है। प्रणब मुखर्जी को पढ़ना हमेशा अच्छा लगता है लेकिन ये बात भी समझ में आती है कि वो बहुत ज्यादा खुलते नहीं हैं।

चौथी एक और पुस्तक आई जिसको लेकर बहुत शोर मचाया गया, वो था बुकर पुरस्कार से सम्मानित मशहूर लेखिका अरुंधति राय का उपन्यास द मिनिस्ट्री ऑफ अटमोस्ट हैप्पीनेस। गॉड ऑफ स्माल थिंग्स के प्रकाशन के बीस साल बाद अरुंधति का दूसरा उपन्यास आया । अरुंधति का उपन्यास द मिनिस्ट्री ऑफ अटमोस्ट हैप्पीनेस की शुरुआत एक लड़के की कहानी से होती है जो किन्नरों के समूह में शामिल हो जाता है। किन्नरों के बीच के संवाद में , दंगे हमारे अंदर हैं, जंग हमारे अंदर है, भारत-पाकिस्तान हमारे अंदर है आदि आदि को देखकर ये लगता है कि अरुंधति का एक्टिविस्ट उनके लेखक पर हावी दिखता है । इस उपन्यास में वो बहुधा फिक्शन की परिधि को लांघते हुए अपने सिद्धांतों को सामने रखती हैं। पाठकों पर जब इस तरह के विचार लादने की कोशिश होती है तो उपन्यास बोझिल होने लगता है । वैचारिकी अरुंधति की ताकत हैं और इस उपन्यास में वो इसको मौका मिलते ही उड़ेलने लगती हैं । कुल मिलाकर अरुंधति के भक्त पाठकों को यह उपन्यास भाया लेकिन फिक्शन पढ़ने वालों को निराशा हाथ लगी ।
पांचवीं और महत्वपूर्ण पुस्तक जो इस वर्ष के उत्तरार्ध में प्रकाशित हुई वह है उपिन्दर सिंह की पॉलिटिकल वॉयलेंस इन एनसिएंट इंडिया। इस पुस्तक में लेखिका ने पौराणिक ग्रंथों, कविताओं, धर्मिक ग्रंथों, शिलालेखों, राजनीतिक संधियों के उपलब्ध दस्तावेजों, नाटकों आदि के आधार पर 600 बीसीई लेकर 600 सीई तक के दौर के को रेखांकित किया है। इस पुस्तक में राजनीतित हिंसा के कई रूपों को लेखिका ने पाठकों के सामने रखा है। पूरी तरह से अहिंसा को अपनाना संभव नहीं है, इससे उस दौर के कई राजा, संत और विचारक भी इत्तफाक रखते थे।इस पुस्तक से एक और बात समझ आती है कि जिस तरह से इस बात को प्रटारित किया गया कि भारत में शांतिप्रियता और अहिंसा एक सिद्धांत के तौर पर पौराणिक काल से रहा है, वो दरअसल थी नहीं। इस तरह से ये इस तरह की अवधारणा का निगेट भी करती है। उस दौर में भी राजनीतिक हिंसा को लेकर काफी बहसें हुआ करती थी और सदियों बाद अब भी राजनीतिक हिंसा को लेकर बहस जारी है। कुल मिलाकर अगर हम देखें तो उपिन्दर ने अपनी इस पुस्तक में पाठकों को प्राचीन भारतीय इतिहास की अवधारणाओं के बारे में नए तरीके से सोचने की जमीन मुहैया करवाई है। उपिन्दर ने श्रमपूर्व शोधकार्य किया है और साथ ही अपनी अवधारणाओं को स्थापित करती चलती है। वेंडि डोनिगर और उपिन्दर सिंह की पुस्तक शोध होने के बावजूद पाठनीय हैं और यही किसी शोध की ताकत भी होती है।

Monday, December 25, 2017

वर्तमान आलोचना 'आलू-चना'- मेघ

दिसबंर में पूरे देश की निगाहें साहित्य अकादमी सम्मान की घोषणा पर टिकी होती हैं। भारतीय भाषाओं में श्रेष्ठ लेखन के लिए दिया जानेवाला साहित्य अकादमी पुरस्कार देश के सबसे प्रतिष्ठित सम्मानों में से एक है। हिंदी के लिए इस वर्ष का साहित्य अकादमी पुरस्कार 86 वर्ष के लेखक रमेश कुंतल मेघ को उनकी कृति विश्वमिथकसरित्सागर पर दिए जाने की घोषणा की गई है। पुरस्कार की घोषणा के बाद रमेश कुंतल मेघ से अनंत विजय की बातचीत के प्रमुख अंश
प्रश्न- उम्र के इस पड़ाव पर आपको साहित्य अकादमी पुरस्कार देने की घोषणा की गई है। आपकी पहली प्रतिक्रिया।
 मेघ- मैं इस पुरस्कार को सादर स्वीकार करता हूं और अपने पाठकों और साहित्य अकादमी को इसके लिए धन्यवाद ज्ञापित करता हूं।  
प्र- 11वीं शताब्दी में कश्मीर के सोमदेव भट्ट ने कथासरित्सागर की रचना की थी और ऐसा कहा जाता है कि उन्होंने रानी को प्रसन्न करने के लिए उसको लिखा था। आपने किसको प्रसन्न करने के लिए विश्वमिथकसरित्सागर की रचना की?
 मेघ- मैंने किसी को प्रसन्न करने के लिए आजतक कुछ नहीं लिखा । मैं विचारों से वामपंथी हूं लेकिन मेरे लेखन के केंद्र में हमेशा से जनता रहती है, जनता के लिए ही साहित्य रचता हूं। अगर किसी को खुश करना होता, तो मैं नेताओं के लिए लिखता और बहुत कुछ पा जाता। मैंने तो देश में वो दौर भी देखा है जब कई क्रांतिकारी हफ्ते में तीन बार पार्टी बदल लेते थे और लाभ पाते थे, मैंने कभी ऐसा नहीं किया।
प्र- आप खुद को विचारों से वामपंथी मानते हैं लेकिन आपने कहा था कि आप आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के अकिंचन शिष्य हैं और कार्ल मार्क्स के ध्यान शिष्य। इस संशलिष्टता को कैसे समझा जाए?
मेघ- आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी मानवतावादी थे। उनके ध्यान में हमेशा छोटे से छोटे लोग होते थे, समाज के आखिरी पायदान के लोग होते थे उन्होंने कभी भी उच्चवर्ग को ध्यान में रखकर लेकर कोई बात नहीं की। मैं भी इसको मानता हूं और लोक के हितों को सर्वोपरि मानकर सृजन करता हूं, इस लिहाज से मैं उनका अकिंचन शिष्य हूं। रही मार्क्स के ध्यान शिष्य की बात तो अब तो मार्क्स रहे नहीं तो उनके सिद्धांतों को ही जाना जा सकता है। लेकिन यहां एक बात और आपको बता दूं कि किसी भी धारा में बहकर आप संपूर्णता में व्याख्या नहीं कर सकते। क्या यह संभव है कि विज्ञान और ग्रीको-रसियन दर्शन को एक धारा में बहकर पकड़ा जा सके? हर जगह संस्कृति के तत्व अलग होते हैं।
प्र- आप खुद को आलोचिन्तक कहते हैं, इसके पीछे की सोच क्या है?
मेघ- देखिए मैं हिंदी की वर्तमान आलोचना में से ज्यादातर को आलू-चना कहता हूं। हिंदी में आलोचकों ने आलोचना के केंद्र में साहित्य को ला दिया और अपनी संस्कृति, दर्शन और समाजशास्त्र को हाशिए पर डाल दिया। इस वजह से आलोचना में चिंतन और सांस्कृतिक दर्शन लगभग अनुपस्थित है। मैं जब आलोचना लिखता हूं तो उसका केंद्रीय आधार साहित्य नहीं बल्कि संस्कृति होता है, जिसमें दर्शन भी होता है, समाज भी होता है और चिंतन भी होता है। इस वजह से मैं खुद आलोचिन्तक मानता हूं।
प्र- परंतु हिंदी में तो इस तरह की अवधारणा बिल्कुल नहीं है।
मेघ- दरअसल हमारे यहां हिंदी में लेखन को तुच्छ मानते हैं, सारा कुछ अंग्रेजी में केंद्रित हो गया है। मैंने विदेशों में हिंदी में लिखा तो किसी ने नोटिस ही नहीं लिया। इससे मैंने खुद को अपमानित महसूस किया और तय किया कि भारत में अंग्रेजी में कभी नहीं बोलूंगा, लेकिन वैश्विक मंच पर मजबूरी है अंग्रेजी में बोलने की।
प्र- आपका साहित्य के प्रति रुझान कैसे हुआ, आप तो विज्ञान के छात्र थे।
मेघ- छात्र के तौर पर मैं इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिंदू हॉस्टल में रहता था। मैं देखता था कि मेरे हॉस्टल के पास से एक सुदर्शन व्यक्तित्व हर रोज खुद से बाते करते हुए गुजरता था। वो काफी देर तक पैदल चलते रहते थे। मैंने किसी से पूछा तो पता चला कि वो शख्स हिंदी के महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला हैं। मैंने एक दिन तय किया कि उनके पीछे पीछे चलूंगा और उनकी बातें सुनूंगा। मैंने ऐसा किया। उनकी बातों को सुनकर लगा कि वो महाकवि ही नहीं बल्कि महामानव हैं।एक दिन मैंने उनके चरणों को छूकर आशीर्वाद लिया। उनके आशीर्वाद ने ही मुझे साहित्य और संस्कृति की ओर प्रेरित किया।
प्र- आपने बिहार, पंजाब, चंडीगढ़ और अमेरिका के विश्वविद्यालयों में अध्यापन किया है, आपने कहां खुद को सबसे ज्यादा समृद्ध किया।
मेघ- मैं उत्तर प्रदेश का रहनेवाला हूं और मेरी असली जड़ें इलाहाबाद, लखनऊ और कानपुर में हैं। लेकिन मुझे ये स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं है कि मेरा सांस्कृतिक निर्माण बिहार की धरती से हुआ। बिहार की धरती ने नालंदा और विक्रमशिला जैसे ज्ञान के केंद्र दिए, वहां बुद्ध का प्रभाव रहा है। वहां सांस्कृतिक रूप से इतने समृद्ध व्यक्ति हुए हैं जिनकी सूची बहुत लंबी है। कह सकते हैं कि मेरा सांस्कृतिक चंदोवा वहीं तैयार हुआ। बिहार की संस्कृति से सीखने को बहुत मिला।



   

आत्मकथाओं ने बटोरी सुर्खियां

इस वर्ष अंग्रेजी में कई ऐसी पुस्तकें प्रकाशित हुईं जिसने खासी चर्चा बटोरी। इनमें सिनेमा, राजनीति, पर्यावरण, खेल और समाज शास्त्र की पुस्तकें शामिल रहीं। लेकिन सबसे ज्यादा चर्चा जिन किताबों की हुई उनमें फिल्मी कलाकारों की आत्मकथाएं या जीवनियां शामिल रहीं। इस बार हम चर्चा करेंगे उन चुनिंदा फिल्मी पुस्तकों की जो पूरे साल भर सुर्खियों में रहीं। सबसे ज्यादा चर्चा बटोरी फिल्मकार करण जौहर की संस्मरणात्मक शैली में लिखी किताब एन अनसूटेबल बॉय। करण जौहर के संस्मरणों की किताब एन अनसुटेबल बॉयमें उनके बचपन से लेकर अबतक की कहानी है, कहीं विस्तार से तो कहीं बेहद संक्षेप में । करण ने अपनी फिल्मों की तरह अपनी इस किताब में भी इमोशन का तड़का लगाया है । करण जौहर जब अपने बचपन आदि के बारे में बहुत विस्तार से लिखते हैं तो कई बार इस बात का अहसास होता है कि किताब के संपादन में थोड़ी निर्ममता की आवश्यकता थी । करण जौहर ने इस किताब में अपने सेक्सुअल प्रेफरेंस को लेकर भी खुलकर बातें की । शाहरुख खान से अपनी दोस्ती पर भी एक अध्याय लिखा । इस पुस्तक में उन्होनें काजोल से अपने संबंधों के टूटने की वजह भी बताई है । यहां जिस साफगोई से करन ने लिखा है उसकी तारीफ की जानी चाहिए, वर्ना आमतौर पर तो आत्मकथात्मक संस्मरणों में सच के आवरण में झूठ का पुलिंदा पेश किया जाता रहा है । दो सौ सोलह पृष्ठों की इस किताब की अगर संपादन के वक्त चूलें कस दी जातीं तो पाठकों के लिए और रोचक होती।
करण की किताब से पहले ऋषि कपूर की आत्मकथा खुल्लम खुल्ला प्रकाशित हुई थी। इस पुस्तक में भी कई ऐसे प्रसंग हैं जिसने सालभर सुर्खियां बटोरीं। पत्रकार मीना अय्यर के साथ मिलकर लिखी गई इस किताब में उन्होंने अपने पिता और खुद की प्रेमिकाओं के बारे में खुल कर लिखा है । इस किताब में सिर्फ प्यार मोहब्बत के किस्से ही नहीं हैं, इस में ऋषि कपूर ने अपनी असफलता के दौर पर भी लिखा है और माना है कि उस दौर में वो अपनी असफलता के लिए नीतू सिंह को जिम्मेदार मानने लगे थे इस वजह से पति-पत्नी के रिश्तों में तनाव आ गया था । लेकिन इस किताब का सबसे मार्मिक प्रसंग है जब राज कपूर अपने अंतिम दिनों में दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में भर्ती थे तो दिलीप कुमार उनसे मिलने आए थे । अस्पताल में बेसुध पड़े राज कपूर के हाथ को पकड़कर दिलीप कुमार ने कहा था- राज, अब उठ जा । तू हमेशा से हर सीन में छाते रहे हो, इस वक्त भी सारे हेडलाइंस तेरे पर ही है । राज आंखे खोल, मैं अभी पेशावर से आया हूं और वहां से कबाब लेकर आया हूं जो हमलोग बचपन में खाया करते थे । दिलीप कुमार बीस मिनट तक ऐसी बातें करते रहे थे । ऋषि ने बताया कि दोनों के बीच जबरदस्त प्रतिस्पर्धा रहती थी लेकिन दोनों बेहतरीन दोस्त थे । यह किताब शास्त्रीय आत्मकथा से थोड़ा हटकर है क्योंकि इसमें हर वाकए पर ऋषि कपूर कमेंटेटर की तरह अपनी राय भी देते चलते हैं ।
एक और किताब जो चर्चा में रही वो थी आशा पारिख की आत्मकथा द हिट गर्ल। करीब ढाई सौ पन्नों की इस किताब को बेहतरीन तरीके से प्रस्तुत किया गया है। आशा पारिख की इस आत्मकथा के सहलेखक हैं मशहूर फिल्म समीक्षक खालिद मोहम्मद। इसकी भूमिका सुपरस्टार सलमान खान की है। किसी भी बॉलीवुड शख्सियत की जब जीवनी या आत्मकथा आती है तो पाठकों को यह उम्मीद रहती है कि उसमें जीवन और संघर्ष के अलावा उस दौर का मसालाभी होगा। आशा पारिख की इस किताब हिट गर्ल में मसाला की चाह रखनेवाले पाठकों को निराशा होगी क्योंकि आशा पारिख ने अपनी समकालीन नायिकाओं, नंदा और साधना आदि से अपनी प्रतिस्पर्धा के बारे में तो लिखा है लेकिन उस लेखन ये यह साबित होता है कि उस दौर में अभिनेत्रियों को बीच अपने काम को लेकर चाहे लाख मनमुटाव हो जाए लेकिन उनके बीच किसी तरह का मनभेद नहीं होता था। आशा पारिख ने अपनी इस किताब में माना है कि वो फिल्मकार नासिर हुसैन के प्रेम में थीं । नासिर साहब ने ही आशा पारिख को उन्नीस सौ उनसठ में अपनी फिल्म दिल दे के देखो में ब्रेक दिया था। दिल दे के देखो से शुरू हुआ सफर एक के बाद एक सात फीचर फिल्मों तक चला । ये सातों फिल्म सुपर हिट रही थीं । आशा पारिख ने अपनी किताब में इस बात पर भी प्रकाश डालने की कोशिश की है कि उन्होंने शादी क्यों नहीं की । उन्होंने साफगोई से स्वीकार किया है कि वो नहीं चाहती थी कि उनकी वजह से नासिर साहब अपने परिवार से दूर हो जाएं या उनपर एक परिवार को तोड़ने का ठप्पा लगे। आशा पारिख और नासिर साहब की नजदीकियो के बारे में कभी बॉलीवुड में इस तरह से चर्चा नहीं हुई कि दोनों प्रेम में थे। ना ही उस रिलेशनशिप को लेकर नासिर साहब के परिवार के लोगों ने कभी सार्वजनिक रूप से आपत्ति की।
तीसरी किताब जो खासी चर्चित रही वो थी अभिनेता नवाजुद्दीन सिद्दिकि की संस्मरणों की किताब एन आर्डिनरी लाइफ, अ मेमोयॉर जिसको विवाद के बाद बाजार से वापस लेना पड़ा और नवाज को सार्वजनिक तौर पर खेद प्रकट करना पड़ा। अपनी इस पुस्तक में नवाज ने साथी कलाकार निहारिका सिंह और राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की सुनीता के साथ अपने रिश्तों पर लिखा । सुनीता ने तो इस पुस्तक एन आर्डिनरी लाइफ को एक्सट्राआर्डिनरी लाइ यानि असाधारण झूठ तक करार दे दिया। जबकि निहारिका सिंह ने आरोप लगाया कि नवाज ने उनके और अपने रिश्ते के बारे में झूठी कहानी गढ़ी है। जब विवाद राष्ट्रीय महिला आयोग तक जा पहुंचा तो नवाज ने बाजार से किताब वापस लेने का एलान कर दिया।
नवाजुद्दीन के इन संस्मरणों में उनके बचपन से लेकर सफल होने तक की यादें हैं जिनको उसने रितुपर्ण चटर्जी के साथ मिलकर कलमबद्ध किया है। नवाज की इस किताब में जब वो अपने बचपन के दिनों को याद करते हैं तभी वो इस बात के मुकम्मल संकेत दे देते हैं कि किताब में आगे क्या होगा। अपने स्कूल और कॉलेज के दिनों में उन्होंने शबाना, फरहाना से लेकर कई महिला मित्रों को जिक्र किया है और उनको लेकर अपने मन में दबे प्रेम का इजहार भी किया है। इस पुस्तक में एक अंतर्धारा शुरू से लेकर अंत तक दिखाई देती है वो है लेखक का महिलाओं को लेकर आकर्षण और अपने कदकाठी और रंग को लेकर एक प्रकार की कुंठा। नवाज के इन संस्मरणों का बेहतरीन हिस्सा है उनके बचपन की कहानी जहां वो अपने गांव के बारे में बताते हैं, वहां के माहौल पर टिप्पणी करते चलते हैं। नवाज की शादी और तलाक का प्रसंग भी मार्मिक है जो पाठकों को बांधे रखता है, इन प्रसंगों में वो तीन तलाक के मुद्दे पर भी तल्ख टिप्पणी करते हैं।
हेमा मालिनी की प्रामाणिक जीवनी हेमा मालिनी: बियांड द ड्रीम गर्ल की भी इस वर्ष खासी चर्चा रही। अभिनेत्री और बीजेपी सांसद हेमा मालिनी की इस जीवनी की भूमिका प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने लिखी है। हेमा मालिनी की यह जीवनी पत्रकार और प्रोड्यूसर राम कमल मुखर्जी ने लिखी है। इस पुस्तक के पहले भावना सोमैया ने भी ड्रीमगर्ल हेमा मालिनी की प्रामाणिक जीवनी लिखी थी । इस पुस्तक का नाम हेमा मालिनी था और ये जनवरी दो हजार सात में प्रकाशित हुई थी। हेमा मालिनी की दूसरी प्रामाणिक जीवनी में उनके डिप्रेशन में जाने का प्रसंग विस्तार से है। हेमा मालिनी ने कैसे उसको लगभग छुपा कर झेला और फिर उससे उबरीं। डिप्रेशन को साझा करने से इसका असर कम होता है लेकिन विशेषज्ञों का मानना है कि इसको झुपाने से मर्ज और बढ़ जाता है। मर्ज और शोहरत के बीच हेमा का संघर्ष इसमें चित्रित हुआ है।
राजेश खन्ना के जीवनीकार और फिल्म कयामत से कयामत तक पर एक मुक्कमल पुस्तक के लेखक गौतम चिंतामणि की इस वर्ष फिल्म पिंक पर एक किताब- पिंक द इनसाइड स्टोरी, आई जिसकी खासी चर्चा रही। इस किताब में गौतम ने बेहद दिलचस्प तरीके से उन स्थितियों की चर्चा की है, जिन्होंने इस फिल्म के आइडिया को मजबूत किया। किस तरह से सोसाइटी और परिवार में लड़कियों के हालात को लेखक और निर्देशक ने महसूस किया और उन हालात ने फिल्म को कितनी मजबूती दी इसको लेखक ने पाठकों के सामने रखा है। किताब की भूमिका अमिताभ बच्चन ने लिखी है और इसमें फिल्म पिंक की पूरी स्क्रीनप्ले भी है। आज के हालात के मद्देनजर यह किताब नो का मतलब नो को समझने में मदद करती है। इस तरह से हम देखें तो ये लगता है कि देश में फिल्मी पुस्तकों के पाठक हैं, चाहे वो आत्मकथा हो, जीवनी हो या फिर किसी फिल्म पर लिखी मुकम्मल किताब।



Saturday, December 16, 2017

संग्राम बड़ा भीषण होगा

हिंदी के कवि रामधारी सिंह दिनकर की एक कविता हैं जिसमें ये पंक्ति आती है कि याचना नहीं अब रण होगा संग्रम बड़ा भीषण होगा। दिनकर की ये पंक्तियां साहित्य अकादमी के अध्यक्ष पद के लिए होनेवाले चुनाव पर लगभग सटीक बैठ रही हैं। वामपंथी लेखकों के लगभग कब्जे वाली संस्था को इस विचारधारा से मुक्त करवाने के लिए दक्षिणपंथी विचारधारा के लेखकों ने संग्राम का एलान कर दिया। जीकत किसकी होगी ये तो अगले साल होनेवाले चुनाव में पता चलेगा लेकिन तस्वीर बहुत कुछ इक्कीस दिसंबर को वर्तमान एक्जीक्यूटिव कमेटी की बैठक में साफ हो जाएगी। साहित्य अकादमी के चुनाव का उद्घोष हो चुका है और पांच साल बाद होनेवाले इस चुनाव को लेकर साहित्यक हलके में बहुत हलचल है। साहित्य अकादमी के अध्यक्ष पद को लेकर इस वक्त सात उम्मीदवार चुनाव मैदान में है। मराठी से भालचंद्र नेमाड़े, ओडिया से प्रतिभा राय, कन्नड से चंद्रशेखर कंबार, हिंदी से अरुण कमल, लीलाधर जगूड़ी और रामशरण गौड़ और गुजराती से बलवंत जानी का नाम अध्यक्ष पद के लिए प्रस्तावित है। इऩ सात सदस्यों के लिए साहित्य अकादमी की आमसभा के सदस्य प्रस्ताव भेजते हैं जिनमें से तीन का चुनाव वर्तमान एक्जीक्यूटिव कमेटी करती है। यही तीन अध्यक्ष पद के उम्मीदवार होते हैं जिनका चुनाव नई आमसभा के सदस्य करते हैं। यह बात साहित्य जगत में प्रचारित हुई है कि बलवंत जानी सरकार समर्थित उम्मीदवार हैं। इस प्रचार को लेकर भी कई लेखकों में एक खास किस्म का विरोध देखने को मिल रहा है। इस वक्त जो लेखक एक्जीक्यूटिव में हैं और तटस्थ माने जा रहे हैं, उनका भी मानना है कि सरकार को साहित्य अकादमी के चुनाव में दखल नहीं देना चाहिए। इस सोच की वजह से वो जानी के पक्ष में ना जाकर साहित्य अकादमी की परंपरा की दुहाई देने में लगे हैं। यह कहा जा रहा है कि साहित्य अकादमी में अबतक जो उपाध्यक्ष होता है वही साहित्य अकादमी का अध्यक्ष होता आया है। इस लिहाज से देखें तो कंबार की दावेदारी मजबूत दिखाई दे रही है। लेकिन दूसरी तरफ ये भी कहा जा रहा है कि मौजूदा उपाध्यक्ष और कन्नड़ के लेखक कंबार की लेखकों के बीच स्वीकार्यता संदिग्ध है । उनकी सबसे बड़ी कमजोरी या उनकी राह की सबसे बड़ी बाधा है उनकी भाषा और संवाद करने की क्षमता को लेकर है। लेकिन बदलते माहौल में कंबार को कई खेमों और भाषा के प्रतिनिधियों का समर्थन मिलने लगा है।
दूसरी बात ये कि गुजराती भाषा के जो प्रतिनिधि इस वक्त एक्जीक्यूटिव कमेटी में हैं वो भी जानी के पक्ष में नहीं बताए जा रहे हैं। अगर गुजराती से ही बलवंत जानी का विरोध हो जाता है तो उनकी राह और मुश्किल हो जाएगी। रही बात प्रतिभा राय की तो उनको महिला होने की वजह से एक्जीक्यूटिव कमेटी से चुनाव लड़ने की हरी झंडी मिल सकती है हलांकि इसमें भी कई लोगों को संदेह है। हिन्दू एक समृद्ध कबाड़ जैसी विवादस्पद किताब लिखनेवाले मराठी लेखक भालचंद्र नेमाड़े को लेकर ज्यादा उत्साह तो नहीं है लेकिन स्थियियां क्या बनती हैं इसपर निर्भर करेगा कि एक्जीक्यूटिव कमेटी उनके पक्ष में होती है या नहीं। हिंदी के वरिष्ठ कवि अरुण कमल और लीलाधर जगूड़ी को लेकर एक भ्रम की स्थिति है। कहा ये जा रहा है कि अरुण कमल अंत समय में अपना नामांकन वापस ले लेंगे और लीलाधर जगूड़ी को आगे बढ़ने का मौका मिलेगा। लेकिन कुछ लोगों का मानना है कि ये एक रणनीति का हिस्सा भी हो सकता है। सारे पत्ते बीस इक्कीस दिसंबर तक खुलेंगे। अभी हिंदी भाषा के लेखक विश्वनाथ तिवारी अध्यक्ष पद रिटायर हो रहे हैं लिहाजा हिंदी के उम्मीदवार को समर्थन मिलना कठिन है। बचते हैं रामशरण गौड़, तो उनके बारे में साहित्य अकादमी में ये चर्चा है कि वो बलवंत जानी के नामांकन नहीं मिलने की स्थिति में कुछ कर सकते हैं अन्यथा उनको लेकर किसी भी खेमे में ज्यादा उत्साह है नहीं।
दरअसल इस बार अध्यक्ष के चुनाव से ज्यादा दिलचस्प अध्यक्ष के नामांकन का चुनाव हो गया है। अगर एक्जीक्यूटिव कमेटी के सदस्यों के पूर्व के ट्रैक रिकॉर्ड और उनकी प्रतिबद्धता पर विचार करते हैं तो कथित तौर उपाध्यक्ष कंबार के विरोध में छह या सात लोग ही नजर आते हैं। लेकिन चूंकि एक्जीक्यूटिव कमेटी में तीन लोगों के नाम पर विचार होना है इसलिए हर सदस्य को तीन लोगों को चयन का अधिकार होगा। यहीं पर खेल होने की गुंजाइश है। अगर किसी उम्मीदवार को लोग वोट डाल भी देते हैं तो उसके साथ साथ अन्य दो उम्मीवार का भी समर्थन कर देने से तस्वीर बदल जाती है। एक्जीक्यूटिव बोर्ड मे अट्ठाइस सदस्य होते हैं जिनमें मौजूदा अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, भारत सरकार के नामित दो सदस्यों के अलावा संविधान से मान्यता प्राप्त बाइस भाषाओं के प्रतिनिधि होते हैं। साहित्य अकादमी की बेवसाइट पर मौजूद जानकारी के मुताबिक भारत सरकार के नामित सदस्य हैं, प्रभात प्रकाशन के प्रभात कुमार और संस्कृति मंत्रालय के संयुक्त सचिव प्रणब खुल्लर।       
जिस तरह से इस बार साहित्य अकादमी के अध्यक्ष के चुनाव को लेकर सरगर्मी है उसके पीछे कई कारण हैं। एक तो जिस तरह से असहिष्णुता को मुद्दा बनाकर चंद लेखकों ने  साहित्य अकादमी पुरस्कार वापसी का पूरा खेल खेला था और बाद में उसकी हवा निकल गई थी उसको लेकर वामपंथी और सरकार की विचारधारा का विरोध करनेवाले लेखकों को साहित्य अकादमी के अध्यक्ष के चुनाव में एक अवसर दिखाई दे रहा है। वो साहित्य अकादमी के बहाने सरकार के विरोध की राजनीति को हवा देना चाह रहे हैं। उऩमे से कई लेखक तो ये भी दावा कर रहे हैं कि बीजेपी भले ही गुजरात में चुनाव जीत जाए लेकिन जश्न के लिए वक्त दो या तीन दिन का ही मिलेगा क्योंकि साहित्य अकादमी में अगर बलबीर जानी को अध्यक्ष पद के लिए नामांकन नहीं मिलता है तो वो इसको नरेन्द्र मोदी की हार के तौर प्रचारित करेंगे। अब मंशा जब इस तरह की हो तो सोचा जा सकता है कि चुनाव में क्या क्या दांव पर लगा होगा।  
साहित्य अकादमी की मौजूदा जनरल काऊंसिल की बैठक बीस और इक्कीस दिसबंर को दिल्ली में आयोजित की गई है। पहले दिन वर्तमान जनरल काउंसिल नए सदस्यों का चुनाव करेगी। साहित्य अकादमी के संविधान के मुताबिक आमसभा में भारत सरकार को पांच सदस्यों को नामित करने का अधिकार है। जिनमें से एक-एक संस्कृति विभाग, सूचना और प्रसारण मंत्रालय और राष्ट्रीय पुस्तक न्यास से होते हैं। दो अन्य सदस्यों को संस्कृति मंत्री नामित करते हैं।हर राज्य और संघ शासित प्रदेशों से भी तीन तीन नामांकन मंगाए जाते हैं जिनमें से एक का चुनाव किया जाता है। इनके अलावा वर्तमान जनरल काउंसिल के पास साहित्य अकादमी से मान्यता प्राप्त प्रत्येक भाषा से एक एक विद्वान को अगले जनरल काऊंसिल के लिए चुनने का अधिकार होता है। इतना ही नहीं बीस विश्वविद्यालयों और पोस्ट ग्रेजुएट विभागों के प्रतिनिधियों को भी चुना जाता है। इसके अलावा जनरल काउंसिल को अगली आमसभा के लिए आठ प्रतिनिधि को नामित करने का अधिकार भी होता है। प्रकाशकों की संस्थाओं से जो नाम आते हैं उनमें से भी एक का चुनाव किया जाता है। संगीत नाटक अकादमी और भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद की भी नुमाइंदगी होती है। बीस दिसबंर को होनेवाली बैठक में इन सदस्यों का चयन होना है। या तो उसी दिन या फिर अगले दिन यानि इक्कीस दिसंबर को एक्जीक्यूटिव कमेटी की बैठक होगी जिसमें अध्यक्ष पद के तीन उम्मीदवारों का चयन होगा।
दरअसल पुरस्कार वापसी मुहिम के बाद से ही साहित्य अकादमी पर कब्जे को लेकर वामपंथी लेखकों ने कमर कस ली थी। पिछले एक साल से उनकी तैयारी चल रही थी और विश्विद्यालयों से नाम भिजवाने से लेकर संस्थाओं के नुमाइंदों के नाम भी मंगवाने का संगठित प्रयास किया गया जा रहा था।  वामपंथी लेखकों को ये आशंका थी कि बीजेपी शासित राज्यों और केंद्रीय विश्वविद्यालयों से जो तीन नाम आएंगे उनके आधार पर अगले जनरल काऊंसिल में सरकार समर्थक लेखकों का दबदबा होगा लिहाजा उन्होंने भी अपनी गोटियां सेट करनी शुरू कर दी थी। गैर बीजेपी शासित राज्यों के विश्वविद्यालयों, संस्थाओं और प्रकाशकों की संस्था से ऐसे नाम मंगवाए गए थे जो कि अगर वामपंथी नहीं हों तो सरकार विरोधी हों या फिर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से दूरी रखते हों। उनकी ये मुहिम लंबे समय से चल रही थी जिसमें उनका अनुभव उनको साथ दे रहा था। साहित्य अकादमी के एक पूर्व अध्यक्ष भी इस काम में उनकी मदद कर रहे थे। वामपंथ और दक्षिणपंथ के लेखकों की ये लड़ाई इतनी दिलचस्प हो गई है कि पूर देश के साहित्यक हलके में साहित्य अकादमी की दिल्ली में होनेवाली दो दिनों की बैठक पर सबकी नजरें टिकी हैं।


Sunday, December 10, 2017

प्रकाशन जगत में कॉरपोरेट की दस्तक

भारत में प्रकाशन जगत को उद्योग का दर्जा प्राप्त नहीं है, बहुधा हमारे हिंदी के प्रकाशक इस बात को अलग अलग मंचों पर उठाते भी रहते हैं कि प्रकाशन के लिए बैंकों से ऋण नहीं मिलता है। वहीं दूसरी तरफ कई प्रकाशकों का कहना है कि प्रकाशन जगत काराबोर नहीं हो सकता है क्योंकि ये उद्यम साहित्य सेवा है और इसमें लेखक-प्रकाशक परिवार की तरह काम करते हैं। इसका नतीजा यह है कि हिंदी में लगातार नए-नए प्रकाशन गृहों के खुलने के बावजूद ये इस व्यवसाय में लगभग असंगठित क्षेत्र जैसी स्थिति है। पिछले कुछ सालों से जब से भारत में विदेशी प्रकाशन गृहों ने अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई है तब से प्रकाशन जगत में भी हलचल शुरू हुई है। विदेशी प्रकाशन गृहों के आगमन के बाद तकनीक के विस्तार के बाद पारंपरिक तरीके से पुस्तकों के प्रकाशन के अलावा ई प्लेटफॉर्म पर पुस्तकों के प्रकाशन ने भी इस व्यवसाय को नए आयाम दिए। ई प्लेटफॉर्म पर पुस्तकों के प्रकाशन की वजह से बाजार की तरह की तरह की संभावनाओं की तलाश भी की जाने लगी। बाजार की संभावनाओं की तलाश में ही कुछ प्रकाशनगृह पूरी तरह से बाजार में उतरने के उपक्रम करने लगे हुए हैं। यहां चर्चा सिर्फ उन प्रकाशकों की हो रही है जिनको साहित्यक पुस्तकों का प्रकाशक माना जाता है। बाजार में उतरने की हिचक लगभग खत्म सी होने लगी है, बाजार की मांग के अनुरूप कुछ प्रकाशकों ने पुस्तकों का प्रकाशन शुरू कर दिया है। यह ठीक है उनको अभी उस तरह की स्वीकार्यता या पहचान नहीं मिली है लेकिन प्रयास को पहचान तो मिली ही है। ये आने वाले समय में तय होगा कि उनकी इस तरह की पहल कितने लंबे समय तक चलती है और साहित्य जगत में किस तरह का प्रभाव छोड़ती है। अभी किसी निष्कर्ष पर पहुंचना उचित नहीं होगा।
पिछले दिनों एक खबर ने प्रकाशन जगत से जुड़े लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचा। टेलीकॉम के क्षेत्र की अग्रणी कंपनी एयरटेल ने डिजीटल प्रकाशक जगरनॉट में हिस्सेदारी खरीदी है । एयरटेल के जगरनॉट में निवेश के बाद इस तरह की खबर आई कि एयरटेल ने ये निवेश डिजिटल प्लेटफॉर्म पर स्तरीय कंटेंट और गैर पारंपरिक लेखन को बढ़ावा देने के लिए किया है। जगरनॉट में पहले भी इंफोसिस से जुड़े नंदन नीलेकणि और बोस्टन कंसलटेंसी ग्रुप के इंडिया सीईओ नीरज अग्रवाल ने निवेश किया था। तब उस निवेश को व्यक्तिगत निवेश की तरह देखा गया था, था भी।
जगरनॉट में एयरटेल का निवेश एक सुखद संकेत की तरह है और इस बात की संभावना बनने लगी है कि प्रकाशन जगत में भी संस्थागत निवेश हो सकता है। हलांकि इस क्षेत्र से जुड़े लोगों का कहना है कि एयरटेल ने अपने फोर जी प्लेटफॉर्म पर कंटेंट उपलब्ध करवाने के लिए जगरनॉट में निवेश किया है । इससे ये हो सकता है कि एयरटेल को अपने पाठकों के लिए कंटेंट उपलब्ध करवाने और उसपर नजर रखने में मदद होगी। अप्रैल दो हजार सोलह में जगरनॉट लॉंच हुआ था और इस वक्त डिजिटल प्लेफॉर्म पर उसके एप का करीब दस लाख डाउनलोड हो चुका है। एंड्रायड और आईओएस दोनों प्लेटफॉर्म पर जगरनॉट मौजूद है। जगरनॉट ने जब हिंदी में अपना एप लॉंच किया था तब उसपर एक महीने तक साहित्यक कृतियां मुफ्त में उपलब्ध करवाई गई थीं। उस वक्त जगरनॉट के इस एप पर मौजूद कृतियों को देखकर इस बात का सहज अंदाज लगाया जा सकता है कि उनकी रणनीति क्या होगी।इस निवेश के बाद जगरनॉट को अपने कंटेंट को बेहतर करने का एक अवसर मिल सकता है।
जगरनॉट, खासतौर पर हिंदी में ज्यादातर उस तरह की रचनाओं को प्रमुखता दे रहा है जिससे पाठकों को अपनी ओर खींचा जा सके। उन रचनाओं की स्तरीयता को लेकर बहस हो सकती है। जिस तरह की कहानियां या छोटे उपन्यास जगरनॉट ने अपने इस एप पर डाले थे उसमें प्रकरांतर से यौन प्रसंगों को प्रमुखता दी गई थी । साहित्यक कृतियों में रीतिकालीन प्रवृतियों को आधुनिकता के छौंक के साथ प्रस्तुत कर पाठकों की बांधने की रणनीति थी जो उसके एप को डाउनलोड करवाने में काफी हद तक सफल भी रही। पता नहीं क्यों इस तरह की स्थिति भारत में खासतौर पर हिंदी में क्यों बन रही है कि यौनिकता को प्रमुखता देनेवालों को इटरनेट पर पाठक मिलते हैं। यह शोध का एक विषय हो सकता है।  
देश में इंटरनेट के बढ़ते घनत्व ने पाठकों तक पहुंचने का एक बड़ा अवसर हिंदी के प्रकाशकों और लेखकों को उपलब्ध करवाया है। पिछले एक दशक में देश में तकनीक का फैलाव काफी तेजी से हुआ है । मोबाइल फोन की क्रांति के बाद देश ने टू जी से लेकर फोर जी तक का सफर देखा और अब तो फाइव जी की बात होने लगी है। इसका फायदा उठाने की कोशिशें भी लगातार परवान चढ़ने लगी हैं । इस वक्त कई तरह के एप हैं जहां से हिंदी साहित्य की पुस्तकें सस्ते में खरीदी और पढ़ी जा सकती हैं। किंडल पर भी हिंदी समेत कई भारतीय भाषाओं की रचनाएं हैं। हिंदी के कई प्रकाशकों ने बेहद गंभीरता से ई प्लेटफॉर्म पर अपनी मौजूदगी दर्ज करवाई है और लगातार उसको मजबूत कर रहे हैं।
 आज से करीब पांच साल पहले पहले भी प्रकाशन जगत में इसी तरह की एक प्रमुख घटना घटी थी।  विश्व के दो बड़े प्रकाशन संस्थानों- रैंडम हाउस और पेंग्विन का विलय हुआ था। रैंडम हाउस और पेंग्विन विश्व के छह सबसे बड़े प्रकाशन संस्थानों में से एक थे । जब दोनों का विलय हुआ था तब यह माना गया था कि अंग्रेजी पुस्तक व्यवसाय के पच्चीस फीसदी राजस्व पर इनका कब्जा हो जाएगा । अगर हम विश्व के पुस्तक कारोबार खास कर अंग्रेजी पुस्तकों के कारोबार पर नजर डालें तो इसमें मजबूती या कंसॉलिडेशन का दौर काफी पहले से शुरू हो गया था । रैंडम हाउस जो कि जर्मनी की एक मीडिया कंपनी का हिस्सा है उसमें भी पहले नॉफ और पैंथियॉन का विलय हो चुका है । उसके अलावा पेंग्विन, जो कि एडुकेशन पब्लिकेशन हाउस पियरसन का अंग है, ने भी वाइकिंग और ड्यूटन के अलावा अन्य छोटे छोटे प्रकाशनों गृहों को अपने में समाहित किया था। जब पेंगिवन और रैंडम हाउस का विलय हुआ था तब अमेरिका के एक अखबार की टिप्पणी ने की थी- रैंडम हाउस और पेंग्विन में विलय उस तरह की घटना है जब कि एक पति पत्नी अपनी शादी बचाने के लिए बच्चा पैदा करने का फैसला करते हैं । उस वक्त पुस्तकों के कारोबार से जुड़े विशेषज्ञों ने माना था कि अमेजॉन और किंडल पर ई पुस्तकों की लगातार बढ़ रही बिक्री ने पुस्तक विक्रेताओं और प्रकाशकों की नींद उड़ा दी थी। माना गया था कि अमेजॉन के दबदबे से निबटने के लिए रैंडम हाउस और पेंग्विन ने साथ आने का फैसला लिया था। कारोबार का एक बेहद आधारभूत सिद्धांत होता है कि किसी भी तरह के आसन्न खतरे से निबटने के लिए आप अपनी कंपनी का आकार इतना बड़ा कर लें कि प्रतियोगियों को आपसे निबटने में काफी मुश्किलों का सामना करना पड़े । कारोबार के जानकारों के मुताबिक आनेवाले वक्त में पुस्तक कारोबार के और भी कंसोलिडेट होने के आसार हैं । अगर पुस्तकों के कारोबार पर समग्रता से विचार करें तो ई बुक्स की बढ़ती लोकप्रियता से पारंपरिक प्रकाशन पर असर पड़ सकता है। दरअसल जिन इलाकों में इंटरनेट का घनत्व बढ़ेगा उन इलाकों में छपी हुई किताबों के प्रति रुझान कम हो सकता है, ऐसा माना जा रहा है, हलांकि इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि छपी हुई किताबों का अपना एक महत्व है । पाठकों और किताबों के बीच एक भावनात्मक रिश्ता होता है । किताब पढ़ते वक्त उसके स्पर्श मात्र से एक अलग तरह की अनुभूति होती है  
हिंदी प्रकाशन जगत से जुड़े लोगों को समझना होगा कि भारत में भी इंटरनेट का घनत्व लगातार बढ़ता जा रहा है और उसके यूजर्स भी । ऐसे में अगर हिंदी प्रकाशन जगत को प्रोफेशनल तरीके से एक इंडस्ट्री के तौर पर उभरना है तो उसको भी जतन करने होंगे। पाठकों तक पहुंचने के लिए और अपने पाठकों की संख्या को दर्ज करने के लिए योजनाबद्ध तरीके से काम करना होगा। अगर हिंदी प्रकाशन जगत को संस्थागत पूंजी निवेश की दरकार है तो उसको और व्यवस्थित होना पड़ेगा। आज हिंदी के प्रकाशकों के पास जिस तरह का समृद्ध कंटेंट हैं, उसको लेकर बाजार में उतरने की जरूरत है। जिस तरह का साहित्य उनके पास उसको व्यापक पहुंच की जरूरत है और अगर एक बार ये पहुंच बन गई या व्यापक पाठक वर्ग तक पहुंचने का रास्ता बन गया तो फिर इस कारोबार में निवेश की अपार संभावनाएं हैं।


Saturday, December 2, 2017

विवाद उछालने की नीयत !

अपने एक लेख में मशहूर सांस्कृतिक इतिहासकार लोटमान ने लिखा है कि – चिन्हों और प्रतीकों के जरिए संप्रेषण मानवता की सबसे बड़ी उपलब्धि है लेकिन इसती भी नियति तकनीकी सुधार की तरह ही है। जैसे प्राय: सभी तकनीकी सुधार एक प्रकार से दुधारी तलवार होती है जहां उन्हें सामाजिक प्रगति और जनकल्याण के क्षेत्र में अपनी भूमिका का निर्वाह करना पड़ता है वहां नकारात्मक उद्देश्यों के लिए भी उनका उपयोग चालाकी से किया जाता है। चिन्हों और प्रतीकों के उपयोग का उद्देश्य सही रचना देना होता है लेकिन इसका उपयोग बहुधा गलत रचना देने के लिए किया गया गया है। उनका मानना है कि इस प्रकार के चलन से एक बहुत ही विचित्र किस्म की हठवादी विपरीत अवधारणा का विकास हुआ। इस अवधारणा के तहत यह माना जाने लगा कि एक विषय जो कि असत्य हो सकता है बनाम एक विषय जो कि असत्य नहीं हो सकता है। हाल ही में गोवा में संपन्न हुए अंतराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल के दौरान जिस तरह से एस दुर्गा फिल्म को लेकर विवाद उठाने की कोशिश की गई, उसको अगर लोटमान की इन अवधारणाओं के आलोक में देखें तो उसमें भी एक हठवादी अवधारणा की अंतर्धारा दिखाई देती है। फिल्मकार ने पहले सेक्सी दुर्गा के नाम से फिल्म बनाई, बाद में उसको एस दुर्गा कर दिया। फिल्म फेस्टिवल में उसकी स्क्रीनिंग नहीं हो पाई, वो अदालत चले गए वहां से स्क्रीनिंग का आदेश लेकर आए। फिर सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने अदालत में अपील की जहां से जूरी को फैसला लेने को कह दिया गया। फिल्म फेस्टिवल के आखिरी दो दिनों तक इस फिल्म को दिखाए जाने पर सस्पेंस बना रहा। इन दो दिनों के दौरान फिल्म सनल शशिधरन ने गोवा में धरना प्रदर्शन आदि की भी कोशिश की लेकिन ज्यादा तवज्जो नहीं मिली। इस पूरे विवाद का पटाक्षेप सेंसर बोर्ड के एक फैसले से हो गया जिसमें उसने इस फिल्म के सर्टिफिकेशन को रद्द कर दिया। हलांकि अगर इस फिल्म को प्रदर्शित किया जाता तो एक गलत परंपरा की शुरुआत होती कि कोई भी अदालत जाकर जूरी के फैसले को चुनौती देता और फिर अदालत के आदेश के बाद फिल्म की स्क्रीनिंग हो जाती। ऐसा होने से जूरी की आजादी पर भी फर्क पड़ता जो कि स्वस्थ सिनेमा के लिए उचित नहीं होता। हलांकि इस तरह के आयोजनों में फिल्मों के प्रदर्शन की अनुमति का अंतिम अधिकार स्थानीय राज्य सरकार के पास होता है।  
इस पूरे विवाद को हवा देने की कोशिश की गई लेकिन इन तथ्यों को छुपा लिया गया कि फिल्मकार ने एस के बाद तीन आयताकार सफेद बॉक्स लगा कर फिल्म को गोवा अंतराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल में दिखाने की अर्जी दी थी। सेंसर बोर्ड से जुड़े जानकारों का कहना है कि एस के बाद तीन आयताकार बॉक्स लगाकर उसके बाद दुर्गा लिखने के कई अर्थ हैं। इन आयताकार बॉक्स लगाकर फिल्मकार ये संदेश देने की कोशिश कर रहे हो सकते हैं कि उन्होंने विरोध स्वरूप सेक्सी की तीन अक्षरों दो ढंक दिया। शबाना आजमी जैसी अदाकारा ने गोवा फिल्म फेस्टिवल के बहिष्कार का आह्वान किया था लेकिन उसको फिल्मी दुनिया में ही किसी ने तवज्जो नहीं दी। गोवा फिल्म फेस्टिवल के समापन समारोह में अमिताभ बच्चन, सलमान खान, अक्षय कुमार, कटरीना कैफ से लेकर करण जौहर, पूजा हेगड़े, भूमि पेडनेकर और सुशांत सिंह राजपूत के अलावा कई अन्य सितारे मौजूद थे। दरअसल एक खास विचारधारा के पोषकों को बहिष्कार आदि का रास्ता सबसे आसान लगता है। उससे भी आसान है कि कहीं कुछ हो तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को खतरे में होने की बात उछाल दो। यह एक ऐसा जुमला बन गया है जो हर जगह फिट हो जाता है चाहे वो फिल्म हो, साहित्य हो, पत्रकारिता हो, पेंटिंग हो, कहीं भी।
अगर कहीं कुछ गलत होता लग रहा हो तो उसके लिए संवाद करने की जरूरत है, सरकार या आयोजक से बात की जा सकती है। शबाना आजमी जैसी शख्सियतों को मसलों को सुलझाने की कोशिश करनी चाहिए ना कि किसी भी विवाद में अपनी राजनीति को चमकाने का अवसर तलाशना चाहिए। एक अभिनेत्री के तौर पर उनका जितना सम्मान है उसका उपयोग उनको बॉलीवुड के सकारात्मक पैरोकारी में करना चाहिए क्योंकि नकारात्मकता का अंत तो नकार से ही होता है। यह ठीक है कि लोकतंत्र में सबको अपनी बात रखने का हक है, विरोध जताने का हक भी है लेकिन जब आप एक मुकाम हासिल कर लेते हैं तो लोगों की आकांक्षा अलग हो जाती है। इस फिल्म फेस्टिवल के समापन समारोह में अमिताभ बच्चन ने एक बेहतरीन बात की। उन्होंने कहा कि फिल्म ही एक ऐसा माध्यम है जहां तीन घंटे तक हमें अपने बगल में बैठे इंसान के जाति, धर्म, विचारधारा आदि के बारे में पता नहीं होता और ना ही उससे कुछ लेना लेना देना होता है।लेकिन अफसोस कि अमिताभ बच्चन की सोच वाले लोग कम हैं यहां तो लोग फिल्म को लेकर भी राजनीति करने से नहीं चूकते।
विवादों से बेअसर गोवा फिल्म फेस्टिवल में इस वर्ष कुछ बेहद सार्थक काम भी हुए। फिल्म फेस्टिवलों में भी अबतक ज्यादातर एकालाप होता था। या तो फिल्मकार की बातें सुनकर फिल्म देखो, या सितारों की स्पीच सुनो, लेकिन अड़तालीस साल बाद अंतराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल ने अपना दायरा बढाया और एकालाप को संलाप में बदलने की कोशिश की गई।
साहित्य और सिनेमा को लेकर पूर्व में बहुत बातें होती रही हैं। खासतौर पर हिंदी में तो साहित्यकारों के सिनेमा को लेकर अनुभव बहुत अच्छे नहीं रहे हैं। प्रेमचंद के सिनेमा से मोहभंग के बारे में रामवृक्ष बेनीपुरी ने अपने संस्मरण में लिखा है- ‘1934 की बात है । बंबई में कांग्रेस का अधिवेशन हो रहा था । इन पंक्तियों का लेखक कांग्रेस के अधिवेशन में शामिल होने आया। बंबई में हर जगह पोस्टर चिपके हुए थे कि प्रेमचंद जी का ‘मजदूर’ अमुक तारीख से रजतपट पर आ रहा है । ललक हुई, अवश्य देखूं कि अचानक प्रेमचंद जी से भेंट हुई । मैंने ‘मजदूर’ की चर्चा कर दी । बोले ‘यदि तुम मेरी इज्जत करते हो तो ये फिल्म कभी नहीं देखना ।’ यह कहते हुए उनकी आंखें नम हो गईं । और, तब से इस कूचे में आने वाले जिन हिंदी लेखकों से भेंट हुई सबने प्रेमचंद जी के अनुभवों को ही दोहराया है । प्रेमचंद के अलावा अमृत लाल नागर, उपेन्द्र नाथ अश्क, पांडेय बेचन शर्मा उग्र, गोपाल सिंह नेपाली, सुमित्रानंदन पंत जैसे साहित्यकारों का भी सिनेमा से साथ ज्यादा दिनों तक नहीं चल पाया।
अंतराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल में इस वर्ष साहित्य और सिनेमा से लेकर कहानी की ताकत, उसके कहने का अंदाज और बच्चों के सिनेमा जैसे विषयों पर गंभीर मंथन हुआ। वाणी त्रिपाठी टिक्कू द्वारा क्यूरेट किए गए इन विषयों को लेकर श्रोताओं में खासा उत्साह रहा। साहित्यक प्रेरणा, सिनेमा और लिखित शब्द पर पौऱाणिक कथाओं को आधुनिक तरीके से लिखनेवाले लेखक अमीश त्रिपाठी, कवि और संगीत मर्मज्ञ यतीन्द्र मिश्र के अलावा गीतकार और सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष प्रसून जोशी ने अपने विचार रखे। इसका संचालन वाणी ने किया था। कहानी की ताकत और किस्सागोई पर एक पैनल में बेहद रोचक चर्चा हुई। अगर हम बॉलीवुड को देखें या फिर पूरे भारतीय भाषा की फिल्मों को देखें तो बच्चों की फिल्मों का अनुपात बहुत कम होता है। एक सत्र बच्चों के सिनेमा पर भी केंद्रित था जिसमें प्रसून जोशी और नितेश तिवारी जैसे वक्ता मौजूद थे। चर्चाओं का फलक इतना बड़ा था कि एक पूरा सत्र टैगोर के संसार पर केंद्रित था। आज के जमाने में डिजीटल प्लेटफॉर्म को लेकर बात ना हो तो आयोजन अधूरा सा लगता है। मशहूर फिल्मकार भारतबाला ने इस विषय पर एक सत्र संचालित किया।

दो सत्र बेहद रोचक रहे जिसमें एक तो था अपनी अगली फिल्म कैसे बनाएं जिसमें करण जौहर के अलावा एकता कपूर, सिद्धार्थ रॉय कपूर और स्टार फॉक्स के सीईओ विजय सिंह ने अपनी बातें रखीं। दूसरा सत्र नए यथार्थ से मुठभेड़ पर केंद्रित था। इन दोनों सत्रों में करण जौहर ने बेहद सधे अंदाज में अपनी बात रखी। एकता कपूर हमेशा की तरह संक्षिप्त पर दू द प्वाइंट रहीं। करण जैहर ने एक सत्र में सोशल मीडिया पर फिल्म समीक्षा को लेकर अपनी नाराजगी जाहिर की । उन्होंने कहा कि जिस तरह से इन दिनों ट्वीटर आदि पर फिल्मों की लाइव समीक्षा होती है वो अच्छा संकेत नहीं है। इन सत्रों की परिकल्पना करनेवाली समिति की अध्यक्ष वाणी त्रिपाठी टिक्कू के मुताबिक इस आयोजन का मकसद देश में सिनेमा लिटरेसी को बढ़ावा देना है। इन सत्रों में लोगों की उपस्थिति ने इस बात के संकेत दे दिए हैं कि इस तरह का प्रयोग लोगों को पसंद आया। कुल मिलाकर अगर हम देखें तो बेवजह के विवादों को उठाने की कोशिशों को सकारात्मक पहल ने हाशिए पर पहुंचा दिया।