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Saturday, December 16, 2017

संग्राम बड़ा भीषण होगा

हिंदी के कवि रामधारी सिंह दिनकर की एक कविता हैं जिसमें ये पंक्ति आती है कि याचना नहीं अब रण होगा संग्रम बड़ा भीषण होगा। दिनकर की ये पंक्तियां साहित्य अकादमी के अध्यक्ष पद के लिए होनेवाले चुनाव पर लगभग सटीक बैठ रही हैं। वामपंथी लेखकों के लगभग कब्जे वाली संस्था को इस विचारधारा से मुक्त करवाने के लिए दक्षिणपंथी विचारधारा के लेखकों ने संग्राम का एलान कर दिया। जीकत किसकी होगी ये तो अगले साल होनेवाले चुनाव में पता चलेगा लेकिन तस्वीर बहुत कुछ इक्कीस दिसंबर को वर्तमान एक्जीक्यूटिव कमेटी की बैठक में साफ हो जाएगी। साहित्य अकादमी के चुनाव का उद्घोष हो चुका है और पांच साल बाद होनेवाले इस चुनाव को लेकर साहित्यक हलके में बहुत हलचल है। साहित्य अकादमी के अध्यक्ष पद को लेकर इस वक्त सात उम्मीदवार चुनाव मैदान में है। मराठी से भालचंद्र नेमाड़े, ओडिया से प्रतिभा राय, कन्नड से चंद्रशेखर कंबार, हिंदी से अरुण कमल, लीलाधर जगूड़ी और रामशरण गौड़ और गुजराती से बलवंत जानी का नाम अध्यक्ष पद के लिए प्रस्तावित है। इऩ सात सदस्यों के लिए साहित्य अकादमी की आमसभा के सदस्य प्रस्ताव भेजते हैं जिनमें से तीन का चुनाव वर्तमान एक्जीक्यूटिव कमेटी करती है। यही तीन अध्यक्ष पद के उम्मीदवार होते हैं जिनका चुनाव नई आमसभा के सदस्य करते हैं। यह बात साहित्य जगत में प्रचारित हुई है कि बलवंत जानी सरकार समर्थित उम्मीदवार हैं। इस प्रचार को लेकर भी कई लेखकों में एक खास किस्म का विरोध देखने को मिल रहा है। इस वक्त जो लेखक एक्जीक्यूटिव में हैं और तटस्थ माने जा रहे हैं, उनका भी मानना है कि सरकार को साहित्य अकादमी के चुनाव में दखल नहीं देना चाहिए। इस सोच की वजह से वो जानी के पक्ष में ना जाकर साहित्य अकादमी की परंपरा की दुहाई देने में लगे हैं। यह कहा जा रहा है कि साहित्य अकादमी में अबतक जो उपाध्यक्ष होता है वही साहित्य अकादमी का अध्यक्ष होता आया है। इस लिहाज से देखें तो कंबार की दावेदारी मजबूत दिखाई दे रही है। लेकिन दूसरी तरफ ये भी कहा जा रहा है कि मौजूदा उपाध्यक्ष और कन्नड़ के लेखक कंबार की लेखकों के बीच स्वीकार्यता संदिग्ध है । उनकी सबसे बड़ी कमजोरी या उनकी राह की सबसे बड़ी बाधा है उनकी भाषा और संवाद करने की क्षमता को लेकर है। लेकिन बदलते माहौल में कंबार को कई खेमों और भाषा के प्रतिनिधियों का समर्थन मिलने लगा है।
दूसरी बात ये कि गुजराती भाषा के जो प्रतिनिधि इस वक्त एक्जीक्यूटिव कमेटी में हैं वो भी जानी के पक्ष में नहीं बताए जा रहे हैं। अगर गुजराती से ही बलवंत जानी का विरोध हो जाता है तो उनकी राह और मुश्किल हो जाएगी। रही बात प्रतिभा राय की तो उनको महिला होने की वजह से एक्जीक्यूटिव कमेटी से चुनाव लड़ने की हरी झंडी मिल सकती है हलांकि इसमें भी कई लोगों को संदेह है। हिन्दू एक समृद्ध कबाड़ जैसी विवादस्पद किताब लिखनेवाले मराठी लेखक भालचंद्र नेमाड़े को लेकर ज्यादा उत्साह तो नहीं है लेकिन स्थियियां क्या बनती हैं इसपर निर्भर करेगा कि एक्जीक्यूटिव कमेटी उनके पक्ष में होती है या नहीं। हिंदी के वरिष्ठ कवि अरुण कमल और लीलाधर जगूड़ी को लेकर एक भ्रम की स्थिति है। कहा ये जा रहा है कि अरुण कमल अंत समय में अपना नामांकन वापस ले लेंगे और लीलाधर जगूड़ी को आगे बढ़ने का मौका मिलेगा। लेकिन कुछ लोगों का मानना है कि ये एक रणनीति का हिस्सा भी हो सकता है। सारे पत्ते बीस इक्कीस दिसंबर तक खुलेंगे। अभी हिंदी भाषा के लेखक विश्वनाथ तिवारी अध्यक्ष पद रिटायर हो रहे हैं लिहाजा हिंदी के उम्मीदवार को समर्थन मिलना कठिन है। बचते हैं रामशरण गौड़, तो उनके बारे में साहित्य अकादमी में ये चर्चा है कि वो बलवंत जानी के नामांकन नहीं मिलने की स्थिति में कुछ कर सकते हैं अन्यथा उनको लेकर किसी भी खेमे में ज्यादा उत्साह है नहीं।
दरअसल इस बार अध्यक्ष के चुनाव से ज्यादा दिलचस्प अध्यक्ष के नामांकन का चुनाव हो गया है। अगर एक्जीक्यूटिव कमेटी के सदस्यों के पूर्व के ट्रैक रिकॉर्ड और उनकी प्रतिबद्धता पर विचार करते हैं तो कथित तौर उपाध्यक्ष कंबार के विरोध में छह या सात लोग ही नजर आते हैं। लेकिन चूंकि एक्जीक्यूटिव कमेटी में तीन लोगों के नाम पर विचार होना है इसलिए हर सदस्य को तीन लोगों को चयन का अधिकार होगा। यहीं पर खेल होने की गुंजाइश है। अगर किसी उम्मीदवार को लोग वोट डाल भी देते हैं तो उसके साथ साथ अन्य दो उम्मीवार का भी समर्थन कर देने से तस्वीर बदल जाती है। एक्जीक्यूटिव बोर्ड मे अट्ठाइस सदस्य होते हैं जिनमें मौजूदा अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, भारत सरकार के नामित दो सदस्यों के अलावा संविधान से मान्यता प्राप्त बाइस भाषाओं के प्रतिनिधि होते हैं। साहित्य अकादमी की बेवसाइट पर मौजूद जानकारी के मुताबिक भारत सरकार के नामित सदस्य हैं, प्रभात प्रकाशन के प्रभात कुमार और संस्कृति मंत्रालय के संयुक्त सचिव प्रणब खुल्लर।       
जिस तरह से इस बार साहित्य अकादमी के अध्यक्ष के चुनाव को लेकर सरगर्मी है उसके पीछे कई कारण हैं। एक तो जिस तरह से असहिष्णुता को मुद्दा बनाकर चंद लेखकों ने  साहित्य अकादमी पुरस्कार वापसी का पूरा खेल खेला था और बाद में उसकी हवा निकल गई थी उसको लेकर वामपंथी और सरकार की विचारधारा का विरोध करनेवाले लेखकों को साहित्य अकादमी के अध्यक्ष के चुनाव में एक अवसर दिखाई दे रहा है। वो साहित्य अकादमी के बहाने सरकार के विरोध की राजनीति को हवा देना चाह रहे हैं। उऩमे से कई लेखक तो ये भी दावा कर रहे हैं कि बीजेपी भले ही गुजरात में चुनाव जीत जाए लेकिन जश्न के लिए वक्त दो या तीन दिन का ही मिलेगा क्योंकि साहित्य अकादमी में अगर बलबीर जानी को अध्यक्ष पद के लिए नामांकन नहीं मिलता है तो वो इसको नरेन्द्र मोदी की हार के तौर प्रचारित करेंगे। अब मंशा जब इस तरह की हो तो सोचा जा सकता है कि चुनाव में क्या क्या दांव पर लगा होगा।  
साहित्य अकादमी की मौजूदा जनरल काऊंसिल की बैठक बीस और इक्कीस दिसबंर को दिल्ली में आयोजित की गई है। पहले दिन वर्तमान जनरल काउंसिल नए सदस्यों का चुनाव करेगी। साहित्य अकादमी के संविधान के मुताबिक आमसभा में भारत सरकार को पांच सदस्यों को नामित करने का अधिकार है। जिनमें से एक-एक संस्कृति विभाग, सूचना और प्रसारण मंत्रालय और राष्ट्रीय पुस्तक न्यास से होते हैं। दो अन्य सदस्यों को संस्कृति मंत्री नामित करते हैं।हर राज्य और संघ शासित प्रदेशों से भी तीन तीन नामांकन मंगाए जाते हैं जिनमें से एक का चुनाव किया जाता है। इनके अलावा वर्तमान जनरल काउंसिल के पास साहित्य अकादमी से मान्यता प्राप्त प्रत्येक भाषा से एक एक विद्वान को अगले जनरल काऊंसिल के लिए चुनने का अधिकार होता है। इतना ही नहीं बीस विश्वविद्यालयों और पोस्ट ग्रेजुएट विभागों के प्रतिनिधियों को भी चुना जाता है। इसके अलावा जनरल काउंसिल को अगली आमसभा के लिए आठ प्रतिनिधि को नामित करने का अधिकार भी होता है। प्रकाशकों की संस्थाओं से जो नाम आते हैं उनमें से भी एक का चुनाव किया जाता है। संगीत नाटक अकादमी और भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद की भी नुमाइंदगी होती है। बीस दिसबंर को होनेवाली बैठक में इन सदस्यों का चयन होना है। या तो उसी दिन या फिर अगले दिन यानि इक्कीस दिसंबर को एक्जीक्यूटिव कमेटी की बैठक होगी जिसमें अध्यक्ष पद के तीन उम्मीदवारों का चयन होगा।
दरअसल पुरस्कार वापसी मुहिम के बाद से ही साहित्य अकादमी पर कब्जे को लेकर वामपंथी लेखकों ने कमर कस ली थी। पिछले एक साल से उनकी तैयारी चल रही थी और विश्विद्यालयों से नाम भिजवाने से लेकर संस्थाओं के नुमाइंदों के नाम भी मंगवाने का संगठित प्रयास किया गया जा रहा था।  वामपंथी लेखकों को ये आशंका थी कि बीजेपी शासित राज्यों और केंद्रीय विश्वविद्यालयों से जो तीन नाम आएंगे उनके आधार पर अगले जनरल काऊंसिल में सरकार समर्थक लेखकों का दबदबा होगा लिहाजा उन्होंने भी अपनी गोटियां सेट करनी शुरू कर दी थी। गैर बीजेपी शासित राज्यों के विश्वविद्यालयों, संस्थाओं और प्रकाशकों की संस्था से ऐसे नाम मंगवाए गए थे जो कि अगर वामपंथी नहीं हों तो सरकार विरोधी हों या फिर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से दूरी रखते हों। उनकी ये मुहिम लंबे समय से चल रही थी जिसमें उनका अनुभव उनको साथ दे रहा था। साहित्य अकादमी के एक पूर्व अध्यक्ष भी इस काम में उनकी मदद कर रहे थे। वामपंथ और दक्षिणपंथ के लेखकों की ये लड़ाई इतनी दिलचस्प हो गई है कि पूर देश के साहित्यक हलके में साहित्य अकादमी की दिल्ली में होनेवाली दो दिनों की बैठक पर सबकी नजरें टिकी हैं।


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