मई 2014 में जब नरेन्द्र मोदी की अगुवाई
में केंद्र में सरकार बनी तो उसके बाद शुरूआत के दो साल तक शिक्षा, भाषा और
संस्कृति पर जमकर बात होती रही। सरकार भी इस दिशा में काम करती दिख रही थी, नई
शिक्षा नीति का मसौदा पेश किया गया था, भाषा, कला, साहित्य और सांस्कृतिक संगठनों
में बदलाव देखने को मिल रहे थे। बदलाव की इस बयार का विरोध भी हो रहा था, छोटे
छोटे मसलों को तूल देकर बड़ा विवाद खड़ा करने की कोशिशें की गईं, जेएनयू से लेकर रोहित
वेमुला की आत्महत्या तक को विवाद की ज्वाला में होम कर उसकी लपटें तेज की गईं ताकि
पूरा देश उसकी आंच महसूस कर सके। बिहार विधानसभा चुनाव के पहले पुरस्कार वापसी का
खेल भी खेला गया। पुरस्कार वापसी के इस खेल को कई लेखकों ने भुनाने की भी कोशिश
की। पुरस्कार वापसी के बाद ऐसा प्रतीत होने लगा कि भाषा, कला, शिक्षा और संस्कृति
के क्षेत्र में केंद्र सरकार ने यथास्थितिवाद को झकझोरना कम कर दिया। जो तेजी
शुरूआत में दिखाई दे रही थी वो धीमी होती चली गई। नतीजा यह हुआ कि एक एक करके इन
क्षेत्रों में काम करनेवाली सरकारी, और स्वायत्त संस्थाओं में इसके कर्ताधर्ताओं
की नियुक्तियां ठंडे बस्ते में चली गई। इस स्तंभ में इस बात पर विस्तार से चर्चा
हो चुकी है कि इनसे जुड़ी संस्थानों में रिक्तियां हैं और सरकार उसको भर नहीं पा
रही है या भरने में देरी हो रही है। नई शिक्षा नीति अब मोदी सरकार अपने वर्तमान
कार्यकाल में लागू कर पाएगी इसमें संदेह है क्योंकि अब आम चुनाव में वक्त बहुत कम
रह गया है।
इस वर्ष मार्च में राष्ट्रीय स्वयंसेवक
संघ की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा में एकमात्र प्रस्ताव पारित किया गया था जिसमे
भारतीय भाषाओं के संवर्धन और संरक्षण की बात कही गई थी। उस प्रस्ताव में सात
बिंदुओं पर जोर दिया गया था। प्रस्ताव के सातवें बिंदु में केन्द्र
व राज्य सरकारों से सभी भारतीय भाषाओं, बोलियों
तथा लिपियों के संरक्षण और संवर्द्धन हेतु प्रभावी प्रयास करने की सलाह दी गई थी
या दूसरे शब्दों में कहें तो अपेक्षा की गई थी। तीन महीने बीत जाने के बाद भी इस
दिशा में कोई ठोस पहल केंद्र सरकार की तरफ से नजर नहीं आ रही है। भाषाओं के
संवर्धन और संरक्षण के लिए बनाई गई संस्थाएं क्या कर रही हैं ज्ञात नहीं हो सका
है। आगरा के केंद्रीय संस्थान में काम हो रहा है तो इस वजह से कि वहां उपाध्यक्ष
और निदेशक मजबूती से डटे हैं। उनके कार्यकाल तय हैं। खत्म होने के पहले उनपर फैसला
हो गया और उनको सेवा विस्तार दे दिया गया। इस वजह से अनिश्चिता का माहौल नहीं है
और ठीक तरीके से काम हो रहा है। लेकिन केंद्रीय हिंदी निदेशालाय जैसी संस्थाएं
अनाथ हैं, पिछले दस सालों से वहां पूर्णकालिक निदेशक नहीं है। यूपीए सरकार को तो
कोई योग्य व्यक्ति नहीं मिला लेकिन मौजूदा सरकार भी चार साल से अधिक समय से इस पद
के योग्य व्यक्ति नहीं ढूंढ पाई। इसके अलावा एक और पक्ष है जिसपर ध्यान देने की
जरूरत है। वह है इस तरह की संस्थाओं में आपसी तालमेल की कमी। एक ही तरह के
कार्यक्रम अलग अलग संस्थाओं में हो रहे हैं। ललित कला से संबंधित कार्यक्रम कई संस्थाएं
कर रही हैं । भाषा को लेकर भी अलग अलग संस्थाएं अलग अलग आयोजन कर रही हैं। कार्यक्रम
की प्रकृति एक है लेकिन आयोजक अलग अलग हैं। संगीत नाटक अकादमी के रहते हुए भी भारत
सरकार की अन्य संस्थाएं भी वही आयोजन कर रही हैं जिसका मैंडेट संगीत नाटक अकादमी
को है। समन्वय के आभाव में ये घटित हो रहा है।
समन्वय की इस कमी को दूर करने के लिए और
इन संस्थाओं को एक समान उद्देश्य को लेकर समेकित प्रयास को गति देने की योजना पर
काम करने के लिए इस वर्ष 22 अप्रैल को इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र में एक
बेहद महत्वपूर्ण बैठक हुई। सरकार से संबद्ध और भाषा, संस्कृति और शिक्षा के
क्षेत्र में काम कर रही संस्थाओं के अध्यक्षों, निदेशकों की एक बैठक हुई थी।यह
आयोजन इस वजह से भी अहम माना जा सकता है कि रविवार को ये बैठक रखी गई। बैठक में
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दो सह सरकार्यवाह, संस्कार भारती के बड़े अधिकारी,
शिक्षकों की राष्ट्रवादी संस्था, शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास, एकात्म मानववाद
विकास संस्थान आदि के प्रतिनिधि भी इसमें शामिल हुए। इसके अलावा संघ से जुड़े विचारक,
शिक्षाविद और अन्य अनुषांगिक संगठनों के दिग्गज
भी शामिल हुए। इस बैठक में राष्ट्रीय शैक्षिक और अनुसंधान परिषद(एनसीईआरटी),विश्वविद्लाय
अनुदान आयोग(यूजीसी),सेंट्रल बोर्ड ऑफ सेकेंड्री एजुकेशन( सीबीएसई),भारतीय सामाजिक
विज्ञान अनुसंधान परिषद( आईसीएसएसआर) ,इंडियन काउंसिल ऑफ फिलॉसफिकल
रिसर्च(आईसीपीआर), राष्ट्रीय मुक्त विद्यालयी शिक्षा संस्थान(एनआईओएस),भारतीय
इतिहास अनुसंधान परिषद(आईसीएचआऱ), अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद(एआईसीटीई), प्रसार
भारती, भारतीय जनसंचार संस्थान(आईआईएमसी), भारतीय सांस्कृति संबंध परिषद जैसी लगभग
सभी संस्थाओं के आला अफसर मौजूद थे। इस बैठक की गंभीरता का पता इससे भी चलता है कि
इसमें भारत सरकार के प्रधान आर्थिक सलाहकार भी कुछ घंटों के लिए इसमें मौजूद थे। इंदिरा
गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के चेयरमैन और सदस्य सचिव तो थे ही। शिक्षा, कला,
संस्कृति, प्रसार आदि क्षेत्रों के दिग्गजों ने दिनभर चले इस ब्रेन स्टार्मिंग
सेशन में समन्वय पर माथापच्ची की। इसका निष्कर्ष क्या निकला या यहां क्या
कार्ययोजना बनी इसका पता तो बाद में चल पाएगा। इस तरह की ब्रेन स्टार्मिंग सेशन
होते रहने चाहिए लेकिन इसके उद्देश्यों की पूर्ति तब होती है जब उसके नतीजे जमीन
पर दिखाई देते हैं। जिसका अभी इंतजार है। वैसे भी सरकार के कार्यकाल के चार साल
बीत जाने के बाद जब वो चुनावी वर्ष में प्रवेश कर रही हो तो बहुत ठोस काम होने की
उम्मीद कम होती है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा भी था कि चार साल काम और एक
साल राजनीति। अगर उनके इस वाक्य के आलोक में इस बैठक को देखें तो यह अपेक्षा करना
बेमानी होगी कि बैठक के नतीजों पर कोई ठोस काम हो पाएगा।
मैनेजमेंट में इन दिनों एक शब्द बहुत गंभीरता
से लिया जाता है और मैनजमेंट गुरू इस सिद्धांत को लेकर लगातार बातें कर रहे हैं। वो
शब्द है डिसरप्शन। हिंदी शब्दकोश में इसके अनेक मायने हैं लेकिन मैनेजमेंट के संदर्भ
में माना जाता है कि आप यथास्थितिवाद में तोड़फोड़ करें, उसको चुनौती दें और फिर
उस तोड़ फोड़ को अपने हक में इस्तेमाल करें। फेसबुक से लेकर जियो मोबाइल तक ने इसी
सिद्धांत को अपनाया और सफलता प्राप्त की। नरेन्द्र मोदी की अगुवाई वाली सरकार ने
अपने कार्यकाल के शुरूआती वर्षों में शिक्षा, संस्कृति, कला के क्षेत्रों में
डिसरप्शन किया और उसके नतीजे भी मिलने लगे थे। उसके बाद वामपंथियों की आक्रामकता
और उनके प्रहारों से विचलित होकर सरकार के कर्ताधर्ताओं ने इन क्षेत्रों में
यथास्थितिवाद को गले लगा लिया। अपनी नियुक्तियों को खेदपूर्ण मानने लगे, और फिर जो
‘जैसा चल रहा है चलने दो’ के सिद्धांत को
अपना लिया गया। नतीजा यह हुआ कि सरकार की विचारधारा के करीबी लोगों के कार्यकाल
खत्म होते गए और वो संस्थानों से बाहर होते चले गए या उनको थोड़े थोड़े समय के लिए
सेवा विस्तार दिया गया। महीनों में दिए जानेवाले छोटे सेवा विस्तार का नुकसान
हमेशा होता है। यहां भी हुआ। तो क्या ये मान लिया जाए कि जो सरकार पर संस्कृति और
भाषा को लेकर अपनी अलग पहचान के साथ आई थी उसने ये अवसर गंवा दिया?
ज्यादा नहीं पर अब
भी कुछ वक्त है कि सरकार इस दिशा में ठोस काम करे, भाषा को लेकर जो संस्थाएं हैं
उसको गतिमान करे, नई शिक्षा नीति के मसौदे को जल्द से पेश करे ताकि उसको चुनाव के
पहले लागू किया जा सके। समन्वय बैठक में अगर
कोई फैसला हुआ हो या किसी कार्ययोजना पर सहमति बनी हो तो उसको भी तेज गति से लागू
करने की आवश्यकता है। अन्यथा होगा कि इन संस्थाओं में सालों से जमे अफसर अपनी
मनमानी करते रहेंगे, पुरानी व्यवस्था को लागू करते रहेंगे क्योंकि अफसर और बाबू ही
यथास्थिवाद से सबसे बड़े पोषक होते हैं। कला, संस्कृति, भाषा और शिक्षा के क्षेत्र
में इस सरकार से जनता को काफी उम्मीदें हैं, और अगर जनता की अपेक्षाओं पर खरे
उतरना है तो सिर्फ परपंराओं की बात करने से बात नहीं बनेगी भारतीय ज्ञान परंपरा को
आगे बढ़ाने और उसको कुछ ठोस करना होगा। ये तभी संभव होगा जब आयातित विचारधारा के
आधार पर बनी व्यवस्था को छिन्न भिन्न किया जा सके। समन्वय के साथ यथास्थितिवाद को
चुनौती, भारतीय ज्ञान परंपरा को पुर्नस्थापित करने की प्रविधि यही हो सकती है।
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