इन दिनों भारतीय वेब-टेलीविजन सीरीज ‘सेक्रेड गेम्स’ की चारों ओर चर्चा
हो रही है, देश-विदेश के अखबारों में इस क्राइम थ्रिलर पर लेख लिखे जा रहे हैं,
इसकी समीक्षा हो रही है। सोशल मीडिया पर भी इसको लेकर बहुत चर्चा हो रही है। इस
सीरीज में राजीव गांधी को लेकर की गई टिप्पणी पर विवाद भी हो गया है। मामला कोर्ट
तक जा पहुंचा है। असहिष्णुता का शोर मचानेवाले लोग खामोश हैं। हाथों में प्लाकार्ड
थामे अभिनेत्रियों के बयान नहीं आ रहे हैं। देश छोड़ने की बात करनेवाले भी शांत
हैं।अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर बुक्का फाड़कर चिल्लानेवाले लोग खामोश हो गए हैं।
इन सारे लोगों भी सवाल उठाए जा सकते हैं और पूछा जा सकता है कि शांति का षडयंत्र
क्यों? ‘सेक्रेड गेम्स’ नाम के इस सीरीज के
निर्देशक अनुराग कश्यप ने 2016 में अपने एक फेसबुक पोस्ट में प्रधानमंत्री
नरेन्द्र मोदी से ये अपेक्षा की थी कि वो धौंस देनेवाले अपने समर्थकों पर लगाम
लगाएं। वो अनुराग कश्यप भी खामोश हैं जबकि कांग्रेस पार्टी के लोग ‘सेक्रेड गेम्स’ को लेकर हमलावर हो
रहे हैं। उनकी राहुल गांधी से अपेक्षा करते हुए कोई फेसबुक पोस्ट या ट्वीट दिखाई
नहीं दे रही है। अगर मुक्तिबोध की कविता पंक्ति उधार लेकर कहें तो कह सकते हैं कि ‘सब सरदार हैं खामोश’, क्योंकि मामला
अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर चुनिंदा अवसरवाद का है। किसी लेखक संगठन ने राजीव
गांधी को लेकर ‘सेक्रेड गेम्स’ पर पाबंदी लागने के
लिए कोर्ट जाने पर कांग्रेस के नेता को कठघरे में खड़ा नहीं किया। किसी ने इस बाबत
राहुल गांधी से भी प्रश्न नहीं पूछा। अगर यही काम किसी बीजेपी के छोटे से नेता ने
भी किया होता तो अवॉर्ड वापसी ब्रिगेड से लेकर असहिष्णुता की बात करनेवाले लोग
बिलबिलाकर प्रधानमंत्री मोदी को कठघरे में खड़ा कर चुके होते और उनसे इस मसले पर
हस्तक्षेप की अपेक्षा भी करते। कई अवसरों पर इस तरह की चुनिंदा प्रतिक्रिया देखने
को मिली है। खैर ये अलहदा मुद्दा है और इस पर विस्तार से कभी और चर्चा।
फिलहाल हम बात कर रह हैं नेटफ्लिक्स पर आठ
एपिसोड में प्रसारित इस धारावाहिक ‘सेक्रेड गेम्स’ की। दरअसल ये 2006
में प्रकाशित विक्रम चंद्रा के इसी नाम के उपन्यास पर बनाया गया धारावाहिक है
जिसको अनुराग कश्यप और विक्रमादित्य मोटवाणी ने निर्देशित किया है। नेटफ्लिक्स ने
भारतीय बाजार में मजबूती हासिल करने के लिए स्थानीय कटेंट को बढ़ावा देने का फैसला
किया है। इसी के तहत पहले ‘लस्ट स्टोरीज’ और अब ‘सेक्रेड गेम्स’ को प्रस्तुत किया
गया है। भारतीय बाजार में सफलता के लिए कुछ तय फॉर्मूला है जिसपर चलने से कामयाबी
मिल ही जाती है। ये फॉर्मूले हैं धर्म, हिंसा, सेक्स और अनसेंसर्ड सामग्री दिखाना।
नेटफ्लिक्स ने ‘लस्ट स्टोरीज’ में भी और अब ‘सेक्रेड गेम्स’ में भी इन
फॉर्मूलों का जमकर इस्तेमाल किया है। ‘लस्ट स्टोरीज’ के अलग अलग एपिसोड
को अलग-अलग निर्देशकों ने डायरेक्ट किया था। इन निर्देशकों में भी अनुराग कश्यप
थे और उनके अलावा जोया
अख्तर, दिवाकर बनर्जी और करण जौहर थे। ‘लस्ट स्टोरीज’ में भी सेक्स
प्रसंगों को भुनाने की मंशा दिखती है। अनुराग कश्यप अपनी फिल्मों में गाली-गलौच
वाली भाषा के लिए जाने जाते हैं। उन्होंने यही काम इस सीरीज में भी किया है, आठ
एपिसोड में जमकर गाली गलौच है। गाली गलौच के बचाव में ये तर्क दिया जा रहा है कि
मुंबई के जिस भौगोलिक इलाके और परिवेश की कहानी है उसमें हर शब्द के आगे और पीछे
गाली होती है। अब सवाल यही उठता है कि जीवन और फिल्म या धारावाहिक या साहित्य में
क्या फर्क है। फिल्म, धारावाहिक या साहित्य तो ‘जीवन’ जैसी कोई चीज है ‘जीवन’ तो नहीं है। अगर हम
धारावाहिक या फिल्म में ‘जीवन’ को सीधे-सीधे उठाकर
रख देते हैं तो यह उचित नहीं होता है। जीवन को जस का तस कैमरे में कैद करना ना तो
फिल्म है ना ही धारावाहिक। जिस भी फिल्म में इस तरह का फोटोग्राफिक यथार्थ दिखता
है वो कलात्मक दृष्टि से श्रेष्ठ नहीं माना जाता है। अनुराग कश्यप बहुधा इस दोष के
शिकार होते नजर आते हैं, यहां भी हुए हैं।
इसके अलावा ‘सेक्रेड गेम्स’ में सेक्स प्रसंगों
की भरमार है, अप्राकृतिक यौनाचार के भी दृश्य हैं, नायिका को टॉपलेस भी दिखाया गया
है। हमारे देश में इंटरनेट पर दिखाई जानेवाली सामग्री को लेकर पूर्व प्रमाणन जैसी
कोई व्यवस्था नहीं है लिहाजा इस तरह के सेक्स प्रसंगों को कहानी में ठूंसने की छूट
है जिसका लाभ उठाया गया है। लगभग हर एपिसोड में इस
तरह से दृश्य हैं और ये सबसे सस्ता तरीका है दर्शकों को अपनी ओर खींचने का। नवाजुद्दीन
सिद्दिकि ने गैंगस्टर गायतोंडे की भूमिका निभाई है लेकिन उसके चरित्र का चित्रण
लगभग सेक्स मैनियाक की तरह किया गया है। यह वही गायतोंडे है जो अपनी मां के विवाहेत्तर
सेक्स संबंध को जानने के बाद इतना उत्तेजित हो जाता है कि बचपन में ही मां के
प्रेमी की हत्या कर घर से भाग जाता है। आठ एपिसोड के इस धारावाहिक में धर्म का
तड़का भी लगाया गया है। धर्म-राजनीति-पुलिस-माफिया का गठजोड़ तो दिखता ही है, देश
के खिलाफ एक बड़ी साजिश भी है।
अगर हम नेटफ्लिक्स के इस तरह के कंटेंट की
तरफ बढ़ने की वजह तलाशते हैं तो इसके कारोबारी पक्ष को देखना होगा। सक्रिय मासिक उपभोक्ता
के आधार पर नेटफ्लिक्स हमारे देश का एक बड़ा और लोकप्रिय वीडियो एप है। एक सर्वे
के मुताबिक इस एप पर उभोक्ताओं द्वारा बितानेवाले समय को आधार मानते हैं तो
नेटफ्लिक्स सातवें स्थान पर है और डाउनलोड को आधार बनाते हैं तो वो चौदहवें स्थान
पर चला जाता है। भारतीय वीडियो बाजार में नेटफ्लिक्स का मुकाबला अमेजन प्राइम
वीडियो और हॉटस्टार से है। ये दोनों प्लेटफॉर्म वीडियो के साथ साथ कुछ अतिरिक्त भी
ऑफर करते हैं। अमेजन प्राइम वीडियो के उपभोक्ताओं को उसके ई-कामर्स प्लेटफॉर्म पर
सहूलियतें मिलती हैं तो हॉटस्टार पर आईपीएल देखने को मिलता है। इस बीच जियो ने भी
अपने आप को इस बाजार में मजबूत किया है। सक्रिय मासिक उपभोक्ताओं की संख्या के
आधार पर जियो टीवी तीसरे नंबर पर है, यूट्यूब और हॉटस्टार के बाद। ऐसे में
नेटफ्लिक्स ‘सेक्रेड गेम्स’ के जरिए भारतीय
बाजार में खुद को मजबूत करने की कोशिशों में जुटा है। जिस तरह से इंटरनेट पर इस
प्रोग्राम को प्रमोट किया गया है या महानगरों में होर्डिंग आदि लगे हैं उससे साफ
है कि नेटफ्लिक्स की मंशा क्या है। नेटफ्लिक्स के एक अधिकारी ने कहा भी है कि
स्थानीय कटेंट के अलावा तकनीकी दिक्कतों को दूर करना उनकी प्राथमिकता है। कमजोर
इंटरनेट कनेक्टिविटी के बावजूद नेटफ्लिक्स पर अबाधित वीडियो देखा जा सकता है।
‘सेक्रेड गेम्स’ में अनुराग कश्यप
अपनी विचारधारा के साथ उपस्थित हैं, कहीं प्रत्यक्ष तो कहीं परोक्ष रूप से। इस
एपिसोड में यह दिखाया गया है कि कैसे एक निर्दोष मुस्लिम लड़को का पुलिस एनकाउंटर
कर देती है। और परोक्ष रूप से राजनीतिक स्टेटमेंट तब देते हैं जब उस मुस्लिम लड़के
का परिवार धरने पर बैठा होता है और उसकी कोई सुध लेनवाला नहीं होता है।
सिस्टम को निशाने पर
तो लेते हैं लेकिन उसके पीछे की मंशा कुछ और होती है। एक एपिसोड में तो बाबारी
विध्वंस के फुटेज को लंबे समय तक दिखाया जाता है और फिर बैकग्राउंड से उसपर
राजनीतिक टिप्पणी आती है। इसी तरह से मुंबई बम धमाकों के फुटेज को दिखाकर
बैंकग्राउंड से टिप्पणियां आती हैं जो सीरियल निर्माता की सोच को उजागर करती है।
इससके अलावा भी अनुराग कश्यप को जहां मौका मिलता है वो राजनीतिक टिप्पणी करने और
मौजूदा सरकार और उसकी विचारधारा को कठघरे में खड़ा करने में नहीं चूकते हैं। अभिव्यक्ति
की आजादी के नाम पर वैचारिक आग्रहों का प्रतिपादन उचित है लेकिन फिक्शन के नाम पर
जब ये किया जाए तो उसका रेखांकन भी करना जरूरी है। ‘सेक्रेड गेम्स’ में जिस तरह से लंबे
लंबे सेक्स प्रसंगों या टॉपलेस नायिका को दिखाया गया है उसपर भी ध्यान देने की
जरूरत है। अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर क्या अश्लीलता या पोर्न परोसने की छूट दी
जा सकती है? अपनी कुंठा के सार्वजनिक प्रदर्शन किस हद तक
किया जा सकता है? इसपर विचार करने की जरूरत है। यह तर्क
दिया जा सकता है कि जो भी इस तरह के प्लेटफॉर्म पर जाते हैं उनको मालूम होता है कि
वहां किस तरह की सामग्री मिल सकती है। बावजूद इसके हमारे सामाजिक मार्यादा या
लोकाचार का ध्यान तो रखना ही चाहिए। लोकप्रियता हासिल करने के लिए परोसी जानेवाली
अश्लीलता पर विचार होना चाहिए। बेहतर तो यही होता कि फिल्मकार आत्म नियंत्रण करते
और कलात्मकता के नाम पर अश्लीलता परोसने से बचते। इसका एक फायदा यह भी होता कि
सरकारी हस्तक्षेप का अवसर नहीं मिल पाता।
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