दो तीन साल पहले की बात है, दिल्ली में एक साहित्यिक समारोह में दास्तानगोई सुनने का अवसर मिला था। दो नामी दास्तानगो मंच पर थे। दोनों ने सफेद अंगरखा और सफेद टोपी पहनी हुई थी। सामने कटोरे में पानी रखा था। उनमें से एक विवादों के भंवर से मुक्त होकर आए थे। दास्तानगोई आरंभ करने के पहले दोनों ने माहौल बनाना शुरू किया। सबसे पहले उन दोनों ने इस विधा के बारे में बताना शुरू किया। बेहद उत्साह और ऊंची आवाज में उन दोनों की जुगलबंदी में ये बताया गया कि दास्तानगोई भारत में ईरान से आई। फिर उन्होंने अमीर खुसरो से लेकर अकबर तक का नाम लिया और कई मिनट तक इस विधा को महिमामंडित करते रहे। तब मेरे दिमाग में ये बात खटकी जरूर थी लेकिन इसपर विचार नहीं किया। बात आई गई हो गई। चंद दिनों पहले फिर एक दूसरे दास्तानगो को सुनने को मिला। उन्होंने भी दास्तानगोई की विधा को ईरान से भारत में आया बताया। ईऱान से आई इस विधा की प्रशंसा में उन्होंने ढेर सारी बातें कहीं, दास्तानगोई के अनूठे फॉर्म को लेकर बड़े बड़े दावे किए जैसे कि ये कोई नई विधा हो या लुप्त होती विधा को पुनर्जीवित किया गया हो। थोड़ी देर के लिए ये माना भी जा सकता है कि उर्दू में ये विधा ईरान से आई होगी। लेकिन इनकी बातचीत में दावा किया जा रहा था कि भारत में ये विधा विदेश से आई। आधारहीन दावा।
जब दो जगह ये बात सुनी कि दास्तानगोई भारत में विदेश से आई तो लगा कि अज्ञान की धारा बह रही है। हमारे देश में कथावाचन की परंपरा बहुत पुरानी है। हमारे देश में तो कहानी कहने की परंपरा प्राचीन काल से चल रही है। कहानी सुनाने के अलग-अलग तरीके हैं। अलग अलग क्षेत्र में, अलग अलग विधा में, अलग अलग कलाओं में कहानी कहने की अपनी एक परंपरा रही है। अगर हम याद करें तो महाभारत में संजय युद्ध की आंखों देखी धृतराष्ट्र को सुनाते हैं और जबतक युद्ध चलता रहता है तबतक वो हर रोज नियम से युद्ध की आंखोदेखी धृतराष्ट्र को सुनाते रहते हैं। यह कहानी कहने की ही तो कला है। श्रीरामचरितमानस भी तो कथावाचन की शैली में ही है। श्रीरामचरितमानस की इन पंक्तियों पर ध्यान देना चाहिए, उमा कहिउं सब कथा सुहाई/जो भुसुंडि खगपतिहि सुनाई। इसका अर्थ ये है कि शंकर जी पार्वती से कहते हैं कि, हे उमा! मैंने वह सब सुंदर कथा कही जो काकभुशुण्डिजी ने गरुड़जी को सुनाई थी। यहां गौर करने की बात है कि कथा सुनाने या कहने की बात की गई है। बात सिर्फ श्रीरामचरितमानस या महाभारत की नहीं है। सैकड़ों ऐसे उदाहरण दिए जा सकते हैं जिससे ये साबित होता है कि भारत में कहानी कहने की परंपरा बहुत पुरानी है। हम संस्कृत नाट्यशास्त्र की बात करें तो वहां जिस सूत्रधार का उल्लेख मिलता है वो क्या करता है। वो भी तो कहानी ही सुनाता है। मंच पर खड़े होकर कहानी सुनाता है। पूर्वोत्तर में भी तकिए पर बैठकर एक व्यक्ति भाव भंगिमाओं के साथ महाभारत की कथा सुनाता है। यह परंपरा बहुत पुरानी है। इसके अलावा अगर हम गुजरात की बात करें तो वहां के माणभट्ट गायक विष्णु कथा को ‘हरिकथाकालक्षेपम’ की परंपरा में सदियों से गाते रहे हैं। राजस्थान में भी ‘कहन’ की परंपरा कितने समय से चली आ रही है इसका आकलन करना मुश्किल है। दादा दादी की कहानियां सुनाने की बात तो हमारे देश के हर घर परिवार में सुनी जा सकती है। राजाओं के दरबार में भांड भी तो किस्सा ही सुनाते थे। यह सूची बहुत लंबी हो सकती है लेकिन यहां मकसद सिर्फ ये बताना है कि दास्तानगोई करनेवाले जब ये कहते हैं कि भारत में ये परंपरा ईरान से आई तो वो गलत दावा करते हैं। चिंता इस बात की कि गलत बात को अगर लगातार बोला जाए और नाटकीय तरीके से सार्वजनिक तौर पर समूह के सामने पेश किया जाए तो कई बार उसको सच मान लिया जाता है। लिहाजा इस तरह की गलत बातों को रेखांकित करना आवश्यक है। गलत बातों को रेखांकित करने के साथ साथ ये बाताना भी उचित होता है कि सचाई क्या है।
दास्तानगोई करने वालों का दावा है कि उनकी विधा इस वजह से अलग होती है कि ये कई दिनों तक चलती है। उनका दावा है कि ईरान में या अमीर खुसरो ने जब दास्तानगोई की थी तो वो कई दिनों तक चली थी। यहां वो फिर भूल कर जाते हैं कि हमारे देश में कथावाचन की जो परंपरा रही है वो अलग अलग फॉर्मेट की रही है। संजय ने तो अठारह दिन तक सुबह से शाम तक धृतराष्ट्र को कथा सुनाई थी। कई बार कथावाचन सात दिन तो कई बार दस दिन तक भी चलती है। राधेश्याम कथावाचक कई दिनों तक राम कथा कहते थे। उनकी शैली अद्धभुत होती थी और वो स्थानीय बोलियों के शब्दों को भी अपनी कथा का हिस्सा बनाते थे। यही काम दास्तानगोई करनेवाले भी करते हैं। वो उर्दू के कवियों या कहानीकारों या लेखकों के किस्सों को संस्मरणों के तौर पर सुनाते हैं। आज के दौर में भी मोरारी बापू कथावाचन ही तो करते हैं और वो भी कई दिनों तक चलता है। मौजूदा दौर में तो दास्तानगोई एकल या युगल परफॉरमेंस की तरह हो गई है। फॉर्मेट और फॉर्म की बात करके दास्तानगोई को विदेश से आई अनूठी विधा के तौर पर स्थापित करने की कोशिशें भले ही की जाएं पर दरअसल वो भारतीय कथावाचन का ही एक रूप है। भाव भंगिमाओं से और वस्त्र से कोई परफॉर्मेंस अलग विधा के तौर पर स्थापित नहीं हो सकती है। नाटककार और निर्देशक सलीम आरिफ से पटना साहित्य महोत्सव के दौरान दास्तानगोई पर एक अनौपचारिक चर्चा हुई थी। चर्चा में उन्होंने एक बहुत ही महत्वपूर्ण बात कही थी। उन्होंने कहा था कि ‘फॉर्म से कंटेंट पैदा नहीं किया जा सकता है, कटेंट से फॉर्म बनाया जा सकता है।‘ दास्तानगोई के साथ यही दिक्कत है कि इसमें फॉर्म से कंटेंट बनाने की कोशिश हो रही है, जो संभव नहीं है। दास्तानगोई को एक विधा के तौर पर स्थापित करने की कोशिशें भी हो रही हैं लेकिन जब आधार ही नहीं होगा तो वो अलग क्या हो पाएगी। वो भारतीय कथावाचन का उर्दू संस्करण है।
आज जब पूरी दुनिया अपनी जड़ों की ओर लौट रही है। अपनी परंपराओं को फिर से अपनाने के लिए आतुर दिखाई दे रही है ऐसे में भारत की कहानी कहने की या किस्सागोई की शानदार परंपरा को नेपथ्य में धकेलने की कोशिश हो रही हैं। ऐसा करनेवाले ये भूल जाते हैं कि भारत में किस्से कहानियां सुनाने की विधा लोकमानस में इस तरह से रची बसी है कि उसको किसी आयातित विधा से चुनौती नहीं दी जा सकती है। अब से कुछ दिनों बाद नवरात्र आरंभ होनेवाला है। देशभर के अलग अलग अलग हिस्सों में रामलीला का आयोजन होगा। अलग अलग तरीके से नौ दिनों तक रामकथा का वाचन या मंचन होगा। दास्तानगोई को अलग विधा मानने या बतानेवालों को रामलीला में जाकर देखना चाहिए कि वहां किस तरह से कथा सुनाई जाती है और कितनी लोकप्रिय है। दास्तानगोई करनेवालों को ये मानना चाहिए बल्कि गर्व से ये स्वीकार करना चाहिए कि ये विधा इसी धरती पर उपजी है, यहीं की है और हम अपनी ही पारपंरिक विधा को नए स्वरूप में आपके सामने पेश कर रहे हैं। संभव है कि तब ये विधा लोकमानस के मन पर अंकित हो सकेगी।