कोरोनाकाल में कई संस्थाएं और व्यक्तियों ने साहित्य के क्षेत्र में उल्लेखनीय काम किया। जब साहित्यिक कार्यक्रम स्थगित होने लगे तो लोगों ने नए रास्तों की खोज प्रारंभ की। साहित्य में नई राह के अन्वेषण की बातें हर कालखंड में होती रही हैं लेकिन कोविड काल में चुनौती नई थी और साहित्य और साहित्यकारों को जोड़कर रखने की बड़ी चुनौती थी। कोलकता की संस्था प्रभा खेतान फाउंडेशन और उसके कर्ताधर्ता संदीप भूतोड़िया ने भी साहित्य और भाषा के क्षेत्र में इस चुनौती से निबटने के लिए कई पहल की। फाउंडेशन के उपक्रमों पर उनसे मैंने बातचीत की ।
प्रश्न- इस वर्ष जब फरवरी के अंत और मार्च के आरंभ में भारत में कोरोना वायरस का खतरा बढने लगा था तो आपके मन में ऑनलाइन कार्यक्रम करने की बात कैसे आई ?
संदीप- हमारे देश में जब कोरोना का संकट उत्पन्न हुआ तो हमारे फाउंडेशन का सर्वाधिक लोकप्रिय कार्यक्रम ‘कलम’ सबसे अधिक प्रभावित हुआ। सबसे पहले फरवरी में मुंबई से आने वाले एक लेखक ने अपना कार्यक्रम स्थगित किया। फिर लगातार हमारे कार्यक्रम स्थगित होने लगे या लेखक कार्यक्रमों में आने-जाने से हिचकने लगे। तब पहली बार हमारे दिमाग में ऑनलाइन कार्यक्रम करने की बात आई और सोचा कि इस माध्यम को विकसित किया जाए। पर ये होगा कैसे? मुझे मालूम नहीं था। कार्यक्रम में भागीदारी के लिए लोगों को कैसे राजी किया जाएगा, ये भी समझ नहीं आ रहा था। ये भी डर था कि अगर लोग ऑनलाइन कार्यक्रमों में नहीं जुटे तो हमारा और हमारी टीम का मनोबल टूट जाएगा। लेकिन चुनौती को हमने स्वीकार किया क्योंकि अपनी भाषा को आगे बढ़ाने का उपक्रम रोकने का प्रश्न ही नहीं था।
प्रश्न- जरा विस्तार से बताइए कि कार्यक्रमों को ऑनलाइन आयोजित करने में आपको किन और किस तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ा।
संदीप- हमारे सामने सबसे बड़ी चुनौती ये थी कि पाठक लेखक संवाद बाधित न हो पाए। जैसा कि आपको पता है कि हमारे कार्यक्रमों में लेखक को अपनी कृतियों और समकालीन साहित्यिक परिदृश्य पर बातचीत का मौका मिलता है। हम हिंदी और अंग्रेजी के अलावा स्थानीय भाषाओं में भी ‘आखर’ के नाम से कार्यक्रम करते हैं। ‘कलम’ में हम किसी लेखक से उनकी रचनाओं और अनुभवों पर बात करते हैं। इस बीच लॉकडाउन की घोषणा हो गई। संकट और बढ़ गया। ऑनलाइन में सबसे बड़ी चुनौती थी कि हम अलग अलग शहरों में किताबें नहीं पहुंचा सकते थे क्योंकि प्रकाशकों के कार्यालय बंद, कूरियर कंपनियां बंद, होटल बंद, एयरलाइंस बंद, रेल बंद। कार्यक्रम में आने वाले साहित्य प्रेमियों को किताबें भेंट में नहीं दे सकते थे। लेकिन हमने चुनौती को स्वीकार किया और कुछ लेखकों को इस तरह के साहित्यिक ऑनलाइन कार्यक्रम के लिए तैयार किया। हमें भी तकनीक सीखने का मौका मिला। जूम और सिस्को पर अपने सहोगियों के लिए ट्रेनिंग प्रोग्राम किए।
प्रश्न- जब लेखक ऑनलाइऩ आने के लिए तैयार हो गए तो फिर अन्य लोगों को कैसे तैयार किया।
संदीप- हमने देश के अलग अलग शहरों में महिलाओं का एक समूह तैयार किया हुआ है जिसे ‘अहसास वूमेन’ कहते हैं। जैसे दिल्ली के समूह को ‘अहसास वूमेन ऑफ दिल्ली’ कहते हैं, इसी तरह से ‘अहसास वूमेन ऑफ लखनऊ’ आदि। पुस्तकप्रेमियों को ऑनलाइऩ कार्यक्रमों में जोड़ने के लिए हमने ‘अहसास वूमेन’ को तैयार किया और सभी ने बहुत उत्साह के साथ इस काम को हाथ में लिया। सभी तकनीक के उपयोग को लेकर उत्साहित थीं। हमारा काम इसलिए भी थोड़ा आसान था कि हमारे कार्यक्रमों में प्रतिभागियों की संख्या 35 से 40 ही होती है। हमने कार्यक्रम शुरु किया तो ये सफल होने लगा। लोगों ने इसको अपनाया। आपको बताऊं कि ‘कलम’ और ‘राइट सर्कल’ जैसे हमारे ऑनलाइन कार्यक्रमों की संख्या लॉकडाउन के दौरान बढ़ गई। छह शहरों में तो हमारे इवेंट दुगने हो गए। हमारे सहयोगियों ने भी साथ दिया। दिल्ली, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, पंजाब और हरियाणा में दैनिक जागरण और छत्तीसगढ़ में नईदुनिया हमारे सहयोगी हैं। उनका भी साथ उत्साहवर्धक रहा।
प्रश्न- पर आपके कार्यक्रमों में पुस्तकप्रेमियों को पुस्तकें नहीं मिल पाने से आपका पुस्तक संस्कृति के विकास का उद्देश्य तो पूरा नहीं हो पा रहा।
संदीप- आप ठीक कह रहे हैं। हमने कोशिश की हमारे कार्यक्रमों में शामिल होनेवाले लोगों को ईबुक्स खरीदकर भेंट दे सकें। लेकिन ये संभव नहीं हो सका। आप ईकॉमर्स प्लेटफॉर्म से एक ही पुस्तक की आनलाइन कई प्रतियां नहीं खरीद सकते। किंडल पर भी एक ही पुस्तक की कई प्रतियां खरीद कर गिफ्ट नहीं कर सकते। हम चाहते थे कि किसी पुस्तक की ईबुक्स की सौ प्रतियां खरीद लें और उनको प्रतिभागियों को भेंट कर दें लेकिन ये संभव नहीं हो सका। फिर हमने एक नया तरीका निकाला कि श्रेष्ठ प्रश्न पूछनेवालों को अमेजन का गिफ्ट वाउचर देना शुरु किया ताकि वो पुस्तकें खरीद लें।
प्रश्न- ऑनलाइन कार्यक्रमों के अलावा और क्या किया कोविड काल में आपलोगों ने।
संदीप- देखिए हम लोगों के पांच उद्देश्य हैं, साहित्य कला को बढ़ावा देना, स्थानीय खान-पान को बढ़ावा देना, स्थानीय हस्तकला को प्रोत्साहित करना, महिला सशक्तीकरण और शहर विशेष में साहित्य और भाषा के प्रति माहौल बनाना। हम जब एक्चुल कार्यक्रम करते थे तो किताबों पर बात होती थी, प्रतिभागियों को पुस्तकें भेंट करते थे। आमंत्रित लेखकों को स्थानीय हस्तकला का उपहार देते थे। आमंत्रित अतिथियों को स्थानीय व्यंजन खिलाते थे। जैसे पंजाब के कार्यक्रम में टिकिया और लस्सी, कहीं कचौड़ी छाछ आदि। आज 29 शहरों में महिलाएं ही इस कार्यक्रम को संचालित करती हैं, महिला सशक्तीकरण का उद्देश्य पूरा हो रहा है।
प्रश्न- आपने ऑनलाइन प्रतियोगिताएं भी कीं।
संदीप- जी, जब हम ऑनलाइन कार्यक्रम करने की प्रक्रिया में थे और तकनीक की बारीकियों को सीख और समझ रहे थे उस वक्त हमने ट्विटर और इंस्टाग्राम पर हिंदी के लेखकों से जुड़ी प्रश्नोत्तर प्रतियोगिताएं आयोजित कीं। ये काफी सफल रहीं और काफी लोग इसमें जुड़े। इसमें हम सही उत्तर देनेवालों को उसी लेखक की पुस्तकें भेंटस्वरूप देते थे। इसके अलावा आपको एक और बताऊं हमने हिंदी के लेखकों और ‘अहसास वूमन’ को जोड़ने के लिए ऑनलाइन अंताक्षरी कार्यक्रम भी किए। अंताक्षरी के कार्यक्रम में उषा उत्थुप भी शामिल रहीं। साहित्य से इतर हमने जो कार्यक्रम किए उसमें बिरजू महाराज, हरिप्रसाद चौरसिया जी, शुभा मुदगल जी जैसे कलाकारों से भी संवाद के कार्यक्रम किए।
प्रश्न- क्या आप ऑनलाइन कार्यक्रमों को विस्तार देने के बारे में सोच रहे हैं।
संदीप- ऑनलाइन कार्यक्रमों ने साहित्य और कला के क्षितिज को विस्तार दिया है। पहले ‘कलम’ का कार्यक्रम सिर्फ लंदन में होता था, अब हमारा कार्यक्रम न्यूयॉर्क और ओस्लो में शुरू हो गया है। विदेशी विश्वविद्यालयों के हिंदी विभागों से हमारे देश के लेखकों और हिंदी की रचनात्मकता को जोड़ने का काम हमने शुरू किया है। यह आपदा में अवसर की तरह है। मेरठ में बैठकर कोई लेखक अब बहुत आसानी से न्यूयॉर्क के ऑडियंस से बात कर सकता है।
प्रश्न- अंत में आपसे ये पूछना चाहता हूं कि ऑनलाइन कार्यक्रमों में किस तरह की दिक्कतें आईं
संदीप- बहुत विनम्रता के साथ एक बात कहना चाहता हूं, हिंदी के लेखकों और प्रकाशकों में अपेक्षाकृत कम प्रोफेशनलिज्म है। जिस तरह से अंग्रेजी के प्रकाशक अपने लेखकों को सपोर्ट करते हैं, हिंदी के प्रकाशक नहीं करते। अन्य भारतीय भाषाओं में भी हम कार्यक्रम करते हैं, उन भाषाओं के प्रकाशक भी अपने लेखकों के लिए बहुत प्रयास करते हैं। हमें अंग्रेजी की किताबें अपने प्रतिभागियों को भेजने में परेशानी नहीं होती है लेकिन हिंदी की किताबों को भेजने में बहुत तरह की बाधाएं खड़ी हो जाती हैं। पर हम आशान्वित हैं कि जल्द ही हिंदी के प्रकाशक भी इसको अपना लेंगे।