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Saturday, November 13, 2021

भारतीयता से मार्क्सवादियों की चिढ़ पुरानी


लंबे समय से साहित्यिक बैठकों या साहित्यिक सम्मेलनों में कुबेरनाथ राय की चर्चा सुनता रहा था। उनके निबंधों की खूब चर्चा होती थी। कई लोग तो उनके निबंधों को जमकर तारीफ करते हैं । उनके निबंध में शब्दों के चयन को रेखांकित करते हुए भारतीय ज्ञान परंपरा के ध्वजवाहक के रूप में भी प्रस्तुत करते हैं। लंबे समय से प्रशंसा सुन कर मन में उनके निबंधों को पढ़ने की इच्छा थी। साहित्य अकादमी से प्रकाशित कुबेरनाथ राय का संचयन लाकर पढ़ने लगा। जो कुछ लेख पढ़ पाया उसके आधार पर ये राय बनी कि कुबेरनाथ राय का अध्ययन बहुत व्यापक था और वो अपने निबंधों में भारतीय पौराणिक ग्रंथों और प्रतीकों का बहुत ही सटीक उपयोग करते थे। उनके निबंधों को पढ़ते हुए ये भी संकेत मिला कि इतना महत्वपूर्ण लेखन करने के बावजूद हिंदी साहित्य में मार्क्सवादी लेखकों या आलोचकों ने उनकी रचनाओं पर गंभीरता से विचार क्यों नहीं किया। क्यों मार्क्सवादी आलोचकों ने कुबेरनाथ राय की रचनाओं की उपेक्षा की। कुबेरनाथ राय की रचनाओं का मूल स्वर भारतीयता है और उनके लेखन में रामायण , महाभारत या पुराणों के संदर्भ बहुधा आते हैं।  साहित्य अकादमी से प्रकाशित पुस्तक की भूमिका में हनुमान प्रसाद शुक्ल ने राय के हवाले से कई दिलचस्प जानकारियां दी हैं। एक प्रसंग में कुबेरनाथ राय लिखते हैं, ई एम एस नंबूदरीपाद और वी के कृष्ण मेनन भारत के जाने माने कम्युनिस्ट रहे हैं। आल इंडिया रिपोर्टर (1970 दिसंबर पृ.2015 पैरा 31-33) में ई एम एस नंबूदरीपाद बनाम टी नांबियार (फौजदारी अपील नंबर 56, 1968ई, डी 31.7.70) के मुकदमे का विवरण छपा है। नंबूदरीपाद और उनके वकील कृष्ण मेनन ने मार्क्सवाद की जो व्याख्या सर्वोच्च न्यायालय में प्रस्तुत की उसपर सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस एम हिदायतुल्ला और जस्टिस ए एन राव की खंडपीठ ने अपने फैसले में टिप्पणी की, हमें शंका है कि इन्होंने मार्क्सवादी साहित्य को ठीक से समझा है अथवा कभी भी पढ़ा है।...या तो ये मार्क्स के बारे में कुछ जानते नहीं अन्यथा जानबूझकर मार्क्स, एंगेल्स एवं नेनिन की रचनाओं की अपव्याख्या कर रहे हैं। 

सुप्रीम कोर्ट के विद्वान न्यायाधीशों की मार्सवादियों पर की गई इस महत्वपूर्ण टिप्पणी को दबा दिया गया। यह कोई मामूली केस और टिप्पणी नहीं थी। ई एम एस नंबूदरीपाद भारतीय कम्यिनुस्टों के सिरमौर माने जाते हैं। उन्होंने केरल में कम्युनिस्टों की सरकार बनाई थी और लंबे समय तक मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की पोलित ब्यूरो के महासचिव रहे थे। कम्युनिस्टों की ये चालाकी पुरानी है जिसमें वो अपने पक्ष की बात को, चाहे वो कमजोर ही क्यों न हो, छद्म तरीके से बहुत प्रचारित करते हैं और जो उनके पक्ष की बात नहीं होती है उसको वो योजनाबद्ध तरीके से दबा देते हैं। यही काम उन्होंने साहित्य में किया और फिर इतिहास लेखन में भी किया। वो इतने पर ही नहीं रुकते हैं बल्कि जो स्थापना या लेखन उनके विचार के अनुरूप नहीं होता है उसकी उपेक्षा कर उसको बौद्धिक विमर्श के परिदृश्य से ओझल भी करते रहे हैं। हिंदी साहित्य में तो इस तरह के दर्जनों उदाहरण हैं जहां उन्होंने अपनी उपेक्षा से कई लेखकों की अहम रचनाओं पर चर्चा तक नहीं होने दी। स्वाधीनता के बाद जब नेहरू देश के प्रधानमंत्री बने तो कम्युनिस्ट विचारधारा देश में मजबूत होने लगी।

पहले जवाहरलाल नेहरू और बाद के दिनों में इंदिरा गांधी ने वामपंथी विचार को पल्लवित और पुष्पित होने का अवसर दिया। जब देश को स्वाधीनता मिली और जवाहरलाल नेहरू प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने देश को समाजवादी गणतंत्र की राह पर आगे बढ़ाने का काम किया। नेहरू के साम्यवादी सोच से प्रभावित होने के कई प्रमाण मिलते हैं। 1927 में ब्रसेल्स में दुनियाभर के कम्युनिस्टों का एक सम्मेलन हुआ था जिसमें भारत से जवाहरलाल नेहरू गए थे। वहां श्रम और श्रमिकों की समस्या के अलावा पूंजीवाद और उपनिवेशवाद को लेकर भी चर्चा हुई थी। वहां की चर्चाओं को सुनकर वो बेहद प्रभावित हुए और उनका झुकाव साम्यवाद की ओर हो गया। उसी वर्ष वो अपने पिता मोतीलाल नेहरू के साथ सोवियत रूस गए थे। सोवियत रूस की यात्रा के दौरान जवाहलाल नेहरू ने कई लेख आदि लिखे थे जो बाद में एक पुस्तिका के रूप में संकलित होकर प्रकाशित हुई। इसका नाम है सोवियत रूस, सम रैंडम स्केचेज एंड इंप्रेशंस। इस पुस्तिका से नेहरू के साम्यवादी विचारों से निकटता के संकेत मिलते हैं। देश के प्रधानमंत्री के तौर पर उन्होंने, शीतयुद्ध के समय, भारत को गुटनिरपेक्ष देशों के चंद अगुवा देशों के तौर पर स्थापित करने का प्रयत्न किया।  पर एक वक्त ऐसा आया जिसने पूरी दुनिया में नेहरू की सोच को उजागर कर दिया। 1956 में जब सोवियत रूस ने हंगरी पर हमला किया तो गुटनिरपेक्ष के अगुवा देशों से ये अपेक्षा की जा रही थी वि वो सोवियत रूस के आक्रमण और उसकी विस्तारवादी कदम की पुरजोर तरीके से आलोचना करेंगे लेकिन आलोचना का स्वर बेहद धीमा था। 

नेहरू का झुकाव साम्यवाद की ओर था लिहाजा सत्ता का साथ पाकर इस विचारधारा को, उसके लेखकों को उसके अनुयायियों को मजबूती मिलनी आरंभ हो गई। परिणाम ये हुआ कि हिंदी साहित्य में मार्क्सवाद पर आधारित साहित्य लेखन और आलोचना मुख्यधारा के लेखन के तौर पर स्थापित हो गया। जिन भारतीय लेखकों ने मार्क्सवाद की जगह भारतीयता को अपने लेखन का आधार बनाया उनकी न केवल उपेक्षा की गई बल्कि उनके लेखन को दकियानूसी, रूढिवादी लेखन कह कर खारिज किया जाने लगा । मार्क्सवादी विचारधारा के प्रभाव में हो रहे लेखन को प्रगतिशील कहकर स्थापित किया जाने लगा। साहित्य में प्रगतिशीलता का पर्याय मार्क्सवादी लेखन हो गया। जबकि भारतीय लेखन परंपरा हमेशा से प्रगतिशील रही है। मार्क्सवादी विचारधारा के असर ने साहित्य में समूह भी पैदा किए जो अपने साथी सदस्यों की रचनाओं का ख्याल रखने लगे। बहुधा रचना की आलोचना का आधार रचना की जगह लेखक की विचारधारा होने लगी। परिणाम ये हुआ कि ज्यादातर लेखन एकांगी होने लगा। जब कोई लेखन एकांगी होने लगता है तो विषयों की कमी होने लगती है । जब विषयों की कमी होने लगी तब इस विचारधारा के लेखकों ने ‘न लिखने का कारण’ ढूंढना आरंभ किया। इक्कीसवीं शताब्दी के आरंभ के वर्षों में हिंदी साहित्य में ‘न लिखने के कारण’ का जमकर शोर मचा था। लेकिन मार्क्सवादी ये भूल गए कि कोई भी विचार या दर्शन साहित्य लेखन का आधार नहीं हो सकता है। ये सिर्फ साहित्य में लेखन को आधार तो प्रदान कर सकते हैं लेकिन साहित्य की अंतर्वस्तु नहीं हो सकते हैं। कुबेरनाथ राय वाली पुस्तक की भूमिका में हनुमान प्रसाद शुक्ल ने ठीक से इस अवधारणा को व्याख्यायित किया है, साहित्य मनुष्य के चित्त को समृद्ध करता है. उसका परिष्कार करता है, उसके क्षितिज का विस्तार करता है, उसकी झुधा-तृषा को परिशांत करता है, मनोग्रंथियों को खोलता और मनोरोगों का उपचार करता है। मार्क्सवादी इसको समझ नहीं पाए और वो मार्क्स के दर्शन को साहित्य की अंतर्वस्तु बनाने में जुट गए। परिणाम ये हुआ कि सर्जनात्मक लेखन नारेबाजी या फिर राजीनितक दल का घोषणा पत्र बनने लगा। पाठक इससे ऊबने लगे और साहित्य से दूर होने लगे। अब समय है कि साहित्य में मार्क्सवादियों की लेखन प्रविधि को चुनौती दी जाए और उन लेखकों पर गंभीरता से काम हो जिन्होंने मार्क्सवादी चिंतन की तुलना में भारतीय चिंतन परंपरा को अपनाया और साहित्य में भारतीयता को जीवित रखा। कुबेरनाथ राय से लेकर नरेन्द्र कोहली तक ऐसे लेखकों की लंबी सूची है जिनको मार्क्सवादियों ने छलपूर्वक मुख्यधारा में आने से रोके रखा। राष्ट्रीय पुस्तक न्यास जैसी संस्थाओं को भारतीय चिंतन परंपरा के लेखकों की रचनाओं को पाठकों तक पहुंचाने का उपक्रम करना चाहिए ताकि भारतीय लेखन की समग्र तस्वीर पाठकों के सामने हो। 

2 comments:

Kartikeya Shukla said...

पता नहीं क्यों सरकार और संघ परिवार इस पर शिद्दत से काम नहीं कर रहे हैं?जबकि वैचारिक रूप से महान देश ही उन्नति करता है।

Kartikeya Shukla said...

पता नहीं क्यों सरकार और संघ परिवार इस पर शिद्दत से काम नहीं कर रहे हैं?जबकि वैचारिक रूप से महान देश ही उन्नति करता है।