राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं से प्रेम करते थे। उनके लेखन और वक्तव्यों में हिंदी और भारतीय भाषाओं के प्रति उनका लगाव झलकता है। जब दिनकर राज्यसभा के सदस्य थे तो उस दौर में हिंदी को लेकर काफी चर्चा हुई थी। 6 मई 1963 को राज्यसभा में दिनकर ने हिंदी को लेकर अपनी बात रखी थी। भाषा पर पेश विधायी प्रस्ताव पर संशोधन प्रस्तुत करते हुए दिनकर ने आशा प्रकट की थी कि ‘केंद्रीय सरकार तत्काल कुछ ऐसा उपयुक्त तंत्र बनाएगी जो केंद्रीय सरकार को केंद्रीय सरकार की विभिन्न शाखाओं में हिंदी के उत्तरोत्तर प्रयोग पर सलाह देगा और संसद की सभाओं को हिंदी की प्रगति के संबंध में समय समय पर प्रतिवेदन प्रस्तुत करेगा, ताकि 1975 के वर्ष तक हिंदी विधि निर्माण तथा प्रशासन का उतना ही प्रभावी माध्यम बन जाए, जितना इस समय अंग्रेजी है।‘ दिनकर की चिंता स्वाधीनता के बाद हिंदी को उसका उचित अधिकार नहीं मिलने को लेकर थी। उनके वक्तव्य से स्पष्ट है। वो इससे चिंतित थे कि शासन के तंत्र में हिंदी की प्रगति अंग्रेजी के साथ साथ कैसे की जा सकती है। उन्होने उस वक्त के गृहमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के एक वक्तव्य को भी अपनी चिंता से जोड़ा था। गृहमंत्री ने तब कहा था कि ‘हम अंग्रेजी को अनिश्चित काल के लिए जीवन-दान दे रहे हैं, अनंत काल के लिए नहीं।‘ दिनकर ने गृहमंत्री के इस वाक्य को उद्धृत करते हुए अपना मत रखा था, ‘जिस प्रकार सरकार इस बारे में कार्य करती है, उससे मुझे भय होता है कि वह ‘कल-कल’ की बात अनंत काल तक बढ़ जाएगी।‘ दिनकर हिंदी को राजभाषा बनाए जाने और फिर 15 वर्षों के बाद उसकी समयावधि बढ़ाने को लेकर सशंकित थे। दिनकर की आशंका स्वाधीन भारत में सही साबित हुई और हिंदी को राजभाषा से राष्ट्रभाषा बनाने की कोशिशें ‘कल-कल’ करते हुए सचमुच अनंतकाल तक चलती चली जा रही हैं।
हिंदी को देश की राष्ट्रभाषा बनाने का प्रश्न बहुत पुराना है। स्वाधीनता आंदोलन के दौरान ये तय था कि स्वतंत्रता के बाद हिंदी राष्ट्रभाषा बनेगी। गांधी भी अपने लेखों और भाषणों में इसके आग्रही दिखते हैं। वो अपनी पत्रिका हरिजन में और अपने वक्तव्यों में इस बात के संकेत देते रहते थे कि हिंदी को स्वाधीनता के बाद राष्ट्रभाषा का दर्जा मिलना चाहिए। गांधी जी तो स्वराज्य के लिए भी भारतीय भाषाओं को आवश्यक मानते थे। 1921 में उन्होंने कहा था, अंग्रेजी के ज्ञान के बिना भी भारतीय मस्तिष्क का सर्वोच्च विकास संभव होना चाहिए। अंग्रेजी से प्रेरणा लेने की गलत भावना से छुटकारा होना स्वराज्य के लिए अत्यावश्यक है। 1947 में अपनी पत्रिका हरिजन में भी गांधी ने लिखा, ‘मेरा आशय यह है कि जिस प्रकार हमने सत्ता हड़पनेवाले अंग्रेजों के राजनैतिक शासन को सफलतापूर्वक उखाड़ फेंका उसी प्रकार हमें सांस्कृतिक अधिग्रहण करनेवाली अंग्रेजी को भी हटा देना चाहिए। यह आवश्यक परिवर्तन करने में जितनी देरी होगी उतनी ही अधिक राष्ट्र की सांस्कृतिक हानि होती जाएगी।‘ गांधी निरंतर अंग्रेजी को हटाने की बात कर रहे थे लेकिन उनके अनुयायी और स्वाधीनता के बाद सत्ता में आए नेता गांधी की इन बातों को राजनीतिक वजहों से नजरअंदाज करते रहे। संविधान सभा में सदस्यों ने भाषा संबंधी गांधी की भावनाओं का ध्यान नहीं रखा। भाषा के प्रश्न पर लगातार बहस से बचते रहे और उसको अंतिम बैठकों के लिए टालते रहे। आखिरकार 12 सितंबर 1949 को संविधानसभा में भाषा के प्रश्न पर बहस आरंभ हुई। चर्चा तीन दिनों तक चली। तमाम तरह के तर्क वितर्क हुए। 14 सितंबर 1949 को ये तय किया गया कि देवनागरी लिपि में लिखी जानेवाली हिंदी देश की राजभाषा होगी। संविधान सभा में हिंदी और हिंदुस्तानी को लेकर भी बहस और मतविभाजन हुआ था लेकिन हिंदी के पक्ष में बहुमत था।
कुछ लोग संविधान सभा में हिंदी के पक्ष में बहुमत को भारत पाकिस्तान विभाजन के बाद लोगों के मत बदलने से भी जोड़कर देखते हैं। प्रख्यात गांधीवादी अप्पा साहब पटवर्धन ने भी कहा था कि ‘यह उचित ही है कि हमलोग अब हिंदी को ही राष्ट्रभाषा कहें क्योंकि पाकिस्तान की राष्ट्रभाषा उर्दू होगी।‘ हिंदी को लेकर पक्ष विपक्ष की बातें होती रहीं पर यह प्रविधान बना कि संविधान के लागू होने के 15 वर्षों तक अंग्रेजी चलती रहेगी। 15 वर्षों के बाद अगर संसद को लगता है कि आगे भी इस प्रविधान की जरूरत है तो वो कानून बनाकर इसको लागू रख सकती है। फिर भाषा आयोग बना,अध्यादेश जारी हुए। हिंदी राजभाषा तो बनी रही पर सरकारी कामकाज में अंग्रेजी का दबदबा कायम रहा। 1963 तक पूरे देश में ऐसी स्थिति बन गई जिससे साफ हो चला था कि 1965 में यानि संविधान लागू होने के 15 वर्ष बाद भी शासन की भाषा हिंदी नहीं हो पाएगी। 1963 में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने संसद में घोषणा कर दी कि ‘जबतक अहिंदी भाषी राज्य अंग्रेजी को चलाना चाहेंगे तब तक हिंदी के साथ-साथ केंद्र में अंग्रेजी भी चलती रहेगी।‘ नेहरू का ये वक्तव्य भाषा अधिनियम का आधार बना। तब से लेकर अबतक अंग्रेजी शासन की भाषा बनी हुई है। उसका दबदबा कायम है क्योंकि इसको लेकर गंभीरता से प्रयास नहीं हुए, जो भ्रांतियां हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के बीच पैदा की गईं उनको दूर करने का राजनीतिक स्तर पर प्रयास नहीं हुआ। देश को चलानेवाले अधिकतर लोग अंग्रेजीदां रहे और उनके लिए शासन की भाषा अंग्रेजी रखना आसान रहा।
लेकिन हिंदी को मजबूती देने का काम अहिंदी भाषियों ने भी किया चाहे वो वीर सावरकर हों, तिलक हों, भूदेव मुखर्जी हों, सुनीति कुमार चाटुर्ज्या हों या अन्य महानुभाव। उसी तरह से जब 2014 में केंद्र में नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री बने और गुजराति होते हुए भी उन्होंने अपनी प्राथमिक भाषा हिंदी बनाई तो शासन की भाषा बदलने लगी। 2019 में जब अमित शाह गृह मंत्री बने तो उन्होंने खामोशी से राजभाषा हिंदी को मजबूत करने का प्रयास आरंभ कर दिया। अमित शाह भी गुजराती हैं और उन्होंने हिंदी सीखी। वो खुद हिंदी में लिखने लगे और अधिकारियों को हिंदी में लिखने के लिए प्रोत्साहित और प्रेरित करने लगे। जब प्रधानमंत्री और गृहमंत्री राजभाषा हिंदी में कार्य करने लगे तो अन्य मंत्रियों ने भी इसको प्राथमिकता देना आरंभ किया। परिणाम ये हुआ कि अन्य मंत्रालयों में हिंदी में कामकाज को वरीयता मिलने लगी। राजभाषा गृह मंत्रालय के अंतर्गत आता है और गृहमंत्री राजभाषा हिंदी को प्राथमिकता दे रहे हैं। 2019 में नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में दूसरी बार सरकार बनी तो गृह मंत्री अमित शाह ने रुचि लेकर 49 मंत्रालयों में हिंदी सलाहकार समिति का गठन करवाया। राजभाषा विभाग की सक्रियता सतह पर दिखने लगी। अन्य भारतीय भाषाओं को हिंदी से जोड़ने का कार्य आरंभ हुआ। ‘लीला राजभाषा’ और ‘लीला प्रवाह’ के अंतर्गत 14 भारतीय भाषाओं में हिंदी सीखने की सहूलियतें प्रदान की गई। अनुवाद का साफ्टवेयर ‘कंठस्थ’ और ‘ईमहाशब्दकोश’ तैयार हुए। संसदीय राजभाषा समिति ने दस खंडों में अपनी सिफारिशें राष्ट्रपति को दीं। पिछले वर्ष काशी में पहला अखिल भारतीय राजभाषा सम्मेलन आयोजित किया गया। हिंदी दिवस के अवसर पर अगले महीने सूरत में राजभाषा का एक सम्मेलन गृह मंत्रालय आयोजित कर रहा है। एक शब्दकोश पर भी कार्य हो रहा है। इसके अलावा कर्मचारियों के हिंदी प्रशिक्षण को लेकर भी राजभाषा विभाग सक्रिय दिख रहा है। गृह मंत्रालय की पहल पर गैर हिंदी भाषी कर्माचरियों में हिंदी सीखने की ललक बढ़ी है। गृह मंत्री अमित शाह के बारे में कहा जाता है कि वो खुद हिंदी के व्यापक प्रयोग को लेकर सतर्क रहते हैं। उम्मीद की जा सकती है कि दिनकर ने जो आशंका जताई थी वो अब निर्मूल साबित होगी और हिंदी को उसका उचित स्थान मिलेगा और वो शासन के साथ ज्ञान और रोजगार की भाषा भी बनेगी।