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Tuesday, July 11, 2023

कोलाहल में दबती फिल्म निर्माण कला


बीते शुक्रवार को फिल्म 72 हूरें रिलीज हुईं। इस फिल्म का भी कुछ लोगों ने एजेंडा और प्रोपगैंडा फिल्म बताकर विरोध किया।न कई लोग इसको एक समुदाय विशेष को बदनाम करनेवाली फिल्म बताने में जुटे रहे। इसके पहले जब फिल्म द केरल स्टोरी रिलीज हुई थी तो भी इसी तरह का वातावरण बना था। द केरल स्टोरी के पहले द कश्मीर फाइल्स के प्रदर्शन के बाद इसके निर्देशक विवेक अग्नहोत्री को काफी विरोध झेलना पड़ा था। उनको जान से मरने की धमकियां भी मिली थीं। इन सबके बीच शाह रुख खान की फिल्म पठान आई थी। उसके एक गाने में अभिनेत्री के वस्त्र को लेकर विवाद हुआ था। इन विवादों में एक बात समान रूप से देखने को मिलती है। अधिकतर लोग फिल्म को बिना देखे उसका विरोध करते हैं। यह मैं अपने व्यक्तिगत अनुभव से कह रहा हूं। पिछले दिनों द केरल स्टोरी को लेकर भी मेरा यही अनुभव रहा था और अब 72 हूरों को लेकर भी ऐसा ही हो रहा है। जो लोग 72 हूरों को एजेंडा और प्रोपगैंडा फिल्म बता रहे हैं उनमें से अधिकतर ने ये फिल्म नहीं देखी है। मजे की बात ये कि फिल्म को एजेंडा और प्रोपगैंडा बतानेवाले अधिकतर लोग इस बात को सार्वजनिक रूप से स्वीकार भी कर रहे हैं कि उन्होंने फिल्म नहीं देखी है। ये कैसा विरोध? किसी भी रचनात्मक कृति की आलोचना उसको बिना देखे या पढ़े कैसे की जा सकती है, ये समझ से परे है।

फिल्मों को लेकर इस तरह के वाद-विवाद की वजह से फिल्म कला का नुकसान हो रहा है। शोर मचाकर फिल्म हिट करवा लेने की बढ़ती प्रवृत्ति की वजह से देश में फिल्म संस्कृति के विकास की दिशा भटक रही है। इसपर हमें गंभीरता से विचार करना चाहिए। विवादों के इस कोलाहल में फिल्म कला या फिल्म के क्राफ्ट उसकी कहानी और ट्रीटमेंट पर बात नहीं होती है। फिल्म पर गंभीरता से लेखन नहीं हो रहा है। फिल्मों पर लिखनेवाले अधिकतर लोग भी चाहे-अनचाहे इन विवादों का हिस्सा बन जाते हैं। आवश्यकता इस बात की है कि फिल्म के क्राफ्ट पर बात हो, छायांकन और दृश्यांकन कला पर चर्चा हो। संवादों में जो फूहड़पन है और गीतों में जिस तरह से शब्दों का उपयोग हो रहा है उसपर बात होनी चाहिए। निर्देशकों की कला और संगीतकारों के प्रयोगों पर मंथन होना चाहिए। ये नहीं हो रहा है। हमेशा से इस तरह की बातें कम होती थीं लेकिन होती थीं। अब तो लगभग नहीं के बराबर हो रही हैं। कोरोना महामारी के दौरान फिल्म फेस्टिवल्स का आयोजन भी बाधित हुआ था। इस कारण वहां होनेवाले विमर्श भी नहीं हो पाए। फिल्मों पर गंभीर बात करने-कराने और उसके क्राफ्ट पर चर्चा करवाने में फिल्म फेस्टिवल्स की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। जागरण फिल्म फेस्टिवल जैसे उत्सव देश के अठारह शहरों में आयोजित किए जाते हैं। जिनमें देश-विदेश की बेहतरीन फिल्में दिखाई जाती हैं। फिल्मों से जुड़े लोगों से संवाद होता है। निर्देशकों से उनके सोच के बारे में दर्शकों को जानने समझने का अवसर मिलता है। इस तरह के आयोजन देश में फिल्म संस्कृति के विकास में महत्वपूर्ण होते हैं। फिल्म फेस्टिवल्स की उपयोगिता असंदिग्ध है, इस पर फिर कभी बात होगी। 

फिल्मों पर जारी शोरगुल के बीच जब क्राफ्ट की बात होती है तो बिमल राय, व्ही शांतारम, सत्यजित राय, गुरुदत्त जैसे फिल्मकार याद आते हैं। आज गुरुदत्त की जयंती है। तीन दिन बाद 12 जुलाई को बिमल राय की जयंती है। बिमल राय की फिल्मों ने जिस तरह से भारतीय सिनेमा को ऊंचाई प्रदान की उसमें कई बार वो सत्यजित राय से बड़े फिल्मकार दिखाई देते हैं। उनकी फिल्म दो बीघा जमीन, सुजाता और बंदिनी को देखकर लगता है कि हमारे देश में कितनी उन्नत फिल्में बना करती थीं। फिल्मों की कहानियों में उसके पात्रों के माध्यम से बिमल राय जिस प्रकर से मानव मन की उलझनों को या यों कहें कि मनोविज्ञान के उलझे रेशे को दिखाते हैं वो अप्रतिम है। बिमल राय ये मानते थे कि मानव मन के अंदर चलनेवाले द्वंद्व का चित्रण दर्शकों को बांधता है। बिमल राय फिल्मों में यौनिकता के अत्यधिक प्रदर्शन के विरुद्ध थे। वो कहा करते थे कि फिल्मों में सेक्स सीन की बहुलता वही दिखाते हैं जिनको प्यार और प्रेम की समझ नहीं होती है। फिल्म दो बीघा जमीन में बिमल राय ने जिस प्रकार से स्वाधीनता के बाद औद्योगिक विकास और किसानों की समस्या को दिखाया है वो दर्शकों को झकझोरता है। इस फिल्म को देखकर किसी विदेशी आलोचक ने फिल्मकार की उस दृष्टि की प्रशंसा की थी जिसमें वो अपने देश के आर्थिक विकास की क्रूरता को रेखांकित करता है। बिमल राय की फिल्म देवदास, मधुमति और यहूदी की खूब चर्चा होती है क्योंकि ये फिल्में व्यावसायिक रूप से भी काफी सफल रही थीं। इन फिल्मों से दिलीप कुमार का अभिनय निखरा था। बिमल राय की फिल्म देवदास की तुलना प्रथमेश बरुआ की 1935 में बनी फिल्म देवदास से की जाती रही है। अधिकतार फिल्म इतिहासकारों का मानना है कि बिमल राय की फिल्म बरुआ की फिल्म से बेहतर बनी थी। बिमल राय की एक फिल्म की चर्चा कम होती है। ये फिल्म भारतीय फिल्मों के इतिहास में उल्लेखनीय मानी जा सकती हैं। ये फिल्म है परख। यह फिल्म तीसरे आम चुनाव के पहले की है। इस फिल्म में बिमल राय ने चुनावी राजनीति को विषय बनाया था और उसपर व्यंग्यात्मक लहजे में प्रहार किया था। फिल्मकार ने इस फिल्म में गांव में चलनेवाली राजनीतिक दांव-पेंच को बेहद सूक्ष्मता से पकड़ा और उसको अपने फिल्म के माध्यम से दर्शकों के सामने पेश कर दिया था। चुनाव किस तरह से एक शांत गांव को अशांत बनाता है, यह देखना हो तो फिल्म परख देखी जानी चाहिए।

पिछले कुछ वर्षों से ये कहा जाने लगा कि फिल्में सिर्फ मनोरंजन के लिए होती हैं। बिमल राय इससे अलग सोचते थे। वो मानते थे कि फिल्में दर्शकों का मनोरंजन तो करे ही विषय विशेष को लेकर बौद्धिक रूप से समृद्ध भी करे। बिमल राय की फिल्मों में ये दिखता भी है। इंटरनेट मीडिया के इस युग में फिल्मों पर लिखनेवाले बढ़े हैं, फेसबुक से लेकर ट्विटर पर आपको फिल्मों के कई प्रकार के विशेषज्ञ मिल जाएंगे लेकिन फिल्मों के क्राफ्ट पर गंभीरता से विमर्श का आभाव दिखता है। आज अधिकतर फिल्मकारों की रुचि बाक्स आफिस के आंकड़ों में रह गई है। इस आंकड़ों में रुचि रखना गलत नहीं है लेकिन बाक्स आफिस के अलावा फिल्मों के कंटेंट और उसके ट्रीटमेंट पर भी ध्यान रखना चाहिए। फिल्म निर्माण का उद्देश्य लाभ कमाना होना चाहिए। लेकिन लाभ के लिए कला को समाप्त करने की प्रवृत्ति रोकने के भी प्रयास किए जाने चाहिए। कलात्मकता के नाम पर फूहड़ता या यौनिकता के अत्यधिक प्रदर्शन से तात्कालिक लाभ तो हो सकता है लेकिन उससे कला का नुकसान होता है। याद पड़ता है कि जब बिमल राय की फिल्में देवदास, मधुमति और यहूदी जबरदस्त कामयाब हुईं तो इस बात की चर्चा आरंभ हो गई थी कि बिमल राय भी व्यावसायिकता की होड़ में शामिल हो गए हैं। इन तीन फिल्मों के बाद बिमल राय ने बंदिनी और सुजाता बनाकर इस धारणा का निषेध किया था। कहने का अर्थ ये है कि अगर आपके पास फिल्म निर्माण की कला होगी तो बाक्स आफिस भी आपके साथ होगा और बेहतर फिल्में भी बनेंगी। आज जिन फिल्मकारों के पास फिल्म की समझ दिखाई देती है उनको प्रोड्यूसर मिलने में कठिनाई होती है। आज बहुत कम ऐसे प्रोड्यूसर बचे हैं जो फिल्मों की बारीकियों को समझते हैं। ऐसे में दर्शकों का दायित्व बढ़ जाता है कि वो बेहतर फिल्मों के लिए दबाव बनाएं। 


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