कुछ दिनों पूर्व राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों की घोषणा हुई। आमतौर पर प्रतिवर्ष कुछ विघ्नसंतोषी किस्म के लोग राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों की घोषणा पर विवाद उठाने का प्रयास करत रहे हैं। कभी किसी नाम को लेकर तो कभी किसी फिल्म के चयन को लेकर। 2021 के लिए घोषित राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार में फिल्म मिमी के अभिनेता पंकज त्रिपाठी को सर्वश्रेष्ठ सह अभिनेता और कृति सैनन को सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का साझा पुरस्कार देने की घोषणा की गई। कुछ लोगों ने इस फिल्म के कलाकारों को पुरस्कृत करने पर इस आधार पर प्रश्न खड़ा किया कि किसी रीमेक फिल्म को कैसे राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार दिया जा सकता है। फिल्म मिमी मराठी फिल्म मला आई व्हायचंय का रीमेक है। मिमी को पुरस्कार पर प्रश्न खड़ा करनेवालों को राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों की नियमावली देखनी चाहिए। अगर रीमेक को पुरस्कार नहीं देने का नियम होता तो संजय लीला भंसाली की शाह रुख खान अभिनीत देवदास को पांच राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार कैसे मिल पाते। जब देवदास प्रदर्शित होनेवाली थी तब ये प्रचारित किया गया था कि ये फिल्म तीसरा रीमेक है। होता ये है कि अज्ञानतावश कई बार आलोचना आरंभ हो जाती है। इंटरनेट मीडिया के इस दौर में तथ्यों को परखने की या उस तक पहुंचने का समय कम लोगों के पास होता है। झटपट लिख कर पहले पोस्ट करने की हड़बड़ी होती है। किसी एक ने लिख दिया और फिर उससे जुड़े लोग उसी लिखे को लेकर शोरगुल मचाने लग जाते हैं। आलोचना बहुत सावधानी से किया जाना वाला कार्य है। होना यह चाहिए कि पूरी तरह से तथ्यों को परखने के बाद ही अपने मत को सार्वजनिक करना चाहिए, अन्यथा जानकारों के बीच आलोचना करनेवाले उपहास के पात्र बन जाते हैं।
हाल ही में घोषित राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों में फिल्म द कश्मीर फाइल्स को राष्ट्रीय एकता के लिए सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म का पुरस्कार देने की घोषणा की गई। इस घोषणा के बाद कांग्रेस ने इसका विरोध किया। कांग्रेस की राष्ट्रीय प्रवक्ता ने ट्वीट करके कहा कि ‘एक ऐसी फिल्म जिसने लोगों के बीच विषाक्त माहौल बनाया, जिसने एक समुदाय विशेष को टारगेट किया, जिसने ऐतिहासिक तथ्यों को तोड़ा मरोड़ा, कहानी का सिर्फ एक विद्रूप पक्ष दिखाया, जिसका एकमात्र उद्देश्य सिर्फ वैमनस्यता फैलाना और शांति भंग करना था, उस फिल्म ‘कश्मीर फाइल्स’ को राष्ट्रीय एकता के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार दिया गया है।‘ लंबी प्रतिक्रिया में आगे कहा गया कि ‘ऐसी फिल्म, जिसे अंतरराष्ट्रीय मंच पर ‘वल्गर और प्रोपेगैंडा’ कहा गया, जिसके निर्माता लगातार जहर उगलते हैं और अगर आप उनसे असहमत हैं तो जाहिलियत करने पर उतारू हो जाते हैं...अगर लोगों का जख्म कुरेद कर, लोगों पर बीती त्रासदी को भुनाकर पैसा कमाने की प्यास नहीं बुझी, तो उस फ़िल्म को पुरस्कार देकर कश्मीरियों के घावों पर नमक छिड़क दिया गया है। राष्ट्रीय पुरस्कारों की जूरी पर एक नज़र डालने से ही पता चल जाता है कि ‘कश्मीर फाइल्स’ जैसी विकृत फिल्म को क्यों पुरस्कृत किया गया है! उन्माद और नफ़रत की इस आग को भड़काने के लिए कोई हथकंडा नहीं छोड़ेगी यह सरकार।‘
द कश्मीर फाइल्स पर कांग्रेस की इस प्रतिक्रिया में स्पष्ट रूप से राजनीति दिखाई देती है। प्रतिक्रिया के अंत में इसको उन्माद और नफरत की आग को भड़काने वाला सरकार का कदम बताया गया। शायद कांग्रेस पार्टी को ये नहीं मालूम हो कि राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों के लिए फिल्मों का चयन एक जूरी स्वतंत्र रूप से करती है। फिल्मों को पुरस्कृत करने के लिए चयन का कार्य दो स्तरों पर किया जाता है जिसमें सरकार का कोई दखल नहीं होता है। ये मेरा अनुभ भी है। द कश्मीर फाइल्स को वैमनस्यता फैलाने और शांति भंग करनेवाला बताया गया है। द कश्मीर फाइल्स को लेकर कहां शांति भंग हुई या कहां वैमनस्यता फैली ये ज्ञात नहीं हो सका। पूरी दुनिया में इस तरह की फिल्में पहले भी बनती रही हैं और उसपर विमर्श भी होते रहे हैं। नाइट एंड फाग से लेकर सिंडलर्स लिस्ट से लेकर पियानिस्ट तक। यह सूची बहुत लंबी है। द कश्मीर फाइल्स ने कश्मीर के इतिहास की एक बेहद भयानक और क्रूरतापूर्ण घटना को देश की जनता के सामने रखा। एक ऐसी घटना जिसमें हिंदुओं के साथ बर्बरतापूर्ण अत्याचार हुआ था। यह स्वाधीन भारत के इतिहास का वो काला अध्याय है जिसको भूलना संभव नहीं है। जब यह फिल्म रिलीज हुई थी तो इसको देखे बगैर लोगों ने इसपर टिप्पणियां की थीं। इसके निर्माताओं का दावा है कि इसमें किसी घटना को फिक्शनलाइज नहीं किया गया है। खैर इसपर बात करने का कोई अर्थ नहीं है क्योंकि इस फिल्म के कंटेंट को लेकर पूर्व में काफी बातें हो चुकी हैं।
एक और आरोप जो कांग्रेस प्रवक्ता ने अपनी प्रतिक्रिया में जड़ा वो कि जूरी पर नजर डालने से पता चल जाता है कि इस तरह की विकृत फिल्म को क्यों पुरस्कृत किया गया। 2021 के लिए घोषित फीचर फिल्मों की जूरी के अध्यक्ष केतन मेहता हैं। केतन मेहता की विचारधारा क्या रही है ये सबको ज्ञात है। मिर्च मसाला से लेकर माया मेमसाब, टोबा टेक सिंह, मंगल पांडे, मांझी द माउंटेनमैन जैसी फिल्मों से जुड़े केतन मेहता दक्षिणपंथी या सरकार समर्थक फिल्मकार नहीं माने जाते हैं। वो फिल्म निर्देशक अनुभव सिन्हा जैसे वर्तमान सरकार के आलोचक के साथ काम कर चुके हैं। हिंदी फिल्मों की दुनिया में केतन मेहता को लिबरल फिल्मकार माना जाता है जिसकी आत्मा वाम की ओर झुकी हुई है। कम से कम हिंदी फिल्मों के जो लोग उनके साथ सार्वजनिक रूप से दिखते हैं वो मोदी सरकार के समर्थक तो नहीं हैं। केतन मेहता का फिल्मों में काम करने का वृहद अनुभव है। वो फिल्म और टेलीविजन संस्थान से प्रशिक्षित हैं। हर तरह की फिल्में बनाई हैं। उनकी अध्यक्षता में जूरी ने द कश्मीर फाइल्स को राष्ट्रीय एकता के लिए सर्वश्रेष्ठ फिल्म चुनने का निर्णय लिया है। ऐसे व्यक्ति को जूरी का चैयरमैन बनाकर सरकार ने अपनी निष्पक्षता का परिचय दिया लेकिन कांग्रेस उनके विवेक और चयन पर प्रश्न खड़ा कर रही है। कहा जा रहा है कि जूरी पर नजर डालने से विकृत चयन का पता चल रहा है।
रही बात अतीत के जख्मों को कुरेदने की तो अंग्रेजी के एक विख्यात लेखक ने कहा था कि अतीत आपके भविष्य को परिभाषित तो नहीं करता लेकिन आपके भविष्य निर्माण में उसकी अहम भूमिका होती है। अगर इस लिहाज से देखें तो द कश्मीर फाइल्स ने कश्मीरी हिंदुओं पर हुए अमानवीय कृत्यों को आज की पीढ़ी के सामने लाने का जो प्रयास किया है, उसको रेखांकित किया जाना चाहिए। द कश्मीर फाइल्स को जिस इजरायली फिल्मकार ने प्रोपगैंडा फिल्म कहा था उसको भी भारत सरकार ने ही गोवा में आयोजित होनेवाले अंतराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल की जूरी में नामित किया था। उसपर भी काफी बातें हो चुकी हैं इससलिए उसको दोहराने का कोई अर्थ नहीं है। अगर समग्रता में कांग्रेस की द कश्मीर फाइल्स को मिले राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार की टिप्पणी को देखा जाए तो ऐसा प्रतीत होता है कि पार्टी इसपर राजनीति कर रही है। राजनीतिक दल होने के नाते यह उनका धर्म भी है लेकिन सिनेमा को राजनीति का औजार बनाने के बचना चाहिए था। साहित्य और कला में राजनीति के घालमेल से हिंदी साहित्य का अधिकतर सृजनात्मक लेखन एकांगी हो गया है। पिछले आठ नौ सालों से राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों और गोवा में आयोजित होनेवाले अंतराष्ट्रीय फिल्म उत्सव को विवादित करने का भरपूर प्रयत्न किया जाता रहा है। एस दुर्गा फिल्म के प्रदर्शन को लेकर विवाद हो या विनोद खन्ना को दादा साहब फाल्के पुरस्कार देने का मसला हो, विवादजीवी सक्रिय होते ही रहते हैं। स्वस्थ आलोचना विधा को समृद्ध करती है जबकि आधारहीन आलोचना से विधा के कुम्हलाने का डर होता है।