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Saturday, August 19, 2023

हिंदी फिल्मों में साम्यवादी षडयंत्र


पिछले कई वर्षों से देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू चर्चा में हैं। नेहरू के व्यक्तित्व और कृतित्व के विभिन्न आयामों और पहलुओं को लेकर विमर्श चलता रहता है। एक तरफ उनको आधुनिक भारत का निर्माता बताया जाता है तो दूसरी तरफ विभाजन के समय के उनकी भूमिका से लेकर देश में कला जगत पर सोवियत रूस के प्रभाव को गहरा करने के लिए वातावरण बनाने का आरोप भी लगता है। नेहरू पर कम्युनिज्म का प्रभाव था ये बात वो स्वीकार भी करते थे। स्वाधीनता के बाद देश के प्रधानमंत्री बनने के बाद के निर्णयों में इसकी छाप भी दिखाई देती थी। कुछ दिनों पहले एक वेब सीरीज आई थी जुबली जिसमें हिंदी सिनेमा पर कम्युनिस्टों के प्रभाव की ओर इशारा किया गया था। इस वेब सीरीज के रिलीज के समय इस बात की चर्चा भी हुई थी कि किस तरह से 1952 में उस वक्त के सूचना और प्रसारण मंत्री ने आकाशवाणी पर हिंदी गानों के प्रसारण पर रोक लगा दी थी। तर्क ये दिया गया था कि गाने भारतीय संस्कृति के विरुद्ध है। उस समय रूसियों का भी यही तर्क होता था। कहना न होगा कि स्वाधीनता के बाद जब भारत एक राष्ट्र के रूप में हर क्षेत्र में अपने को शक्तिशाली बनाने का प्रयास कर रहा था उस समय हिंदी सिनेमा पर रूसियों के प्रभाव को बढ़ाने में तत्कालीन सरकार ने जमीन उपलब्ध करवाई । हाल ही में प्रख्यात अभिनेता देवानंद के शताब्दी वर्ष पर कुछ शोध करने के क्रम में उनकी आत्मकथा रोमासिंग विद लाइफ को दूसरी बार पढ़ा। पहली बार जब पढ़ा था तो उसमें वर्णित कुछ प्रसंगों की ओर ध्यान नहीं गया था। जब दूसरी बार पढ़ रहा था तो वेब सीरीज जुबली के कई संवाद और दृष्य अवचेतन में थे। 

देवानंद ने अपनी आत्मकथा के अट्ठाइसवें और उनतीसवें अध्याय में विस्तार से तत्कालीन सोवियत संघ की यात्रा का वर्णन किया है। इस वर्णन में कई ऐसे सूत्र हैं जिससे ये स्पष्ट होता है कि उस समय की सरकार कैसे कम्युनिस्टों के एजेंडे को बढ़ाने में मदद कर रही थी। बात 1954 की है जब सोवियत संघ ने दूसरे देश के लोगों को अपने यहां आने की अनुमति दी थी। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद सोवियत संघ ने अपनी सीमाएं दूसरे देश के नागरिकों के लिए बंद कर रखी थीं। जब सोवियत संघ ने अपनी सीमाएं खोलीं तब भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय ने हिंदी सिनेमा से जुड़े अभिनेताओं, अभिनेत्री और लेखकों को वहां भेजने का निर्णय लिया। देवानंद ने लिखा है कि इस यात्रा पर जाने के लिए प्रतिनिधि मंडल के सदस्यों के चयन और नेतृत्व का दायित्व ख्वाजा अहमद अब्बास को सौंपा गया क्योंकि उनकी विचारधारा वामपंथी थी। इसका अर्थ ये हुआ कि मनेहरू सरकार के समय संस्कृति मंत्रालय इस तरह के दायित्व विचारधारा के आधार पर दिया करती थी। खव्जा अहमद अब्बास ने बलराज साहनी, बिमल राय, राज कपूर, नर्गिसस, देव आनंद, चेतन आनंद और ऋषिकेश मुखर्जी का चयन किया। नाम को देखकर अंदाज लगाया जा सकता है कि ख्वाजा अहमद अब्बास ने जिन कलाकारों का चयन किया, उनकी विचारधारा क्या थी या उनका झुकाव किस विचारधारा की ओर था। हिंदी फिल्मों से जुड़े ये कलाकार पहले जेनेवा पहुंचे और वहां से चेकोस्लोवाकिया की राजधानी प्राग। उस वक्त चेकोस्लोवाकिया में कम्युनिस्टों का शासन था। जेनेवा में रुकने के दौरान ये लोग मशहूर अमेरिकी कलाकार चार्ली चैपलिन से भी मिले थे। वो उन दिनों अमेरिका से देश निकाला झेल रहे थे और जेनेवा से थोड़ी दूर एक स्थान पर रह रहे थे। प्राग में प्रतिनिधिमंडल का स्वागत चेकोस्लोवाकिया के अफसर और दुभाषिया ने किया था। 

देवानंद ने लिखा है कि ऐसा लग रहा था कि प्रतिनिधिमंडल की हर गतिविधि पर लगातार नजर रखी जा रही थी। प्राग से इन सबको मास्को तक पहुंचाने के लिए सोवियत संघ के एक विशेष विमान की व्यवस्था की गई थी। ये लोग इतने महत्वपूर्ण थे कि इनके लिए एक विशेष विमान आया। इनको किस किस तरह से प्रभावित किया जा रहा था इसका विस्तार से वर्णन देवानंद ने किया है। ख्वाजा अहमद अब्बास निर्देशित फिल्म राही और अन्य हिंदी फिल्मों को सोवियत संघ की विभिन्न भाषाओं में डब किया गया था। सबके आठ सौ प्रिंट निकलवा कर पूरे सोवियत संघ में रिलिज की गई थी। देवानंद कहते हैं कि इस तरह की व्यवस्था सिर्फ सरकारी नियंत्रण वाले समाज में ही संभव थी। प्रतिनिधिमंडल का दौरा छह सप्ताह का था। उसके प्रत्येक सदस्य को सोवियत संघ के किसी भी शहर में घूमने जाने का विकल्प दिया गया था जिसकी सारी व्यवस्था सोवियत सरकार कर रही थी। सारी व्यवस्था थी, आतिथ्य में किसी प्रकार की कमी नहीं थी लेकिन किसी भी कलाकार को कहीं भी अकेले घूमने जाने की छूट नहीं दी गई थी। इन कलाकारों के सम्मान में हर दिन पार्टियां होती थीं जिनमें बैले नृत्य और वोडका से स्वागत किया जाता था। लेकिन किसी भी कलाकार को रूसियों से निकटता बढ़ाने की छूट नहीं थी। देवानंद ने एक पार्टी का उल्लेख किया है जिसमें दो बेहद खूबसूरत लड़कियां उनके साथ नृत्य कर रही थीं और वो इंटिमेट हो रही थीं। अचानक दोनों गायब हो गईं । देवानंद ने खोजने की कोशिश की लेकिन पता ही नहीं चला और पूरे दौरे के दौरान वो दोनों फिर कहीं नहीं दिखीं। इसी तरह से वो बताते हैं कि लोग फिल्मी सितारों के साथ दोस्ती बढ़ाना चाहते थे लेकिन उनको ऐसा नहीं करने दिया जाता था। देवानंद ने अपनी आत्मकथा में सवाल उठाया कि कहीं उनपर नजर रखनेवाले केजीबी के एजेंट तो नहीं थे। 

पूरे प्रसंग से एक बात तो स्पष्ट है कि उस समय की भारत सरकार अपने कलाकारों को सोवियत रूस भेजकर उनको वामपंथ के प्रभाव में आने का मार्ग प्रशस्त कर रही थी। ये वही दौर था जब हिंदी फिल्मों पर साम्यवादी विचारधारा का प्रभाव बढ़ा। गरीबों- मजदूरों के अधिकारों को लेकर धड़ाधड़ फिल्में बन रही थीं। उनको सोवियत रूस के विभिन्न सिनेमाघरों में वहां की विभिन्न भाषाओं में डब करके दिखाया जा रहा था। सोवियत संघ के विभिन्न शहरों में हिंदी फिल्मों के लिए फिल्म फेस्टिवल आयोजित किए जाने लगे थे। सोवियत संघ के निर्माता और हिंदी फिल्मों के निर्माताओं के बीच साझेदारी बढ़ने लगी थी। इन सबसे होनेवाला मुनाफा हिंदी फिल्मों के निर्माताओं के साथ साझा किया जाता था। हिंदी फिल्मों के माध्यम से साम्यवादी विचारधारा को मजबूत करने का ये उपक्रम प्रतीत होता है। उस दौर के हिंदी गीतों और संवादों में साम्यवादी विचारधारा स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। पूंजीपति वर्ग को शोषक और गरीब को शोषित दिखाने की परंपरा ने स्वाधीनता के बाद ही जोर पकड़ा था। जमींदार है तो वो बुरा ही होगा ये लगभग हर हिंदी फिल्म का केंद्रीय थीम होने लगा था। पूंजीवादी व्यवस्था के कथित दुर्गुणों को फिल्मों में प्रमुखता से दिखाकर भारतीय जनमानस पर साम्यवादी विचारधारा को थोपने का प्रयास किया जा रहा था। 

उस समय भारत सरकार के मुखिया नेहरू के मन में साम्यवाद को लेकर एक आकर्षण था इसलिए इस प्रवृत्ति को बढ़ावा मिलता रहा, सरकारी संरक्षण भी। इसी दौर में भारतीय जन नाट्य संघ से जुड़े लोग हिंदी फिल्मों में प्रमुख स्थान पाने लगे। गीतकार और कहानीकार भी पूंजीपति बनाम आम जनता की कहानी लिखने लगे थे। उस समय ऐसी फिल्मों को सोवियत संघ में बाजार मिल जाता था। सोवियत संघ में उस समय वहां के संस्कृति मंत्रालय के नियंत्रण में फिल्में बनती थीं जिसमें विचारधारा होती थी। ऐसे में भारत से साम्यवादी विचार वाली फिल्में जिनमें मनोरंजनभी होता था वहां के दर्शकों को पसंद आने लगा था। समग्रता में इसपर विचार करें तो ये निष्कर्ष निकलता है कि स्वाधीनता के बाद नेहरू सरकार की सरपरस्ती में फिल्मों में साम्यवादी विचार फले फूले। 


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