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Saturday, June 29, 2024

सनातन प्रतीकों पर राजनीति का खेल


नई लोकसभा के गठन के बाद जब संसद का सत्र आरंभ हुआ तो विपक्षी दल के सांसदों ने संविधान का उपयोग नए राजनीतिक औजार के रूप में करना आरंभ किया। संविधान की प्रति लेकर शपथ लेना आरंभ किया। संविधान को लेकर चुनाव के समय से जो चर्चा आरंभ हुई थी वो लोकसभा तक पहुंच गई। संविधान पर चर्चा और उसके बचाने के दावे के साथ उत्साहित विपक्ष ने नई लोकसभा में सेंगोल की स्थापना को लेकर भी प्रश्न उठाया। समाजवादी पार्टी उत्तर प्रदेश में अपनी सफलता से उत्साहित है। पार्टी के सांसद आर के चौधरी ने संसद में सेंगोल की जगह संविधान की प्रति लगाने की बात कहकर एक नए विवाद को जन्म दिया। आर के चौधरी ने कहा कि ‘सेंगोल राजा महाराज के टाइम का था। सेंगोल तमिल भाषा का शब्द है। जब यहां राजा महाराजा थे तब यहां सेंगोल तैयार किया गया। जब देश को स्वतंत्रता मिल गई या मिलनेवाली थी या जब सत्ता का हस्तांतरण होनेवाला था तो यहां के पुरोहितों ने प्रस्ताव दिया और उनके प्रस्ताव पर सेंगोल बनवाया गया। सेंगोल के तैयार होने के बाद उसको लार्ड माउंटबेटन को दे दिया गया जिन्होंने उसको जवाहरलाल नेहरू को ट्रांसफर कर दिया। नेहरू ने उसको इलाहाबाद (अब प्रयागराज) के संग्रहालय में स्थापित करवा दिया। ये पुरानी बात हो गई। सेंगोल जहां था वहां था। वहां से सेंगोल को लाकर नई संसद भवन में रख दिया गया। संसद लोकतंत्र का मंदिर है। हम चाहते हैं कि वहां सेंगोल नहीं देश के संविधान की एक प्रति रखी जाए। उसी से देश चलेगा। देश संविधान से चलेगा। लोकतंत्र से चलेगा। अगर लोकतंत्र को बचाना है तो सेंगोल को हटाना है।‘ 

समाजवादी पार्टी के सांसद ने सेंगोल को लेकर जो टिप्पणी की उसपर विचार करने की आवश्यकता है। पहली बात तो 1950 में संविधान लागू होने के बाद से ही देश संविधान से ही चल रहा है। अगर इमरजेंसी के कालखंड को छोड़ दें जब संविधान की प्रस्तावना को न केवल अवैध तरीके बदला गया बल्कि संविधान प्रदत्त नागरिक अधिकारों को भी खत्म कर दा गया था। प्रेस पर सेंसरशिप लागू कर दिया गया था। संविधान में संशोधन भी किए गए। शाह बानो मामले में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बाद संविधान को बदला भी गया। इन घटनाओं के अलावा संविधान कभी खतरे में नहीं आया। दूसरी बात जो आर के चौधरी ने कही कि सेंगोल को पुरोहितों के कहने पर तैयार करवाया गया। यह तथ्य से परे प्रतीत होता है। सेंगोल से सत्ता हस्तांतरण का प्रस्ताव चक्रवर्ती राजगोपालाचारी की पहल पर हुआ था। सेंगोल से सत्ता हस्तांतरण की परंपरा चोल राजवंश में थी उसको स्वतंत्र भारत में सनातन से जोड़कर अपनाया गया था। थिरूवावडुथुरई अधीनम तमिलनाडू के शिवभक्तों का एक बड़ा और प्रभावशाली समूह है। यह समूह सनातन में आस्था रखनेवाले पिछड़े समुदाय का है। समाज के उस हिस्से को सेंगोल बनाने और सत्ता हस्तांतरण समारोह की जिम्मेदारी दी गई जो गैर ब्राह्मण थे, लेकिन शिव और सनातन में उनकी आस्था थी। जब आर के चौधरी बोल रहे थे तो स्पष्ट हो रहा था कि वो सेंगोल के बारे में समग्र तथ्यों से अंजान थे। वो अपनी राजनीति करने के लिए अपनी सुविधानुसार बातों को रखने का प्रयास कर रहे हैं। आर के चौधरी के इस बयान के बाद कुछ राजनीतिक विश्लेषक भी अपने अपने तरीके से सेंगोल को हिंदू धर्म प्रतीक बताकर उसके विपोध की राजनीति को हवा देने में जुट गए। एक विश्लेषक ने तो यहां तक कह दिया कि सेंगोल की स्थापना के समय जिस तरह से सनातन धर्म के गुरुओं के साथ प्रधानमंत्री मोदी ने संसद भवन में प्रवेश किया था वो पंथ निरपेक्ष संविधान के अनुकूल नहीं है। प्रधानमंत्री तक को ये सलाह दे दी गई कि उनको इस तरह से हिंदू धर्म प्रतीकों के सार्वजनिक प्रदर्शन से बचना चाहिए। उनको लगता है कि सेंगोल स्थापना या नई संसद भवन के शुभारंभ के अवसर पर किया गया आयोजन हिंदू वोटबैंक को ध्यान में रखकर किया गया था। 

जब भी इस तरह की टिप्पणी सुनने को मिलती है तो इन राजनीतिक विश्लेषकों की खटाखट और फटाफट सोच पर हंसी आती है। आज जो लोग संविधान की बात कर रहे हैं। उसको हाथ में लेकर संविधान की कसमें खा रहे हैं उनको और उनके राजनीतिक विश्लेषकों को संविधान की प्रति को खोलकर देखना चाहिए। बाबा साहब भीमराव अंबेडकर की अगुवाई में जब संविधान का ड्राफ्ट तैयार हो गया था तब संविधान सभा में उसी साज सज्जा को लेकर चर्चा हुई थी। सदस्यों के साथ चर्चा के उपरांत ये तय किया गया कि प्रख्यात चित्रकार नंदलाल बोस से इसकी साज सज्जा करवाई जाए। संविधान को देखें तो उसका जो भाग तीन है, जिसमें मौलिक अधिकारों की चर्चा की गई है, उस भाग के आरंभ में प्रभु श्रीराम, सीता और लक्ष्मण की अयोध्या वापसी के चित्र अंकित हैं। इसी तरह से संविधान के भाग दो का आरंभ वैदिक काल के गुरुकुल के चित्र से की गई है। इस भाग में नागरिकता से संबंधित बातें हैं। संविधान के पहले भाग में सिंधु घाटी सभ्यता के प्रतीक जैबू, जो नंदी जैसे प्रतीत होते हैं, का चित्र है। इसके आलोक में देखा जाए तो क्या ये मान लिया जाए कि संविधान निर्माताओं ने हिंदू धर्म प्रतीकों को अंगीकार किया था। क्या वो सनातन के प्रतीक चिन्हों का सार्वजनिक प्रदर्शन था या संविधान सभा के सदस्यों की मूल भावना थी। दरअसल इसको और कालांतर में संविधान की प्रस्तावना में जोड़े गए पंथनिरपेक्षता से मिलाकर देखें तो ये स्पष्ट होता है कि संविधान और संविधान सभा के सदस्यों के मूल भावना के विरुद्ध जाकर प्रस्तावना में पंथ निरपेक्षता जैसे शब्द जोड़े गए। 

संविधान और कानून के रक्षक सुप्रीम कोर्ट का ध्येय वाक्य देखा जाना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट के लोगो पर लिखा है यतो धर्मस्ततो जय: । इसका अर्थ है जहां धर्म है वहां जय है। अब इन राजनीतिक विश्लेषकों को कौन समझाए कि ये वाक्य कहां से लिया गया है। महाभारत में अनेकों बार ये पंक्ति आती है। क्या ये भी हिंदू धर्म का सार्वजनिक प्रदर्शन है। संविधान सभा के सदस्य भारत भूमि और भारत की सनातन संस्कृति की विराटता के परिचित थे। इस कारण उन्होंने सनातन और हिंदू धर्म के प्रतीक चिन्हों को उसकी मूल भावना के साथ रखा। राम और प्रकृति को समान महत्व दिया गया। बाद के दिनों में जब संकुचित मानसिकता के लोग सत्ता में आए तो वो सनातन की विराटता और भारतीय संस्कृति को समझ नहीं पाए। पंथ निरपेक्षता जैसे संकुचित शब्द से भारतीय संस्कृति को बांधने की कुचेष्टा की गई। परिणाम यह हुआ कि भारतीय समाज की सनातन परंपरा खांचों में विभाजित होती चली गई। आज जो लोग संविधान और सनातन प्रतीकों पर शोर शराबा मचा रहे हैं दरअसल वो संविधान की मूल भावना के विरुद्ध ले जाने का प्रयास कर रहे हैं। संविधान को राजनीति का औजार बनाकर अपने राजनीतिक हित साध रहे हैं। संविधान का मूलाधार सनातन है जो आत्मा की तरह अजर अमर है। वो शरीर तो बदलता है लेकिन आत्मा वही रहता है। संविधान पर लाख बातें हो, खूब चर्चा हो लेकिन उसकी मूल भावना से खिलवाड़ न हो।      


Saturday, June 22, 2024

लोकतंत्र को कमजोर करने की रणनीति


लोकसभा चुनाव संपन्न होने के बाद अब पूरे देश की निगाहें संसद के आगामी सत्र पर है। अपनी आंशिक सफलता के उत्साहित विपक्ष सरकार को घेरने के लिए कमर कस चुका है। उधर मोदी के नेतृत्व में बनी सरकार अपने निर्णयों से ये आभास देने की भरपूर कोशिश कर रही है कि भले ही सरकार गठबंधन की हो लेकिन सबकुछ मोदी स्टाइल में ही हो रहा है। चुनाव संपन्न के होने के बाद से विपक्ष निरंतर नए नए मुद्दे उठाकर सरकार को घेरने का प्रयत्न कर रही है। 4 जून को चुनाव के नतीजे आए थे तब विपक्ष के किसी नेता ने ईवीएम को लेकर प्रश्न नहीं उठाए थे। नरेन्द्र मोदी ने ही सांसदों की बैठक में व्यंग्य किया था कि बेचारी ईवीएम बच गई। मोदी के नेतृत्व में लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को 240 सीटें मिली हैं। इस बात को याद रखा जाना चाहिए कि पिछले दस वर्षों में से देश में मोदी के नेतृत्व में केंद्र सरकार चल रही थी। चुनाव संपन्न होने के बाद कुछ ऐसे बिंदु हैं जिसपर विचार किया जाना आवश्यक है। चुनाव के दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने संकेत किया था कि विदेशी ताकतें चुनाव को प्रभावित करने के लिए सक्रिय हैं। तब मोदी के उस वक्तव्य पर पर्याप्त चर्चा नहीं हुई थी। अब जबकि देश में सरकार बन चुकी है, मंत्रिमंडल का गठन हो चुका है तो चुनाव के दौरान की कुछ घटनाओं और उसके पहले की पृष्ठभूमि की चर्चा करना उचित प्रतीत होता है। देश में चुनाव के पहले अमेरिकी खरबपति जार्ज सोरोस के बयान को याद किया जाना चाहिए। 2020 में उसने मोदी को तनाशाही व्यवस्था का प्रतीक बताया था। फिर अदाणी को लेकर उसने मोदी पर हमला किया था और कहा था कि ये मुद्दा भारत में लोकतांत्रिक परुवर्तन का कारण बनेगा। इसके बाद भी कई तरह की खबरें इंटरनेट मीडिया पर प्रसारित हुईं जिसमें कहा कि जार्ज सोरोस भारत में होनेवाले लोकसभा चुनाव को प्रभावित करने का प्रयास कर रहा है। निवेश भी। अमेरिका जिस तरह की राजनीति करता है उसमें वो वैश्विक स्तर पर अपने प्रभाव और दबदबे को कायम रखने के लिए हर देश में परोक्ष रूप से दखल देता रहता है।

अमेरिकी नेतृत्व चाहता है कि दुनिया में किसी भी देश में कमजोर सरकार बने ताकि वो देश अमेरिका की मदद पाने के लिए जतन करता रहे। कूटनीतिक कदमों से लेकर रणनीतिक निर्णय लेने के पहले अमेरिका से चर्चा करे। ऐसी स्थिति में अमेरिका को अपने देश और व्यापारिक हितों की रक्षा करने में सहूलियत होती है। 2014 में मोदी सरकार के बनने और 2019 में अधिक मजबूती से वापस आने के बाद नरेन्द्र मोदी ने वैश्विक मंच पर भारत के हितों को प्राथमिकता पर रखना आरंभ कर दिया। मोदी ने भारतीय प्रवासियों की शक्ति को भी देशहित में उपयोग करना आरंभ कर दिया। ये बातें अमेरिका को नागवार गुजरने लगीं। 2019 के सितंबर में प्रधानमंत्री मोदी ने अमेरिका के ह्यूस्टन में हाउडी मोदी नाम के एक कार्यक्रम में भाग लिया था। अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप भी उस कार्यक्रम में आए थे। वहां अबकी बार ट्रंप सरकार का नारा लगा था। उस नारे के बाद अमेरिकियों के कान खड़े हो गए थे। उनको लगने लगा था कि जो काम आजतक परोक्ष रूप से अमेरिका करता था वही काम भारत उनके देश में सरेआम कर रहा है। अमेरिका में प्रवासी भारतीयों की संख्या काफी अधिक है और उनमें से अधिकतर प्रधानमंत्री मोदी के समर्थक माने जाते हैं। प्रवासी भारतीय अमेरिकी चुनाव में कई सीटों पर परिणाम को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं। 

वैश्विक राजनीति पर नजर रखनेवाले विशेषज्ञों का मानना है कि अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में ट्रंप की हार के बाद जब जो बिडेन राष्ट्रपति बने तो भारत की राजनीति एजेंसियों की प्राथमिकता पर आ गया। वहां की एजेंसियां कारोबारियों और स्वयंसेवी संस्थाओं के माध्यम से दूसरे देशों की गतिविधियों में निवेश करती है और अपने मनमुताबिक नैरेटिव चलाती है, काम करवाती है। ऐसे कई अमेरिकी फाउंडेशन हैं जो शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में भारत में स्वयंसेवी संस्थाओं के माध्यम से निवेश करती रही हैं जो परोक्ष रूप से आंदोलन और नैरेटिव बनाती हैं। मोदी सरकार ने पिछले दस वर्षों के अपने कार्यकाल में ऐसे सरोगेट निवेश पर अंकुश लगाया। इस कारण कई वैश्विक संस्थाएं मोदी विरोध में आ गईं। जिस तरह के किसान आंदोलन के समय विदेशी सेलिब्रेटी इसके समर्थन में उतरीं, जिस तरह से शाहीन बाग धरने को सेलेब्रिटी के जरिए चर्चित बनाने का कार्य किया गया, उसको रेखांकित किया जाना चाहिए। अगर इस क्रोनोलाजी को देखते हैं तो एक और चीज नजर आती है कि 2019 के बाद से अमेरिकी इंटरनेट मीडिया प्लेटफार्म्स ने ऐसा एलगोरिथम बनाया जिसमें मोदी विरोधी नैरेटिव व्यापक स्तर पर फैल सके। ये अब भी चल रहा है।  

अब एक ऐसी दिलचस्प घटना की चर्चा कर लेते हैं जो राहुल गांधी से जुड़ी हुई है। राहुल गांधी रायबरेली से चुनाव लड़ेंगे या अमेठी से इसको लेकर कयास का दौर चल रहा था। इस बीच कांग्रेस पार्टी ने 30 अप्रैल को एक्स पर एक वीडियो लांच किया जिसमें बताया गया कि शतरंज और राजनीति में विरोधियों की चाल में भी संभावना होती है। तीन मई को दोपहर राहुल गांधी रायबरेली से नामांकन करते हैं। तीन मई को ही एक्स पर एक व्यक्ति ने तंज करते हुए गैरी कास्परोव को टैग किया। इसपर गैरी कास्परोव ने उत्तर दिया कि पारंपरिक तरीका तो यही कहता है कि पहले आप रायबरेली से चुनाव जीतें फिर शीर्ष को चुनौती दें। उसके एक दिन बाद फिर से गैरी कास्परोव ने कोट करते हुए एक्स पर लिखा कि उनके पोस्ट को किसी की वकालत न समझा जाए लेकिन मेरे जैसे 1000 आंखों वाला शैतान, जैसा मेरे बारे में कहा जाता है, बगैर गंभीर हुए मेरे खेल में हाथ न आजमाने की सलाह देता है । चार जून को रायबरेली का चुनाव परिणाम आया। राहुल गांधी वहां से जीते। थोड़े दिनों बाद रायबरेली से ही सांसद बने रहने की घोषणा कर दी। तीन मई की टिप्पणी के बाद से गैरी कास्परोव ने आजतक भारतीय राजनीति पर कोई टिप्पणी नहीं की। तीन मई को कैस्परोव के ट्वीट के बाद एक नैरेटिव बना कि पहले रायबरेली जीतो फिर शीर्ष को चुनौती देना। रायबरेली जीत कर शीर्ष याने मोदी को चुनौती देने का प्रयास कर रहे हैं। 

चुनाव समाप्त होने के बाद राहुल गांधी ने अयोध्या में भारतीय जनता पार्टी की हार और वाराणसी में मोदी की जीत का अंतर कम होने पर एक उत्सवी बयान दिया। अयोध्या-फैजाबाद लोकसभा सीट पर भारतीय जनता पार्टी की पराजय को हिंदुत्व की पराजय के तौर पर दिखाने का प्रयास किया जा रहा है। अयोध्या की हार हिदुत्व की नहीं बल्कि स्थानीय कारकों के कारण हुई। तमाम वैश्विक कारस्तानियों के बावजूद मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी इस चुनाव में सबसे बड़ी पार्टी होकर उभरी। मोदी तीसरी बार प्रधानमंत्री बने। आज जब हमारे देश का लोकतंत्र मजबूत हो रहा है। संविधान बदलने का नैरेटिव चलाकर फिर से समाज को समूह में बांटने का काम किया जा रहा है। तो एक प्रश्न स्वाभाविक रूप से खड़ा होता है कि समाज को बांटकर देश को कमजोर करने में किसका हित सधेगा। 


Friday, June 21, 2024

ये मेरा प्रेम पढ़कर...


आज से 60 वर्ष पहले बनी फिल्म संगम का एक गाना है, ओ मेरे सनम, ओ मेरे सनम। उस गीत के पहले के एक दृष्य को याद करिए। फिल्म में आईने के सामने बैठकर वैजयंतीमाला गहने पहन रही होती हैं। राज कपूर आते हैं और नायिका से दूसरा गहना पहनने का अनुरोध करते हैं। वैजंयतीमाला कहती है कि तुम अपवनी पसंद के गहने निकाल लाओ। जब वो लाकर से गहना निकाल रहा होता है तो उसके हाथ एक प्रेम पत्र लगता है। वो उसको पढ़ने लगता है। वो जानना चाहता है कि किसने लिखा। तभी फोन की घंटी बजती है। वैजंयतीमाला उसके हाथ से प्रेमपत्र लेकर फोन उठाने दूसरे कमरे में चली जाती है। फोन पर बात करते-करते वो प्रेमपत्र फाड़कर खिड़की से बाहर फेंक देती है। राज कपूर ये देख लेते हैं। जब वो दोनों पार्टी में जाने के लिए निकलते हैं तो राज कपूर रुमाल भूलने का बहाना करके वापस घर में घुसते हैं। खिड़की के बाहर फटे प्रेमपत्र को उठा रहे होते हैं। वैजंयतीमाला को शक हो जाता है। वो भी वापस कमरे में आती है। दोनों में झगड़ा होता है। फिर राजकपूर पिस्तौल लेकर आते हैं। वैजंयतीमाला से कहते हैं कि जबतक उनको ये पता नहीं चल जाएगा कि ये खत किसने लिखे तबतक वो अंगारों पर लोटते रहेंगे, जैसे ही पता चलेगा ये अंगारा उसके सीने में उतार देंगे। इस संवाद के बाद दरवाजा बंद हो जाता है। पर्दे पर कुछ देर के लिए सन्नाटा। आपको लग रहा होगा कि इस दृष्य के बारे में विस्तार से चर्चा क्यों? वो इसलिए ये सीन राज कपूर की असली जिंदगी में घटित हुआ था जिसको उन्होंने फिल्म संगम में उतार दिया। 

1955 की बात है, राज कपूर और नर्गिस फिल्म चोरी चोरी की मद्रास (अब चेन्नई) में शूटिंग कर रहे थे। उस दौरान एक दिन दोनों के बीच जबरदस्त झगड़ा हुआ था। वो झगड़ा एक प्रेमपत्र को लेकर हुआ था। लगभग तीन दशक बाद राज कपूर ने पत्रकार सुरेश कोहली से बातचीत करते हुए ये स्वीकार भी किया था। जब दोनों के बीच बातचीत हो रही थी तो अचानक राज कपूर ने अपनी दराज से एक फ्रेम किया हुआ पत्र निकाला। उस पत्र के कुछ हिस्से गायब थे। फटे हुए टुकड़ों को चिपका कर फ्रेम करवाया गया था। राज कपूर ने उस दिन की बातचीत में दिल खोल दिया था, पूरी दुनिया रहती है कि मैंने नर्गिस को धोखा दिया। लेकिन कहानी इसके उलट है। हुआ ये कि हमलोग एक पार्टी में जानेवाले थे। देर हो रही थी। मैं नर्गिस के पास पहुंचा तो देखा उसके हाथ में एक कागज था। मैंने उससे पूछा कि क्या है तो उसने कहा, कुछ नहीं, कुछ नहीं। इतना कहकर उसने उस कागज को फाड़ दिया और मेरे साथ चल पड़ी। जब हम कार के पास पहुंचे तो मैं रुमाल भूलने का बहाना बनाकर वापस उसी जगह पहुंचा। तबतक मेड ने कागज के टुकड़ों को फर्श से हटाकर डस्टबिन में डाल दिया था। मैंने डस्टबिन से फटे हुए कागज उठाकर अपने कमरे की दराज मे रख दिया। जब हम पार्टी से लौटे तो उन फटे कागजों को जोड़कर पढ़ा। वो शाहिद लतीफ नाम के एक प्रोड्यूसर का प्रणय निवेदन था। नर्गिस ने पहली बार मुझसे झूठ बोला था और मेरा विश्वास तोड़ा था।‘  इस घटना के बाद राज कपूर और नर्गिस के बीच जबरदस्त झगड़ा हुआ था। कहा जाता है कि तभी से राज कपूर की जिंदगी में शराब का प्रवेश हुआ । राज कपूर ने अपनी जिंदगी की इस सच्ची घटना को संगम फिल्म में जस का तस रख दिया। फिल्म में भी इस घटना के बाद की पार्टी में राज जमकर शराब पीते हैं। 

संगम एक ऐसी फिल्म थी जिसने राज कपूर को प्रसिद्धि तो दिलाई लेकिन उनकी पारिवारिक जिंदगी में भूचाल ला दिया था। इस फिल्म की नायिका वैजंयतीमाला अचानक सफेद साड़ी पहनने लगी थी। माना जाता था कि जो स्त्री राज कपूर के प्रेम में होती थी वो सफेद साड़ी या कपड़े पहनने लगती थी।  उसके और राज कपूर के रोमांस के किस्से आम होने लगे थे। शम्मी कपूर ने अपनी भाभी कृष्णा कपूर को राज कपूर के नए रिश्ते को लेकर सावधान किया था। मुंबई  में चेंबूर के राज कपूर के घर में इस फिल्म के बनने के समय झगड़े शुरू हो गए थे। बात इतनी बढ़ी कि राज कपूर जब फिल्म के पोस्ट प्रोडक्शन के लिए लंदन गए तो कृष्णा को भी साथ लेकर जाना पड़ा। वैजंयतीमाला वहीं थीं। उस समय कृष्णा की मित्र ने उनसे पूछा था कि आप ये सब कैसे झेल पाती हैं। उन्होंने कहा था कि छाती पर पत्थर रखकर। इस फिल्म की शूटिंग के दौरान वैजंयतीमाला और राज कपूर के रिश्ते से कृष्णा इतनी झुब्ध हुईं कि घर छोड़कर चली गईं थी। वो तो भला हो इंकम टैक्स डिपार्टमेंट का कि राज कपूर के घर रेड मारी तो उनको अपनी पत्नी  की याद आई, क्योंकि सारे कागज वही संभालती थीं। किसी तरह मिन्नतें करके कृष्णा को वापस घर लाए। संगम को एक सुपर हिट फिल्म के तौर पर तो याद किया ही जाता है लेकिन उस दौरान राज कपूर की जिंदगी की बदलती कहानी भी याद आती है। 


Saturday, June 15, 2024

अहंकार के छद्म विमर्श से राजनीति


अहंकार। लोकसभा चुनाव के परिणाम के बाद इस शब्द पर काफी चर्चा हो रही है लोकसभा चुनाव के पहले और चुनाव के दौरान एरोगेंट शब्द की चर्चा थी। केंद्र सरकार के मंत्रियों की बात हो या फिर भारतीय जनता पार्टी के बड़े नेताओं की। आसानी से उनके स्वभाव के साथ एरोगेंट शब्द चिपका दिया जाता था। एरोगेंट से अगली कड़ी के रूप में अहंकार आया। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तक को अहंकारी कहा गया। अमेठी में स्मृति इरानी की चुनावी हार को उनके अहंकार से जोड़ा गया। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जब संसद में एक अकेला सब पर भारी बोला था तभी से उनके साथ एरोगेंट शब्द चिपकाने का अभियान विपक्षी दलों और उनके इकोसिस्टम ने चलाया। एक प्रधानमंत्री के तौर पर जब वो अपने विकास कार्यों को गिनाते थे, अपने संबोधन में मैं का प्रयोग करते थे तो इस मैं को भी एरोगेंट के कोष्ठक में डाल दिया जाता था। इकोसिस्टम से जुड़े विश्लेषकों ने मोदी के भाषणों के चुनिंदा अंश को उठाकर उनके व्यक्तित्व के साथ एरोगेंट शब्द चिपकाने का खेल खेला। यह अभियान लंबे समय से चल रहा था। चुनाव के दौरान इसमें तेजी आई। इसी तरह स्मृति इरानी के व्यक्तित्व के साथ भी एरोगेंट शब्द चिपकाने का खेल चला। कभी किसी सरकारी अधिकारी को जनता के पक्ष में काम करने को लेकर उनके संवाद के अंश काटकर तो कभी किसी पत्रकार को उनके उत्तर को एरोगेंट कहा गया। चुनाव में जब अमेठी गया था तो वहां पता चला कि एक व्यक्ति की हत्या हो गई थी। उस इलाके के प्रभावशाली लोग हत्या के आरोपी को बचाने में लगे थे। स्मृति इरानी को जब पता चला तो वो पीड़ित के पक्ष में खड़ी हो गईं। हत्यारोपी के विरुद्ध कानून सम्मत कार्य करने के लिए पुलिस को कहा। तब उस इलाके के प्रभावशाली लोगों ने कहा कि स्मृति एरोगेंट हो गई है और किसी की नहीं सुनती। इसको इकोसिस्टम ने आगे बढ़ाया।

चुनाव परिणाम में जब भारतीय जनता पार्टी को अपेक्षित सफलता नहीं मिली। सबसे बड़े दल और चुनाव पूर्व गठबंधन के तौर पर राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को बहुमत मिला और नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में सरकार बन गई। मंत्रिमंडल का गठन हो गया। मंत्रिमंडल गठन के बाद राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने कार्यकर्ता विकास वर्ग के अपने संबोधन में अपनी बातें रखीं। उसमें भी अहंकार शब्द का प्रयोग किया गया। फिर क्या था इकोसिस्टम को मसाला मिल गया। उसको नरेन्द्र मोदी को नसीहत के तौर पर पेश किया जाने लगा। पृष्ठभूमि बनाई ही जा चुकी थी। सरसंघचालक के बयान से निकलनेवाले संदेश को समझना है तो उसको समग्रता में देखना होगा। पहले बात कर लेते हैं अहंकार की। सरसंघचालक मोहन भागवत ने अपने उद्बोधन में कहा, जो सेवा करता है, जो वास्तविक सेवक है, जिसको वास्तविक सेवक कहा जा सकता है उसको कोई मर्यादा रहती है यानी वो मर्यादा से चलता है। काम सब लोग करते हैं, लेकिन कार्य करते समय मर्यादा का पालन करना। जैसा कि तथागत ने कहा है—कुशलस्य उपसंपदा, यानी अपनी आजीविका पेट भरने का काम सबको लगा ही है, करना ही चाहिए। अपने शरीर को भूखा नहीं रखना है, लेकिन कौशल पूर्वक जीविका कमानी है और कार्य करते समय दूसरों को धक्का नहीं लगना चाहिए। ये मर्यादा भी उसमें निहित है। ऐसी मर्यादा रखकर हम लोग काम करते हैं। काम करने वाला उस मर्यादा का ध्यान रखता है। वो मर्यादा ही अपना धर्म है, संस्कृति है। जो पूज्य महंत गुरुवर्य महंत रामगिरी जी महाराज जी ने अभी बहुत मार्मिक कथाओं से थोड़े में बताई, उस मर्यादा का पालन करके जो चलता है, कर्म करता है, कर्मों में लिप्त नहीं होता, उसमें अहंकार नहीं आता। वही सेवक कहलाने का अधिकारी रहता है।

उपर्युक्त वक्तव्य में से अगर सिर्फ अंतिम वाक्य को निकालकर उसको नरेन्द्र मोदी या उनकी सरकार के मंत्रियों के क्रियाकलापों और व्यवहार से जोड़ दिया गया। सरसंघचालक ने अपने वक्तव्य के इस हिस्से में सेवा और मर्यादा की बात की। इसके लिए उन्होंने तथागत और महंत रामगिरी जी को उद्धृत किया। इसमें राजनीति की बात तो कहीं है नहीं, समाज सेवा की बात है जो वो संघ शिक्षा वर्ग के प्रतिभागियों को समझा रहे हैं। इसी तरह से मणिपुर को लेकर उनकी चिंता भी समाज की चिंता है। जब वो कहते हैं कि समाज में जगह-जगह कलह नहीं चलता। एक साल से मणिपुर शांति की राह देख रहा है। उससे पहले 10 साल शांत रहा। ऐसा लगा कि पुराना ‘गन कल्चर’ समाप्त हो गया। परन्तु अचानक जो कलह वहां पर उपज गई या उपजाई गई, उसकी आग में वह अभी तक जल रहा है, त्राहि-त्राहि कर रहा है। कौन उस पर ध्यान देगा? प्राथमिकता देकर उसका विचार करना हमारा कर्तव्य है। इकोसिस्टम के लोग इस अंश को लेकर भी मोदी पर हमलावर होने का प्रयास करते नजर आ हैं। कुछ लोग तो यहां तक कह जा रहे हैं कि संघ प्रमुख ने पहली बार मणिपुर की स्थिति पर अपनी बात रखी है। दरअसल ऐसे लोगों को संघ की कार्य करने की पद्धति का अल्पज्ञान है। मोहन भागवत ने 2023 के विजयदशमी के अपने भाषण में भी मणिपुर के हालात पर चिंता प्रकट की थी। इसके बाद संघ के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले ने मणिपुर पर बयान जारी किया था। संघ निरंतरता में मणिपुर की स्थिति को लेकर चिंता प्रकट कर रहा है। इसको मोदी की आलोचना करार देना इकोसिस्टम की राजनीतिक चाल है।

संघ प्रमुख के बयान को आंशिक रूप से उद्धृत कर संघ और भाजपा में काल्पनिक टकराव बतानेवाले विश्लेषक यह भूल जा रहे हैं कि मोहन भागवत ने अपने भाषण में मोदी सरकार की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। वो कहते हैं कि पिछले दस वर्षों में बहुत कुछ अच्छा हुआ। आधुनिक दुनिया जिन मानकों को मानती है, जिनके आधार पर आर्थिक की स्थिति का मापन किया जाता है उनके अनुसार भी हमारी आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी हो रही है। हमारी सामरिक स्थिति निश्चित रूप से पहले से अधिक अच्छी है। दुनियाभर में हमारे देश की प्रतिष्ठा बढ़ी है। इतनी स्पष्टता के बावजूद अगर विपक्ष को उस बयान पर राजनीति ही करनी है तो उनको मोहन भागवत के भाषण का वो अंश देखना चाहिए जहां तकनीक के सहारे असत्य परोसने की बात उन्होंने कही और प्रश्न उठाया कि क्या शास्त्र का, विज्ञान का, विद्या का यह उपयोग है? इसके बाद अपना मत प्रकट किया कि सज्जन विद्या का ये उपयोग नहीं करते। दरअसल विपक्षी दल और उनका पूरा इकोसिस्टम चुनाव में अपनी हार की खीझ मिटाने के लिए वाराणसी, अमेठी और फैजाबाद लोकसभा सीट के चुनाव परिणामों पर केंद्रित हो गया है। अमेठी में भारतीय जनता पार्टी की हार के अनेक कारण हैं जबकि स्मृति इरानी के अहंकार को एकमात्र कारण बताया जा रहा है। लोगों के साथ खड़े होने और शक्तिशाली लोगों के सामने निर्बल को प्राथमिकता देने को अहंकार कहकर प्रचारित किया गया। वाऱाणसी में भाजपा की जीत का अंतर कम होने को मोदी के अहंकार से जोड़ दिया गया। फैजाबाद की हार को प्रभु श्रीराम से जोड़ दिया गया। गजब है राजनीति का खेल और गजब है (कु) तर्क गढ़ने का हुनर।    

Tuesday, June 11, 2024

उत्कृष्टता के आग्रही निर्देशक


करीम आसिफ। उत्तर प्रदेश के इटावा में पैदा हुए। अपने मामू नसीर अहमद खान के साथ सत्रह बरस की उम्र में बांबे (अब मुंबई) पहुंचे। नसीर खान अपने समय के जाने माने फिल्म निर्माता निर्देशक थे। कुछ फिल्मों में अभिनय भी किया था। करीम आसिफ अपने मामू के साथ बांबे पहुंचते हैं तो वहां कुछ समय के लिए एक फिल्म कंपनी में सिलाई का काम करते हैं। इसी दौर में वो करीम आसिफ से के आसिफ हो जाते हैं। इन्होंने अपने जीवन में दो ही फिल्में निर्देशित कीं, फूल और मुगल ए आजम। फिल्म फूल सफल रही। दूसरी ने तो इतिहास ही रच दिया। बहुधा इस बात की चर्चा होती है कि के आसिफ ने मुगल ए आजम के निर्माण में दस वर्ष लगा दिए। फिल्म पर होनेवाले खर्च को लेकर निर्माता और निर्देशक के बीच मतभेद के कारण काम रुक जाता था। फिल्म की भव्यता को लेकर के आसिफ छोटे से छोटा समझौता भी नहीं करना चाहते थे। ये कम ज्ञात है कि के आसिफ ने पहले भी मुगल ए आजम के नाम से फिल्म बनाने का असफल प्रयास किया था। पहली बार के आसिफ ने सिराज अली हकीम को अपनी फिल्म में पैसा लगाने के लिए राजी किया था। हकीम बांबे के बेहद धनवान व्यक्ति थे। 1946 में ही के आसिफ की फिल्म मुगल ए आजम फ्लोर पर चली गई थी। यह जानना दिलचस्प है कि मुगल ए आजम में अनारकली की भूमिका के लिए मधुबाला निर्देशक के आसिफ की पहली पसंद नहीं थीं। ना ही बादशाह अकबर के लिए पृथ्वीराज कपूर और शहजादा सलीम के लिए दिलीप कुमार। अगर के आसिफ की मूल परिकल्पना साकार होती तो अकबर की भूमिका चंदरमोहन निभाते और सलीम की सप्रू। अनाकरली के रूप में आज हम नर्गिस को देख रहे होते। नियति को कुछ और ही मंजूर था। फिल्म एक चौथाई शूट हो चुकी थी। अचानक चंदरमोहन का निधन हो गया। सबकुछ रुक गया। देश का विभाजन हो चुका था। विभाजन का असर भी फिल्म निर्माण पर पड़ा। फिल्म के फाइनेंसर सिराज अली हाकिम पाकिस्तान जाने की तैयारी करने लगे। एक दिन के आसिफ को सूचना मिली कि हाकिम साहब हिन्दुस्तान छोड़कर जा रहे हैं और वो फिल्म में निवेश नहीं कर पाएंगे। फिल्म रुक गई। कोई भी निवेशक फिल्म में के आसिफ के खर्चे उठाने को तैयार नहीं हो रहा था। उन्होंने काफी कोशिश की। सफलता नहीं मिल पाई। 

दो वर्ष बाद उनको बांबे के बड़े बिल्डर पिता-पुत्र शोपोरजी-पालनजी मिस्त्री का साथ मिला। फिल्म नए सिरे बनाने की योजना बनी। दुर्गा खोटे को छोड़कर पूरी स्टार कास्ट बदल दी गई। उसके बाद की कहानी इतिहास में दर्ज है। के आसिफ ने जिस उत्कृष्टता से फिल्म का निर्माण किया वो अप्रतिम है। फिल्म मुगल ए आजम का गीत याद करिए मोहे पनघट पर नंदलाल...। ये गाना जब आरंभ होता है तो बाल- कृष्ण का स्वरूप में झूले दिखता है। इस दृष्य को शूट करने की बारी आई तो के आसिफ ने कहा कि कृष्ण जी की सोने की मूर्ति बनवाई जाए। शोपोर जी तैयार नहीं थे। वो इस बात पर अड़े हुए थे कि मूर्ति किसी भी धातु की बनवाकर सुनहला रंग चढ़ा दिया जाए। के आसिफ का तर्क था कि बादशाह के दरबार में तो सोने की ही मूर्ति होनी चाहिए। उनका कहना था कि ब्लैक एंड व्हाइट फिल्म में सोने की बनी मूर्ति का रंग और सुनहले रंग चढ़ा कर बनाई गई मूर्ति का रंग अलग दिखेगा। आखिरकार के आसिफ की ही चली। निर्देशक और निवेशक की तनातनी में फिल्म की शूटिंग कई दिन रुक गई। गाने में भगवान कृष्ण का सीन चंद फ्रेम का है लेकिन आसिफ माने नहीं। एक और दृष्य याद करिए। जब 14 वर्षों के बाद युद्ध कला में निपुण होकर शहजादा सलीम वापस महल में आनेवाले होते हैं तो जोधाबाई कहती है कि उनके बेटे का स्वागत मोतियों बरसा कर की जाए। मामला फिर फंस गया। आसिफ चाहते थे कि शहजादा जब दरबार में आएं तो उनका स्वागत असली मोतियों से हो। शोपोर जी कहने लगे कि दो चार सेकेंड के दृश्य के लिए इतने सारे असली मोती पर खर्च करना मूर्खता है। आसिफ डटे रहे। उनका तर्क था कि असली मोती की चमक नकली मोती में नहीं दिखेगी। नकली मोती पकड़ में आ जाएगी। असली मोती जब फर्श पर गिरेंगी तो उसकी आवाज नकली मोतियों के गिरने की आवाज से अलग होगी। बात इतवनी बढ़ गई कि के आसिफ ने फिल्म की शूटिंग रोक दी। महीने भर बाद शोपोर जी किसी तरह से तैयार हुए। असली मोती मंगवाए गए और शूट आरंभ हो सका। उत्कृष्टता के आग्रही के आसिफ और मुगल ए आजम से जुड़े इतने प्रामाणिक किस्से मौजूद हैं कि उनपर ही एक रोचक फिल्म बन सकती है। पर ये साहस कोई के आसिफ जैसा निर्देशक और शोपोर जी जैसा निवेशक ही कर सकता है। 


Monday, June 10, 2024

अपेक्षा से कम अंक मिले, पर उत्तीर्ण हुआ


एक्सेस माय इंडिया और प्रदीप गुप्ता। हर चुनाव के बाद लोगों की उत्सुकता यही रही है कि इनके एग्जिट पोल का अनुमान क्या है। इस लोकसभा चुनाव के परिणाम के बाद प्रदीप गुप्ता के नतीजों के आकलन और अनुमान पर प्रश्न उठ रहे हैं। विपक्ष उनपर हमलावर है। मध्य प्रदेश के रहनेवाले प्रदीप गुप्ता ने इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने के बाद हार्वर्ड बिजनेस स्कूल से पढ़ाई की। हार्वर्ड से लौटकर गुप्ता ने मार्केट रिसर्च कंपनी एक्सेस माय इंडिया की स्थापना की। इस कंपनी का उद्देश्य मार्केट रिसर्च के अलावा चुनाव के बाद परिणामों के अनुमान लगाना भी है। उनके अनुमान काफी हद तक सही होते रहे हैं क्योंकि वैज्ञानिक तरीकों पर आधारित होता है। प्रदीप गुप्ता से एक्जिट पोल की वैज्ञानिकता, उसके करने के तरीकों, वोट शेयर को सीट में बदलने के औजारों से लेकर उनके अनुमान के गलत साबित होने पर एसोसिएट एडीटर अनंत विजय ने उनसे विस्तार से बात की। उस बातचीत के अंश।

इस बार आपके एग्जिट पोल गलत हो गए, ऐसा कैसे हुआ। 

यह महत्वपूर्ण है कि आपकी गलत की परिभाषा क्या है? भारत सहित पूरी दुनिया में एग्जिट पोल की पहली प्राथमिकता होती है कि विजेता का पूर्वानुमान सही हो, दूसरी कि कौन कितनी सीटों से जीतने वाला है। तीसरी चीज है वोट शेयर। विजेता को लेकर हमारा पूर्वानुमान सही रहा। मैंडेट भी पूरा रहा 272 का मैंडेट चाहिए, तो उससे अधिक ही 291 मिला। हम दोनों पार्टियों के गठबंधन को एक रेंज देते हैं कि इसके भीतर उन्हें सीटें मिलेंगी। इसके भीतर जो नंबर आते हैं तो उसको हम स्पाट आन कहते हैं। राजग के लिए हमारी लोअर रेज 361 थी और आईं 291 सीटें, यानी उससे 70 सीटें दूर रहे। ये सच है कि इस बार हमने भाजपा और राजग को अपेक्षाकृत अधिक बड़ी जीत का पूर्वानुमान व्यक्त किया था। इस बार हम स्पाट आन सटीकता से बहुत दूर थे, पर अगर कोई ये कहे कि हमारा एग्जिट पोल पूरी तरह गलत हो गया तो ये उनका दृष्टिकोण है। वर्ष 2004 के लोकसभा चुनावों में हम एग्जिट पोल करने वालों में शामिल नहीं थे। सबने पूर्वानुमान व्यक्त किया था कि अटल जी की सरकार आ रही है, जबकि यूपीए की सरकार बन गई थी। वो पूर्णत: गलत था, पर हमारे साथ वैसा नहीं रहा। विजेता का पूर्वानुमान सही साबित हुआ।

पूर्वानुमान गलत कैसे हो गया, दिक्कत कहां आई?

पूर्वानुमान में तीन गलतियां हुईं, जो उत्तर प्रदेश, महाराष्ट और बंगाल से जुड़ी हैं। उनको हमने गंभीरता से लिया। हम विश्लेषण कर रहे हैं। चूक के भी दो-तीन मायने होते हैं। डेटा कलेक्शन इंटरव्यू के दौरान क्या गलती हुई। जब डेटा आ गया तो उसका विश्लेषण करने में क्या गलती हुई। हम उसका भी विश्लेषण कर रहे हैं। वोट शेयर में सामान्यत: 2-3 फीसद मार्जन एरर होता है। राजग के लिए हमने 47 कहा था जो 44 आया, ये अंतर तीन फीसद से कम ही है। इंडिया के लिए 40 कहा था जो 41 मिला। वोट शेयर के लिहाज से कोई दिक्कत नहीं है। उत्तर प्रदेश में 49 कहा था जो 44 हुआ। दोनों गठबंधन का 44-44 आया है, जब इतना कांटे का मुकाबला होता है तो थोड़ी दिक्कत होती है। महाराष्ट्र में गठबंधन दल वोट शेयर में बेहद निकट थे। बंगाल में भय के कारण बात कर पाना मुश्किल होता है। वहां भी हमने समन्वय बिठाते हुए सर्वे में लोगों का मिजाज भांपने का प्रयास किया। तो देखा जाए तो विजेता का पूर्वानुमान सही है। वोट शेयर भी मार्जन एरर के भीतर है। तीन बड़े राज्यों में हम गलत हुए, लेकिन उसके उलट 27 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में एक भी जगह हम एक-दो सीट से अधिक उपर-नीचे नहीं हुए, यानी स्पाट आन हैं। चार राज्यों में विधानसभा चुनाव भी साथ में थे। उनमें से दो राज्यों आंध्र प्रदेश, उड़ीसा में मतदाताओं के मिजाज को भांपना जटिल था। सिक्किम व अरुणाचल प्रदेश सहित चारों राज्यों के विधानसभा चुनावों में हम स्पाट आन हैं। हमारे प्रिडिक्शन का रिपोर्ट कार्ड ये है, सच है कि हम रेंज से दूर हैं, गलत हम जरूर हुए लेकिन तीन बड़े राज्यों में। 

एग्जिट पोल बहुत वैज्ञानिक तरीके से होता है। उन तीन राज्यों में जो चूक हुई, वहां अगर वैज्ञानिक अप्रोच थी तो गलती की गुंजाइश कैसे थी।

उत्तर प्रदेश बड़ा राज्य है। उसे समझना जटिल है। पूरे प्रदेश में दो फीसद वोट कम हुआ, लेकिन क्षेत्र विशेष में वोटर टर्नआउट के आधार पर इसे समझना होगा। रामपुर, बिजनौर में सात फीसद, कैराना व सहरानपुर पांच फीसद वोटर टर्नआउट कम हुआ जबकि मैनपुरी में दो प्रतिशत, खीरी में एक प्रतिशत वोटर टर्नआउट अधिक हुआ। अभी तक का विशेषण है कि 40 जगहों में वोटर टर्नआउट दो जगह बढ़ा व बाकी जगह घटा है। उत्तर प्रदेश में 25 सीटों पर दो पार्टियों के बीच जीत का अंतर तीन प्रतिशत से कम है। ज्यादातर तीन, पांच सात के बीच वोटर टर्नआउट कम हुआ। एक लोकसभा में हमारा सैंपल साइज 1072 था। अब दस लाख लोग वोट कर रहे हैं, उसमें एक हजार लोगो‍ से बात कर रहे हैं। जहां मार्जन कम होता है वहां मुश्किल होती है। उड़ीसा में भाजपा ने 20 सीटें जीतीं, वहां हमारा आकलन सही रहा। आंध्र प्रदेश में 25 में 21 सीटें भाजपा को मिली, तमिलनाडु में इंडिया जीत गया 39 सीटें, वहां भी हम सही रहे। वोट शेयर मार्जन जब दो पार्टियों के बीच राज्य के स्तर पर देखें जैसे दिल्ली में ले लीजिए 54 फीसद एक पार्टी को मिले तो दूसरी पार्टी को 44 मिले। 10 फीसद का प्लेरूम है। वहां हमारा पूर्वानुमान सही साबित हुआ। गलती दो, चार, पांच फीसद में होती है।

सर्वे और पोल में क्या अंतर है?

दो अंतर हैं। सर्वे होता है, जिसे हम कहते हैं स्टैटिफाइड रिप्रेजेंटेटिव सैंपलिंग। पोल जो जहां जैसे मिल गया उसका जवाब ले लिया। सर्वे में भी आपका एक यूनीवर्स है, विधानसभा, लोकसभा क्षेत्र या राज्य के स्तर पर हम सर्वे सैंपल लेते हैं। इसमें तीन डेमोग्राफी महत्वपूर्ण होती हैं, जेंडर, आयु, भौगोलिक क्षेत्र यानी ग्रामीण व शहरी क्षेत्र। उदाहरण के तौर पर यदि उसमें सौ की जनसंख्या है तो 50-50 स्त्री-पुरुष ले लीजिए। आयु वर्ग भी परिभाषित है जैसे 25-36 व इसी प्रकार से अन्य। ग्रामीण व शहरी जनसंख्या का अनुपात क्रमश: 70-30 है तो उसी के आधार हम अपना सैंपल चुन लेते हैं। यह वैसे ही है जैसे हम ब्लड का सैंपल लेते हैं, उसी तरह हम एक सैंपल उठा लेते हैं, फिर उसे स्ट्रैटीफाइ करते है।

क्या एग्जिट पोल को आडिट कह सकते हैं?

दोनों अलग हैं आडिट है बही-खातों की जांच करना होता है। सूचना या डेटा की जांच करना। सर्वे में बहुत सारे सवाल होते हैं जो आप जनता से लेते हैं। आडिट निर्जीव वस्तुओं का होता है, सर्वे सजीव लोगों का होता है।

एग्जिट पोल के लिए मतदाताओं का चयन आप कैसे करते हैं।

इसको ऐसे समझिए। जब हमारे प्रतिनिधि उत्तर प्रदेश जा रहे हैं तो उसमें लोकसभा क्षेत्र 80 और विधानसभा क्षेत्र 403 हैं। आप मेरठ कैंट में खड़े हैं, मैं सर्वेयर हूं। यहां उल्लेख करना चाहूंगा कि उत्तर प्रदेश में जातीय समीकरण भी महत्वपूर्ण हो जाता है। सामान्य, ओबीसी, एससी में जाटव व गैर जाटव, एसटी इत्यादि पर ध्यान देना पड़ता है। अब अगर आपको दो सौ लोगों से बात करनी है, तो इन सभी के सही अनुपात का ध्यान रखना पड़ता है। आप बात करते हैं तो चेहरे से जाति को पहचानना मुश्किल होता है। इसलिए हम पहले से पता कर लेते हैं कि मुस्लिम बाहुल्य या दलित बाहुल्बय बस्तियां कौन सी हैं? सामान्य वर्ग के लोग कहां रहते हैं। अन्य पिछड़ा वर्ग की रिहायश का अंदाज लगा पाना मुश्किल होता है, क्योंकि वह बहुत सारी जातियों का समूह है। इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए हम सर्वे करते हैं।

हर बूथ की अपनी डेमोग्राफी होती है,अपना चरित्र होता है, जब सैंपल का चयन करते हैं या किसी इलाके का कैसे चयन करते हैं।

हम बूथ के हिसाब से सर्वे नहीं करते। हम जातिगत समीकरणों और जैसे पहले बताय उस डेमोग्राफी को ध्यान में रखते हैं। बूथ से आप उतना सटीक नहीं हो सकते। यह पता भी चल जाए कि मुस्लिम बाहुल्य है, तो भी वे उतनी संख्या में वहां बात करने के लिए उपस्थित होंगे, इसे लेकर हम आश्वस्त नहीं हो सकते। 

वोट प्रतिशत को सीट में कैसे तब्दील करते हैं।

हम हर संसदीय क्षेत्र में जाते हैं। जैसे चुनाव की प्रक्रिया होती है कि हर बूथ, हर गांव, विधानसभा, संसदीय क्षेत्र और उसके साथ पूरे राज्य का डेटा जमा हो जाता है। उसका विश्लेषण करते हैं। कौन सी जाति ने कैसे वोट किया, ये समझने का प्रयास करते हैं। यदि आपने किसी जाति को अधिक प्रतिनिधित्व दे दिया, मेरा आशय है कि यदि किसी जाति या समुदाय विशेष को सर्वे में अधिक शामिल कर लिया जैसे वहां 30 प्रतिशत मुस्लिम थे और हमने 50 फीसद उस समुदाय के लोगों को सर्वे में ले लिया तो उसे भी संतुलित करते हैं। 

यानी आप कहना चाह रहे हैं कि जहां मार्जन कम होता है वहां अनुमान लगाना मुश्किल होता है?

हां वहां थोड़ी मुश्किल होती है। उड़ीसा में विधानसभा में हमने दोनों पार्टियों को बराबर वोट शेयर दिया, लेकिन 78 सीटें जीतकर भाजपा की सरकार बन गई। 

इस चुनाव में लगभग सारे एग्जिट पोल आंकड़ें के मामले में गलत साबित हुए। एग्जिट पोल का भविष्य कैसे देखते हैं। क्या साख पुन: बन पाएगी?

सबकी अपेक्षाएं 400 की थीं, इसलिए लोगों का माइंडसेट ऐसा था कि 400 सीटें आ रही हैं। चुनाव को लेकर चर्चाओं का दौर लंबा चला। जब उसके अनुरूप परिणाम नहीं आया तो लोगों को लगा कि गलत हो गया। इसे इस तरह समझे कि लोगों की अपेक्षाएं अपनी जगह हैं, लेकिन जैसा कि हर परीक्षा में होता है, उसमें पास होना महत्वपूर्ण है।  हनम पास हुए। वैज्ञानिक तरीकों से करते हैं इसलिए साख तो बनी ही रहेगी।

हम एग्जिट पोल करते ही क्यों हैं? तीन-चार दिन बाद तो परिणाम आ ही जाना है।

ये सच है कि कुछ समय उपरांत चुनाव के परिणाम सबके सामने आ जाते हैं लेकिन उसमें ये विश्लेषण नहीं मिलेगा कि कौन सी पार्टी कैसे जीती। किस जाति वर्ग समूह ने कैसे वोट किया। एक सवाल से भी होता है कि मतदाताओं ने किन मुद्दों को ध्यान में रखते हुए वोट किया। ये शोध का विषय है। खेल में भी तो यही होता है। मैच देखना ही क्यों है, थोड़ी देर बाद तो परिणाम पता चल ही जाता है, पर इसमें लोगों की रुचि होती है। चुनाव ही एकमात्र ऐसी प्रक्रिया है जिसमें पूरा हिंदुस्तान भाग लेता है। वोटर के मन में भी जिज्ञासा होती है कि मैंने जिसको वोट दिया है वो जीतने वाला है कि नहीं। आने वाली सरकार से उसका जीवन तय होता है। परिणाम पर उसकी सुख-सुविधाएं निर्भर करेंगी। फिल्में हों या खेल किसी में इतनी व्यापक भागीदारी नहीं होती। 65 करोड़ वोट पड़े हमने पांच लाख 80 हजार सैंपल साइज से पूर्वानुमान दिया। 0.05 के सैंपल साइज से हम 90 फीसद सही बता पाने में सफल हुए तो उसमें अनुचित क्या है।

सभी पोल गलत हुए, पर आपको ही क्यों लक्षित किया गया?

लोगों की मुझसे अपेक्षाएं अधिक हैं। हम स्पाट आन के लिए जाने जाते हैं, जब उतना नहीं हुआ तो लोगों को गलत लगा। जहां तक विश्वसनीयता की बात है तो हमारी पूरी मेथडोलाजी सामने रहती है। सारे रिकार्ड उपलब्ध रहते हैं, पूरी पारदर्शिता से हम काम करते हैं, उसपर कोई सवाल नहीं कर सकता। 

आपने कहा था कि आत्ममंथन करेंगे। क्या आत्ममंथन की प्रक्रिया जारी है?

ये प्रक्रिया तो चल रही है। हम आंकड़ों का विश्लेषण कर रहे हैं। उत्तर प्रदेश की 25 सीटों पर तीन फीसद से कम से हार हुई। महाराष्ट्र में 48 में से 11 सीटों पर हार-जीत तीन फीसद के अंतर से हुई है। वोटर टर्नआउट कम होने के कारणों को समझना जटिल है।

आप बेहद भावुक हैं, कभी खुशी में डांस करने लगते हैं, तो कभी आंखों से आंसू छलक पड़ते हैं... 

कुछ ऐसी चीजें होती हैं जो दिल को छू जाती हैं, तो अनायास ही भावनाएं प्रकट हो जाती हैं।  

आरोप है कि भाजपा नेता पीयूष गोयल आपके मित्र हैं और उन्होंने आपको प्रभावित किया।

अगर किसी के प्रभाव में गलत आंकड़ों को मैं प्रस्तुत करने लगूं तो यह आत्महत्या करने के समान होगा। हम एक प्रक्रिया से होकर गुजरते हैं। हमने इससे पहले 69 बार पूर्वानुमान दिए हैं, उनमें 65 बार सही रहे तो चार बार हम गलत भी हुए। पूर्वानुमान गलत भी हो सकते हैं और सही भी। पीयूष जी ही के साथ मैं हार्वर्ड में पढ़ा है। मित्र, संबंधी तो किसी भी क्षेत्र से हो सकते हैं, पर उनसे प्रभावित होकर मैं कुछ भी कहूं ये संभव नहीं ।

चुनाव के पूर्वानुमानों से शेयर बाजार को प्रभावित करने के आरोप भी लगे हैं।

इसमें कोई सच्चाई नहीं है। आप इसकी जांच करवा सकते हैं। इसका तो कोई प्रश्न ही नहीं उत्पन्न होता। लोग पूछते हैं पर जब तक अंतिम वोट ना पड़ जाए, तब तक हम कुछ नहीं कहते। हम ओपिनियन पोल, प्री पोल नहीं करते। हमारे लिए वो नैतिकता की बात नहीं है। हम बस एक ही नंबर बोलते हैं। निजी जीवन में भी लोग पूछते हैं तो मैं उन्हें कुछ भी नहीं बाताता। मैं ऐसी बातों से दूर रहता हूं।  


 

Saturday, June 8, 2024

चुनाव प्रचार से ग़ायब फ़िल्मी सितारे


देश में लोकसभा चुनाव संपन्न हो चुके हैं। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को जनादेश मिला है। नरेन्द्र मोदी लगातार तीसरी बार प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने जा रहे हैं। स्वाधीन भारत के इतिहास में ये दूसरा मौका है जब कोई प्रधानमंत्री लगातार तीसरी बार देश की बागडोर संभालने जा रहा है। प्रचंड गर्मी में आयोजित लोकसभा चुनाव कई मायनों में पिछले चुनावों से भिन्न रहा। इस चुनाव के दौरान कई मिथक टूटे। कई नए बने।इसपर विस्तार से बात होगी लेकिन पहले एक कहानी, जो इमरजेंसी के बाद हुए लोकसभा चुनाव से जुड़ा है। संजय गांधी अमेठी लोकसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ रह थे। उनके चुनाव प्रचार के लिए अभिनेता दिलीप कुमार को बुलाया गया था। अमेठी लोकसभा क्षेत्र में दिलीप कुमार के पोस्टर लगा दिए गए थे।पोस्टर में बताया गया था कि दिलीप कुमार सात मार्च को अमेठी आ रहे हैं। अपील की गई थी कि भारी संख्या में लोग दिलीप कुमार की सभा में शामिल हों। सुबह से ही लोग अपने पसंदीदा अभिनेता को देखने के लिए सभास्थल पर जमा होने लगे थे। लंबी प्रतीक्षा। दिलीप कुमार नहीं आए लोग निराहोकर घर लौट गए। दरअसल किसी ने दिलीप कुमार को आठ मार्च की तिथि बता दी थी और संजय गांधी का चुनाव प्रचार देख रही टीम को गलती से सात मार्ट बता दिया था। सात मार्च को जब दिलीप कुमार नहीं आए तो किसी ने उनसे संपर्क भीनहीं किया। माना गया कि वो नहीं आएंगे। लेकिन दिलीप कुमार को तो आठ मार्च की तारीख दी गई थी। वो आठ मार्च को फुरतगंज हवाई पट्टी पर उतरे। वहां उनको रिसीव करनेवाला कोई नहीं था। 1977 में अमेठी में टैक्सी आदि नहीं मिलती थी, बस का आसरा था। दिलीप कुमार फुरसतगंज हवाई पट्टी के बाहर एक पीपल के पेड़ के नीचे दो घंटे तक खड़े रहे। दो घंटे के बाद एक बस मिली जो उनको अमेठी तक ले गईऔर एक चाय की दुकान पर छोड़ा। फिल्मों के सपरस्टार दिलीप कुमार ने वहीं चाय पी किसी तरह संजय गांधी की टीम तक खबर भिजवाई गई। थोड़ी देर बाद एक जीप उनको लेने वहां पहुंची। आनन फानन में उसी दिन दिलीप कुमार की एक सभा तय की गई लेकिन जनता तक सूचना नहीं पहुंच पाने के कारण वो सभा बुरी तरह से फ्लाप रही। विनोद मेहता ने इस पूरे प्रसंग को अपनी पुस्तक में लिखा है। 

इस कहानी को बताने का उद्देश्य ये है कि चुनाव के दौरान पहले फिल्मी सितारों को आमंत्रित किया जाता था। उसे प्रत्याशी विशेष के पक्ष में प्रचार करवाया जाता था। उनके रोड शो आयोजित किए जाते थे। कई बार तो इस तरह की बातें भी सामने आती थी कि फलां सितारे को फलां उम्मीदवार ने इतनी धनराशि देकर अपने क्षेत्र में प्रचार के लिए बुलाया। फिल्मी सितारों का राजनीति से कोई लेना देना नहीं होता था भीड़ जुटाने के लिए और मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए उनको रैलियों में बुलाया जाता था। अब जरा सोचिए कि महिमा चौधरी का बिहार की राजनीति से क्या लेना देना हो सकता है। बिहार की जमीनी हकीकत की कितनी जानकारी उनको होगीलेकिन करीब तीन दशक पहले बिहार में होने वाले चुनावों में उनको आमंत्रित किया जाता था। अमेठी में दिलीप कुमार का किस्सा आप पढ़ चुके हैं इसके अलावा उन्नाव में भी एक प्रत्याश के पक्ष में कई फिल्मी सितारों ने प्रचार किया था।बंगाल में तो फिल्मी सितारे आवश्यक रूप से प्रचार करते रहे हैं, अब भी कर रहे हैं। ममता बनर्जी तो हर लोकसभा चुनाव में बंगाली फिल्म इंडस्ट्री के अलावा अन्य क्षेत्र के ख्यातनाम व्यक्तित्व को लोकसभा में टिकट देकर भी सफलता हासिल करती रही हैं। इस वर्ष मार्च में एकनाथ शिंदे की शिवसेना में फिल्मी सितारे गोविंदा को शामिल करवाया गया था पर चुनाव प्रचार के दौरान गोविंदा दिखे नहीं। ऐसा प्रतीत होता है कि शिंद की शिवसेना ने गोविंदा को अपनी पार्टी में सिर्फ खबर बनाने और विरोधी उद्धव गुट पर दबाव बनाने के लिए शामिल करवाया। उत्तर प्रदेश में हुए चुनाव प्रचार में भी इस बार सितारे नहीं दिखे। समाजवादी पार्टी के नेता अमर सिंह जब तक जीवित थे तो वो हिंदी फिल्मों के सितारों को चुनाव प्रचार में लाते रहते थे। चुनाव प्रचार में सितारों को ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में घुमाया जाता था। उद्देश्य ये होता था कि फिल्मसितारों के प्रशंसकों के वोट हासिल किए जाएं। अभिनेता या अभिनेत्री को न तो क्षेत्र की जानकारी होती थी न ही स्थानीय समस्याओं की। संबंधित पार्टी के विचारधारा को जानने की अपेक्षा करना तो व्यर्थ ही है। पर तब ऐसा देखा जाता था कि फिल्मी अभिनेता और अभिनेत्रियों के आने से बहुत हद तक वोटर प्रभावित हो जाते थे। जिस प्रत्याशी के लिए ये लोग घूमते थे उनको थोड़ा बहुत लाभ हो जाता था। धीरे धीरे ये परंपरा कम होती चली गई और इस चुनाव में तो लगभग समाप्त हो गई। 

फिल्मी सितारों के चुनाव के दौरान उपयोगिता समाप्त होने के कारणों पर विचार करते हैं तो ऐसा प्रतीत होता है कि अब हमारे देश का मतदाता अपेक्षाकृत परिपक्व हो गया है। वो इस तरह के चुनावी हथकंडों से प्रभावित नहीं होता। अब ग्लैमर से प्रभावित होकर वोट नहीं डालता। मतदाता अब अपने बेहतर भविष्य, स्थानीय और राष्ट्रीय मुद्दों को ध्यान में रखकर मतदान करता है। अब अगर हम मतदाताओं के परिपक्व होने के कारणों को देखें जिस तरह से देश में साक्षरता की दर बढ़ी है उसने देश के वोटरों को अपने अधिकारों को सजग किया। 2011 की जनगणना के मुताबिक देश में साक्षरता दर करीब 73 प्रतिशत थी जो बढ़कर करीब 78 प्रतिशत हो गई है। साक्षरता दर को शैक्षणिक विकास का आधारभूत संकेत माना जाता है। समाजशास्त्र के सिद्धांत के अनुसार साक्षरता दर लोगों के जीवन स्तर को बेहतर करने का माध्यम है। इससे सामाजिक स्तर के बेहतर होने का अनुमान भी लगाया जाता है। भारत सरकार के साक्षरता दर के आंकड़ों के विश्लेषण से एक महत्वपूर्ण बात सामने आती है कि देश में ग्रामीण महिलाओं की साक्षरता दर काफी बेहतर हुई है। अब महिलाओं और पुरुषों के साक्षरता दर का अंतर भी काफी घटा है। महिलाओं की साक्षरता का प्रभाव भी लोकसभा चुनाव के मतदान पर दिखता है। महिलाओं जितनी अधिक साक्षर होंगी हमार लोकतंत्र उतना ही अधिक मजबूत होगा। महिलाएं अब अपने मुद्दों को बेहतर समझती हैं। मतदान के लिए उनकी खुद की समझ विसित हो चुकी है। वो अब पुरुषों के बताए मुद्दों पर मतदान नहीं करती बल्कि अपना निर्णय स्वयं लेती हैं। इसके अलावा अगर देखें तो हमारे देश में प्रति व्यक्ति आय में बढ़ोतरी हुई है। भारत सरकार के आंकड़ों के मुताबिक 2022-23 में प्रति व्यक्ति आय 98374 रु है। साक्षरता में जब आय जुड़ जाती है तो लोगों की आकाक्षाएं बढ़ जाती हैं। इस तरह के सोशल इंडिकेटर्स के विश्लेषण से साफ होता है कि मतदाता क्यों परिपक्व हो रहे हैं। क्यों अब चुनाव के दौरान फिल्मी सितारों की उपयोगिता समाप्त हो गई है। राजनीति का तो ये आधारभूत सिद्धांत है कि अगर आप उपयोगी हैं तो ठीक है अन्यथा आपको भुलाने में जरा भी वक्त नहीं लगता है। हाल ही में संपन्न हुए लोकसभा चुनाव में इसी आकांक्षा का प्रकटीकरण हुआ है। ये लोकतंत्र के मजबूत होने और मतदाताओं के परिपक्व होने की ये कहानी आशान्वित करती है।

Saturday, June 1, 2024

फिल्मों पर प्रधानमंत्री की मन की बात


लोकतंत्र के सबसे बड़े उत्सव लोकसभा चुनाव के लिए मतदान संपन्न हो चुका है। सबकी निगाहें चार जून को होनेवाली मतगणना पर टिकी है। चुनावी शोरगुल के बीच कुछ ऐसी बातें अलक्षित रह गईं जिनको रेखांकित करना आवश्यक है। समाचार एजेंसी आईएएनएस के साथ अपने साक्षात्कार में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने फिल्म इंडस्ट्री को लेकर ऐसी बात कही जिसका गहरा और दूरगामी असर हो सकता है। भारतीय स्टार्टअप्स और अन्य क्षेत्रों के बारे में बात करते हुए प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी के मुताबिक जब 2014 में वो देश के प्रधानमंत्री निर्वचित हुए, तब उन्होंने हर क्षेत्र के लोगों के साथ बैठकें कीं। उन्होंने कहा कि ‘मैं 2014 में आया और 2015-16 के भीतर-भीतर मैंने जो स्टार्टअप की दुनिया शुरु हुई थी उनकी मैंने एक वर्कशाप ली। कभी मैंने स्पोर्ट्सपर्सन्स की ली, कभी कोचेज के साथ बैठा, इतना ही नहीं मैंने फिल्म दुनिया वालों के साथ ऐसी ही एक मीटिंग की। मैं जानता हूं कि वो बिरादरी हमारे विचारों से काफी दूर है, मेरी सरकार से भी दूर है। लेकिन मेरा काम था कि उनकी समस्याओं को समझूं क्योंकि बालीवुड अगर मुझे ग्लोबल मार्केट में उपयोगी होता है, अगर मेरी तेलुगू फिल्में दुनिया में पापुलर हो सकती हैं, मेरी तमिल फिल्में पूरी दुनिया में पापुलर हो सकती हैं तो मुझे तो ग्लोबल मार्केट लेना है। मेरे देश की हर चीज को आगे बढ़ाना है।‘ राजनीतिक बातों के बीच प्रधानमंत्री का ये बयान काफी गंभीर है। ऐसा जानते हुए कि फिल्म वालों की बिरादरी उनके विचारों से दूर है उन्होंने उसके वैश्विक बाजार के लिए प्रयत्न किया। ये प्रयत्न उन्होंने अपने पहले कार्यकाल में ही किया। 

आपको याद दिलाता चलूं कि मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में ही पुरस्कार वापसी का अभियान चला था। जिसमें असहिष्णुता का बहाना बनाकर साहित्यकारों और लेखकों के साथ कई फिल्मकारों ने अपने पुरस्कार लौटाने की घोषणा करके सरकार के खिलाफ अपना विरोध जताया था। इतना ही नहीं एक तरफ प्रधानमंत्री फिल्म उद्योग की बेहतरी के लिए कार्य करने की ओर बढ़ रहे थे तो दूसरी ओर कुछ फिल्मकार गोवा में आयोजित होनेवाले अंतराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल को विवादित करने में लगे थे। फिल्म एस दुर्गा और न्यूड को इंडियन पैनोरमा से बाहर करने के खिलाफ जूरी के अध्यक्ष सुजय घोष ने इस्तीफा दे दिया था। कुछ फिल्मकारों और फिल्म से जुड़े लोगों ने राष्ट्रीय पुरस्कार वितरण समारोह का बहिष्कार करके सरकार को कठघरे में खड़ा करने का प्रयत्न किया था। इसके अलावा कुछ फिल्म निर्देशक निरंतर इंटरनेट मीडिया पर सरकार और प्रधानमंत्री मोदी, गृहमंत्री अमित शाह के खिलाफ टिप्पणियां करते रहते हैं। लोकतंत्र में ऐसा करने का उनको अधिकार है लेकिन जब टिप्पणियां व्यक्तिगत हो जाती हैं तो उनकी मंशा पर संदेह होता है। इतना ही नहीं वो अपनी फिल्मों के माध्यम से राजनीतिक एजेंडा चलाने का प्रयत्न करते हैं। फिल्मों के दृश्य, उसके संवाद और उसकी कहानी को ऐसे मोड़ दे दिया जाता है जिससे मोदी, उनकी सरकार या उनकी विचारधारा पर कटाक्ष किया जा सके। इस संबंध में फिल्म मुक्काबाज के एक संवाद का उदाहरण देना काफी होगा। इस फिल्म में बगैर किसी संदर्भ के एक संवाद है, वो आएंगे, पीट-पीट कर तुम्हारी हत्या कर देंगे और भारत माता की जय के नारे लगाकर चले जाएंगे। फिल्मकार क्या संकेत करना चाह रहे थे ये स्पष्ट है। मनोरंजन जगत में कथित प्रगतिशीलता इतनी हावी है कि वहां भारतीयता और हिंदूत्व की बात करनेवालों को फिल्म समाज से अलग करने की प्रवृत्ति काम करती है। विवेक अग्निहोत्री, सुदीप्तो सेन और विपुल शाह इसके उदाहरण हैं। इन तीनों का साहस और पुरुषार्थ है कि बालीलुड की लीक से अलग हटकर फिल्म बनाकर, तमाम तरह के अघोषित बहिष्कार को झेलते हुए भी अपनी राह पर डटे हुए हैं। 

प्रधानमंत्री अगर ये कहते हैं कि फिल्म बिरादरी उनके विचारों से दूर है तो ये फिल्मों से लेकर ओवर द टाप (ओटीटी) प्लेटफार्म पर दिखाई जानेवाली सामग्री में परिलक्षित होता है। कई सारी डाक्यूमेंट्री ऐसी बनाई जाती है जिसमें सरकार और उनकी नीतियों की आलोचना होती है। सरकार और उनकी नीतियों की आलोचना हो लेकिन जब किसी विशेष एजेंडा के आधार पर नीतियों की आलोचना होती है तो फिल्मकार राजनीति का हिस्सा बन जाता है। फिल्मों का तो लंबा इतिहास रहा है जहां हिंदू धर्म प्रतीकों को गलत परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत किया जाता रहा है। हिंदू धर्म के देवी देवताओं के नाम पर खलनायकों और खलनायिकाओं के नाम रखे गए। नायक को ईश्वर के सामने खड़े होकर भड़ास निकालते हुए दिखाया गया। जबकि अन्य धर्मों को बहुत इज्जत बख्शी गई। अब एक नया चलन आरंभ हुआ है। यह चलन है डाक्यूमेंट्री के सहारे राजनीति चमकाने की। एक उदाहरण आप सबके सामने रखता हूं। आपको समझ आ जाएगा कि किस तरह से मनोरंजन के माध्यम को राजनीतिक एजेंडा के लिए उपयोग में लाया जाता है। एक डाक्यूमेंट्री है आल दैट ब्रीद्स। जब इसको कान फिल्म फेस्टिवल में पुरस्कृत किया गया तो इलकी काफी चर्चा हुई। प्रचारित किया गया कि इसमें घायल पक्षियों की देखभाल करनेवाले दिल्ली के दो भाइयों के संघर्ष की कहानी है। वो भी है पर उसके अलावा इस डाक्यूमेंट्री में सिटीजनशिप अमेंडमेंट एक्ट (सीएए) और नेशनल रजिस्टर आफ सिटीजन्स (एनआरसी) पर भी सियासी टिप्पणियां है। फारेन कंट्रीव्यूशन रेगुलेशन एक्ट (एफसीआरए) के बारे में तथ्यहीन बातें हैं। डाक्यूमेंट्री में दिल्ली दंगों की कहानी के समय पृष्ठभूमि से लेके रहेंगे आजादी जैसे नारे भी लगते रहते हैं। इतना ही नहीं एक पत्रकार की आवाज भी गूंजती है जिसमें वो बताता है सीएए के पास होने पर पाकिस्तान, बंगलादेश और अफगानिस्तान के मुसलमानों को वहां प्रताड़ित होने की दशा में भारत में नागरिकता नहीं मिलेगी जबकि अन्य धर्म के लोगों को मिलेगी। दरअसल ये ऐसी बातें हैं जिसका पक्षियों की देखभाल से कोई लेना देना नहीं है। परोक्ष रूप से मुसलमानों की कथित प्रताड़ना को रेखांकित किया करना ही उद्देश्य है। 

मनोरंजन के अपेक्षाकृत नए माध्यम ओटीटी के बारे में तो कहना ही क्या। वहां तो किसी प्रकार की कोई रोक टोक नहीं है। स्वनियम की व्यवस्था अवश्य है लेकिन बावजूद इसके जिस तरह की सामग्री दिखा दी जाती है उससे तो यही प्रतीत होता है कि व्यवस्था में झोल है। याद करिए जब अयोध्या के राम मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा समारोह होनेवाला था तो उसके पहले एक तमिल फिल्म अन्नपूर्णी का प्रदर्शन हुआ था। इसके संवाद में प्रभु श्रीराम को मांसाहारी बताया गया । एक दृश्य में शेफ बनने की चाहत रखनेवाली ब्राह्मण लड़की को बिरयानी बनाने के पहले नमाज पढ़ते हुए दिखाया गया था। विरोध के बाद नेटफ्लिक्स पर इसका प्रदर्शन रोका गया था। अब इस बारे में फिल्म जगत के लोगों को गंभीरता से विचार करना चाहिए कि देश का प्रधानमंत्री फिल्मों के लिए वैश्विक बाजार की संभावनाओं पर बात कर रहे हैं, वो भारतीय भाषाओं की फिल्मों को दुनियाभर में लोकप्रिय बनाने की चिंता कर रहे हैं वहीं अधिकतर फिल्मकार, कथाकार, संवाद लेखक फिल्मों के माध्यम से अपनी राजनीति चमकाने की चेष्टा कर रहे हैं। सुधीर मिश्रा जैसे फिल्मकार तो दर्शकों को भी विचारधारा के आधार पर बांटने की बात कर चुके हैं। फिल्मकारों को खुले मन से सरकार के साथ मिलकर भारतीय फिल्मों को वैश्विक बनाने का प्रयास करना चाहिए।