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Saturday, September 28, 2024

फिल्मों से गांधी की उदासीनता क्यों ?


कुछ सप्ताह पूर्व मुंबई इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल के सिलसिले में मुंबई जाना हुआ था। राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम के परिसर में इस फेस्टिवल का आयोजन था। उसी परिसर में स्थित गुलशन महल में भारतीय सिनेमा के राष्ट्रीय संग्रहालय को जाने और उसको देखने का अवसर प्राप्त हुआ। संग्रहालय में एक जगह गांधी गांधी का पुतला बनाकर उसको कुर्सी पर बिठाया गया है। उनके सामने स्क्रीन पर राम राज्य फिल्म का एक स्टिल लगा हुआ है। ऐसा प्रतीत होता है कि महात्मा गांधी राम राज्य फिल्म देख रहे हैं। कहा जाता है कि बापू ने अपने जीवनकाल में एक ही फिल्म देखी थी जिसका नाम है राम राज्य। इस बात का उल्लेख देश-विदेश के कई लेखकों ने किया है। एक बेहद दिलचस्प पुस्तक है ‘द चैलेंजेस आफ सिल्वर स्क्रीन’ जिसमें राम, जीजस और बुद्ध के सिनेमाई चित्रण पर विस्तार से लिखा गया है। इस पुस्तक के लेखक हैं फ्रीक एल बेकर। इस पुस्तक में भी गांधी के राम राज्य देखने की चर्चा की गई है। सिनेमा और संस्कृति पर विपुल लेखन करनेवाली रेचल ड्वायर ने भी अपनी पुस्तक में भी गांधी के राम राज्य देखने का उल्लेख किया है। गांधी और सिनेमा पर लिखी अपनी पुस्तक में इकबाल रिजवी ने विस्तार से और रोचक तरीके से इस प्रसंग पर लिखा है। 

इस पर बाद में चर्चा होगी लेकिन उसके पहले गांधी के फिल्मों और नाटक को लेकर विचार को जानना भी दिलचस्प होगा। फिल्म संग्रहालय में ही कुछ पट्टिकाएं लगी हैं जिनपर कुछ टिप्पणियां प्रकाशित हैं। ऐसी ही एक पट्टिका पर लिखा है, मद्रास (अब चेन्नई) के अत्यंत प्रतिष्ठित वकील बी टी रंगाचार्यार के नेतृत्व में इंडियन सिनेमैटोग्राफ कमेटी रिपोर्ट (आईसीसी) का गठन ब्रिटिश प्राधिकारियों द्वारा सेन्सरशिप विनिमयों में अमेरिकी आयात को रोकने के लिए किया गया था। इस वृहदाकर रिपोर्ट में ब्रिटिश इंडिया के सभी भागों को शामिल किया गया है तथा महात्मा गांधी, लाला लाजपत राय, दादासाहेब फाल्के जैसे सैकड़ों महान हस्तियों के मौखिक एवं लिखित राय शामिल हैं। इसका प्रकाशन 1928 में किया गया। इसके खंड संख्या 4 में पृष्ठ संख्या 56 पर महात्मा गांधी का दिनांक 12 नवंबर 1927 का बयान दर्ज है। जो इस प्रकार है- भले ही मुझे जितना भी बुरा लगा हो मुझे आपके प्रश्नों का उत्तर देना चाहिए। क्योंकि मैंने कभी सिनेमा देखा ही नहीं। लेकिन किसी बाहरी का भी इसने जितना अहित किया है और कर रहा है वो प्रत्यक्ष है। यदि इसने किसी का भला किसी भी रूप में किया है तो इसका प्रमाण मिलना अभी बाकी है। इस टिप्पणी से गांधी की फिल्मों को लेकर राय का स्पष्ट पता चलता है। ऐसा नहीं है कि गांधी जी की फिल्मों को लेकर ये राय अकारण बनी थी। वो जब स्कूली छात्र थे तब नाटक देखा करते थे और उससे प्रभावित भी थे।

संग्रहालय की एक दूसरी पट्टिका पर इसका उल्लेख है, मोहनदास करमचंद गांधी जब स्कूली विद्यार्थी थे उन्होंने एक गुजराती नाटक देखा था, जिसका नाम हरिश्चन्द्र था। इस नाटक का प्रभाव आजीवन उन पर रहा। अपनी आत्मकथा में उन्होंने लिखा है- मैंने किसी ड्रामा कंपनी द्वारा मंचित नाटक को देखने की अनुमति अपने पिता से प्राप्त कर ली थी। हरिश्चन्द्र नामक इस नाटक ने मेरा ह्रदय जीत लिया। मैं इसे देखकर कभी नहीं थकता। लेकिन उसे देखने की अनुमति मैं कितनी बार प्राप्त करता। इसने मुझे परेशान किया और मैं सोचता रहा कि मैंने स्वयं असंख्य बार हरिश्चन्द्र की भूमिका निभाई होती। हम सभी हरिश्चंद्र की भांति सत्यवादी क्यों नहीं होते? यही प्रश्न मुझे दिन रात परेशान किए रखता। हरिश्चन्द्र की भांति सत्य का अनुसरण करना और सारे कष्टों को झेलना एक ऐसा आदर्श था जिसने मुझे प्रेरित किया । मैं पूर्णत: हरिश्चन्द्र की कहानी में विश्वास करने लगा। इन सभी विचारों से बेचैन होकर मैं अक्सर रोने लगता। किशोरावस्था से ही गांधी को ये पता चल गया था कि फिल्मों या नाटकों का मानस पर कितना असर होता है। जब वो स्वाधीनता के संघर्ष के लिए मैदान में उतरे तो उन्होंने कई जगहों पर देखा कि कई युवा पार्सी नाटकों की महिला कलाकारों के चक्कर में घर बार छोड़कर नाटक कंपनी के पीछे चल देते थे। इसको देखकर गांधी के मन में इस माध्यम को लेकर उदासीनता बढ़ने लगी। उसके बाद एक और घटना घटी। मीराबेन की सिफारिश पर गांधी जी ने एक फिल्म देखने की हामी भरी। फिल्म का नाम था मिशन टू मास्को। रिजवी लिखते हैं कि इस फिल्म में तंग कपड़े पहनकर लड़कियां नाच रही थीं। थोड़ी देर तक तो बापू झेलते रहे लेकिन फिर बीच में ही उठकर चले गए। उस दिन उनका मौन व्रत था सो कुछ कहा नहीं। अगले दिन उन्होंने लिखा, ‘मुझे नंगे नाच दिखाने की कैसे सूझी। मैं तो दंग रह गया, मुझे तो कुछ पता ही नहीं था।‘ दरअसल मीराबेन को एक पारसी फोटोग्राफर ने गांधी को फिल्म दिखाने के लिए राजी कर लिया था। सबको इस घटना के बाद काफी अफसोस हुआ। फिल्म राम राज्य देखने के लिए बापू को कनु देसाई ने तैयार किया था। कनु देसाई गांधी की सेवा करते थे। वो विजय भट्ट की फिल्म राम राज्य के कला निदेशक रह चुके थे। उनकी बात बापू ने मान ली और कहा कि एक विदेशी फिल्म देखने की गलती कर चुका हूं इसलिए भारतीय फिल्म देखनी पड़ेगी। बापू की सहयोगी सुशीला नायर ने फिल्म के लिए गांधी के 40 मिनट तय किए थे, लेकिन कहा जाता है कि बापू को ये फिल्म इतनी अच्छी लगी थी कि वो पूरे डेढ़ घंटे तक बैठकर राम राज्य देखते रहे थे। फिर विजय भट्ट की पीठ थपथपाई और निकल गए। 

इन प्रसंगों को जानने के बाद ये लगता है कि बापू फिल्मों के विरोध में नहीं थे बल्कि फिल्मों में दिखाई जानेवाली सामग्री के विरोधी थे। 1927 का उनका बयान इसकी ओर ही संकेत करता है। उनको फिल्मों का जनमानस पर पड़नेवाले असर का अनुमान भी था। वो चाहते थे कि फिल्मों के माध्यम से लोगों को स्वाधीनता के लिए तैयार किया जाए। स्वाधीनता के संघर्ष में गांधी के पदार्पण के बाद कई ऐसी फिल्मों का निर्माण हुआ जिसने स्वाधीनता आंदोलन के दौरान गांधीवादी विचारों को फैलाने में बड़ा योगदान किया। 1939 में तमिल भाषा में बनी फिल्म त्यागभूमि को उस दौर की सर्वाधिक सफल फिल्मों में माना जाता है। ये फिल्म प्रख्यात तमिल लेखक आर कृष्णमूर्ति की कृति पर आधारित है। इस फिल्म में गांधीवादी विचारों को प्रमुखता से दिखाया गया था। बाद में इसको अंग्रेजों ने प्रतिबंधित कर दिया था। इसी तरह से अगर देखें तो तेलुगु में बनी फिल्म वंदे मातरम ने भी गांधी के विचारों को तेलुगु भाषी जनता के बीच पहुंचाने का बड़ा काम किया। भालजी पेंढारकर ने अपनी मूक फिल्म वंदे मातरम में अंग्रेजों की शिक्षा नीति की आलोचना की थी।  1943 में बनी हिंदी फिल्म किस्मत के गाना दूर हटो ये दुनियावालो हिंदुस्तान हमारा है बेहद लोकप्रिय हुआ था। ऐसा नहीं है कि गांधी को ये पता नहीं होगा कि इस तरह की फिल्में बन रही हैं। वो चाहते होंगे कि फिल्मकार राष्ट्र के प्रति अपने दायित्वों को समझें और अपनी फिल्मों के कंटेंट के बारे में निर्णय लें। गांधी जैसा व्यापक दृष्टिकोण वाला व्यक्ति सिनेमा विरोधी हो ये मानना कठिन है।  


Saturday, September 21, 2024

वैश्विक धरोहर पर लापरवाही का पौधा


पिछले दिनों ये आगरा के ताजमहल के गुंबद से पानी टपकने का समाचार चर्चा में आया। कारण ये बताया गया कि ताजमहल के गुंबद पर एक पौधा उग आया था और उसकी जड़ों से होकर पानी टपका। उस पौधे का वीडियो और फोटो इंटरनेट मीडिया पर खूब प्रचलित हुआ। तरह-तरह की टिप्पणियां की गईं। ताजमहल वैश्विक धरोहर की श्रेणी में आता है और इसके रख-रखाव का दायित्व भारतीय पुरात्तत्व सर्वेक्षण का है। गुंबद से पानी टपकने के समाचार को पढ़ने के बाद जिज्ञासा हुई कि देखा जाए भारतीय पुरात्तत्व सर्वेक्षण की वेबसाइट पर ताजमहल के सबंध में क्या जानकारियां हैं। भारतीय पुरात्तत्व सर्वेक्षण की वेबसाइट खोलते ही इसके मुख्य पृष्ठ पर ताजमहल की तस्वीर नजर आती है जहां लिखा भी है कि ये वैश्विक धरोहर है। वैश्विक धरोहर की देखरेख या रखरखाव इस तरह से की जाती है कि उसके ऊपर पौधा उग आए और अधिकारियों को हवा तक नहीं लगे। यहां ये बात ध्यान दिलाने योग्य है कि भारतीय पुरात्तत्व सर्वेक्षण का एक कार्यालय आगरा में भी है। इतना ही नहीं आगारा किला की एक दीवार पर भी छोटे-छोटे पौधे उग आए हैं और वो बढ़ रहे हैं। उसपर पता नहीं कब तक भारतीय पुरात्तत्व सर्वेक्षण के जिम्मेदार अफसरों का ध्यान जाएगा। दरअसल इस बात को संस्कृति मंत्रालय के रहनुमाओं को समझना होगा कि संस्कृति और सांस्कृतिक विरासत को संभालने और सहेजने के लिए संवेदनशील मानव संसाधन की आवश्यकता है। ऐसे मानव संसाधन की जिनको संस्कृति की समझ भी हो और उसको सहेजने को लेकर एक उत्साह भी हो।

ताजमहल की ही अगर बात करें तो ना सिर्फ गुंबद में पौधे उग आए हैं बल्कि ध्यान से देखें तो मुख्य मकबरे में पश्चिम की दिशा में जो पत्थरों के बीच बीच लगे हुए कई शीशे टूटे हुए हैं। शीशे के अलावा भी दीवारों और गुंबदों के अंदर की तरफ की गई पच्चीकारी के रंगीन पत्थर कई जगह से निकले हुए हैं। पच्चीकारी के उन पत्थरों के निकल जाने से उतना क्षेत्र अजीब सा लगता है। पच्चीकारी के पत्थरों की कीमत को कम ही होती है फिर क्या समस्या है। जानकारों का कहना है कि पत्थरों की कीमत भले ही कम होती है लेकिन उसको लगाने में बहुत श्रम और समय लगता है। इस कारण उसको तत्काल नहीं बनवाया जाता है। दूसरा पक्ष ये है कि अगर पच्चीकारी के पत्थरों के टूटने के बाद अविलंब उसकी मरम्मत नहीं की जाती है तो पत्थरों को जोड़ना और भी मुश्किल हो जाता है। क्या भारतीय पुरात्तत्व सर्वेक्षण के अधिकारी या कर्मचारी ताजमहल का चक्कर नहीं लगाते या उनको ये सब दिखाई नहीं देता है या देखकर अनदेखा किया जाता है। बात तो इसपर भी होनी चाहिए कि क्या भारतीय पुरात्तत्व सर्वेक्षण के पास इस वैश्विक धरोहर की देखभाल करने के लिए पर्याप्त धन है या नहीं। ऐसा नहीं है कि सिर्फ ताजमहल में ही आपको इस तरह के लापरवाही दिखाई देगी बल्कि कई विश्व प्रसिद्ध धरोहरों में और सैकड़ों वर्षों से भारतीय शिल्पकला के उदाहरण के तौर पर सीना ताने खड़े इमारतों में भी इस तरह के उदाहरण आपको मिल सकते हैं।

इस स्तंभ में ही पूर्व में इस बात की चर्चा की जा चुकी है कि किस तरह से ओडिशा के कोणार्क मंदिर के प्रवेश द्वार पर लगे हाथी की सूंढ में दरार आ जाने के बाद उसको सीमेंट-बालू से भर दिया गया था। कोणार्क सूर्य मंदिर भी यूनेस्को की विश्व धरोहर की सूची में है। कोणार्क मंदिर में इस तरह की लापरवाही ना केवल भारतीय पुरात्तत्व सर्वेक्षण की लापरवाही बल्कि अपने धरोहर को सहेजने की असंवेदनशील प्रवृत्ति को भी सामने लाता है। इसी तरह कभी आप त्रिपुरा के उनकोटि चले जाइए। भारतीय पुरात्तत्व सर्वेक्षण की लापरवाही का उदाहरण आपको पूरे परिसर में सर्वत्र बिखरा हुआ नजर आएगा। एक तरफ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी स्वाधीनता के अमृत महोत्सव वर्ष में लाल किला की प्राचीर से देशवासियों से  पंच प्रण की बात करते हैं जिसमें अपनी विरासत पर गर्व की बात करते हैं। विरासत पर गर्व करने के लिए यह बेहद आवश्यक है कि हम अपनी विरासत को संरक्षित करें। संस्कृति मंत्रालय के अधीन आनेवाली संस्था भारतीय पुरात्तत्व सर्वेक्षण की अपनी विरासत को सहेजने में लापरवाही और उदासीनता दिखाई देती है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के दूसरे कार्यकाल में 13 दिसंबर 2022 को राज्यसभा में संस्कृति मंत्रालय की स्टैंडिंग कमेटी ने एक रिपोर्ट प्रस्तुत की थी। संस्कृति मंत्रालय से संबद्ध संसद की इस समिति ने अपनी रिपोर्ट संख्या 330 में भारतीय पुरात्तत्व सर्वेक्षण के कामकाज को लेकर गंभीर प्रश्न उठाए थे। 

रिपोर्ट में समिति ने मंत्रालय/ भारतीय पुरात्तत्व सर्वेक्षण में धनराशि के उपयोग को लेकर बेहद कठोर टिप्पणी भी की थी। समिति के मुताबिक मंत्रालय ने अपने उत्तर में इस बात का उल्लेख नहीं किया है कि भारतीय पुरात्तत्व सर्वेक्षण को जो धनराशि आवंटित की गई थी उसका आवंटन और उपयोग किस तरह से किया गया। इसके अलावा भारतीय पुरात्तत्व सर्वेक्षण में खाली पदों को भरने में हो रहे बिलंब पर भी समिति ने कठोर टिप्पणियां की थी। पता नही उसके बाद क्या हुआ। क्या भारतीय पुरात्तत्व सर्वेक्षण में विशेषज्ञों की नियुक्ति हुई या अफसरों के भरोसे ही कार्य चलाया जा रहा है। तब समिति की रिपोर्ट में बताया गया था कि भारतीय पुरात्तत्व सर्वेक्षण के आर्कियोलाजी काडर में 420 पद स्वीकृत हैं जिसमें से 166 पद खाली थे। संरक्षण काडर में कुल स्वीकृत पद 918 थे जिनमें से 452 पद रिक्त थे। संस्कृति मंत्रालय के कामकाज को लेकर संसदीय समिति की इस रिपोर्ट में इस बात पर नाराजगी जताई गई थी कि करीब पचास फीसद पद कैसे खाली हैं। क्या मंत्रालय या भारतीय पुरात्तत्व सर्वेक्षण इस बात का आकलन नहीं कर पाई थी कि भविष्य में कितने पद खाली होनेवाले हैं। 

दरअसल संस्कृति मंत्रालय में कामकाज की एक अजीब सी संस्कृति पनप गई है। मंत्रालय में संवेदनहीन अधिकारियों के साथ साथ उन बाहरी संस्थाओं को कई कार्य करने का दायित्व दिया गया है जिनको संस्कृति की समझ ही नहीं है। किसी पब्लिक रिलेशन एजेंसी को भारतीय संस्कृति को वैश्विक स्तर पर छवि बनाने के काम में लगाया गया था। उनके लोग संस्कृति से संबंद्ध लेखकों-कलाकारों की बैठकों में नोट्स लेते हैं। उसके आधार पर पावर प्वाइंट बनाकर भारतीय संस्कृति की छवि बनाने का कार्य करने का प्रयास करते हैं। पता नहीं ये कार्य हो पाया नहीं लेकिन इन बैठकों में जब पब्लिक रिलेशन कंपनी से जुड़े लोग कलाकारों या शिक्षाविदों से पूछते कि नृत्य या संगीत की इतनी शैलियों को कैसे समेटा जाए तो हास्यास्पद स्थिति बन जाती। सिर्फ प्रधानमंत्री मोदी ही नहीं बल्कि भारतीय जनता पार्टी से लेकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तक भारतीय सांस्कृतिक विरासत को लेकर गंभीरता से संवाद और कार्य करने के पक्षधर हैं। बावजूद इसके संस्कृति मंत्रालय के कानों पर जूं तक नहीं रेंगती। सिस्टम अपनी गति से ही चलता रहता है। संस्कृति मंत्रालय में यथास्थितिवाद को झकझोरनेवाला नेतृत्व चाहिए जो संस्कृति की बारीकियों को समझ सके, उसके विविध रूपों को लेकर गंभीर हो और अधिकारियों को प्रधानमंत्री की नीतियों को लागू करने के लिए ना केवल प्रेरित कर सके बल्कि कस भी सके।   

Saturday, September 14, 2024

संस्कृति मंत्रालय का अजीब फरमान


भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय की वेबसाइट देखने से पता चलता है इस मंत्रालय के अंतर्गत कई श्रेणियों में संस्थाओं का वर्गीकरण है। कुछ संस्थाएं, जैसे राष्ट्रीय अभिलेखागार और पुरातत्व सर्वेक्षण मंत्रालय से संबद्ध हैं। इसी तरह से कोलकाता की केंद्रीय संदर्भ पुस्तकालय, दिल्ली स्थित नेशनल गैलरी आफ मार्डन आर्ट और राष्ट्रीय संग्रहालय आदि मंत्रालय के अधीनस्थ कार्यालय हैं। एक श्रेणी स्वायत्त संस्थाओं की है। जिसमें दिल्ली स्थित साहित्य अकादमी, संगीत नाटक अकादमी, राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, इंदिरा गांधी कला केंद्र जैसी संस्थाएं हैं। इनके अलावा भई अन्य संस्थाएं भी स्वायत्त संस्थाओं की श्रेणी में हैं। वेबसाइट पर एक मजेदार बात पता चली कि साहित्य अकादमी का नाम साहित्य कला अकादमी है। ये गड़बड़ी हिंदी भाषा में है। अंग्रेजी में सही नाम है। ये भूल हो सकती है लेकिन मंत्रालय की वेबसाइट पर इस तरह की गलतियां लापरवाही को दर्शाती हैं। खैर...। मोटे तौर पर स्वायत्त संस्थाओं का अर्थ ये है कि संस्कृति मंत्रालय इन संस्थाओं को अनुदान देती है और ये संस्थाएं अपने उद्देश्यों के हिसाब के कार्य करती है। सैद्धांतिक रुप से यही व्यवस्था है। इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र में इसके ट्रस्टी मिल बैठकर निर्णय लेते हैं। इसी तरह से साहित्य अकादमी की साधारण सभा और कार्यकारी परिषद निर्णय लेती है। संगीत नाटक अकादमी में भी यही व्यवस्था है। साहित्य अकादमी में तो हर पांच वर्ष में चुनाव होता है और साधारण सभा के सदस्यों के साथ साथ अध्यक्ष और उपाध्य़क्ष भी चुने जाते हैं। इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के ट्रस्टियों और अध्यक्ष का चयन भारत सरकार करती है। इसी तरह से ललित कला अकादमी के अध्यक्ष का चयन राष्ट्रपति करते हैं। 

संस्कृति मंत्रालय की स्वायत्त संस्थाओं की चर्चा करने के पीछे कारण ये है बीते 19 जुलाई को संस्कृति मंत्रालय के अकादमी प्रभाग के इन स्वायत्त संस्थाओं के अध्यक्षों और चेयरमैन को मिलनेवाली सुविधाओं को लेकर एक गाइडलाइन जारी किया है। गाइडलाइन में इस बात का उल्लेख किया गया है कि मंत्रालय का अकादमी प्रभाग सात संस्थाओं के प्रशासनिक मामलों को देखता है। मंत्रालय का ये भी कहना है कि इन सात अकादमियों का नेतृत्व अध्यक्ष या चेयरमैन के द्वारा किया जाता है जिसका चयन केंद्र सरकार करती है। उनकी चयन प्रक्रिया, उनके दायित्व, और उनकी शक्तियां अलग अलग संस्थाओं के संविधान में उल्लिखित हैं। लेकिन इन संस्थाओ के दस्तावेज में अध्यक्ष या चेयरमैन को मिलनेवाली सुविधाओं में भिन्नता है। इसमें एकरूपता लाने के लिए अकादमी प्रभाग ने कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग से मशिवरा करने के बाद एक गाइडलाइन जारी की। इस गाइडलाइन के बारे में निर्णय लेनेवालों की जानकारी का स्तर देखिए। साहित्य अकादमी के अध्यक्ष का चुनाव होता है। केंद्र सरकार उनको नियुक्त नहीं करती है। थोड़ी जांच कर ली जाती तो भद नहीं पिटती। लेकिन जहां संस्था का नाम ही सही न लिखा जाए उनसे इतनी जानकारी की उम्मीद बेमानी है। 

अब गाइडलाइन पर नजर डालते हैं। पहले बिंदु में कहा गया है कि इन सभी अध्यक्षों पर सेंट्रल सिविल सर्विसेज आचरण नियम लागू होंगे। इसका अर्थ ये हुआ कि संस्कृति मंत्रालय इन स्वायत्त संस्थाओं के अध्यक्षों और चेयरमैन को सरकारी कर्मचारी मानती है। जबकि इनके चेयरमैन और अध्यक्ष पद मानद है। इतना ही नहीं इन सबको गोपनीयता अधिनियम 1923 के अंतर्गत नियमों के पालन करने की सलाह दी गई है। अपेक्षा की गई है कि इनकी नियुक्ति के समय ही बताना चाहिए कि उनको सरकारी घर और वेतनभोगी कर्मचारियों को मिलनेवाली अन्य सुविधाएं नहीं मिलेंगी। उनको ना तो वेतन मिलेगा और ना ही वेतनभोगी जैसी सुविधाएं। सिर्फ वेतभोगियों वाले नियम लागू होंगे। आगे कहा गया है कि इनको मानदेय के रूप बड़ी धनराशि नहीं दी जा सकेगी लेकिन बैठकों में भाग लेने का जो मानदेय होता है वो संस्था की नीति निर्धारक समिति तय करेगी। इसमें भी सीमा तय की गई है कि महीने में दस से अधिक बैठक नहीं होगी। देश में यात्रा भी तभी कर सकेंगे जबकि फोन, ईमेल और वीडियो कांफ्रेंसिंग का विकल्प उपलब्ध नहीं होगा। ये भी स्पष्ट किया गया है कि चेयरमैन और अध्यक्ष भारत सरकार के कर्मचारियों के वेतनमान के स्तर 14 और उससे उच्च स्तर के वेतनमान वाले अधिकारियों के समकक्ष सुविधाएं ले सकेंगे। लेकिन ये नहीं बता गया है कि इसको तय कौन करेगा। बिजनेस या क्लब क्लास में हवाई यात्रा, होटल में प्रतिदिन रु 7500 का कमरा, रु 1200 का भोजन और टैक्सी भत्ता। इसके अलावा भी कुछ और हिदायतें दी गई हैं। 

गाइडलाइन को समग्रता में देखने पर ये प्रतीत होता है कि संस्कृति मंत्रालय के जिस भी अधिकारी ने इसको तैयार किया है उसका उद्देश्य संस्थाओं की स्वायत्तता को बाधित करना है। इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के चेयरमैन और सदस्य सचिव का उदाहरण लें तो सदस्य सचिव भारत सरकार के सचिव के समकक्ष होते हैं। उसी अनुसार उनका वेतन और अन्य सुविधाएं परिभाषित हैं। नई गाइडलाइ के मुताबिक अध्यक्ष को संयुक्त सचिव के बराबर सुविधाएं मिलेंगी। ये कैसी विडंबना और विसंगति है कि पदानुक्रम में ऊपर रहते हुए भी चेयरमैन को सुविधाएं कम मिलेंगी। अगर सुविधाएं नहीं दे सकते तो कम से कम अपमानित तो नहीं करना चाहिए। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के निदेशक का पद संयुक्त सचिव के स्तर का होता है और चेयरमैन का पद मानद होता है लेकिन उनको भारत सरकार के सचिव के बराबर माना जाता रहा है। अब चेयरमैन और निदेशक को संस्कृति मंत्रालय ने बराबर कर दिया है। दरअसल जब मंत्रालयों में संस्कृति को लेकर संवेदनशील और जानकार अधिकारी नहीं होंगे तो इस तरह के कदम उठाए जाते रहेंगे। कोई रेलवे कैडर का, कोई वन या पोस्टल या आयकर कैडर का अधिकारी जब संस्कृति जैसे महकमे को संभालता है तो इसी तरह के निर्णय लिए जाते हैं। मंत्रालय के अधिकारियों को जिन प्रशासनिक मसलों पर ध्यान देना चाहिए उससे हटकर वो बेकार की चीजों में उलझे रहते हैं। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के चेयरमैन परेश रावल का कार्यकाल समाप्त हो गया। बेहतर होता कि चेयरमैन का प्रभार लेने की आकांक्षा की जगह मंत्रालय के अधिकारी उनकी जगह नियुक्ति की प्रक्रिया आरंभ करते और समय रहते किसी नए व्यक्ति को चेयरमैन नियुक्त किया जाता। 

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी देश की संस्कृति और विरासत को लेकर बहुत गंभीर रहते हैं। भारतीय संस्कृति के संरक्षण और संवर्धन को लेकर उनका अपना एक विजन है। वो निरंतर इस कोशिश में रहते हैं कि भारत की संस्कृति को वैश्विक पटल पर प्रचारित प्रसारित किया जाए। लेकिन अधिकारियों के ऊलजलूल निर्णय उनके विजन को जमीन पर उतारने में बाधा डालते रहते हैं। इस गाइडलाइन के बाद प्रश्न ये उठ रहा है कि क्या संस्कृति मंत्री गजेन्द्र सिंह शेखावत को इस निर्णय की जानकारी दी गई थी। क्या सरकार में उच्चतम स्तर पर ये निर्णय लिया गया है। क्या सरकार इन संस्थाओं को संस्कृति मंत्रालय के अधीन लाना चाहती है। क्या इन सभी संस्थाओं को एक साथ मिलाकर कोई नई संस्था बनाने की कोशिश कर रही है। कुछ वर्षों पूर्व बजट में इंडियन इंस्टीट्यूट आफ हेरिटेज की घोषणा की गई थी। क्या उसको प्राणवायु देने के लिए जमीन तैयार की जा रही है। इनसे बेहतर हो कि संस्कृति मंत्रालय से पर्यटन विभाग को अलग कर दिया जाए ताकि वहां के मंत्री संस्कृति पर पूरा ध्यान दे सकें। 


Monday, September 9, 2024

सवालों के घेरे में रचनात्मक स्वतंत्रता


आज से करीब छह दशक पहले एक फिल्म आई थी तीसरी मंजिल, जो मर्डर मिस्ट्री थी। इसमें एक लड़की की मौत होती है जिसे आत्महत्या समझा जाता है। कहानी में कई दिलचस्प और रोमांचक मोड़ आते हैं और अंत में मौत का भेद खुलता है। इस फिल्म में शम्मी कपूर और आशा पारेख थीं और निर्देशक विजय आनंद और निर्माता नासिर हुसैन। फिल्म बेहद सफल रही थी। इसमें कलाकारों ने बेहद सधा हुआ अभिनय किया था। इसके साथ कई संयोग जुड़े हुए बताए जाते हैं। इस फिल्म के बाद नासिर हुसैन और विजय आनंद ने कभी साथ काम नहीं किया। शम्मी और नासिर ने भी इस फिल्म के बाद साथ नहीं आए। इस फिल्म के गीतों ने भी ऐसी धूम मचाई थी कि छह दशक बाद भी उसके बोल युवाओं की जुबां पर है। ये वो समय था जब लता मंगेशकर अपनी गायकी की शीर्ष पर थीं और फिल्म में उनके गाने का मतलब फिल्म का हिट होना माना जाता था। लता मंगेशकर की लोकप्रियता के बीच हिंदी फिल्मों की दुनिया में एक ऐसी आवाज आई जिसे संगीतकार राहुल देब बर्मन के हुनर ने वो ऊंचाई दी जो आजतक बनी हुई है। तीसरी मंजिल में आशा भोंसले और मोहम्मद रफी के गाए युगल गीत अमर हो गए। चाहे ओ मेरे सोना रे सोना हो या ऐ हसीना जुल्फों वाली हो या आ जा आ जा मैं हूं प्यार तेरा। आज भी वेलेंटाइन डे पर तीसरी मंजिल फिल्म के ये गीत बजते ही बजते हैं। ये पहली बार नहीं था कि आशा ने आर डी बर्मन के धुनों पर गीत गाए थे। इसके पहले तीसरा कौन में भी दो गाने रिकार्ड किए गए थे, अच्छा सनम कर ले सितम और ओ दिलरुबा। लेकिन न तो फिल्म चली और ना ही गाने को अपेक्षित सफलता मिली। इसके पहले आशा भोंसले को फिल्म नया दौर के गानों से गायिका के तौर पर पहचान मिल चुकी थी।   

जब तीसरी मंजिल प्रर्दर्शित हुई और आशा भोंसले के गाए गीत बेहद लोकप्रिय हो गए तो लता और आशा के बीच तुलना होने लगी थी। तरह तरह की चर्चाओं ने भी जोर पकड़ा था। फिल्मी दुनिया से जुड़े कुछ लोग आशा और लता के बीच होड़ की बात भी फैलाने रहे थे। कुछ तो बात रही होगी कि दोनों बहनों के बीच दूरी या खिंचाव की खबरें आम होने लगी थीं। आशा की गनपत भोंसले के साथ शादी को लता ने पसंद नहीं किया था और मनभेद नहीं से आरंभ हो गए थे। पहले पति को छोड़कर जब आशा भोंसले अपने गले में संगितकार ओ पी नय्यर की फोटो लगी लाकेट पहनने लगी थी तो ये भी लता जी को पसंद नहीं आया था। काफी दिनों तक दोनों बहनों के बीच ये चलता रहा। एक सम्मान समारोह में दोनों ने अपनी भावनाओं का प्रदर्शन भी कर दिया था। कार्यक्रम में जब लता मंगेशकर थोड़ी देर से पहुंची थीं तो आशा ने कहा था आप जानबूझकर मेरे कार्यक्रमों में देर से आती हैं ताकि आपको मेरे गाने न सुनने पड़ें। तब लता जी ने अपने चिरपरिचित अंदाज में उत्तर दिया था कि आशा तुमने मुझे बहुत सताया है। बात हंसी मजाक में कही गई थी लेकिन दोनों ने संकेत तो दे ही दिए थे। दरअसल हुआ ये था कि 1950 से 60 के दशक को फिल्म संगीत का स्वर्णिम काल माना जाता है और जब भी इस कालखंड की बात होती थी तो सिर्फ लता का नाम लिया जाता था। संभव है कि आशा जी को ये बात अखरती हो। जबकि बाद के दिनों में आशा भोंसले को श्रोताओं का खूब प्यार मिला। ना सिर्फ गाने बल्कि जब मुजफ्फर अली की फिल्म में आशा भोंसले के गाए गजल गाए भी सुपर हिट रहे। दिल चीज क्या है आप मेरी जान लीजिए या इन आंखों की मस्ती के मस्ताने हजारों हैं या ये क्या जगह है दोस्तों ये कौन सी दयार है को सुनते हुए ऐसा लगता है जाने आशा के कंठ से किशोर वय की गायिका की आवाज निकल रही हो। इस फिल्म में किशोरवय की पात्र अमीरन जब गाती है तो आशा की आवाज एक जादुई वातावरण का निर्माण करती है। आज जब आशा भोंसले नब्बे वर्ष की अवस्था को पार कर चुकी हैं तो लोग ये पूछने लगे हैं कि आशा के बाद कौन? यही प्रश्न लता मंगेशकर के गाना छोड़ने के बाद भी किया जाता था। इस प्रश्न का उत्तर कठिन है लेकिन इन दोनों बहनों ने भारतीय संगीत की दुनिया को इतना समृद्ध किया है कि जब भी पार्श्व गायकी की बात होगी लता और आशा शीर्ष पर होंगी। 

Saturday, September 7, 2024

सवालों के घेरे में रचनात्मक स्वतंत्रता


हिंदी में एक कहावत बेहद लोकप्रिय है कि पूत के पांव पालने में दिख जाते हैं। मतलब कि आरंभ से ही भविष्य का अनुमान हो जाता है। नेटफ्लिक्स पर अनुभव सिन्हा निर्देशित एक वेब सीरीज आई है आईसी 814, कांधार हाईजैक। वेबसीरीज शुरु होती है तो नेपथ्य से आवाज आती है कि काठमांडू से विमान हाईजैक हो गया। आगे ये सवाल पूछा जाता है कि किसने किया वो हाईजैक, क्यों किया, ये सब भी पता करना था। नेपथ्य की ये आवाज चलती रहती है, इतना पेचीदा था ये सब कि सात दिन लग गए, क्यों लग गए सात दिन और क्या क्या हुआ उन सात दिनों में। इसके बाद कहानी आरंभ होती है उन सात दिनों की। हाईजैक से लेकर विमान में सवार लोगों के हिन्दुस्तान पहुंचने तक। अंत में फिर वही आवाज पर्दे पर गूंजती है, कांधार में सिर्फ एक अधूरी कड़ी छूट गई थी, वो 17 किलो आरडीएक्स। तालिबान के कहने पर हाईजैकर्स ने वो बैग हमारे प्लेन से निकलवाया। आगे बताया जाता है कि उस रात ओसामा बिन लादेन के घर तरनक किला में पांचों हाइजैकर्स और तीनों आतंकवादियों के वापस आने पर जश्न का इंतजाम था। इस हाईजैक का आईएसआई से इतना कम संबंध था कि उन्हें इस जश्न में शामिल होने से रोक दिया गया। हाईजैक खत्म हुआ पर ये तीनों (छोड़ गए आतंकवादी) न जाने आजतक कितनी मासूम मौतों और हादसों के जिम्मेदार हैं। इसके बाद संसद पर हमला, डैनियल पर्ल की गला रेतकर हत्या, मुंबई पर आतंकवादी हमला और पुलवामा की घटना का उल्लेख किया गया। परोक्ष रूप से ये संकेत किया जाता है कि अगर ये तीन आतंकवादी नहीं छोड़े गए होते तो आतंकवादी घटनाएं न होतीं।   

सीरीज के आरंभ में पूछे गए प्रश्न कि हाईजैक किसने किया और अंत में दिए उत्तर को मिलाकर देखें तो सीरीज निर्माण की मंशा साफ हो जाती है। उत्तर है कि इस हाईजैक में पाकिस्तान की बदनाम खुफिया एजेंसी का हाथ नहीं था या बहुत कम था। हाईजैक के बाद उस समय के गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने संसद में 6 जनवरी 2000 को एक बयान दिया था। उस बयान में ये कहा गया था कि हाईजैक की जांच करने में जुटी एजेंसी और मुंबई पुलिस ने चार आईएसआई के आपरेटिव को पकड़ा था। ये चारो इंडियन एयरलाइंस के हाईजैकर्स के लिए सपोर्ट सेल की तरह काम कर रहे थे। इन चारों आतंकवादियों ने पूछताछ में ये बात स्वीकार की थी कि आईसी 814 का हाईजैक की योजना आईएसआई ने बनाई थी और उसने आतंकवादी संगठन हरकत-उल-अंसार के माध्यम से इसको अंजाम दिया था। पांचों हाईजैकर्स पाकिस्तानी थे। हरकत उल अंसार पाकिस्तान के रावलपिडीं का एक कट्टरपंथी संगठन था जिसको 1997 में अमेरिका ने आतंकवादी संगठन घोषित किया था। उसके बाद इस संगठन ने अपना नाम बदलकर हरकत- उल- मुजाहिदीन कर लिया था। संसद में दिए इस बयान के अगले दिन पाकिस्तान के अखबारों में ये समाचार भी प्रकाशित हुआ था कि भारत ने जिन तीन आतंकवादियों को छोड़ा था वो कराची में देखे गए थे। इसके अलावा भी कई घटनाएं उस समय घटी थी जिससे ये स्पष्ट होता है कि आईसी 814 के हाईजैक को पाकिस्तान की सरपरस्ती में अंजाम दिया गया था। पाकिस्तान पहुंचकर मसूद अजहर ने एक भाषण में कहा था कि मैं यहां आपको ये बताने के लिए आया हूं कि मुसलमान तबतक चैन से नहीं बैठेंगे जबतक कि अमेरिका और भारत को बर्बाद न कर दें। इतने उपलब्ध सूबतों के बावजूद इस वेबसीरीज की कहानी में आईएसआई की भूमिका के नकार का क्या कारण हो सकता है। इसके बारे में निर्देशक को बताना चाहिए। ये सिनेमैटिक क्रिएटिव फ्रीडम नहीं कुछ और प्रतीत होता है। 

सिर्फ इतना ही नहीं जिस तरह से पूरे सीरीज में घटनाक्रम को दिखाया गया है वो भी स्थितियों के बारे में अल्पज्ञान पर आधारित प्रतीत होता है। ऐसा लगता है कि निर्देशक को इस बात का भान ही नहीं है कि समाचारपत्रों में किस तरह काम होता है या मंत्रालयों में संकट के समय किस प्रकार से योजनाएं बनाई जाती हैं। कांधार एयरपोर्ट पर हाईजैकर्स से बातचीत के प्रसंग को जिस तरह से दिखाया गया है वो फूहड़ता की श्रेणी में आता है। आतंवकादियों और अधिकारी के संवाद से ऐसा लगता ही नहीं है कि कोई देश इतने बड़े संकट से गुजर रहा है। कुछ घटनाओं को तो इस तरह से कमेंट्री में निबटा दिया गया है जैसे कि वो बेहद मामूली घटना हो। जैसे विमान में मौजूद एक लाल बैग के बारे में। फिल्म निर्देशक ने थोड़ी मेहनत की होती और इस्लामाबाद से कांधार भेजे गए भारतीय राजनयिक ए आर घनश्याम की डिस्पैच को पढ़ लिया होता। लाल बैग से जुड़ी जानकारी उनको मिलती और वो आईएसआई को क्लीन चिट देने की ‘रचनात्मक स्वतंत्रता’ लेने का दुस्साहस नहीं कर पाते। 31 दिसबंर की रात की घटना का बयान करते हुए घनश्याम लिखते हैं कि रात नौ बजे के करीब कैप्टन सूरी लाउंज में आए और बताया कि तालिबान आईसी 814 में ईंधन भरने में जानबूझकर देरी कर रहा है। वो हाईजैकर्स का लाग रंग का बैग ढूंढ रहे हैं। घनश्याम तुरंत तालिबान सरकार के मंत्री मुतवक्किल, जो उस समय तक एयरपोर्ट पर ही थे, के पास पहुंचते हैं और उनको सारी बात बताते हैं। थोड़ी देर बाद जब घनश्याम विमान के पास पहुंचते हैं तो देखते हैं कि मुतवक्किल की लाल रंग की पजैरो कार विमान के पास खड़ी थी। गाड़ी की हेडलाइट आन करके विमान से कुछ खोजा जा रहा था। कुछ लोग हर लाल रंग के बैग को गाड़ी के पास ले जा रहे थे और फिर थोड़ी देर में उसको वापस लाकर विमान में रख रहे थे। वहां काम कर रहे एक वर्कर ने बताया कि असली लाल बैग मिल गया। उसमें पांच हैंड ग्रेनेड रखे थे। लेकिन कहानी इससे गहरी थी। उस लाल बैग में हाइजैकर्स के पाकिस्तानी पासपोर्ट भी थे जिसमें उनका असली नाम पता दर्ज था। आईएसआई के हुक्म पर मुतवक्किल ने अपनी निगरानी में उस बैग को न सिर्फ खोजा बल्कि उसको अपने साथ लेकर गए। इसके बाद ही विमान के कैप्टन को विमान उड़ाने की अनुमति मिल सकी। विमान अगले दिन सुबह कांधार एयरपोर्ट से उड़ सका। 

यहां भी स्पष्ट होता है कि आईएसआई का इस हाईजैकिंग से कितना गहरा संबंध था । वो गुनाह का कोई निशान नहीं छोड़ना चाहता था। कांधार एयरपोर्ट की गतिविधियों पर पूरी तरह से आईएसआई का नियंत्रण था। उस समय के विदेश मंत्री जसवंत सिंह जब अफगानिस्तान जा रहे थे तो उन्होंने मुतवक्किल से फोन पर कहा था कि वो मुल्ला उमर से मिलना चाहते हैं। पहले तो उसने हां कर दी। थोड़ी देर में आईएसआई के अपने आकाओं के बात करने के बाद जसवंत सिंह को मना कर दिया। वेब सीरीज पर विवाद हुआ। नेटफ्लिक्स की प्रतिनिधि मंत्रालय में तलब हुईं। मंत्रालय ने डिसक्लैमर लगाने को कहा। वो लगा दिया गया। न तो कमेंट्री बदली गई न ही वो दृष्य सुधारे गए जिससे आईएसआई को क्लीन चिट दी गई। इतिहास ऐसे ही बिगाड़ा जाता है। ये मामला आतंकियों के नाम का नहीं बल्कि उनके आकाओं को बचाने का लगता है।