Translate

Saturday, November 30, 2024

आरंभिक भारतीय फिल्मों से बदलेगा इतिहास


गोवा में आयोजित इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में जानेवालों की अपेक्षा होती है कि उनको कुछ बेहतरीन विदेशी फिल्में देखने को मिल जाएं। वहां पहुंचने वाले सिनेमाप्रेमी फेस्टिवल के शेड्यूल में से अपनी पसंद की फिल्में तलाशते और उसपर चर्चा करते नजर आते हैं। हाल ही में गोवा में समाप्त हुए फिल्म फेस्टिवल में सात भारतीय क्लासिक फिल्मों को भी नेशनल फिल्म आर्काइव आफ इंडिया ने रिस्टोर (मूल जैसा बनाया) किया। इन फिल्मों का प्रदर्शन फेस्टिवल के दौरान हुआ। इन फिल्मों को दर्शकों ने पसंद किया लेकिन सबसे अधिक रोमांच तो दादा साहब फाल्के की 1919 में बनाई गई फिल्म कालिया मर्दन को देखते समय हुआ। दादा साहब फाल्के ने 1919 में जब इस फिल्म का निर्माण किया था तो बाल कृष्ण की भूमिका उनकी बेटी मंदाकिनी फाल्के ने की थी। ये मूक फिल्म थी। करीब 50 मिनट की इस फिल्म को लाइव संगीत के साथ प्रदर्शित किया गया। उन 50 मिनट में दर्शक मूक फिल्मों के दौर में चले गए थे। जहां पर्दे पर पात्र अपने हाव भाव से दृष्य को जीवंत करते थे और पर्दे के नीचे या साथ बैठे साजिंदे अपने वाद्ययंत्रों से संगीत देकर उन दृष्यों में रोचकता पैदा करते थे। कालिया मर्दन फिल्म में जब नदी में खेल रहे बाल कृष्ण को महिलाएं गोद में लेकर ऊपर उठातीं तो हाल में बैठे आर्केस्ट्रा से निकलने वाला संगीत गजब का प्रभाव पैदा करता था। पर्दे पर जब बाल कृष्ण बांसुरी बजाते तो हाल में बैठा बांसुरी वादक वैसे ही धुन निकालता। 

एक बेहद ही मजेदार दृष्य है इस फिल्म है। कृष्ण और उनके बाल सखा को गांव की एक महिला अपमानित करती है। उन शरारती बच्चों पर पानी फेंक देती है। इससे कृष्ण जी क्षुब्ध हो जाते हैं। अपने साथियों के साथ उस महिला के घर में घुसकर माखन चोरी कर लेते हैं। माखन चोरी से क्रोधित वो महिला कृष्ण के साथियों को पीट देती है। अपमानित बालकों ने महिला से बदला देने की ठानी। एक रात कृष्ण जी उनके घर में घुस जाते हैं। महिला अपने पति के साथ सो रही होती है। नटखट कृष्ण ने सोते हुए पुरुष की दाढ़ी और महिला के बाल आपस में बांध दिए। बाद में जब वो उस कमरे से निकलने का प्रयास करते हैं तो असफल हो जाते हैं। बाल कृष्ण की बदमाशियों को दादा साहब फाल्के ने जिस खूबसूरती के साथ दिखाया है कि आज भी दर्शक आनंदित हो उठते हैं। उनको ये याद ही नहीं रहता है कि इस लंबे दृष्य में किसी तरह का कोई संवाद नहीं है। है तो सिर्फ पार्श्व संगीत। फेस्टिवल के समापन समारोह में रमेश सिप्पी ने इस बात को रेखांकित किया कि आज से 105 वर्ष पहले बनी फिल्म कितनी सुंदर थी और किस तरह से उसमें कहानी को आगे बढ़ाया गया है। उन्होंने फिल्म के कैमरा वर्क की प्रशंसा भी की। यह अनायस नहीं है कि दादा साहब फाल्के को भारतीय फिल्म जगत का पितामह कहा जाता है। इसके अलावा राज कपूर की मास्टरपीस फिल्म आवारा, देवानंद कि हम दोनों, तपन सिन्हा की हारमोनियम, ए नागेश्वर राव की तेलुगु फिल्म देवदासु और सत्यजित राय की सीमाबद्ध और ख्वाजा अहमद अब्बास की सात हिन्दुस्तानी को भी रिस्टोर करके दिखाया गया। नेशनल फिल्म हेरिटेज मिशन के अंतर्गत इन फिल्मों पर काम हुआ। यह कार्य महत्वपूर्ण है। 

हम वापस लौटते हैं फिल्म कालिया मर्दन की ओर। आज से 105 वर्ष पहले बनी इस फिल्म के केंद्र में श्रीकृष्ण का बाल स्वरूप है। उस दौर में जितनी भी फिल्में बन रही थीं सभी भारतीय पौराणिक कथाओं और पात्रों पर आधारित थीं। दादा साहब फाल्के की पत्नी ने उनको कृष्ण के व्यक्तित्व के अलग अलग शेड्स पर फिल्में बनाने के लिए प्रेरित किया। इसके लिए उनकी पत्नी ने अपने गहने गिरवी रखे। उससे मिले पैसे को लेकर फाल्के लंदन गए और वहां से सिनेमैटोग्राफी सीखकर वापस लौटे। अब उनके सामने अपने सपने को साकार करने की चुनौती थी। उन्होंने पहले कृष्ण और फिर राम पर फिल्म बनाने की कोशिश की लेकिन संसाधन के अभाव में उसको छोड़ना पड़ा। फिर राजा हरिश्चंद्र की कहानी पर काम आरंभ किया। विज्ञापन के बावजूद कोई महिला इस फिल्म में अभिनय के लिए तैयार नहीं हो रही थी। निराशा बढ़ती जा रही थी। पास की दुकान में चाय पीने गए। वहां चायवाले लड़के, सालुंके, पर उनकी नजर पड़ी और उस लड़के को तारामती के रोल के लिए तैयार किया गया। इस तरह भारतीय फिल्म में एक पुरुष ने पहली अभिनेत्री का रोल किया। ‘राजा हरिश्चंद्र’ फिल्म बन गई। 3 मई 1913 को बांबे के कोरोनेशन हॉल में उसका प्रदर्शन हुआ। फिल्म लगातार 12 दिन चली। 1914 में लंदन में प्रदर्शित हुई। इनकी दूसरी फिल्म ‘भस्मासुर मोहिनी’ में नाटकों में काम करनेवाली कमलाबाई गोखले ने अभिनय किया। कमला बाई को फिल्म में अभिनय के लिए उस वक्त फाल्के साहब ने आठ तोला सोना, दो हजार रुपए और चार साड़ियां दी थीं। इसके बाद इन्होंने ‘कृष्ण जन्म’ बनाई। कहते हैं कि इस फिल्म ने इतनी कमाई की कि टिकटों की बिक्री से जमा होनेवाले सिक्कों को बोरियों में भरकर ले जाना पड़ता था। सफलता के बाद इनको फाइनेंसर मिल गया। उन्होंने हिंदुस्तान फिल्म कंपनी बनाई। इसी फिल्म कंपनी से दादा साहब फाल्के ने कालिया मर्दन फिल्म का निर्माण किया। फाल्के साहब ने अपने जीवन काल में करीब 900 लघु फिल्में और 20 फीचर फिल्में बनाईं। भारतीय सिनेमा के शोधार्थियों को इस बात की पड़ताल करनी चाहिए कि दादा साहब फाल्के भारतीय पौऱाणिक पात्रो को लेकर ही फिल्में क्यों बनाते रहे। 

जिस तरह से नेशनल फिल्म हेरिटेज मिशन के अंतर्गत पुरानी भारतीय फिल्मों को रिस्टोर करने का कार्य हो रहा है, उसको और बढ़ाने और भारतीय दर्शकों तक पहुंचाने की आवश्यकता है। स्वाधीनता के बाद फिल्मी दुनिया में कई ऐसे निर्माता निर्देशक आए जिन्होंने जो वामपंथी विचार के प्रभाव वाले थे। स्वाधीनता के बाद तत्कालीन भारत सरकार फिल्मी जगत के लोगों को सोवियत रूस भेजकर उनके प्रभाव में आने का रास्ता खोल रही थी। अनके पुस्तकों और दस्तावेजों में इस बात का उल्लेख मिलता है कि किस तरह से सोवियत रूस ने अपने विचारों को भारत में फैलाने के लिए फिल्म और साहित्य जगत का उपयोग किया और सफलता भी प्राप्त की। रूस को सफलता इस कारण मिली क्योंकि उस समय भारत सरकार का सहयोग उनको प्राप्त था। गीतों से लेकर संवाद में पूंजी और पूंजीपतियों पर परोक्ष रूप से हमले शुरु हो गए थे। जमींदारों से लेकर पैसेवालों को बुरा आदमी दिखाने की प्रवृत्ति जोर पकड़ने लगी थी। पूंजीवादी व्यवस्था के कथित दुर्गुणों को फिल्मों में प्रमुखता से दिखाकर भारतीय जनमानस पर साम्यवादी विचारधारा को थोपने का प्रयास हुआ। कहा जाता है कि उस समय से प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का भी परोक्ष समर्थन इस कार्य के लिए था। अगर नेशनल फिल्म हेरिटेज मिशन अपने काम में तेजी लाती है, इसको सरकार की तरफ से उचित संसाधन उपलब्ध होता है तो संभव है कि आनेवाले दिनों में भारतीय फिल्मों के इतिहास को फिर से लिखने की आवश्यकता पड़े। इसके साथ ही विश्वविद्यालयों में भारतीय फिल्मों की प्रवृत्तियों पर जो कार्य हो रहे हैं उनकी भी दिशा बदल सकती है।    


Saturday, November 23, 2024

नेहरू से मोदी युग के साहित्य पर विमर्श


हिंदी साहित्य में नेहरू युग या नेहरू के विचारों के प्रभाव की खूब चर्चा हुई है। नेहरू के बाद इंदिरा युग की भी चर्चा रही। आपातकाल को लेकर कुछ लेखकों ने इंदिरा गांधी के शासनकाल को परखने का प्रयास किया लेकिन अधिकतर वामपंथी लेखकों ने इंदिरा गांधी के संविधान को ध्वस्त कर आपातकाल लगाने के निर्णय को लेकर बहुत तीखी आलोचना नहीं की। नागार्जुन ने देश में आपातकाल लगाने के पहले ही इंदिरा गांधी के अंदर के अधिनायकवादी प्रवृत्ति को पहचान लिया था। इंदिरा गांधी ने जब देश पर आपातकाल थोपा था उसके दो वर्ष पूर्व ही नागार्जुन ने ‘देवी तुम तो कालेधन की वैसाखी पर टिकी हुई हो’ जैसी बहुत तीखी कविता लिखी थी। इस कविता को प्रगतिशील आलोचकों ने बहुत करीने से दबा दिया। उसकी चर्चा ही नहीं होने दी। आनेवाली पीढ़ी को ये बताने का प्रयास हुआ कि नागार्जुन स्वभाव से प्रगतिशील कवि थे। इस धारणा को पुष्ट करनेवाली नागार्जुन की कविताओं की ही चर्चा की गई। ‘देवी तुम तो कालेधन की वैसाखी पर टिकी हुई हो’ जैसी कविता में नागार्जुन ने इंदिरा गांधी और उनके क्रियाकलापों पर कठोर टिप्पणी की थी। अपनी इस कविता में नागार्जुन ने ना सिर्फ महंगाई को लेकर इंदिरा गांधी पर प्रहार किया था बल्कि उनको ठगों और उचक्कों की मलकाइन तक कह डाला था। पंक्तियां देखिए, महंगाई का तुझे पता क्या/जाने क्या तू पीर पराई/इर्द गिर्द बस तीस हजारी/साहबान की मुस्की छाई/तुझ को बहुत बहुत खलता है/’अपनी जनता’ का पिछड़ापन/महामूल्य रेशम में लिपटी/यों ही करती जीवन-यापन/ठगों- उचक्कों की मलकाइन/प्रजातंत्र की ओ हत्यारी/अबके हमको पता चल गया है/है तू किन वर्गों की प्यारी । यहां इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि नागार्जुन ने आपातकाल की घोषणा के पूर्व ही इंदिरा गांधी को प्रजातंत्र की हत्यारी कहा था। इंदिरा युग में इस तरह के साहित्य को जानबूझकर ओझल कर दिया गया। तू किन वर्गों को प्यारी से नागार्जुन कटाक्ष कर रहे हैं कि किस तरह से आम आदमी की बात करते करते वो धनाढ्य लोगों के पक्ष में खड़ी हो गईं। 

नेहरू युग में हिंदी के प्रगतिशील साहित्यकारों ने आधुनिकतावादी कम्युनिस्ट विचार ने ‘धर्म को अफीम’ बताया। जबकि मार्क्स ने उसको अफीम बताने के साथ मानव के दुखी मन का आर्तनाद भी बताया था लेकिन आधुनिकतावादियों और कम्युनिस्टों ने इस दुखी मन के मर्म को न कभी समझा न कभी सहलाया और वृहत्तर हिंदू समाज को क्रमिक तरीके से अपने से दूर कर दिया और अन्तत: खो दिया। ये बातें हिंदी के आलोचक सुधीश पचौरी ने सेतु प्रकाशन से प्रकाशित अपनी पुस्तक, हिंदी साहित्य के 75 वर्ष : नेहरू युग से मोदी युग तक में लिखी है। नेहरू युग से लेकर राजीव गांधी के दौर तक कम्युनिस्टों की चुनिंदा मामलों पर खामोशी से भी हिंदी साहित्य लेखन का सत्य से आंख मूंद लेने की प्रवृत्ति दिखाई देती है। स्वाधीनता के समय जो देश विभाजन हुआ उसको हिंदी के अधिकतर साहित्यकारों ने अपने लेखन का विषय नहीं बनाया। दो चार लेखकों को छोड़कर मानवता के इतिहास की इतनी बड़ी घटना को कम्युनिस्ट विचारधारा से प्रभावित हिंदी के लेखकों ने अपनी कृतियों का विषय नहीं बनाया। सुधीश पचौरी प्रश्न उठाते हैं कि हिंदी के अधिकतर लेखक आश्विट्ज, जहां हिटलर ने लाखों यहूदियों को गैस चैंबर में मौत के घाट उतार दिया था, को तो याद करते हैं लेकिन उन्हें विभाजन की विभीषिका परेशान नहीं करती। मुक्तिबोध जैसा क्रांतिकारी कवि भी विभाजन की विभीषिका पर निरपेक्ष ही नजर आता है। इसका उत्तर भी मिलता है जब लेखक कहता है कि कम्युनिस्ट पार्टी की लाइन स्वयं टू नेशन थ्योरी पर आधारित थी। वह स्वयं प्रो विभाजन थी। उनके लिए तो विभाजन एकदम उचित था। ऐसे में प्रगतिवादियों को विभाजन का दर्द कैसे महसूस होता, यदि दर्द यत्र तत्र आया भी तो बेहद सेलेक्टिवली आया। 

कम्युनिट विचारधारा से जुड़े हिंदी के लेखकों ने विभाजन की विभीषिका को अपने लेखन का विषय नहीं बनाया बल्कि उनकी कलम 1984 में दिल्ली में हुए सिखों के नरसंहार पर भी कमोबेश खामोश ही रही। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद तीन दिनों तक दूरदर्शन ने शोक को लाइव दिखाया। कहा जाता है कि उस उस दौरान किसी ने खून का बदला खून का नारा दिया और दूरदर्शन के जरिए वो बड़े समुदाय तक पहुंचा और सिखों का नरसंहार आरंभ हो गया। राजीव गांधी के बड़े पेड़ गिरने से धरती हिलने वाले बयान ने भी आग में घी का काम किया। सुधीश पचौरी का मानना है कि टीवी के सतत प्रसारण और शोक दृष्यों को लगातार देख इंदिरा के प्रति हमदर्दी और मारने वालों के प्रति क्षोभ पैदा होता था। पता नहीं किन तत्त्वों का शोक बेदर्द होकर आम सिखों पर टूटने लगा। सिख और हिंदू जो कल तक एक दूसरे के अनन्य थे वो एक दूसरे के अन्य हो गए। इस बात का समाजशास्त्रीय अध्ययन होना चाहिए कि हिंदू परिवारों में धर्म की रक्षा के लिए अपने बड़े बेटे को सिख बनाने की परंपरा थी वही हिंदू इंदिरा की हत्या के बाद सिखों को पराया समझने लगे। जाहिर है जब इस तरह के धार्मिक अस्मितामूल्क विमर्श अपनी जगह बनाने लगते हैं तब न यथार्थ बचता है न कोई तटस्थता बच पाती है। समूचा यथार्थ ही विभक्त हो जाता है। 1984 में सिखों के नरसंहार ने इसी प्रकार से यथार्थ को विभाजित कर दिया। जो कल तक अपने को सिख या हिंदू की तरह महसूस नहीं करता था वह भी अपनी अस्मिता पहनकर चलने लगा। स्वाधीनता के समय देश विभाजन के बाद यह दूसरा नया विभाजन था। इस विभाजन ने भले ही भौगोलिक विभाजन नहीं किया लेकिन हमारे आसपास के दैनिक यथार्थ और अनुभवों को भी विभक्त कर दिया। प्रश्न यही उठता है कि सिखों के नरसंहार को हिंदी के लेखकों ने प्राय: अनदेखा क्यों किया? सिखों का दर्द हिंदी लेखकों की रचनाओं में नहीं आ पाया। कुछ लेखकों ने लिखा लेकिन वृहत्तर हिंदी साहित्यिक समाज खामोश रहा। एकबार फिर हिंदी के साहित्यकार संवेदनहीन साबित हुए। सुधीश पचौरी कहते हैं कि वो दंगों में शामिल हुए बिना भी दंगों में ‘शामिल’ नजर आए।

आज बहुत सारे साहित्यकार भ्रमित नजर आते हैं। इंदिरा गांधी युग में साहित्य में जिस अवसरवाद का उदय हुआ भूमंडलीकरण तक चलता रहा। मंडल के बाद साहित्य में अस्मितामूलक विमर्श आरंभ हुआ। दलित और स्त्री चेतना का उभार होता है। ये दौर चलता है। मोदी युग में हिंदी साहित्य का इंटरनेट मीडिया युग आरंभ होता है। हिंदी साहित्य की रचना प्रक्रिया से लेकर अर्थ प्रक्रिया और उसकी आलोचना प्रक्रिया भी बदलती नजर आती है। मगर इस बदलाव का अहसास बहुत कम लोगों को है और उससे बाहर निकलने की छटपटाहट तो और भी कम लोगों को है। मोदी युग में हिंदी साहित्य में नए नए प्रश्न खड़े हो रहे हैं। विमर्श पर बहुत चर्चा होती है। विमर्श, आधुनिकता आदि को लेकर साहित्य में बहस कम दिखाई देती है। उपभोक्ता संस्कृति से लेकर बाजर को नए सिरे परिभाषित करने में साहित्य पिछड़ता नजर आता है। हिंदी के वामपंथी साहित्यकार अब भी पुरानी घिसी पिटी लीक पर चलते हुए नजर आते हैं। उनको अपनी रचनाओं में इन प्रश्नों से मुठभेड़ करने की आवश्यकता है। आवश्कता तो इस बात को रेखांकित करने की भी है कि हिंदू समाज किन कारणों से संगठित हुआ और अपने अधिकारों के लिए कृतसंकल्पित भी। 


Saturday, November 16, 2024

महान कलाकारों के स्मरण का संयोग


किसी भी फिल्म फेस्टिवल के आयोजन का उद्देश्य देश में फिल्म संस्कृति का निर्माण करना होता है। इस उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए भारत सरकार ने भी फिल्म फेस्टिवल की कल्पना की थी। आगामी 20 नवंबर से गोवा में अंतराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिव का आरंभ हो रहा है। उसके बाद 5 दिसंबर से विश्व के सबसे बड़े घुमंतू फिल्म फेस्टिवल जागरण फिल्म फेस्टिवल की दिल्ली से शुरुआत हो रही है। भारत सरकार के सूचना और प्रसारण मंत्रालय के आयोजन अंतराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल का आयोजन गोवा में होने जा रहा है। इस बार गोवा में आयोजित इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल आफ इंडिया (ईफी) में भारतीय सिनेमा के चार दिग्गजों को भी याद किया जा रहा है। महान शोमैन राज कपूर, गायक मुहम्मद रफी, फिल्मकार तपन सिन्हा और अभिनेता ए नागेश्वर राव की जन्मशती मनाई जा रही है। इन चारों के फिल्मों का प्रदर्शन, उनके कार्यों और समाज पर उसके प्रभाव पर बात होगी। उनके जीवन और फिल्मों के आधार पर प्रदर्शनी लगाई जा रही है। जब हम फिल्म फेस्टिवल पर बात करते हैं और ये मानते हैं कि इससे देश में फिल्म संस्कृति का विकास होगा तो हमारे मानस में एक प्रश्न खड़ा होता है कि इसमें युवाओं की कितनी भागीदारी होगी। ईफी ने एक सराहनीय पहल की है। इस बार फिल्म फेस्टिवल की थीम ही युवा फिल्मकार है। इसमें युवा फिल्मकारों को मंच देने का प्रयास किया जा रहा है। देशभर के फिल्म स्कूलों से जुड़े चुनिंदा छात्रों को ना केवल ईफी में आमंत्रित किया गया है बल्कि उनके कार्यों को रेखांकित कर अंतराष्ट्रीय दर्शकों तक पहुंचाने का उपक्रम भी किया गया है। पहली बार किसी फिल्म का निर्देशन करनेवाले युवा निर्देशक को सम्मानित करने के लिए जूरी ने मेहनत की है। कुछ वर्षों पूर्व 75 क्रिएटिव माइंड्स नाम से युवा फिल्मकारों को प्रोत्साहित करने का एक कार्यक्रम आरंभ किया गया था। इस अभियान के आरंभ में जुड़ने का अवसर मिला था। यह एक बेहद महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट था। ईफी के इस 55वें संस्करण में 75 क्रिएटिव माइंड्स की संख्या बढ़ाकर 100 क्रिएटिव माइंड्स कर दी गई है। 

अब बात कर लेते हैं उन महान फिल्मी हस्तियों की जिनकी जन्म शताब्दी वर्ष में उनपर विशेष आयोजन हो रहा है। ए नागेश्वर राव तेलुगु फिल्म इंडस्ट्री को पहचान और नाम देने वाले कलाकार थे। करीब सात दशकों तक उन्होंने फिल्मों में जितना काम किया उसने तेलुगू सिनेमा की पहचान को गाढ़ा किया। उन्होंने एन टी रामाराव के साथ मिलकर तेलुगु फिल्मों को खड़ा किया। कहा जाता है कि तेलुगु फिल्मों के ये दो स्तंभ हैं। नागेश्वर राव का संघर्ष बहुत बड़ा है। वो एक बेहद गरीब परिवार में पैदा हुए थे। वो बचपन से ही फिल्मों में अभिनय करने का स्वप्न देखते थे। वो जब आठ नौ वर्ष के थे तभी से आइने के सामने खड़े होकर अभिनय किया करते थे। उनकी मां जब इसको देखती तो अपने बेटे को प्रोत्साहित करती। नागेश्वर राव की मां ने ही उनको अभिनय के लिए ना केवल प्रेरित किया बल्कि अपनी गरीबी के बावजूद उनको थिएटर में भेजने लगीं। इस बात को नागेश्वर राव स्वीकार भी करते थे कि अगर उनकी मां ना होती तो वो फिल्मों में नहीं आ पाते। रंगमंच पर नागेश्वर राव के काम की प्रशंसा होने लगी थी। 1941 में उनको फिल्मों में पहला काम मिला जब पुलैया ने अपनी फिल्म धर्मपत्नी में कैमियो रोल दिया। उनके इस काम पर प्रलिद्ध फिल्मकार जी बालारमैया की नजर पड़ी और उन्होंने अपनी फिल्म सीतारामम जन्मम में केंद्रीय भूमिका के लिए चयनित कर लिया। स्वाधीनता के पूर्व 1944 में जब ये फिल्म रिलीज हुई तो नागेश्वर राव के काम की चर्चा हुई। पहचान मिली। 1948 में जब उनकी फिल्म बालाराजू आई तो उसको दर्शकों का भरपूर प्यार मिला। उसके बाद तो वो तेलुगु सिनेमा के सुपरस्टार बन गए। ए नागेश्वर राव ने ढाई सौ से अधिक तेलुगु, तमिल और हिंदी फिल्मों में काम किया। एएनआर के नाम से मशहूर इस कलाकार को भारत सरकार ने पद्मभूषण से सम्मानित किया। 

जिस तरह से एएनआर ने तेलुगू फिल्मों को संवारा, कह सकते हैं कि राज कपूर ने भी हिंदी फिल्मों को एक दिशा दी। उनकी फिल्म आवारा का प्रदर्शन ईफी के दौरान किया जा रहा है। कौन जानता था कि जो बालक कोलकाता के स्टूडियो में केदार शर्मा से रील का रहस्य जानना चाहता था, जो किशोरावस्था में कॉलेज में पढ़ाई न करके अन्य सभी बदमाशियां किया करता था, जिसके पिता उसके करियर की चिंता में सेट पर उदास बैठा करते थे, वो रील की इस दुनिया में इतना डूब जाएगा, उसकी बारीकियों को इस कदर समझ लेगा या फिर रील में चलने फिरनेवाले इंसान के व्याकरण को इतना आत्मसात कर लेगा कि पहले अभिनेता राज कपूर के तौर पर और बाद में शोमैन राज कपूर के रूप में उनकी ख्याति पूरे विश्व में फैल जाएगी। राज कपूर ने ना केवल कालजयी फिल्में बनाईं बल्कि उन्होंने नई प्रतिभाओं को भी अवसर दिया। उनकी संगीत की समझ इतनी व्यापक थी कि अक्सर वो संगीतकारों के साथ होनेवाली संगत में फीडबैक दिया करते थे जिससे संगीत बेहद लोकप्रिय हो जाया करता था। कई गीतकारों और संगीतकारों ने इसको स्वीकार किया है। राज कपूर के सहायक रहे और फिर कई हिट फिल्मों का निर्देशन करनेवाले राहुल रवैल ईफी दौरान रणबीर कपूर के साथ संवाद करेंगे। 

तपन सिन्हा एक ऐसे निर्देशक थे जिन्होंने बेहतरीन फिल्में बनाईं। काबुलीवाला एक ऐसी फिल्म जिसको अंतराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता मिली। तपन सिन्हा की समाज और समकालीन राजनीति पर पैनी नजर रहती थी। वो अपनी फिल्मों के माध्यम से मनोरंजन तो करते ही थे फिल्मों के जरिए राजनीति की विसंगतियों पर प्रहार भी करते थे। तपन सिन्हा ने बंगाली, हिंदी और ओडिया में फिल्में बनाई। तपन सिन्हा ने बिहार के भागलपुर में अपनी स्कूली पढ़ाई की फिर पटना विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा। तपन सिन्हा ने अपना करियर साउंड इंजीनियर के तौर पर आरंभ किया था लेकिन उनके दिमाग में तो कुछ और ही चल रहा था। वो फिल्म बनाना चाहते थे। जब उन्होंने फिल्मों का निर्देशन आरंभ किया तो फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा। उनको डेढ़ दर्जन से अधिक राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिले। सत्यजित राय और तपन सिन्हा ने मिलकर बांग्ला फिल्मों को एक नई ऊंचाई दी। वो एक बेहद अनुशासित निर्देशक थे और सुबह दस बजे फिल्मों की शूटिंग आरंभ करते थे और शाम पांच बजे समाप्त। उसके बाद गोल्फ खेलना उनकी दिनचर्या में शामिल था। 

मोहम्मद रफी के बारे में क्या ही कहना। वो भारत के ऐसे पार्श्व गायक थे जिनके गीतों को आज भी गुनगुनाया जाता है। ये देखना दिलचस्प होगा कि मोहम्मद रफी को ईफी में कैसे याद किया जाता है। ईफी की ओपनिंग फिल्म स्वातंत्र्य वीर सावरकर है। इस फिल्म को रणदीप हुडा ने निर्देशित किया है। गैर फीचर फिल्म श्रेणी में ओपनिंग फिल्म घर जैसा कुछ है जो लद्दाखी फिल्म है। इसके अलावा गीतकार प्रसून जोशी, संगीतकार ए आर रहमान और निर्देशक विधु विनोद चोपड़ा फिल्मों की बारीकियों पर बात करेंगे। गोवा में आयोजित होनेवाले इस फिल्म फेस्टिवल को लेकर अंतराष्ट्रीय फिल्म जगत में भी एक उत्सकुता रहती है। इसमें कई बेहतरीन अंतराष्ट्रीय फिल्मों का भी प्रदर्शन होगा। चार भारतीय फिल्मी दिग्गजों को समर्पित ये फेस्टिवल लंबी लकीर खींच सकता है।      


Sunday, November 10, 2024

प्रगतिशीलता का अधिनायकवाद


इन दिनों हिंदी साहित्य जगत में एक बार फिर से वाम दलों से संबद्ध लेखक संगठनों की चर्चा हो रही है। चर्चा इस बात पर नहीं हो रही है कि लेखक संगठनों ने लेखकों के हित में कोई कदम उठाया है बल्कि इस बात पर हो रही है कि जनवादी लेखक संघ के संस्थापक सदस्य और राष्ट्रीय अध्यक्ष असगर वजाहत ने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया। उन्होंने 2 नवंबर को अपना त्यागपत्र संगठन के महासचिव और कार्यकारिणी सदस्यों को भेजा। उसके बाद गुरुवार को प्रगतिशील लेखक संघ के उत्तर प्रदेश के अध्यक्ष पद से वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना ने भी त्यागपत्र दे दिया। उनके त्याग पत्र में उनका दर्द झलक रहा है। नरेश सक्सेना ने लिखा कि मैं मित्रों की असहमति का सम्मान करता हूं, किंतु अपने प्रति व्यंग्य और संदेह का नहीं। हार्दिक विनम्रता के साथ मैं तत्काल प्रभाव से उत्तर प्रदेश प्रगतिशील लेखख संघ के अध्यक्ष पद से इस्तीफा देता हूं। गौर करने की बात है कि नरेश सक्सेना जी ने ये बात फेसबुक पर लिखी। उनके लिखने के बाद उनके समर्थन और विरोध में टिप्पणियां आने लगीं। कम्युनिस्ट पार्टी के प्रति आस्थावान कुछ लेखकों ने उनको नसीहत दी तो अधिकतर लेखकों ने उनका समर्थन किया। कर्मेन्दु शिशिर ने अच्छी टिप्पणी की, संगठन और सृजन दोनों का अपना महत्व है। जब एक रचनाकार को संगठन और सृजन में चयन करना पड़े तो सच्चा रचनाकार तो सृजन का ही चयन करेगा। असगर वजाहत जैसे बड़े कथाकार/नाटककार और नरेश सक्सेना जैसे बड़े कवि को जब संगठन ही ट्रोल करने लगे तो वो क्या करें। नरेश सक्सेना का त्याग पत्र और उनपर आई टिप्पणियों को पढ़ने के बाद इस बात के संकेत मिलते हैं कि संघ की कोई बैठक चंडीगढ़ में हुई थी जिसमें ये तय किया गया था कि संघ से जुड़ा कोई लेखक किस मंच पर जाएगा ये संगठन तय करेगा। 

कम्युनिस्ट पार्टियों के बौद्धिक प्रकोष्ठ की तरह काम करनेवाला प्रगतिशील लेखक संघ हो, जनवादी लेखक संघ हो या जन संस्कृति मंच सबमें एक अधिनायकवादी प्रवृत्ति दिखाई देती है। इस संबंध में राहुल सांकृत्यायन से जुड़ा एक प्रसंग का उल्लेख उचित होगा। स्वाधीनता के बाद दिसंबर 1947 में हिंदी साहित्य सम्मेलन का एक अधिवेशन बांबे (अब मुंबई) में होना था। राहुल सांकृत्यायन को अधिवेशन की अध्यक्षता के लिए मंत्रित किया गया था। उस समय राहुल सांकृत्यायन कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य थे। जब वो बांब पहुंचे तो पार्टी के कार्यालय पहुंचे। वहां कामरेडों ने उनके तैयार भाषण की कापी पढ़ी। उसके बाद तो वहां विवाद खड़ा हो गया। राहुल सांकृत्यायन ने अपने भाषण में लिखा था इस्लाम को भारतीय बनना चाहिए। उनका भारतीयता के प्रति विद्वेष सदियों से चला आया है। नवीन भारत में कोई भी धर्म भारतीयता को पूर्णतया स्वीकार किए बिना फल फूल नहीं सकता।ईसाइयों, पारसियों और बौद्धों को भारतीयता से एतराज नहीं फिर इस्लाम को ही क्यों? इस्लाम की आत्मरक्षा के लिए भी आवश्यक है कि वह उसी तरह हिन्दुस्तान की सभ्यता, साहित्, इतिहास, वेशभूषा, मनोभाव के साथ समझौता करे जैसे उसने तुर्की, ईरान और सोवियत मध्य-एशिय़ा के प्रजातंत्रों में किया। कामरेड चाहते थे कि राहुल अपने लिखे भाषण में बदलाव करें। उन हिस्सों को हटा दें जहां उन्होंने इस्लाम के भारतीयकरण की बात की है। मामला काफी गंभीर हो गया। राहुल जी भाषण में संशोधन के लिए बिल्कुल तैयार नहीं हो रहे थे। कम्युनिस्ट पार्टी के कामरेड ने उनको पत्र लिखा और कहा कि आप अपने भाषण में आवश्यक रूप से ये कहें कि ये पार्टी का स्टैंड नहीं है। इसका राहुल सांकृत्यायन ने बहुत अच्छा इत्तर दिया । उन्होंने लिखा कि पार्टी की नीति के साथ नहीं होने के कारण वो स्वयं को पार्टी में रहने लायक नहीं समझते हैं और उन्होंने पार्टी छोड़ दी। कुछ ऐसा ही भाव नरेश सक्सेना के त्याग पत्र से भी प्रतिबिंबित हो रहा है। 

एक भयावह उदाहरण है शायर कैफी आजमी की पत्नी शौकत कैफी से जुड़ा।  शौकत कैफी ने अपनी किताब ‘यादों की रहगुजर’ में लिखा है कि जब उनकी शादी हुई तो वो मुंबई में एक कम्यून में रहते थे। उनका जीवन सामान्य चल रहा था। उनके घर एक बेटे का जन्म हुआ था। अचानक सालभर में बच्चा टी बी का शिकार होकर काल के गाल में समा गयॉ। इस विपदा से शौकत पूरी तरह से टूट गई थीं। अपने इस पहाड़ जैसे दुख से उबरने की कोशिश में जैसे ही शौकत को पता चला कि वो फिर से मां बनने जा रही हैं तो उनकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा । अपनी इस खुशी को शौकत ने कम्यून में साझा की । उस वक्त तक शौकत कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता ले चुकी थी । जब शौकत की पार्टी को इसका पता चला तो तो पार्टी ने शौकत से गर्भ गिरा देने का फरमान जारी किया। उस वक्त शौकत पार्टी के इस फैसले के खिलाफ अड़ गईं थी और तमाम कोशिशों के बाद बच्चे को जन्म देने की अनुमति मिली थी। स्वाधीनता, स्त्री अधिकार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात करनेवाले कम्युनिस्ट पार्टी के लोगों को जैसे ही अवसर मिलता है इनको दबाने का पूरा प्रयत्न करते हैं। नरेश सक्सेना इसके हालिया शिकार हैं।  

Saturday, November 9, 2024

अनौपचारिक चर्चा में उठते गंभीर प्रश्न


वर्षों बाद मित्रों से मिलने दिल्ली विश्वविद्यालय जाना हुआ। विश्वविद्यालय के पास विजयनगर की चाय दुकान पर मिलना तय हुआ। ये वही ठीहा है जहां छात्र जीवन में मित्रों के साथ बैठकी होती थी। पुराने दिनों को याद करने और कालेज के जमाने के मित्रों से मिलने का अवसर था। उत्साहित होकर हम सब विजयनगर वाली चाय दुकान पर जुटे। हम छह मित्र थे। वहीं फुटपाथ पर बैठकर छात्र जीवन को याद करने लगे। हमने तय किया था कि राजनीति पर बात नहीं करेंगे। ऐसा संभव नहीं हो सका। आधे पौने घंटे तक दिल्ली विश्वविद्यालय की बातें होती रहीं। इसके बाद बात राष्ट्रीय शिक्षा नीति तक पहुंच गई। मैंने कहा कि ये मोदी सरकार का शिक्षा व्यवस्था में आमूल चूल सुधार करने का बड़ा और ऐतिहासिक कदम है। 1986 के बाद शिक्षा पर विशेष ध्यान नहीं दिया गया था। हमारी शिक्षा व्यवस्था विदेशी भाषा और विदेशी शैक्षणिक तौर तरीकों में उलझी हुई थी। अब अकादमिक जगत के चर्चा के केंद्र में भारतीय ज्ञान परंपरा है। कोई भी सेमिनार या गोष्ठी ऐसी नहीं जिसमें भारतीय ज्ञान परंपरा की बात न हो। स्वाधीनता के बाद पहली बार शिक्षा का भारतीयकरण हो रहा है। मेरे दो मित्र ने सहमति जताई। उसमें से एक ने मेरी बातों में ये जोड़ा कि शिक्षा का ना केवल भारतीयकरण हो रहा है बल्कि विद्यार्थियों और शिक्षकों के मानस में भी परिवर्तन हो रहा है। वो अभी ये बातें कह ही रहा था कि एक मित्र ने हस्तक्षेप किया। उसने कहा कि शिक्षा नीति तो ठीक है, ऐतिहासिक भी है, इससे भारतीयकरण भी हो रहा है, चर्चा भी हो रही है लेकिन इसका क्रियान्वयन बहुत धीरे हो रहा है। मेरा तर्क था कि संभव है कि क्रियान्वयन धीमा हो पर बदलाव में समय तो लगता है। ये कोई सामान नहीं है कि एक को हटाकर उसकी जगह दूसरा रख दिया जाए। 

राष्ट्रीय शिक्षा नीति कि चर्चा में अब राजनीति भी आ गई। एक मित्र, जो शिक्षक संगठन में सक्रिय हैं, अबतक ब्रेड पकौड़ा खा रहे थे। पकौड़े से फारिग होते ही हमारी चर्चा में घुसे और आक्रामक तरीके से बोले कि चार वर्ष बीत गए अबतक पाठ्यक्रम तो बना नहीं पाए। लागू कैसे करेंगे। उनके पास काफी जानकारी थी। उन्होंने कहा कि अभी दिल्ली में शिक्षाविदों की दो दिन की बैठक हुई है जिसमें पाठ्यक्रम बनाने को लेकर चर्चा हुई। उस बैठक में भी इस बात पर सहमति नहीं बन पाई कि पाठ्यक्रम कब तक तैयार हो पाएगा। पुस्तकों की बात तो बाद की है। कांग्रेस तो 2004 में सत्ता में आई थी और 2006 तक सारे पुस्तकों में बदलाव करके अपने अनुकूल सामग्री लागू कर दी थी। यहां तो चार साल में चले ढाई कोस वाली बात है। इसका प्रतिरोध एक अन्य मित्र ने जोरदार तरीके से किया। उसका कहना था कि कांग्रेस के पास एक ईकोसिस्टम था जिसने सबकुछ आनन फानन में कर दिया। इसपर पहले वाले मित्र ने कहा कि दस वर्ष से अधिक हो गए ईकोसिस्टम नहीं बना पाए भाजपा वाले। मेरा तर्क था कि दस और साठ वर्ष में अंतर होता है, इसको समझना होगा। मेरी इस बात पर वो चुप तो हो गया लेकिन बड़बड़ाता रहा कि जब गलत लोगों का चयन करोगो, अपने लोगों पर भरोसा नहीं करोगे, काम नहीं दोगे तो सिस्टम बनेगा कैसे। खैर बातचीत खत्म हो गई। हम सबने फिर से चाय पीने का मन बनाया। चाय आ गई। 

मित्रगण एक दूसरे से मजे भी ले रहे थे। इसमें से दो मित्र बाहर से आए थे। वो दोनों प्रोफेसर हैं। अचानक से विश्वविद्यालय की बात आरंभ हुई। इस बात पर चर्चा होने लगी कि आजकल शिक्षकों के मजे हैं। शिक्षकों के लिए सुविधाएं बहुत हो गई हैं। वो दोनों सहमत थे। ये भी बताया गया कि शिक्षा के क्षेत्र में अब संसाधनों की कमी नहीं है। क्लासरूम बेहतरीन हो गए हैं। चर्चा चल ही रही थी कि एक मित्र ने चुटकी ले ली। सुविधाएं तो अपार हैं समय भी खूब है। क्लास तो लेनी नहीं है। इसपर दोनों भड़क गए। कहने लगे कि हमें जितना काम करना पड़ता है उसकी कल्पना भी बाहर वालों को नहीं है। फिर वो लोग आपस में वर्कलोड आदि की बातें करने लगे। इतने में पहले वाले मित्र जो शिक्षक राजनीति में सक्रिय हैं फिर से टपक पड़े। बोले शिक्षकों के मजे तो होंगे ही। जब 56 केंद्रीय विश्वविद्यालयों में से एक दर्जन से अधिक विश्वविद्यालयों में कुलपति नहीं होंगे तो मजे को कौन रोक सकता है। कामचलाऊ व्यवस्था में तो हर कोई मजे लूटता है। उसकी बात काटते हुए मैंने कहा कि कुलपति चयन की प्रक्रिया में समय तो लगता है। हो जाएगा। हमारे देश में चुनाव भी तो चलते रहते हैं। शिक्षा मंत्री धर्मेन्द्र प्रधान जी चुनाव प्रबंधन के माहिर हैं। पार्टी उनका उपयोग करती है। कुछ विलंब हो गया होगा। इसको इस तरह से पेश करना गलत है। उसने पलटकर विश्वविद्यालयों के नाम गिनाने शुरू कर दिए। वर्धा का हिंदी विश्वविद्यालय, लखनऊ का अंबेडकर विश्वविद्ययालय, गढ़वाल का केंद्रीय विश्वविद्यालय, बंगाल का विश्वभारती विश्वविद्यालय, सिक्किम, अरुणाचल, पुडेचेरी आदि के केंद्रीय विश्वविद्यालय बगैर कुलपति के चल रहे हैं। धमकाने के अंदाज में बोला कि सूची लंबी है कहो तो पूरी गिनाऊं। कुछ विश्वविद्ययालयों के कुलपति का कार्यकाल अभी से लेकर जनवरी तक समाप्त हो जाएगा। बात आगे ना बढ़े इसलिए उसको बदलने का प्रयास करते हुए कहा कि यार तुम तो प्रक्रियागत देरी पर राजनीति करने लग गए। वो माना नहीं कहा कि शिमला के उच्च अध्ययन संस्थान में 2021 से नियमित निदेशक नहीं है। मैं इसका तुरंत उत्तर नहीं दे पाया। 

चर्चा वहीं पहुंच गई जिसको लेकर हम सभी आरंभ से आशंकित थे। अब बारी हमारे दो शिक्षक मित्रों की थी। वो इन तर्कों से सहमत नहीं हो पा रहे थे। उन्होंने कहा कि कांग्रेस की तरह बीजेपी अपने लोगों को भरने की जगह प्रतिभा को प्राथमिकता देती है। कांग्रेस की तरह भाई-भतीजावाद से पद भरने में इस सरकार की रुचि नहीं है। जब से प्रधानमंत्री मोदी ने पद संभाला है उन्होंने इस बात पर सबसे अधिक बल दिया है कि प्रतिभा को किसी भी तरह से हाशिए पर ना रखा जाए। योग्य व्यक्ति को पद मिले। चाहे वो शिक्षा का क्षेत्र हो या विज्ञान का या कला का। कांग्रेस के ईकोसिस्टम को जब भी चुनौती मिलती है तो वो इसी तरह से बिलबिलाने लगते हैं। धर्मेन्द्र प्रधान और उनके पहले के शिक्षा मंत्रियों ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति पर बहुत मेहनत की है। उसको समावेशी बनाने के लिए हजारों लोगों की राय ली गई थी। दिनकर का नाम तो सुना होगा। संस्कृति के चार अध्याय में उन्होंने कहा है कि विद्रोह, क्रांति या बगावत कोई ऐसी चीज नहीं जिसका विस्फोट अचानक होता है। जब शिक्षा के क्षेत्र में ऐतिहासिक बदलाव की बात हो रही है तो उसमें विलंब तो होगा ही। दोनों मित्रों की आक्रामकता देखकर आलोचना करनेवाला मित्र चुप तो हो गया लेकिन फिर धीरे से बोला अगर विश्वविद्यालय और शैक्षणिक संस्थान नेतृत्वविहीन रहेंगी तो बदलाव में संदेह है। इतनी गर्मागर्मी हो गई कि अगली बार मिलने की तिथि नियत न हो सकी। हम घर की ओर चल पड़े।        


Saturday, November 2, 2024

हिंदुओं की वैश्विक व्याप्ति और समाज


महाराष्ट्र और झारखंड में विधानसभा के लिए चुनाव में प्रचार चरम पर है। इन दोनों राज्यों में चुनाव प्रचार के बीच उत्तर प्रदेश की नौ विधानसभा सीटों पर होनेवाले उपचुनाव को लेकर भी राजनीतिक सरगर्मी तेज है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के बंटेंगे तो कटेंगे वाले बयान की काट ढूंढने में विपक्ष परेशान प्रतीत हो रहा है। कभी जीतेंगे तो पिटेंगे जैसा बयान आते हैं तो कभी जुड़ेंगे तो जीतेंगे जैसे नारे होर्डिंग पर लगते हैं। पूरे चुनाव प्रचार में हिंदू और सनातन की ही चर्चा हो रही है। योगी आदित्यनाथ ने तो रामभक्त ही राष्ट्रभक्त का नारा भी दे दिया है। इसपर पलटवार करते हुए अखिलेश यादव ने कहा कि उनका नारा निराशा और नाकामी का प्रतीक है। अखिलेश यादव ने आदर्श राज्य की कल्पना की बात की। यहां वो राम राज्य कहने से बच गए, लेकिन पूरे पोस्ट से भाव यही निकल रहा है। उनके दल के प्रवक्ता भी श्रीरामचरितमानस की चौपाइयां सुना रहे हैं। हिंदू विमर्श और पौराणिक चरित्र विधानसभा चुनाव प्रचार का केंद्रीय विमर्श है। कुछ लोगों को हिंदू और श्रीराम नाम लेने में कष्ट होता है। वो इशारों में अपनी बात कहते हैं। हिंदुओं की एकजुटता और हिंदू वोटरों को अपने पाले में करने के लिए सभी राजनीतिक दल बेचैन हैं। कोई जाति कार्ड खेल रहा है तो कोई जाति जनगणना की बात को हवा दे रहा है। 

हिंदुओं की चिंता सिर्फ विधानसभा चुनावों में नहीं हो रही है बल्कि वैश्विक स्तर पर भी इसको लेकर चर्चा हो रही है। अमेरिका के राष्ट्रपति के चुनाव प्रचार में भी हिंदुओं को लेकर दोनों दल सतर्क हैं। रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रंप ने तो हिंदुओं पर बंगलादेश में हो रहे अत्याचार पर एक लंबी पोस्ट ही लिख डाली। ट्रंप ने लिखा कि वो बंगलादेश में हिंदुओं, ईसाइयों और अन्य अल्पसंख्यों पर होने वाले बर्बर हिंसा की निंदा करते हैं। उन्होंने अपने प्रतिद्वंदी कमला हैरिस और अमेरिका के वर्तमान राष्ट्रपति जो बाइडेन पर आरोप लगाया कि दोनों ने मिलकर अमेरिका और पूरे विश्व में हिंदुओं की अनदेखी की। ट्रंप ने स्पष्ट रूप से ये घोषणा की है कि धर्म के विरुद्ध रैडिकल लेफ्ट के एजेंडा से अमेरिकन हिंदुओं के अधिकारों की रक्षा के लिए वो प्रतिबद्ध हैं। हिंदुओं की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करेंगे। भारत और अपने मित्र प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के साथ बेहतर समन्वय बनाकर चलेंगे। इसके बाद उन्होंने हिंदुओं को दीवाली की शुभकामनाएं दी और कहा कि ये ये पर्व बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक है। उधर डेमोक्रैट पार्टी की उम्मीदवार और अमेरिका की उपराष्ट्रपति कमला हैरिस ने भी दीवाली मनाई। दीवाली मनाते हुए उनका वीडियो उनकी टीम ने इंटरनेट मीडिया पर साझा किया। जो बाइडेन ने भी व्हाइट हाउस में अपने परिवार के साथ दीवाली मनाई। जिस तरह से अमेरिका के चुनाव में हिंदुओं की बात हो रही है उतना खुलकर तो यहां भी हिंदुओं और हिंदू धर्म की चर्चा नहीं होती है। पिछले दिनों जब ब्रिटेन में चुनाव हुआ था तो वहां भी प्रधानमंत्री पद के दोनों उम्मीदवारों ने मंदिरों में जाकर पूजा आदि की थी। ऋषि सुनक ने तो खुलकर हिंदू देवी देवताओं के बारे में श्रद्धापूर्वक बात की थी। 

एक तरफ अमेरिका के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार बंगलादेश में हिंदुओं पर होनेवाले अत्याचार पर खुलकर बोल और लिख रहे हैं वहीं दूसरी तरफ हमारे देश में कई दलों के नेता इस मुद्दे पर खामोशी ओढे हुए हैं। जब भी बंगलादेश में हिंदुओं पर होनेवाले अत्याचार की चर्चा होती है और इन दलों के नेताओं या प्रवक्ताओं से इस बाबत प्रश्न पूछा जाता है तो वो अपने उत्तर के साथ साथ फिलस्तीन का मुद्दा भी उठा देते हैं। वो ये भूल जाते हैं कि फिलिस्तीनी आतंकवादियों ने इजरायल में घुसकर ना केवल नरसंहार किया बल्कि सैकड़ों बच्चों और महिलाओं को बंधक भी बना लिया था। इस क्रिया की प्रतिक्रिया में फिलस्तीन पर इजरायल हमले कर रहा है। इससे उलट बंगलादेश में तो हिंदुओं ने किसी प्रकार की कोई हिंसा नहीं की। उनपर तो वहां के बहुसंख्यकों ने अकारण हमले किए। हिंदुओं की हत्या की गई। मंदिरों को तोड़ा गया। जब भारत के सभी राजनीतिक दलों को इस हमले के खिलाफ एक स्वर में बोलना चाहिए था उस वक्त ये किंतु परंतु में अटके रहे। अब भी हैं। इसका कारण क्या हो सकता है। एक वजह है वोटबैंक की राजनीति। जो दल अल्पसंख्यकों विशेषकर मुसलमानों की राजनीति करते हैं उनको लगता है कि बंगलादेश में हिदुओं पर हो रहे हमलों का विरोध करने से उनका वोटबैंक दरक सकता है। इस कारण वो हिंदुओं पर होनेवाले हमले को लेकर तटस्थ हो जाते हैं। धर्म और राजनीति के घालमेल की आड़ लेते हैं। तर्क होता है कि धर्म को राजनीति से अलग रखना चाहिए। इस तर्क को इकोचैंबर में बैठे तथाकथित बुद्धिजीवी हवा देते हैं। ऐसा माहौल बनाते हैं कि राजनीति से धर्म को अलग रखना चाहिए। दरअसल इकोचैंबर वाले बुद्धिजीवी ये नहीं समझ पाते कि मार्क्स ने जिस धर्म की बात की थी और जो भारत का धर्म है वो दोनों बिल्कुल अलग हैं। 

आज पूरी दुनिया हिंदुओं की ओर देख रही है। वो सनातन धर्म को समझना चाहती है। हिंदुओं की उस जीवन शैली को समझना चाहती है जिसकी इकाई परिवार है। एकल परिवार से ऊब चुकी दुनिया भारतीय परिवारों और उनके बीच के लगाव को समझना चाहती है। संस्कारों के बारे में जानने को उत्सुक है। हिंदू धर्म और अध्यात्म को लेकर वैश्विक स्तर पर एक रुझान देखा जा रहा है। ऐसे में अपने देश में हिंदुओं और उनके ग्रंथों को लेकर और सनातन पर अपमानजनक टिप्पणियां करनेवालों को पुनर्विचार करना चाहिए। जब पूरी दुनिया हिंदुओं की ओर देख रही है ऐसे में अपने ही देश में हिंदुओं को लेकर घृणा भाव बहुत दिनों तक चलनेवाला नहीं है। हिंदू धर्म में जो भी कुरीतियां हों उसको दूर करने का सामूहिक प्रयास किया जाना चाहिए। ऐसा पहले होता भी रहा है। हिंदू समाज के अंदर से ही कोई ना कोई सुधारक आता है जो कुरीतियों पर प्रहार करता है और वृहत्तर हिंदू समाज उसको स्वीकार करता है। कुरीतियों और रूढ़ियों के आधार पर हिंदू समाज को बांटने का जो षडयंत्र चल रहा है उसका निषेध हिंदू समाज ही करेगा। अगर कोई सोचता है कि हिंदू समाज को अपमानित करके अपने वोटबैंक को मजबूत कर लेगा तो वो गलतफहमी में है। हिंदू एकता पर पहले भी बातें होती रही हैं, साहित्य में भी इसके उदाहरण मिलते हैं और इतिहास में भी। रामचंद्र शुक्ल से लेकर शिवपूजन सहाय और रामवृक्ष बेनीपुरी के लेखन में हिंदुओं को संगठित होने की अपेक्षा की गई है। यह अकारण नहीं है कि आज प्रबुद्ध हिंदू समाज भी इस ओर सोचने लगा है। सहिष्णुता हिंदुओं का एक दुर्लभ गुण है लेकिन सहिष्णुता को अगर निरंतर छेड़ा या कोंचा जाएगा तो एक दिन उसकी प्रतिक्रिया तो होगी ही। स्वाधीनता के बाद से ही विचारधारा विशेष के लोगों ने हिंदुओं को अपमानित करने का योजनाबद्ध तरीके से लेकिन परोक्ष रूप से उपक्रम चलाया। ऐसा करनेवाले अब परिधि पर हैं और हिंदू केंद्र में।