गोवा में आयोजित इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में जानेवालों की अपेक्षा होती है कि उनको कुछ बेहतरीन विदेशी फिल्में देखने को मिल जाएं। वहां पहुंचने वाले सिनेमाप्रेमी फेस्टिवल के शेड्यूल में से अपनी पसंद की फिल्में तलाशते और उसपर चर्चा करते नजर आते हैं। हाल ही में गोवा में समाप्त हुए फिल्म फेस्टिवल में सात भारतीय क्लासिक फिल्मों को भी नेशनल फिल्म आर्काइव आफ इंडिया ने रिस्टोर (मूल जैसा बनाया) किया। इन फिल्मों का प्रदर्शन फेस्टिवल के दौरान हुआ। इन फिल्मों को दर्शकों ने पसंद किया लेकिन सबसे अधिक रोमांच तो दादा साहब फाल्के की 1919 में बनाई गई फिल्म कालिया मर्दन को देखते समय हुआ। दादा साहब फाल्के ने 1919 में जब इस फिल्म का निर्माण किया था तो बाल कृष्ण की भूमिका उनकी बेटी मंदाकिनी फाल्के ने की थी। ये मूक फिल्म थी। करीब 50 मिनट की इस फिल्म को लाइव संगीत के साथ प्रदर्शित किया गया। उन 50 मिनट में दर्शक मूक फिल्मों के दौर में चले गए थे। जहां पर्दे पर पात्र अपने हाव भाव से दृष्य को जीवंत करते थे और पर्दे के नीचे या साथ बैठे साजिंदे अपने वाद्ययंत्रों से संगीत देकर उन दृष्यों में रोचकता पैदा करते थे। कालिया मर्दन फिल्म में जब नदी में खेल रहे बाल कृष्ण को महिलाएं गोद में लेकर ऊपर उठातीं तो हाल में बैठे आर्केस्ट्रा से निकलने वाला संगीत गजब का प्रभाव पैदा करता था। पर्दे पर जब बाल कृष्ण बांसुरी बजाते तो हाल में बैठा बांसुरी वादक वैसे ही धुन निकालता।
एक बेहद ही मजेदार दृष्य है इस फिल्म है। कृष्ण और उनके बाल सखा को गांव की एक महिला अपमानित करती है। उन शरारती बच्चों पर पानी फेंक देती है। इससे कृष्ण जी क्षुब्ध हो जाते हैं। अपने साथियों के साथ उस महिला के घर में घुसकर माखन चोरी कर लेते हैं। माखन चोरी से क्रोधित वो महिला कृष्ण के साथियों को पीट देती है। अपमानित बालकों ने महिला से बदला देने की ठानी। एक रात कृष्ण जी उनके घर में घुस जाते हैं। महिला अपने पति के साथ सो रही होती है। नटखट कृष्ण ने सोते हुए पुरुष की दाढ़ी और महिला के बाल आपस में बांध दिए। बाद में जब वो उस कमरे से निकलने का प्रयास करते हैं तो असफल हो जाते हैं। बाल कृष्ण की बदमाशियों को दादा साहब फाल्के ने जिस खूबसूरती के साथ दिखाया है कि आज भी दर्शक आनंदित हो उठते हैं। उनको ये याद ही नहीं रहता है कि इस लंबे दृष्य में किसी तरह का कोई संवाद नहीं है। है तो सिर्फ पार्श्व संगीत। फेस्टिवल के समापन समारोह में रमेश सिप्पी ने इस बात को रेखांकित किया कि आज से 105 वर्ष पहले बनी फिल्म कितनी सुंदर थी और किस तरह से उसमें कहानी को आगे बढ़ाया गया है। उन्होंने फिल्म के कैमरा वर्क की प्रशंसा भी की। यह अनायस नहीं है कि दादा साहब फाल्के को भारतीय फिल्म जगत का पितामह कहा जाता है। इसके अलावा राज कपूर की मास्टरपीस फिल्म आवारा, देवानंद कि हम दोनों, तपन सिन्हा की हारमोनियम, ए नागेश्वर राव की तेलुगु फिल्म देवदासु और सत्यजित राय की सीमाबद्ध और ख्वाजा अहमद अब्बास की सात हिन्दुस्तानी को भी रिस्टोर करके दिखाया गया। नेशनल फिल्म हेरिटेज मिशन के अंतर्गत इन फिल्मों पर काम हुआ। यह कार्य महत्वपूर्ण है।
हम वापस लौटते हैं फिल्म कालिया मर्दन की ओर। आज से 105 वर्ष पहले बनी इस फिल्म के केंद्र में श्रीकृष्ण का बाल स्वरूप है। उस दौर में जितनी भी फिल्में बन रही थीं सभी भारतीय पौराणिक कथाओं और पात्रों पर आधारित थीं। दादा साहब फाल्के की पत्नी ने उनको कृष्ण के व्यक्तित्व के अलग अलग शेड्स पर फिल्में बनाने के लिए प्रेरित किया। इसके लिए उनकी पत्नी ने अपने गहने गिरवी रखे। उससे मिले पैसे को लेकर फाल्के लंदन गए और वहां से सिनेमैटोग्राफी सीखकर वापस लौटे। अब उनके सामने अपने सपने को साकार करने की चुनौती थी। उन्होंने पहले कृष्ण और फिर राम पर फिल्म बनाने की कोशिश की लेकिन संसाधन के अभाव में उसको छोड़ना पड़ा। फिर राजा हरिश्चंद्र की कहानी पर काम आरंभ किया। विज्ञापन के बावजूद कोई महिला इस फिल्म में अभिनय के लिए तैयार नहीं हो रही थी। निराशा बढ़ती जा रही थी। पास की दुकान में चाय पीने गए। वहां चायवाले लड़के, सालुंके, पर उनकी नजर पड़ी और उस लड़के को तारामती के रोल के लिए तैयार किया गया। इस तरह भारतीय फिल्म में एक पुरुष ने पहली अभिनेत्री का रोल किया। ‘राजा हरिश्चंद्र’ फिल्म बन गई। 3 मई 1913 को बांबे के कोरोनेशन हॉल में उसका प्रदर्शन हुआ। फिल्म लगातार 12 दिन चली। 1914 में लंदन में प्रदर्शित हुई। इनकी दूसरी फिल्म ‘भस्मासुर मोहिनी’ में नाटकों में काम करनेवाली कमलाबाई गोखले ने अभिनय किया। कमला बाई को फिल्म में अभिनय के लिए उस वक्त फाल्के साहब ने आठ तोला सोना, दो हजार रुपए और चार साड़ियां दी थीं। इसके बाद इन्होंने ‘कृष्ण जन्म’ बनाई। कहते हैं कि इस फिल्म ने इतनी कमाई की कि टिकटों की बिक्री से जमा होनेवाले सिक्कों को बोरियों में भरकर ले जाना पड़ता था। सफलता के बाद इनको फाइनेंसर मिल गया। उन्होंने हिंदुस्तान फिल्म कंपनी बनाई। इसी फिल्म कंपनी से दादा साहब फाल्के ने कालिया मर्दन फिल्म का निर्माण किया। फाल्के साहब ने अपने जीवन काल में करीब 900 लघु फिल्में और 20 फीचर फिल्में बनाईं। भारतीय सिनेमा के शोधार्थियों को इस बात की पड़ताल करनी चाहिए कि दादा साहब फाल्के भारतीय पौऱाणिक पात्रो को लेकर ही फिल्में क्यों बनाते रहे।
जिस तरह से नेशनल फिल्म हेरिटेज मिशन के अंतर्गत पुरानी भारतीय फिल्मों को रिस्टोर करने का कार्य हो रहा है, उसको और बढ़ाने और भारतीय दर्शकों तक पहुंचाने की आवश्यकता है। स्वाधीनता के बाद फिल्मी दुनिया में कई ऐसे निर्माता निर्देशक आए जिन्होंने जो वामपंथी विचार के प्रभाव वाले थे। स्वाधीनता के बाद तत्कालीन भारत सरकार फिल्मी जगत के लोगों को सोवियत रूस भेजकर उनके प्रभाव में आने का रास्ता खोल रही थी। अनके पुस्तकों और दस्तावेजों में इस बात का उल्लेख मिलता है कि किस तरह से सोवियत रूस ने अपने विचारों को भारत में फैलाने के लिए फिल्म और साहित्य जगत का उपयोग किया और सफलता भी प्राप्त की। रूस को सफलता इस कारण मिली क्योंकि उस समय भारत सरकार का सहयोग उनको प्राप्त था। गीतों से लेकर संवाद में पूंजी और पूंजीपतियों पर परोक्ष रूप से हमले शुरु हो गए थे। जमींदारों से लेकर पैसेवालों को बुरा आदमी दिखाने की प्रवृत्ति जोर पकड़ने लगी थी। पूंजीवादी व्यवस्था के कथित दुर्गुणों को फिल्मों में प्रमुखता से दिखाकर भारतीय जनमानस पर साम्यवादी विचारधारा को थोपने का प्रयास हुआ। कहा जाता है कि उस समय से प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का भी परोक्ष समर्थन इस कार्य के लिए था। अगर नेशनल फिल्म हेरिटेज मिशन अपने काम में तेजी लाती है, इसको सरकार की तरफ से उचित संसाधन उपलब्ध होता है तो संभव है कि आनेवाले दिनों में भारतीय फिल्मों के इतिहास को फिर से लिखने की आवश्यकता पड़े। इसके साथ ही विश्वविद्यालयों में भारतीय फिल्मों की प्रवृत्तियों पर जो कार्य हो रहे हैं उनकी भी दिशा बदल सकती है।
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