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Monday, June 16, 2025

चाहने और हासिल करने का अंतर


हम दिल दे चुके सनम, नाम से ही पता चलता है कि ये प्रेम कहानी है। शीर्षक में चुके शब्द इस बात की ओर भी संकेत करता है कि ये प्रेम त्रिकोण होगा। आज से 25 वर्ष पूर्व फिल्म हम दिल दे चुके सनम प्रदर्शित हुई थी। इसमें सलमान खान और ऐश्वर्या राय के साथ तीसरे कोण के रूप में अजय देवगन थे। उस समय की फिल्मी पत्रिकाओँ में इस बात की चर्चा मिलती है कि निर्देशक संजय लीला भंसाली अपनी फिल्म में अभिनेत्री के रूप में माधुरी दीक्षित को लेना चाह रहे थे। माधुरी के पास डेट्स की समस्या थी। माधुरी के इंकार के बाद दूसरी नायिका की तलाश आरंभ हुई। इसी दौर में संजय लीला भंसाली ने ऐश्वर्या को कहीं देखा और तय कर लिया कि यही उनकी फिल्म की नायिका है। ऐश्वर्या राय तबतक मिस वर्ल्ड का खिताब जीतकर तमिल फिल्मों में सफल हो चुकी थीं। हिंदी फिल्मों में सफलता मिलनी शेष थी। ऐश्वर्या की मुस्कुराहट को फिल्म समीक्षक प्लास्टिक मुस्कान करार दे चुके थे। इस स्थिति में संजय लीला भंसाली ने ऐश्वर्या को अपनी फिल्म में कास्ट करने का जोखिम उठाया। उसके बाद की कहानी को इतिहास बन गई। फिल्म जबरदस्त हिट रही थी। हलांकि इसके बाद सलमान और ऐश्वर्या राय ने कभी भी एक साथ किसी फिल्म में लीड रोल नहीं किया।  

हम दिल दे चुके सनम फिल्म का कथानक मैत्रेयी देवी के उपन्यास ना हन्यते और रोमानिया के लेखक मिरसिया के उपन्यास से प्रेरित लगता है। फिल्म के रिलीज होने के बाद इसकी चर्चा भी हुई थी। मिरसिया के उपन्यास का नायक भी भारत पढ़ने आया था, नायिका के घर रुका था, साथ पढ़ाई की थी, प्रेम हुआ था और फिर अलगाव। उपन्यास में बंगाल का परिवेश है जबकि फिल्म में गुजरात का। कथानक का फिल्मांकन संजय लीला भंसाली ने बेहद खूबसूरती के साथ किया है। विदेशी लोकेशन पर आकर्षक दृश्यों मे फिल्म की कहानी के साथ न्याय किया है। फिल्म रिलीज होने के पहले ही इसके गाने दर्शकों के बीच बेहद लोकप्रिय हो चुके थे। कविता कृष्णूमूर्ति और करसन की आवाज में गाया गाना ‘निंबूड़ा निंबूडा’ हो या कविता विनोद राठौर और करसन की आवाज में गाया ‘ढोली तारो ढोल बाजे’ हो आज भी पसंद किए जाते हैं। संजय लीला भंसाली की एक विशेषता ये है कि वो अपनी फिल्म में लोक से उठाकर एक गीत अवश्य रखते हैं। बोल और संगीत भी उसी अनुसार तय करते हैं। आप पद्मावत का गाना घूमर घूमर या बाजीराव मस्तानी का पिंगा गपोरी याद करिए। भंसाली भारतीय लोक के मन को पकड़ना जानते हैं। उन्होंने हम दिन दे चुके सनम के गीतों से दर्शकों को खींचा। 

इन दिनों इंदौर की एक लड़की का अपने प्रेमी के लिए पति का कत्ल करने का समाचार चर्चा में है। हम दिल दे चुके सनम की नायिका नंदिनी माता पिता की मर्जी से शादी करती है। वो समीर से प्यार करती है लेकिन शादी वनराज से करनी पड़ती है। पति को जब समीर के बारे में पता चलता है तो वो उसकी खोज में पत्नी के साथ इटली जाता है। वहां नंदिनी और समीर मिलते हैं। दोनों को साथ छोड़कर वनराज वहां से हट जाता है। समीर अपने सामने नंदिनी को पाकर बेहद खुश है। कहता है कि मुझे पता था कि तुम जरूर आओगी, आई लव यू। वो उसको अपने आलिंगन में लेता है लेकिन नंदिनी बेजान सी खड़ी रही है। कहती है, चाहने और हासिल करने में बहुत फर्क है। बात आगे बढ़ती है तो नंदिनी अपने प्रेमी को कहती है, प्यार करना तुमने सिखाया लेकिन प्यार निभाना मैंने अपने पति से सीखा। रोचक संवाद के बाद नंदिनी आंसू पोछती है और अपने प्रेमी को छोड़कर पति के पास वापस लौट जाती है। आज इस बात को लेकर हिंदी के फिल्मकार परेशान हैं कि उनकी फिल्में सफल नहीं हो रही हैं। असफलता का एक कारण ये हो सकता है कि हिंदी फिल्में भारतीय मूल्यों से दूर चली गई हैं जो दर्शकों को भा नहीं रही हैं। 

Saturday, June 14, 2025

रील्स की मायावी दुनिया का धोखा


आज से करीब दो दशक पूर्व की बात है। तब मैत्रेयी पुष्पा का हिंदी साहित्य में डंका बज रहा था। एक के बाद एक चर्चित उपन्यास लिखकर उन्होंने साहित्य जगत में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज की थी। गोष्ठियों में भी उनकी मांग थी। लोग उनको सुनना चाहते थे। मैत्रेयी पुष्पा भी अपने ग्रामीण अनुभवों के आधार पर बात रखती तो महानगरीय परिवेश में रहनेवालों को नया जैसा लगता। मुझे जहां तक याद पड़ता है कि दिल्ली के हिंदी भवन में एक गोष्ठी थी। उसमें मैत्रेयी पुष्पा भी वक्ता थीं। विषय स्त्री विमर्श से जुड़ा हुआ था। मैत्रेयी के अलावा जो भी वक्ता थीं वो स्त्री विमर्श को लेकर सैद्धांतिक बातें कर रही थी। मंच से बार बार सीमोन द बोव्आर के उपन्यास सेकेंड सेक्स का नाम लिया जा रहा था। सीमोन की स्थापनाओं पर बात हो रही थी और उसको भारतीय परिदृष्य से जोड़कर बातें रखी जा रही थीं। उनमें से अधिकतर ऐसी बातें थीं जो अमूमन स्त्री विमर्श की गोष्ठियों में सुनाई पड़ती ही थीं। अब बारी मैत्रेयी के बोलने की थी। उन्होंने माइक संभाला और फिर बोलना आरंभ किया। स्त्री विमर्श पर आने के पहले उन्होंने एक ऐसी बात कही जो उस समय नितांत मौलिक और उनके स्वयं के अनुभवों पर आधारित थी। उन्होंने कहा कि जब से औरतों के हाथ में मोबाइल पहुंचा है वो बहुत सश्कत हो गई हैं। उनको एक ऐसा सहारा या साथी मिल गया जो वक्त वेवक्त उनके काम आता है, उनकी मदद करता है। गांव की महिलाएं भी घूंघट की आड़ से अपनी पीड़ा दूर बैठे अपने हितचिंतकों को या अपने रिश्तेदारों को बता सकती हैं। संकट के समय मदद मांग सकती हैं। इस संबंध में मैत्रेयी पुष्पा ने कई किस्से बताए जो उनकी भाभी से जुड़े हुए थे। मैत्रेयी पुष्पा ने अपने गंवई अंदाज में मोबाइल को स्त्री सशक्तीकरण से जोड़कर ऐसी बात कह दी जो उनके साथ मंच पर बैठी अन्य स्त्रियों ने शायद सोची भी न होगी। जब मैत्रेयी बोल रही थीं तो सभागार में जिस प्रकार की चुप्पी थी उससे ऐसा प्रतीत हो रहा था कि अधिकतर लोग उनकी इस स्थापना से सहमत हों। 

आज से दो दशक पहले मैत्रेयी पुष्पा ने जब ऐसा बोला था तब शायद ही सोचा होगा कि मोबाइल स्त्रियों और पुरुषों की दबी आकांक्षाओं के प्रदर्शन का भी कारक भी बनेगा। पिछले दिनों मित्रों के साथ स्क्रीन पर व्यतीत होनेवाले समय पर बातचीत हो रही थी। चर्चा में सभी ये बताने में लगे थे कि किन किन प्लेटफार्म पर उनका अधिक समय व्यतीत होता है। ज्यादातर मित्रों का कहना था कि इंस्टा और एक्स की रील्स देखने में समय जाता है। इस चर्चा में ही एक मित्र ने कहा कि वो जब घरेलू और अन्य महिलाओं के वीडियो देखते हैं तो आनंद दुगुना हो जाता है। जिनको डांस करना नहीं आता वो भी डांस करते हुए वीडियो डालती हैं। कई बार तो पति पत्नी के बीच के संवाद भी रील्स में नजर आते हैं। उसमें वो रितेश देशमुख और जेनेलिया की भोंडी नकल करने का प्रयास करते हैं। इस चर्चा के बीच एक बहुत मार्के की बात निकल कर आई। इंस्टा की रील्स एक ऐसा मंच बन गया है जो महिलाओं और पुरुषों के मन में दबी आकांक्षाओं को भी सामने ला रही हैं। जिन महिलाओं को चर्चित होने का शौक था, जिनको पर्दे पर आने की इच्छा थी, जिनको डांस सीखने और मंच पर अपनी कला को प्रदर्शित करने की इच्छा थी वो सारी इच्छाएं पूरी हो रही हैं। रील्स और इंस्टा के पहले इस तरह की आकांक्षाएं मन में ही दबी रही जाती थीं। उनके अंदर कुंठा पैदा करती थीं। मोबाइल और इंटरनेट की सुविधा नहीं होने से जो महिलाएं नृत्य कला का प्रदर्शन करना चाहती थीं वो कर नहीं पाती थीं। इसमें बहुत सी अधेड़ उम्र की महिलाओं को भी रील्स में देखा जा सकता है। कई तो अजीबोगरीब करतब करते हुए नजर आती हैं। लेकिन अपने मन का कर तो रही हैं। रील्स का ये एक सकारात्मक पक्ष माना जा सकता है। जैसे मोबाइल फोन ने महिलाओं को सशक्त किया उसी तरह से इंटरनेट और इंटरनेट प्लेटफार्म्स ने महिलाओं की आकांक्षाओं को पंख दिए। अब वो बगैर किसी लज्जा के, संकोच के अपने मन का कर रही हैं और समाज के सामने उसको प्रदर्शित भी कर रही हैं। 

रील्स को लेकर पहले भी इस स्तंभ में चर्चा हो चुकी है जिसमें रोग से लेकर शेयर बाजार में निवेश के टिप्स तक और धन कमाने से लेकर भाग्योदय तक के नुस्खों को केंद्र में रखा गया था। रील्स पर हो रही चर्चा में एक चिकित्सक मित्र ने एक मजेदार बात कही। उन्होंने कहा कि रील्स ने डाक्टरों का बहुत फायदा करवाया है। रील्स देखकर स्वस्थ रहने के नुस्खे अपनाने वाले लोग बढ़ते जा रहे हैं। स्वस्थ रहने के तरीकों को देखकर उनको अपनाने से बहुधा समस्या हो जा रही है। जैसे रील्स में सेंधा नमक को लेकर बहुत अच्छी-अच्छी बातें कही जाती हैं। सलाह देनेवाले सेंधा नमक को स्वास्थ्य के लिए उपयोगी बताते हैं। रील्स देखकर लोग सेंधा नमक खाने लग जाते हैं। बगैर ये सोचे समझे कि आयोडाइज्ड नमक खाने के क्या लाभ थे और छोड़ देने के क्या नुकसान। जब शरीर में सोडियम पोटाशियम का संतुलन बिगड़ता है तो चिकित्सकों के पास भागते हैं। पता चलता है कि ये असंतुलन निरंतर सेंधा नमक ही खाते रहने से हुआ। अगर आयोडाइज्ड नमक भी खाते रहते तो सभवत: ऐसा नहीं होता। स्वस्थ रहने के इसी तरह के कई नुस्खे आपको इंस्टाग्राम पर मिल जाएंगे। सभी इस तरह से बताए जाते हैं कि देखनेवालों का एक बार तो मन कर ही जाता है कि वो उसको अपना लें। इस बात का उल्लेख रील्स में नहीं होता है कि सलाह देनेवाले चिकित्सक या न्यूट्रिशनिस्ट हैं या नहीं। 

रील की दुनिया बहुत मनोरंजक है। समय बहुत सोखती है। कई बार वहां अच्छी सामग्री भी मिल जाती है लेकिन एआई के इस दौर में प्रामाणिकता को लेकर संशय मन में बना रहता है। किसी का भी वीडियो बनाकर उसमें उनकी ही आवाज पिरोकर वायरल करने का चलन भी बढ़ रहा है। ऐसे में इस आभासी दुनिया को सिर्फ और सिर्फ मनोरंजन के लिए ही उपयोग किया जाना चाहिए। मन में दबी इच्छाओं को पूर्ण करने का मंच माना या बनाया जा सकता है। इस माध्यम को गंभीरता से लेने की आवश्यकता नहीं है। ऐसा प्रतीत होता है कि वो दिन दूर नहीं जब लोग इससे ऊबकर फिर से छपे हुए अक्षरों की ओर लौटेंगे। जिस प्रकार की प्रामाणिकता प्रकाशित शब्दों या अक्षरों की होती है वैसी इन आभासी माध्यमों में नहीं होती है। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि अभी इस माध्यम का समाज पर प्रभाव पड़ रहा है। लोग कई बार यहां सुझाई या कही गई बातों को सही मानकर अपनी राय बना लेते हैं। लेकिन जैसे-जैसे देश में शिक्षितों की संख्या बढ़ेगी, लोगों की समझ बनेगी तो इसको विशुद्ध मनोरंजन के तौर पर ही देखा जाएगा सूचना के माध्यम के तौर पर नहीं। 


Saturday, June 7, 2025

कम्युनिस्ट नैरेटिव के नामवर आलोचक

हिंदी आलोचना में नामवर सिंह का नाम आदर के साथ लिया जाता रहा है। आरंभिक दिनों में उन्होंने विपुल लेखन किया। कालांतर में लेखन उनसे छूटा। वो भाषण और व्याख्यान की ओर मुड़ गए। दोनों स्थितियों में नामवर सिंह ने कम्युनिस्ट पार्टी के लिए कार्य किया। उनके निर्देशों के आधार पर नैरेटिव बनाने और बिगाड़ने का खेल खेला। आलोचना में भी उन्होंने नैरेटिव ही गढ़ा। उनके लेखों के विश्लेषण से ये स्पष्ट है। नामवर सिंह के शिष्यों ने उनके व्याख्यानों का लिप्यांतरण करके पुस्तकें प्रकाशित करवाईं। पिछले दिनों नामवर सिंह के पुत्र विजय प्रकाश सिंह और उनके जीवनीकार अंकित नरवाल ने एक पुस्तक संकलित-संपादित की, जमाने के नायक। प्रकाशन वाणी प्रकाशन से हुआ है। पुस्तक की भूमिका में नरवाल ने नामवर सिंह के बनने और सुदृढ होने को रेखांकित किया। उनकी प्रशंसा की, जो स्वाभाविक ही है। इस पुस्तक के लेखों में नामवर सिंह की आलोचना में फांक दिखती है। आलोचक कम पार्टी कार्यकर्ता अधिक लगते हैं। जिन साहित्यिक घटनाओं और कथनों को उद्धृत करके स्थापना देते हैं वो उनकी आलोचकीय ईमानदारी और विवेक
को संदिग्ध बनाती है। राष्ट्रीय पुस्तक न्यास से प्रकाशित पुस्तक ‘लेनिन और भारतीय साहित्य’ से साभार नामवर सिंह का एक लेख इस पुस्तक में है। नामवरीय आलोचना का ऐसा उदाहरण जो उनकी छवि को धूमिल करता है। नामवर सिंह 1917 के बाद भारत की राजनीति को लेनिन से जोड़कर रूसी क्रांति के प्रभाव की पताका फहराते हैं। साहित्य में भी।  वो लिखते हैं, साहित्य का इस वातावरण से सर्वथा अस्पृष्ट रहना असंभव था। 1936 में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना आकस्मिक नहीं बल्कि इन घटनाओं की सहज परिणति थी जिसके संगठनकर्ता लेनिन के विचारों को मानने वाले नौजवान कम्युनिस्ट थे, किंतु जिसमें निराला और पंत जैसे हिंदी के कवियों ने सहर्ष भाग लिया और अखिल भारतीय ख्याति के कथाकार प्रेमचंद ने जिसके अधिवेशन की अध्यक्षता की।

इसी पुस्तक में एक और लेख संकलित है, गोर्की और हिंदी साहित्य। यहां वो जोर देकर कहते हैं कि, तथ्य है कि गोर्की की मृत्यु से तीन महीने पहले प्रेमचंद प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना में योग देकर भारत में प्रगतिशील साहित्य के आंदोलन का सूत्रपात कर चुके थे। प्रगतिशील लेखक संघ के प्रथम अधिवेशन के अध्यक्ष पद से उन्होंने जो भाषण दिया था, वो गोर्की के विचारों का भारतीय भाष्य मात्र नहीं बल्कि भारत को अपने ऐतिहासिक संदर्भ में निर्मित साहित्य का सर्जनात्मक दस्तावेज है। यहां वो फिर से ये कहते हैं कि प्रेमचंद ने प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन की अध्यक्षता की। नामवर ऐसा कहते हुए कहीं भी किसी सोर्स का उल्लेख नहीं करते हैं। सुनी-सुनाई बातें बार-बार लिखते हैं। नामवर सिंह और उन जैसे अन्य पार्टी लेखकों के कहने पर मान लिया गया कि प्रेमचंद ने अध्यक्षता की थी। नामवर को किसी दस्तावेज आदि के आधार पर ये कहना चाहिए था। उल्लेख तो इस बात का भी मिलता है कि प्रेमचंद जैनेन्द्र के कहने पर अधिवेशन में शामिल होने चले गए थे। उनका भाषण देने का कार्यक्रम नहीं था। जब अधिवेशन में पहुंचे तो वहां उपस्थित साहित्यकारों ने उनसे आग्रह किया और वो मंच से बोले। इसको प्रचारित करवा दिया गया कि प्रेमचंद प्रगतिशील लेखक संघ के संस्थापकों में से थे। बाद में संशोधन कर कहा जाने लगा कि वो पहले अधिवेशन के अध्यक्ष थे। अब प्रेमचंद के प्रगतिशील लेख संघ में दिए गए भाषण के अंश को देखते हैं, ‘प्रगतिशील लेखक संघ यह नाम ही मेरे विचार से गलत है। साहित्यकार या कलाकार स्वभावत: प्रगतिशील होता है। अगर वो इसका स्वभाव न होता तो शायद वो साहित्कार ही नहीं होता। उसे अपने अंदर भी एक कमी महसूस होती है, इसी कमी को पूरा करने के लिए उसकी आत्मा बेचैन रहती है।‘ सामान्य सी बात है कि अगर वो अध्यक्षता कर रहे होते तो ये प्रश्न नहीं उठाते। नामवर सिंह कहते हैं कि प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना में उनका योगदान था। अगर योगदान होता तो प्रगतिशीलता के नाम पर प्रेमचंद संघ के संस्थापकों के साथ पहले चर्चा करते। मंच से आपत्ति क्यों करते। अजीब मनोरंजक बात है कि लेखक संघ का नाम तय हो रहा था और स्थापना में योगदान करनेवाले को पता नहीं था। 

नामवर सिंह कम्युनिस्ट पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़े थे। पार्टी के बाहर के लेखकों को वो येन केन प्रकारेण कम्युनिस्ट विचारधारा से प्रभावित साबित करने में लगे रहते थे। इसके लिए चाहे किसी भी शब्द की कैसी भी व्याख्या क्यों न करनी पड़े। इसके पीछे भी लेनिन की सीख थी। उक्त लेख में नामवर सिंह ने उल्लेख किया है, लेनिन का एक निबंध पार्टी साहित्य और पार्टी संगठन, जिसमें पार्टी लेखकों से पूरी पक्षधरता का आग्रह किया गया था। नामवर सिंह ने लेनिन की पक्षधरता वाली बात अपना ली। अब निराला को लेनिन के प्रभाव में बताने के लिए वो उनकी 1920 की एक कविता बादल राग की पंक्तियां लेकर आए। पंक्ति है- तुझे बुलाता कृषक अधीर/ऐ विप्लव के वीर। अब इस पंक्ति में चूंकि कृषक भी है और विप्लव भी तो निराला कम्युनिस्ट हो गए। विप्लव शब्द का प्रयोग निराला बांग्ला के प्रभाव में करते रहे हैं। राम की शक्ति पूजा से लेकर तुलसीदास जैसी उनकी लंबी कविता में भी ये प्रभाव दिखता है। खेत-खलिहान, किसान-मजदूर को बहुत आसानी से नामवर सिंह जैसे नैरेटिव-मेकर्स ने सर्वाहारा बना दिया था। नामवर सिंह ने तो जयशंकर प्रसाद को भी लेनिन से प्रभावित बता दिया। दिनकर की कविता में लेनिन शब्द आया तो उसपर लेनिन के विचारों का प्रभाव। वो स्वाधीनता के आंदोलन और आंदोलनकर्ताओं की भावनाओं को नजरअंदाज करके उसपर लेनिन की छाप बताने में लगे रहे। लेखकों को कम्युनिस्ट घोषित और स्थापित करते रहे, तथ्यों की व्याख्या से छल करते हुए। प्रेमचंद अगर कह रहे हैं कि आनेवाला जमाना अब किसानों मजदूरों का है तो उनको कम्युनिस्ट या लेनिन के प्रभाव वाले बताने में नामवर ने जरा भी विलंब नहीं किया। वो कम्युनिस्टों को लाभ पहुंचानेवाला नैरेटिव गढ़ रहे थे। नामवरी आलोचना का एक और उदाहरण देखिए, ‘निराला ने भी प्रेमचंद की तरह लेनिन पर स्पष्टत: कहीं कुछ नहीं लिखा पर उनकी विद्रोही प्रतिभा में लेनिन का प्रभाव बीज रूप में सुरक्षित अवश्य था।‘ ये विद्रोही प्रतिभा अंग्रेजों के खिलाफ उस दौर के सभी लेखकों कवियों में मिलता है। एक जगह कहते हैं कि प्रेमचंद समाजवादी यथार्थवाद से प्रभावित थे या नहीं, इसका कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है लेकिन इतना निश्चित है कि...। यह वही प्रविधि है जिसका निर्वाह इतिहास लेखन में रोमिला थापर और बिपिन चंद्रा जैसे इतिहासकारों ने किया। वो अपनी स्थापना तो देते हैं लेकिन साथ ही लिख देते हैं, इट अपीयर्स टू बी, पासेबली, प्रोबैबिली आदि। इस प्रविधि का लाभ ये होता है कि आम पाठक वही समझता है जो लेखक कहना चाहता है। कभी अगर स्थापना पर सवाल उठे तो इन शब्दों की आड़ लेकर बचकर निकल सके। आज इस बात की आवश्कता प्रबल होती जा रही है कि नामवर सिंह ने कम्युनिस्ट पार्टी के लिए जो नैरेटिव गढ़ा उसको उजागर किया जाए क्योंकि उस नैरेटिव से किसी भी रचनाकार का सही आकलन संभव नहीं। 


Monday, June 2, 2025

हिंदी भाषा व साहित्य के तपस्वी


कुछ समय पूर्व सरस्वती पत्रिका के अंक देखने और उसकी सामग्री के बारे में जानने की आकांक्षा के साथ प्रयागराज पहुंचा था। पता चला था कि सरस्वती पत्रिका के संपादक रहे देवीदत्त शुक्ल के पौत्र व्रतशील शर्मा के पास सरस्वती के पुराने अंक हैं। प्रयागराज में उनके अलोपीबाग स्थित घर पहुंचा। सरस्वती के कई अंक देखे, उसमें प्रकाशित सामग्री पर व्रतशील जी से चर्चा हुई। सरस्वती पर हो रही चर्चा में महावीर प्रसाद द्विवेदी और हिंदी के अन्य आधार स्तंभों की चर्चा हुई। चर्चा में पंडित बालकृष्ण भट्ट जी का नाम आया। ये तो याद नहीं कि क्यों कैसे ये तय हुआ कि पंडित बालकृष्ण भट्ट के घर चला जाए। लेकिन हमलोग अलोपीबाग से मालवीय नगर की गलियों से होते हुए पंडित बालकृष्ण भट्ट जी के घर पहुंचे थे। घर की हालत बहुत अच्छी नहीं थी। भट्ट जी के परिवार ने सत्कार किया। हमलोगों ने वो काठ की छोटी चौकोर चौकी भी देखी जिसपर बैठकर भट्ट जी प्रदीप का संपादन किया करते थे। पता चला कि वो घंटों इस चौकी पर बैठकर कालेखन-संपादन किया करते रहते थे। घर के छोटे से कक्ष में कई तस्वीरें लगी थीं। एक चित्र उनके हस्तलेख का भी था। उनके घर के पास ही मदन मोहन मालवीय भी रहा करते थे। उनके नाम पर उस मुहल्ले का नाम मालवीय नगर रखा गया है। संभवत: इस इलाके को पहले अतरसुइंया कहा जाता था। उनके परिवारीजनों से बातचीत करके ये आभास हुआ कि किस तरह से बालकृष्ण भट्ट जी ने अपना जीवन हिंदी के विकास और सामाजिक कुरीतियों को दूर करने में होम कर दिया था। 

पंडित बालकृष्ण भट्ट का हिंदी और हिंदी पत्रकारिता के विकास में बड़ा योगदान है। कई लोग उनके हिंदी के पहले आलोचकों में गिनते हैं। लाला श्रीनिवासदास के नाटक संयोगिता स्वयंवर की उन्होंने विस्तार से आलोचनात्मक लेख लिखा था।  सितंबर 1877 में बालकृष्ण भट्ट ने हिंदी प्रदीप निकालना आरंभ किया। इस पत्र को निकालने में उनको काफी कठिनाई का समाना करना पड़ा पर उन्होंने तमाम आर्थिक कठिनाइयों को झेलते हुए अकेले ही इस कार्य को अंजाम दिया। भट्ट जी ने तीन दशकों से अधिक समय तक इसका प्रकाशन और संपादन किया। एक तरफ काशी से भारतेन्दु कवि वचन सुधा  से हिंदी पत्रकारिता को संवार रहे थे तो दूसरी तरफ बालकृष्ण भट्ट हिंदी प्रदीप के माध्यम से हिंदी पत्रकारिता की नई राह बना रहे थे। इन दोनों के प्रयास से हिंदी पत्रकारिता का विकास हुआ। बालकृष्ण भट्ट के संपादन में निकलने वाले पत्र में अधिकतर साहित्यिक सामग्री होती थी। इसके अलावा लेखों और कविताओं के माध्यम से अंग्रेज सरकार के विरोध में जनजागरण का कार्य भी होता था। पंडित बालकृष्ण भट्ट ने जब हिंदी प्रदीप के प्रकाशन का निर्णय लिया तो भारतेन्दु से उनकी बातचीत हुई। कई जगह इस बात का उल्लेख मिलता है कि प्रदीप के पहले अंक को जारी करने के लिए भारतेन्दु प्रयागराज आए थे। 

पंडित बालकृष्ण भट्ट ने  ना केवल हिंदी पत्रकारिता बल्कि हिंदी भाषा को भी समृद्ध किया। उनका कार्य इतना बड़ा है लेकिन अफसोस कि हिंदी साहित्य के इतिहासकारों ने भट्ट जी पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया। हलांकि आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने उनका उल्लेख करते हुए लिखा- पं. बालकृष्ण भट्ट की भाषा अधिकतर वैसी ही होती थी जैसी खरी खरी सुनाने में काम में लाई जाती है। जिन लेखों में उनकी चिड़चिड़ाहट झलकती है वे विशेष मनोरंजक हैं। नूतन पुरातन का वह संघर्षकाल था इसमें भट्टजी को चिढ़ाने की पर्याप्त सामग्री मिल जाया करती थी। समय के प्रतिकूल पुराने बद्ध मूल विचारों को उखाड़ने और परिस्थिति के अनुकूल नए विचारों को जमाने में उनकी लेखनी सदा तत्पर रहती थी। रामचंद्र शुक्ल ने आगे लिखा कि बालकृष्ण भट्ट का जन्म प्रयाग में संवत् 1901 में और परलोकवास संवत् 1971 में हुआ। ये प्रयाग के 'कायस्थ पाठशाला' कॉलेज में संस्कृत के अध्यापक थे। उन्होंने संवत् 1933 में अपना 'हिन्दी प्रदीप'  गद्य साहित्य का ढर्रा निकालने के लिए ही निकाला था। सामाजिक, साहित्यिक, राजनीतिक, नैतिक सब प्रकार के छोटे छोटे गद्य प्रबंध ये अपने पत्र में तीस वर्ष तक निकालते रहे। उनके लिखने का ढंग पं. प्रतापनारायण के ढंग से मिलता-जुलता है। उनकी भाषा में पूरबी प्रयोग बराबर मिलते हैं 'समझा बुझाकर' के स्थान पर 'समझाय बुझाय' वे प्राय: लिख जाते थे। उनके लिखने के ढंग से यह जान पड़ता है कि वे अंग्रेजी पढ़े लिखे नवशिक्षित लोगों को हिन्दी की ओर आकर्षित करने के लिए लिख रहे हैं। उनकी भाषा में हास्य का पुट भी होता था। लगता है जैसे वो लेखन से आनंद लेते हों। एक किस्सा बहुत ही प्रचलित है कि एक बार भट्ट जी अपने परिचित के घर गए। वहां एक किशोर आंख पर हाथ रखे था। उन्होंने जानना चाहा कि वो आंख पर हाथ क्यों धरे है। पता लगा कि उसकी आंख आई है। भट्ट जी ने विनोदपूर्वक कहा था यह आंख बड़ी बला है, इसका आना, जाना, उठना, बैठना सब बुरा है। 

पंडित बालकृष्ण भट्ट बाल गंगाधर तिलक के विचारों से बहुत प्रभावित थे। हिंदी साहित्य और भाषा को समृद्ध करने के अलावा भट्ट ने पराधीन भारत में समाज में व्याप्त कुरीतियों पर भी प्रहार किया था। विधवा विवाह के वो प्रबल समर्थक थे और छूआछूत और जाति व्यवस्था के विरोधी। अपनी लेखनी के माध्यम से समाजिक विसंगतियों को ना केवल उजागर करते थे बल्कि उसका निदान भी सुझाते थे। बालकृष्ण भट्ट जी प्रदीप के संपादन और उसके अन्य कार्यों से समय निकालकर अपने घर के बाहर ही बालिकाओं को पढ़ाया करते थे। उनका मानना था कि सबल राष्ट्र के लिए स्त्रियों का शिक्षित होना बहुत आवश्यक है। आज प्रयागराज में जो गौरी महाविद्यालय है उसकी स्थापना के तार भट्ट जी की बालिका शिक्षा के प्रयासों से जुड़े बताए जाते हैं। ऐसे तपस्वी और मनीषी पत्रकार और साहित्यकार बालकृष्ण भट्ट के बारे में नई पीढ़ी को बताने का उपक्रम राष्ट्रीय स्तर पर होना चाहिए था। अफसोस कि कहीं भी बड़े स्तर पर भट्ट जी की स्मृति को संजोने का कार्य नहीं हो सका है।