महाराष्ट्र में भाषा को लेकर जब राज ठाकरे के कार्यकर्ताओं ने मारपीट आरंभ की तो उसने पूरे देश का ध्यान खींचा। हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के संबंध पर फिर से बहस आरंभ हुई। इस चर्चा में लोगों ने भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वययंसेवक संघ को खींचने का प्रयत्न किया। जबकि पिछले ग्यारह वर्षों से भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में चल रही सरकार ने भारतीय भाषाओं में बेहतर समन्वय किया। राष्ट्रीय शिक्षा नीति में भारतीय भाषाओं को प्राथमिकता दी गई। मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा को बढ़ावा देने का उद्देश्य रखा गया। इसके अच्छे परिणाम भी मिलने लगे हैं। कुछ लोगों ने भाषा विवाद में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को घसीटने का प्रयत्न किया। हिंदी, हिंदू, हिन्दुस्तान के नारे को संघ का नारा और मंसूबा बताकर उसकी आलोचना शुरू की। यहां यह बताना उचित रहेगा कि संघ हमेशा से भारतीय भाषाओं को प्राथमिकता देने की बात करता रहा है। संघ के सरसंचालक रहे माधव सदाशिव गोलवलकर सभी भारतीय भाषाओं को राष्ट्रभाषा मानते थे। संघ अब भी यही मानता है। रही बात हिंदू और हिन्दुस्तान की तो उसको लेकर स्वाधीनता पूर्व के लेखन को देखा जाना चाहिए। कुछ दिनों पूर्व इस स्तंभ में मैथिलीशरण गुप्त की पुस्तक ‘हिंदू’ को आधार बनाकर उनके कवि मन की पड़ताल की गई थी। स्वाधीनता के पूर्व हिंदी में अधिकांश लेखकों का लेखन हिंदू और हिन्दुस्तान को केंद्र में रखकर ही किया गया है। प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना के बाद इससे जुड़े कम्युनिस्ट लेखकों ने पार्टी प्रतिबद्दता के आधार पर लेखन और मूल्यांकन आरंभ किया। परिणाम ये हुआ कि हिंदू, हिंदुस्तान और भारतीयता को ओझल करने का खेल आरंभ हुआ। एक एक करके हिंदी के दिग्गज लेखकों की उन रचनाओं को जनता से दूर किया गया जिसमें हिंदू और भारतीय को एक मानकर लेखन हुआ था। उन रचनाओं को योजनाबद्ध तरीके से हाशिए पर डाला गया जिनमें हिंदू और भारतीय को एक बताया गया था। उन रचनाओं की उपेक्षा की गई जिनमें मुसलमानों के लिए नसीहत थी।
हिंदी के लेखकों को समग्रता में पढ़ने से उपरोक्त धारणा दृढ़ होती जाती है। प्रतापनारायण मिश्र को पढ़ें, भारतेन्दु को पढ़ें, बालकृष्ण भट्ट को पढ़ें, महावीर प्रसाद द्विवेदी को पढ़ें या फिर प्रेमचंद से लेकर निराला और शिवपूजन सहाय तक को पढ़ें, आपको हिंदू और भारतीय में अंतर नहीं दिखाई देगा। भारतेन्दु युग के लेखक जब ये लिख रहे थे तबतक तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक की स्थापना भी नहीं हुई थी। प्रताप नारायण मिश्र ने जब अपनी प्रसिद्ध कविता हिंदी हिन्दू हिन्दुस्तान लिखी थी तब तो गांधी जी भी राष्ट्रीय पटल पर नहीं आए थे। इस कविता का रचना वर्ष ठीक ठीक नहीं मालूम। उपलब्ध जानकारी के अनुसार प्रतापनारायण मिश्र का निधन सन् 1894 में हो गया था। जाहिर है कि उन्होंने ये कविता 1894 पहले लिखी होगी। अपनी इस कविता में उन्होंने लिखा था, चहहु जु सांचो निज कल्यान/तो सब मिलि भारत संतान/जपो निरंतर एक जबान/हिंदी हिंदू हिन्दुस्तान/तबहिं सुधिरिंहै जन्म निदान/तबहि भलो करिंहै भगवान/जब रहिहै निसिदिन यह ब्यान /हिंदी हिंदू हिन्दुस्तान। अब अगर संघ की स्थापना के तीन-चार दशक पहले ही हिंदी के ख्यात लेखक ऐसा लिख रहे थे तो उसको समझने की आवश्यकता है। हिंदी के पाठकों को बताने की भी। कुछ लोगों को लगता है कि इस तरह की बातें सार्वजनिक रूप से करना अनुचित है। क्या इस तरह के लेखन को छुपाना बौद्धिक बेईमानी नहीं है? क्या ये पाठकों के साथ छल नहीं है। ये तर्क दिया जाता है कि ये सब तो पुस्तकों में उपलब्ध है। बिल्कुल है। पर विचार इस बात पर होना चाहिए कि क्या ये सामाजिक और साहित्यिक विमर्श का हिस्सा है। क्या स्वाधीनता के बाद हिंदी के आलोचकों ने प्रतापनारायण मिश्र की इस रचना पर विचार किया, विमर्श का हिस्सा बनाया। क्या मैथिलीशरण गुप्त के हिंदू और भारत-भारती में लिखी गई पंक्तियों पर ईमानदारी से विचार हुआ। हिंदी के आलोचकों ने तो ये कह दिया कि मैथिलीशरण गुप्त ने हाली की कविता और शैली मुसद्दस से प्रेरित होकर ‘हिंदू’ लिखा। जब इस बात की पड़ताल की गई तो पता चला कि मैथिलीशरण गुप्त ने हाली के ‘मुसद्दस’ के उत्तर में ‘हिंदू’ लिखी थी। हाली ने अपने इस काव्य में मुसलमानों को सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और धार्मिक महानता की याद दिलाया था। उनके इस काव्य को पढ़ने के बाद मैथिलीशरण गुप्त ने हिंदुओं के गौरवशाली अतीत का स्मरण किया था। जो हिंदू नाम के पुस्तक में सामने आया था। क्या इसकी बात करना अनुचित है। क्या स्वाधीनता के बाद हिंदी आलोचना की बेईमानियों की ओर संकेत करना गुनाह है।
अगर भारतेन्दु हरिश्चंद्र के लेखों को देखते हैं तो वहां हिंदू और भारतीय में अंतर नहीं मिलता। जब वो भारतवर्ष की उन्नति की बात करते हैं तो उसमें स्पष्टता के साथ इस बात को स्वीकारते हैं, भाई हिंदुओं! तुम भी मत-मतांतर का आग्रह छोड़ो। आपस में प्रेम बढ़ाओ। इस महामंत्र का जाप करो, जो हिन्दुस्तान में रहे, किसी चाहे किसी रंग,जाति का क्यों न हो, वह हिंदू। हिंदू की सहायता करो। बंगाली, मराठा, पंजाबी, मदरासी, वैदिक, जैन, ब्राह्मणों, मुसलमानों सब एक का हाथ एक पकड़ो। इसी लेख में वो आक्रांताओं को भी चिन्हित करते हैं और मुसलमानों से भी कहते हैं, मुसलमान भाइयों को भी उचित है कि इस हिन्दुस्तान में बसकर वो हिंदुओं को नीचा समझना छोड़ दें। ठीक भाइयों की भांति हिंदुओं से बर्ताव करें, ऐसी बात जो हिंदुओं का दिल दुखानेवाली हो वो ना करें। इस तरह की बातों पर वो विमर्श खड़ा करते हैं। दरअसल स्वाधीनता के पूर्व और उन्नीसवीं शताबदी के अंतिम दशकों में इस तरह की बौद्धिक बातें खूब हो रही थीं। हिंदी-उर्दू को लेकर भी बौद्धिक विमर्श हो रहा था।रचना का उत्तर रचना से दिया जा रहा था। लेखक खुलकर अपनी बात लिख-बोल रहे थे। प्रश्न यही है कि स्वाधीनता के बाद ऐसा क्या हो गया कि हिंदू संस्कृति और हिंदू सभ्यता की बातें कम होने लगीं। भारतीयता और भारतीय शिक्षण पद्धति को छोड़कर हमारा बौद्धिक समाज पश्चिम की ओर उन्मुख होने लगा। बौद्धिक जगत में कथित गंगा-जमुनी तहजीब के सिद्धांत को गाढ़ा करने का प्रयास होने लगा। हिंदी में तो भारतेन्दु युग से लेकर द्विवेदी युग तक हिंदू होने पर लेखकों को गर्व होता था। ये गर्व उनके लेखन में झलकता भी था। दो उदाहरण तो उपर ही दिए गए हैं। इस तरह के दर्जनों उदाहरण दिए जा सकते हैं। भारतीय लेखन से भारतीयता या हिंदू विमर्श को मलिन करने के षडयंत्र के कारण बौद्धिक बेईमानी का एक अजीब सा वातावरण बना। इसने अकादमिक जगत को भी अपनी चपेट में लिया। हिंदू की बात करनेवालों की उपेक्षा की जाने लगी। हाल के वर्षों में देखें तो उस उपेक्षा का दंश नरेन्द्र कोहली जैसे विपुल लेखन करनेवाले साहित्यकार को भी झेलना पड़ा। आज आवश्यकता इस बात की है कि स्वाधीनता पूर्व जिस तरह का हिंदू लेखन हो रहा था उसपर विमर्श हो और उस विमर्श को समाज जीवन के केंद्र में लाया जाए। अकादमिक जगत में कार्य कर रहे शोधार्थियों को भी इस दिशा में विचार करना चाहिए। ये अतीत की बात नहीं है बल्कि अपनी परंपरा और धरोहर से एकाकार होने का उपक्रम होगा।
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✍️ "हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान" नहीं — संविधान, समरसता और सहअस्तित्व की बात हो!
— एडवोकेट अमरेष यादव
> "भारत को एक आंख से मत देखो, यहाँ सौ रंगों की रोशनी है।
यहाँ हर दिशा से आती आवाज़ का नाम ही भारत है।"
— डॉ. नामवर सिंह
बीते दिनों दैनिक जागरण में प्रकाशित एक लेख — “हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान पर चर्चा ज़रूरी” — यह केवल शीर्षक नहीं, एक वैचारिक मंशा है। एक ऐसी मंशा, जो एक भाषा, एक धर्म और एक पहचान को पूरे भारत की नियति घोषित करना चाहती है। परन्तु यह दृष्टिकोण न केवल संवैधानिक मूल्यों, बल्कि भारतीय आत्मा के भी विपरीत है।
भारत कभी भी “एक भाषा, एक धर्म, एक नस्ल” के अधीन नहीं रहा — भारत एक बहुध्रुवीय, बहुधार्मिक और बहुभाषिक सिविलाइज़ेशन है, जो विविधता को विनम्रता से गले लगाता है।
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🧭 भाषा थोपना राष्ट्रवाद नहीं, वर्चस्ववाद है
लेख में यह तर्क दिया गया कि जब हिंदी देश की सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है, तो विरोध क्यों?
> परंतु — लोकप्रियता का अर्थ प्रभुत्व नहीं होता। प्रेम माँगा जाता है, थोपे नहीं जाता।
संविधान के अनुच्छेद 343 में हिंदी को “राजभाषा” का दर्जा है, राष्ट्रीय भाषा का नहीं।
तमिलनाडु, महाराष्ट्र, बंगाल, पूर्वोत्तर — जहाँ हिंदी बहुसंख्यक नहीं — वहाँ जब हिंदी को 'राष्ट्रभाषा' के रूप में थोपा जाता है, तो यह केवल भाषाई नहीं, संस्कृतिक दमन का रूप ले लेता है।
> पेरियार ने 1937 में कहा था —
"हिंदी थोपना केवल भाषा का मुद्दा नहीं, उत्तर भारतीय वर्चस्व की परियोजना है।"
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🧭 “हिंदू” बनाम “हिंदुत्व” — आत्मा बनाम सत्ता
लेख में “हिंदू” पहचान को राष्ट्रीय संस्कृति के रूप में प्रस्तुत किया गया, मानो यह सार्वभौमिक सत्य हो।
> परंतु, “हिंदू धर्म” और “हिंदुत्व” को एक करना, बौद्धिक धोखा है।
हिंदू धर्म एक दार्शनिक अनुभव है — जिसमें नास्तिकता से लेकर अद्वैत तक समाहित है।
जबकि हिंदुत्व — वीर सावरकर द्वारा प्रतिपादित एक राजनीतिक आंदोलन है, जो मुस्लिमों और ईसाइयों को भारत की परिधि से बाहर ठहराता है।
> महात्मा गांधी ने 1925 में लिखा था:
"मेरा हिंदू धर्म वह है जो सभी धर्मों को बराबर देखे, न कि दूसरों को मिटाकर खुद को स्थापित करे।"
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🧭 इतिहास को चुनिंदा ढंग से मत गढ़ो
लेख में भारतेंदु, तिलक और गांधी का हवाला देकर हिंदी-हिंदू को राष्ट्र की पहचान बताने की कोशिश की गई।
> यह इतिहास का उपयोग नहीं, दुरुपयोग है।
गांधी ने “हिंदुस्तानी” भाषा (हिंदी + उर्दू) का समर्थन किया था, और दक्षिण भारत में हिंदी विरोध को सहज बताया था।
डॉ. अंबेडकर ने हिंदी को “सांस्कृतिक नियंत्रण का औज़ार” बताते हुए उसका विरोध किया था।
पंडित नेहरू ने चेताया था —
> "यदि हिंदी जबरन थोपी गई, तो यह भारत की एकता को तोड़ सकती है।"
इतिहास का उपयोग तभी उचित होता है जब उसमें सभी स्वरों को स्थान मिले — केवल सुविधाजनक उद्धरणों को नहीं।
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🧭 राष्ट्रवाद: सहमति से नहीं, समानता से बनता है
"हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान" का नारा सुनने में आकर्षक लगता है, पर यह नफरत के व्यापारियों की वह बोली है जिसमें असहमति को गद्दारी कहकर कुचला जाता है।
> राष्ट्रवाद वह नहीं जो सबको एक जैसा बनाए,
राष्ट्रवाद वह है जो सबको उनके अपने रूप में बराबरी देता है।
क्या एक मुस्लिम, जो उर्दू बोलता है और नमाज़ पढ़ता है — वह “हिंदुस्तानी” नहीं है?
क्या एक नागा, जो अंग्रेज़ी में सोचता है और चर्च जाता है — वह भारत का नागरिक नहीं?
रामचंद्र गुहा कहते हैं —
> "भारत की आत्मा विविधता में है। उसे एक रंग में रंगना, उस आत्मा की हत्या है।"
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🔚 निष्कर्ष:
“हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान” का नारा अगर केवल संस्कृति के प्रेम से आता, तो सुंदर होता।
लेकिन जब यह नारा भाषाई बहुलता, धार्मिक विविधता और क्षेत्रीय अस्मिता को कुचलने का माध्यम बनता है — तब यह राष्ट्र नहीं, राष्ट्रवाद का अपहरण बन जाता है।
भारत की असली पहचान है:
✅ बोलने की आज़ादी
✅ मानने की आज़ादी
✅ अपनी भाषा और परंपरा के साथ जीने की आज़ादी
> भारत को बचाना है, तो एकरूपता नहीं — समानता को प्रतिष्ठा देनी होगी।
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✍️ लेखक:
एडवोकेट अमरेष यादव
(संवैधानिक अधिवक्ता, स्वतंत्र लेखक एवं सामाजिक न्याय के मुद्दों पर केंद्रित वैचारिक टिप्पणीकार)
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