हाल ही में सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने 25 ओवर द टाप (ओटीटी) प्लेटफार्म के प्रसारण पर रोक लगा दी। इनमें उल्लू जैसे प्लेटफार्म भी हैं जहां लगभग अश्लील साम्रगी दिखाई जाती थी। इसके अलावा आल्ट और देसीफ्लिक्स जैसे फ्लेटफार्म्स पर भी पाबंदी लगाई गई है। इन प्लेटफार्म पर बच्चों और महिलाओं से संबंधित अश्लील सामग्री परोसी जा रही थीं। लड़कियों या छोटी बच्चियों को आब्जेक्टिफाई करने का खेल भी इस देश ने देखा है। कुछ वर्षों पहले एक वेबसीरीज आई थी रसभरी। उसमें एक बच्ची को उत्तेजक नृत्य करते हुए दिखाया गया था। इतना ही नहीं इन प्लेटफार्म पर इस तरह की लगभग अश्लील सामग्री में वीडियो के साथ जिस तरह की भाषा का प्रयोग किया जा रहा था वो द्विअर्थी था। रसभरी वेब सरीज का एक संवाद है जो छोटी बच्ची के उत्तेजक नृत्य के दौरान आता है। बच्ची से उत्तजेक गाने पर नृत्य करवाने की कहानी या कहानी में जो पृष्ठभूमि या संवाद है उससे ही मंशा का पता चलता था। बच्ची के डांस के पहले एक महिला का ये कहना कि, ‘थोड़ा बहुत नाच गाना लड़कियों को आना चाहिए, कल को अपने पति को रिझाए रखेगी’। गाना देखकर वही महिला कहती है कि ‘तेरी बेटी के लक्षण ठीक नहीं लग रहे’ तो दूसरी महिला खास अदा के साथ कहती है कि ‘ये सिर्फ अपने पति को नहीं बल्कि पूरे मुहल्ले को रिझाएगी।‘ अब इस पर विचार करना चाहिए कि ये कैसे संवाद हैं। आमतौर पर इन विषयों पर नहीं बोलने वाले केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड के चेयरमैन प्रसून जोशी ने तब इस वेबसीरीज को लेकर अपनी आपत्ति दर्ज की थी। दृष्य के साथ अगर संवाद भी लगभग अश्लील या द्विअर्थी हो तो वो दर्शकों को अधिक खींचता है। इन प्लेटफार्म का उद्देश्य ही अधिक से अधिक हिट्स हासिल करना होता है। इसके लिए ही इस तरह की सामग्री परोसने में इनको किसी प्रकार का गुरेज नहीं होता है। सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने बहुत सोच विचार के बाद और काफी समय देने के बाद इन प्लेटफार्म्स पर पाबंदी लगाई। यहां तो बरसों से इस तरह की अश्लील सामग्री दिखाई जा रही थी। उल्लू की बेवसाइट पर जाकर तो सहज ही अनुमान हो जाता था कि वहां किस तरह की सामग्री पेश की जाती रही होगी। ऑल्ट एप का गूगल पर दिखाई देनेवाला पेज याद आ रहा है। जब आल्ट आरंभ हुआ था तब गूगल पर ऑल्ट सर्च करने से जो पेज खुलता था उसमें ये बताया जाता था कि ये प्लेटफॉर्म मुख्यधारा की मनोरंजन का विकल्प है। उसके नीचे लिखा होता था रागिनी एमएमएस, गेट हॉट विद रागिनी। फिर एक पंक्ति होती थी हॉट, वाइल्ड एंड लस्टफुल बैयल (सुंदरी)। इसके आगे कहने को कुछ रह नहीं जाता है। इससे मंशा साफ हो जाती है कि प्लेटफॉर्म अपने दर्शकों को क्या दिखाना चाहता है। इस प्लेटफार्म पर अन्य सामग्रियां भी उपलब्ध थीं लेकिन इस तरह की सामग्री भी थी।
ओटीटी प्लेटफार्म्स पर रेगुलेशन या प्रमाणन की बात लंबे समय से चल रही है। प्रकाश जावड़ेकर जब सूचना प्रसारण मंत्री थे तब भी ये बात उठी थी। उनके कार्यकाल में सूचना और प्रसारण मंत्रालय और इलेक्ट्रानिक्स और सूचना प्रोद्यौगिकी मंत्रालय के मंत्रियों ने संयुक्त पत्रकार वार्ता में ओटीटी के नियमन को लेकर कई तरह की बातें की थीं। उसके बाद जब अनुराग ठाकुर सूचना और प्रसारण मंत्री बने तो उस समय भी ओटीटी प्लेटफार्म्स के प्रतिनिधियों के साथ उनकी कई दौर की बातचीत हुई थी। इन प्लेटफार्म्स के प्रतिनिधियों ने तब स्वनियमन पर जोर दिया था। उन बैठकों के बाद एक त्रिस्तरीय व्यवस्था बनी थी जिससे स्वनियमन के तंत्र को प्रभावी बनाया जा सके। प्रतीत होता है कि स्वनियमन का तंत्र ब दिखाने के दांत बनकर रह गया है। ओटीटी प्लेटफार्म्स पर अब भी नग्नता और यौनिकता से भरपूर सामग्री मनोरंजन के नाम पर परोसी जा रही हैं। यथार्थ के नाम पर इन बेवसीरीज में गालियों की भरमार रहती है। इस तरह के सीरीज के निर्माताओं का तर्क होता है कि समाज में भी लोग आपसी बोलचाल में गालियों का प्रयोग करते हैं। उनकी कहानी की मांग है कि वो गालियां बकते हुए पात्रों को दिखाएं। उनको लगता है कि हर कहानी में गालियों का प्रयोग करनेवाला संवाद लेखक राही मासूम रजा हो जाएगा। इन तर्कों की आड़ में वेबसीरीज निर्माता बचकर निकलना चाहते हैं। मनोरंजन के एक और विकल्प फिल्म पर बात कर लेते हैं। फिल्मों में गाली हो तो उस अंश को बीप करना होता है क्योंकि वहां प्रमाणन की व्यवस्था है। फिल्मों को रेगुलेट करने के लिए सिनेमैटोग्राफी एक्ट है। चूंकि वेबसीरीज पर किसी प्रकार का कोई नियमन या नियंत्रण नहीं है लिहाजा वहां गालियों की भरमार होती है। फिल्मों में लंबे चुंबन दृष्यों पर कैंची और वेब सीरीज में रति प्रसंगों को फिल्माने की छूट। फिल्मों में विकृत हिंसा के दृष्यों को संपादित करने का नियम तो बेव सीरीज में हिंसा के जुगुप्साजनक दृष्यों की भरमार।
वेबसीरीज में कहानी की मांग के नाम पर अश्लील दृश्य दिखाने वाले निर्माताओं या प्लेटाफार्मस के कर्ताधर्ताओं का
तर्क होता है कि इंटरनेट पर भी पोर्न साइट उपलब्ध है । जिनको इस तरह के दृष्य देखने होंगे वो वहां बहुत आसानी से देख सकते हैं। इस तरह के तर्क देनेवालों को यह सोचना चाहिए कि इंटरनेट पर मौजूद पोर्न सामग्री और इस तरह के वैध प्लेटफॉर्म पर उपलब्ध पोर्न को देखने में फर्क है। यहां इसको कहानी की शक्ल में दिखाया जाता है। वो कहानी जिसको भारतीय समाज का चित्रण बाताया जाता है। देखनेवाले को लगता है कि इस तरह की चीजें सामान्य हो सकती हैं। विशेषकर अगर दर्शक अपरिपक्व है तो उसके मस्तिष्क पर इसका प्रभाव गहरा हो सकता है। दूसरा तर्क ये दिया जाता है कि इन प्लेटफॉर्म्स पर वेबसीरीज देखने लोग जानते हैं कि वो क्या देख रहे हैं। इनकी सदस्यता लेते हैं। शुल्क अदा करते हैं और उसके बाद वेबसीरीज देखते हैं। किसी को भी क्या सामग्री देखनी है ये चयन करने का अधिकार तो होना ही चाहिए। यह बात सामान्य तौर पर ठीक लग सकती है कि हर किसी को अपनी रुचि की सामग्री देखने का अधिकार होना चाहिए। यहां प्रश्न खड़ा होता है कि अपरिपक्व दिमाग वाले किशोरों का क्या जिनके हाथ में बड़ी संख्या में स्मार्टफोन है। उसमें इंटरनेट कनेक्शन भी है। इतने पैसे तो हैं कि वो इन ‘ओवर द टॉप’ प्लेटफॉर्म की सदस्यता ले सके। इंटरनेट पर किशोरों के लिए स्वस्थ सामग्री भी है। डिजीटल युग में शिक्षा के कई प्रकल्प इंटरनेट पर उपलब्ध हैं। छात्रों या किशोरों से ये अपेक्षा की जाती है कि वो एडुकेशन एप का उपयोग करें। जब उसके हाथ में आठ इंच का मोबाइल फोन है तो उसके मन में मनोरंजन को लेकर सहज जिज्ञासा उत्पन्न होती है। मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि किशोर मन में कुछ भी नया देखने जानने की उत्सुकता अपेक्षाकृत अधिक होती है। किशोर मन अगर कुछ नया देखता है तो बिना उसके अच्छाई बुराई के बारे में विचार किए वो उसके बारे में जानने को उत्सुक हो जाता है। वेबसीरीज के पोस्टर या प्रचार सामग्री में अर्धनग्न तस्वीरें देखता है तो किशोर मन उस बारे में अधिक से अधिक जानने को उत्सुक हो जाता है। यही मन उसको अश्लील सामग्री देखने की ओर ले जाता है। वेबसीरीज एक नेविगेशन का काम करती है। किशोर मन वहां से संतुष्ट नहीं होता है और पोर्न साइट्स की ओर जाता है। वहां उसकी उत्सुकता समाप्त होती है। क्या ओटीटी प्लेटफॉर्म्स पर सामग्री देनेवाली संस्थाएं ये चाहती हैं कि हमारे देश के किशोर मन को अपरिपक्वता की स्थिति से ही इस तरह से मोड़ दिया जाए कि आगे चलकर इस तररह की सामग्री को देखनेवाला एक बड़ा उपभोक्ता वर्ग तैयार हो सके। इसके अलावा जो एक और खतरनाक बात यहां दिखाई देती हैं वो ये कि इन प्लेटफॉर्म्स पर कई तरह के विदेशी सीरीज भी उपलब्ध हैं जहां पूर्ण नग्नता परोसी जाती है। ऐसी हिंसा दिखाई जाती है जिसमें मानव शरीर को काटकर उसकी अंतड़ियां निकाल कर प्रदर्शित की जाती हैं। जिस कंटेंट को भारतीय सिनेमाघरों में नहीं दिखाया जा सकता है उस तरह के कंटेंट वहां आसानी से उपलब्ध हैं। चूंकि वेब सीरीज के लिए किसी तरह का कोई नियमन नहीं है लिहाजा वहां स्वतंत्र नग्नता का प्रदर्शन होता है। बगैर ये सोचे समझे कि क्या भारतीय दर्शकों का मानस इस तरह सामग्री को देखकर सामान्य व्यवहार कर सकता है। आज इस तरह के समाचार आते रहते हैं कि दुश्कर्म के पहले बलात्कारियों ने या तो इंटरनेट पर उपलब्ध सामग्री देखी। बच्चियों का यौन शोषण करनेवाले अधिकतर अपराधी पीडिता को भी पोर्न दिखाकर अपराध करता है।
जब भी भारत में ओटीटी पर नियमन की बात होती है तो एक विशेष इकोसिटम से जुड़े लोग शोर मचाने लगते हैं। तत्काल संविधान की दुहाई देने लगते हैं। तर्क ये दिया जाता है कि अभियक्ति की स्वतंत्रता को बाधित करने का प्रयास किया जा रहा है। ये कहकर एक भ्रम का वातावरण बनाया जाता है। अगर हम देखें तो हमारे संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात तो है लेकिन उसकी सीमा भी तय की गई हैं। संविधान के अनुच्छेद 19 (1) ए अभिय्क्ति की स्वतंत्रता की गारंटी देता है। इस अनुच्चेद की आड़ लेनेवाले अधिकतर समय अर्धसत्य ही बताते/बोलते हैं। संविधान के ही अनुच्छेद 19 (2) में सरकार को ये अधिकार है कि वो समाज हित में इस स्वतंत्रता की सीमा तय करे। अभिव्यक्ति की स्वंतत्रता तो ठीक है लेकिन जब अभिव्यक्ति अराजक होने लगे तो सरकार को दखल देना ही चाहिए। ऐसा नहीं है कि अगर ओटीटी को लेकर कोई नियमन बनाया जाता है तो भारत ऐसा करनेवाले विश्व का पहला देश होगा। कई देशों में ओटीटी के लिए स्पष्ट दिशा निर्देश हैं। सिंगापुर में एक प्राधिकरण है। सभी सेवा प्रदताओं को ब्राडकास्टिंग एक्ट के अंतर्गत इस प्राधिकरण से लाइसेंस लेना पड़ता है। ओटीटी, वीडियो ऑन डिमांड और विशेष सेवाओं के लिए एक विशेष कंटेंट कोड है। इसमें सामग्रियों के वर्गीकरण की स्पष्ट व्यवस्था है। सिंगापुर की इस संस्था के पास अधिकार है कि अगर ओटीटी प्लेटऑर्म पर दिखाई जानेवाली सामग्री कानून सम्मत नहीं है तो उसका प्रसारण रोक सके। जुर्माना लगाने का भी प्रविधान है। ऑस्ट्रेलिया में तो इन प्लेटऑर्म्स पर नजर रखने के लिए ई सेफ्टी कमिश्नर हैं। उनका दायित्व है वो डिजीटल मीडिया पर चलनेवाली सामग्रियों पर नजर रखें। वहां तो विनियमन इस हद तक है कि ई सेफ्टी कमिश्नर दंड के तौर पर सानमग्री के प्रसारण को प्रतिबंधित कर सकते हैं। ऑस्ट्रेलिया में ओटीटी पर चलनेवाली सामग्री की शिकायत मिलने पर उसके निस्तारण की एक तय प्रक्रिया है। इसके अलावा भी दुनिया के कई देशों में किसी न किसी तरह के दिशा निर्देश लागू हैं।
केंद्र सरकार को इस बारे में कोई फैसला लेना होगा। स्वनियम की व्यवस्था संतुलित नहीं हो पा रही है। जिस तरह का ट्रेंड देखा जा रहा है उसमें ओटीटी कंटेंट के प्रमाणन की व्यवस्था बनाने की दिशा में सरकार को निर्णय लेना होगा। इस व्यवस्था को लागू करने के लिए वृहद संसाधान की आवश्यकता होगी लेकिन आज नहीं तो कल सरकार को इसपर निर्णय लेना ही होगा। इस मसले को अब और नहीं टाला जा सकता है। इस तरह की कोई ऐसी स्वायत्त संस्था बनाने पर भी विचार किया जा सकता है जो वेब सीरीज पर दिखाए जानेवाले कंटेंट की शिकायत मिलने पर विचार करे और निर्णय ले। इस संस्था को इतना अधिकार देना होगा कि उसके निर्णयों का सम्मान हो। उसको लागू करवाने के लिए उसके पास वैध अधिकार हों।
No comments:
Post a Comment