जागरण फिल्म फेस्टिवल के दौरान दिल्ली के सीरी फोर्ट आडिटोरियम में अमिताभ बच्चन-धर्मेन्द्र अभिनीत फिल्म शोले का रिस्टोर्ड वर्जन प्रदर्शित किया गया था। इस फिल्म को बड़े पर्दे पर बेहतर आवाज के साथ देखना एक अलग ही अनुभव था। करीब बीस वर्षों का बाद शोले फिर से देख रहा था। बड़े पर्दे पर फिल्म देखना रोमांचकारी था। फिल्म के आखिरी सीन में अमिताभ बच्चन अभिनीत पात्र जय को जब गोली लगती है तो उसके चेहरे के भाव और पीड़ा बड़े पर्दे पर इतने प्रभावी लगते हैं कि दर्शक उस पीड़ा के साथ एकाकार हो जाता है। जब जय, बसंती की मौसी के पास वीरू के रिश्ते की बात करने पहुंचता है तो उनके चेहरे की शरारत बड़े पर्दे पर इतना जीवंत दिखती है कि दर्शकों को खूब मजा आता है। सिर्फ अमिताभ ही नहीं बल्कि ठाकुर के रूप में संजीव कुमार, बसंती के रूप में हेमा मालिनी और बीरू के रूप में धर्मेंद्र की आदाकारी की प्रशंसा इस कारण मिल पाई की दर्शक बड़े पर्दे पर अभिनय की बारीकियों को महसूस कर सके थे। आज जब मोबाइल पर फिल्में देखी जाने लगी हैं तो चेहरे के उन भावों को दर्शक महसूस नहीं कर पा रहे हैं। यही कारण है कि आज अभिनय की बारीकियों पर बात नहीं होती है बल्कि कपड़ों के डिजायन से लेकर हिंसा के तरीकों पर बात होती है। हाल फिल्हाल में किसी फिल्म का कोई ऐसा सीन याद नहीं पड़ता जिसको लेकर चर्चा होती हो। उसके छायांकन को लेकर उसको फिल्माने को लेकर चर्चा बहुत ही कम होती है। एक जमाना था जब अमिताभ बच्चन की फिल्मों के दृष्यों और संवादों की चर्चा होती थी। ये चर्चा फिल्म से अलग होती थी। संवादों के आडियो कैसेट अलग से बिका करते थे। अब फिल्मों को लेकर अधिक चर्चा इसकी होती है कि कितने दिनों में 100 करोड़ का बिजनेस कर लिया। फिल्म कितने दिन में 500 करोड़ के क्लब में शामिल हो गई।
अमिताभ बच्चन ने
रविवार को 83 वर्ष की आयु पूरी की। वो अब भी खूब सक्रिय हें। लोकप्रिय भी। इतनी
लंबी आयु के बावजूद उनकी लोकप्रियकता क्यों कायम है, इसपर विचार किया जाना चाहिए। धर्मेन्द्र
भी 90 वर्ष की आयु को छूने वाले हैं। वो भी इंटरनेट् मीडिया पर सक्रिय रहते हैं।
अपने फार्म हाउस से वीडियो पोस्ट करते रहते हैं। उनके वीडियो भी लोग खूब पसंद करते
हैं। कभी शायरी सुनाते हैं, कभी अपनी तन्हाई को लेकर कमेंट करते नजर आते हैं। कई
बार खेतों में घूमते उनके वीडियो भी दिख जाते हैं। इन दो अभिनेताओं के अलावा रेखा
जब भी किसी अवार्ड शो में आती हैं या परफार्म करती हैं तो उसका वीडियो खूब प्रचलित
होता है। लोग वीडियो को पोस्ट और रीपोस्ट करते हैं, अपनी टिप्पणियों के साथ। अमिताभ
बच्चन, धर्मन्द्र, रेखा, हेमा मालिनी और बहुत हद तक देखें तो माधुरी दीक्षित की
लोकप्रियता में बड़े पर्द का बड़ा योगदान है। शोले के अलावा भी याद करिए दीवार और
जंजीर में अमिताभ बच्चन की अदायगी। फिल्म दीवार में अमिताभ बच्चन और शशि कपूर के
बीच का चर्चित संवाद, मेरे पास गाड़ी है बंगला है... और जब शशि कपूर इसके उत्तर
में कहते हैं मेरे पास मां है तो पूरा हाल तालियों से गूंज उठता है। आज भी इस
संवाद की चर्चा होती है। गाहे बगाहे सुनने को मिल जाता है। इसका कारण ये है कि
लोगों ने बड़े पर्दे पर इस संवाद को घटित होते देखा है। दोनों अभिनेताओं के चेहरे
के भाव को पढ़ा है। उसको महसूस किया है। अभिनय की गहराई ने लोगों को प्रभावित किया।
इस कारण यह संवाद लगभग कालजयी हो गया। फिल्म से जुड़े शोधार्थियों को इस बात पर
विचार करना चाहिए कि डायलाग डिलीवरी और अभिनय के अलावा इसका बड़े पर्द पर आना भी
एक कारण रहा है।
इस पीढ़ी के
बाद भी अगर विचार किया जाए तो जितने भी अभिनेता और अभिनेत्री लोगों के दिलों पर
राज कर रहे हैं वो कहीं न कहीं बड़े पर्द पर यादगार भूमिका कर चुके हैं। श्रीदेवी
की फिल्में तोहफा, मवाली, जस्टिस चौधरी क्या ओटीटी प्लेटफार्म पर रिलीज होकर इतनी
सफल हो पाती। क्या तेजाब फिल्म में माधुरी दीक्षित के नृत्य का आनंद छोटी स्क्रीन
पर लिया जा सकता है? आज छोटी
स्क्रीन के जमाने में जब लोग मोबाइल या पैड पर फिल्में देख रहे हैं तो दर्शक अभिनय
की बारीकियों को पकड़ नहीं पाता है। वो कहानी
की रफ्तार के साथ तेज गति से चलने में ही रोमांचित महसूस करता है। इसलिए
फिल्मों की स्पीड पर चर्चा होती है उसके ठहराव पर नहीं। कुछ फिल्म समीक्षक तो अपनी
फिल्म समीक्षा में फिल्मों के स्लो होने की बात करते हैं, यहां तक लिख देते हैं कि
कहानी धीमी गति से चलती है। कहानी कही कैसे गई है इसपर बहुत कम चर्चा होती है। शाह
रुख खान, आमिर खान भी अगर सुपर स्टार बने तो बड़े पर्दे पर उनकी फिल्मों की
लोकप्रियता के कारण। आज भी जिन फिल्मों को दर्शक बड़े पर्दे पर पसंद करते है उनके
ही अभिनय की प्रशंसा होती है, लोकप्रियता भी उनको ही मिलती है। कुछ वेब सीरीज के
अभिनेता या कलाकार इसके अपवाद हो सकते हैं लेकिन उनका संवाद या उनका अभिनय कालजयी
साबित होगा इसका आकलन होना अभी शेष है। इतने वेब सीरीज आते हैं, बताया जाता है कि
युवा पीढ़ी के बीच लोकप्रिय भी हैं लेकिन कुछ ही समय बाद दर्शकों के मानस से ओझल
भी हो जाते हैं।
आज आवश्यकता इस बात की है कि सिनेमा को सिनेमा हाल तक वापस लेकर चला जाए। आज महानगरों में सिनेमा हाल हैं, लेकिन टिकट इतने महंगे हैं कि वहां तक जाने के लिए आम लोगों को सोचना पड़ता है। छोटे शहरों में सिंगल स्क्रीन सिन्मा हाल बंद हो गए हैं। लोगों के पास सिनेमा हाल का विकल्प ही नहीं है। लोगों को छोटे स्क्रीन पर फिल्म देखने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है। मुझे याद है कि जब हम कालेज में थे भागलपुर में छह या सात सिनेमा हाल हुआ करते थे लेकिन अब वहां एक मल्टीप्लैक्स है। सारे सिंगल स्क्रीन सिनेमा हाल बंद हो गए। किसी में शापिंग कांपलैक्स खुल गया। आज आवश्यकता इस बात की है कि सरकार सिंगल स्कीन सिनेमाघर को लेकर कोई नीति बनाए। इसमें कर में कुछ वर्षों की छूट हो सकती है। सस्ते दर पर सिनेमा हाल बनाने के लिए ऋण की व्यवस्था हो सकती है। साथ ही इस प्रकार की व्यवस्था करनी चाहिए कि टिकट दर दर्शकों की पहुंच में रहे। ये बार बार साबित भी हो चुका है कि जब जब निर्माताओं और सिनेमा हाल मालिकों ने टिकट की दरों में कटौती की है दर्शक सिनेमा हाल तक लौटे हैं। अगर दर्शक सिनेमा हाल तक लौटते हैं तो अभिव्यक्ति के इस सबसे सशक्त माध्यम को बल मिलेगा और फिर कोई सदी का महानायक बनने की राह पर चल निकलेगा। अभी तो फिल्मों के हाल पर हरिवंश राय बच्चन जी की एक पंक्ति याद आती है- अब न रहे वो पीनेवाले अब न रही वो मधुशाला ।
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