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Saturday, November 15, 2025

जड़ों की ओर लौटता हिंदी लेखन


पिछले दिनों जब बुकर पुरस्कार की घोषणा हुई तो लेखक प्रभात रंजन ने फेसबुक पर एक टिप्पणी लिखी, देर रात बुक प्राइज की घोषणा हुई और इस बार ये पुरस्कार DAVID SZALAY के उपन्यास फ्लेश को मिला। वो कनाडा मूल के लेखक हैं। सबसे पहले उनके नाम का उच्चारण ढूंढा – वह है डेविड सोलले । अमेजन पर इनका उपन्यास खरीदा। सबसे सस्ता किंडल संस्करण मिला, 704 रु में।... एक बात समझ में आई कि इस बार शार्टलिस्ट में एक से अधिक उपन्यास ऐसे थे जिनमें अकेलापन, बेमेल दुनिया की बातें थीं। यह भी कुछ उसी तरह का उपन्यास है। अलग अलग भाषाओं में इस तरह की कहानियां और उपन्यास बहुत लिखे जा रहे हैं। प्रभात रंजन की इस टिप्पणी को पढ़ने के बाद ध्यान वैश्विक लेखन की ओर चला गया। कुछ दिनों पहले साहित्य के नोबेल पुरस्कार की घोषणा हुई थी। नोबेल पुरस्कार से सम्मानित लेखक लास्जलो क्रास्जनाहोरकाई के लेखन में भी अकेलापन और निराशा कई बार प्रकट होता है। पहले के लेखक भी इस तरह का लेखन करते रहे हैं। पश्चिमी देशों के अलावा जापान और कोरिया के कई लेखकों के उपन्यासों और कहानियों में भी अकेलापन और उसका दंश, उससे उपजी निराशा और फिर समाज पर उसका प्रभाव दिखाई पड़ता है। जापान के विश्व प्रसिद्ध लेखक हारुकी मुराकामी के उपन्यासों में भी अकेलापन प्रमुखता से आता है। जापान के समाज में अकेलापन एक बड़ी समस्या है तो जाहिर सी बात है कि वहां के लेखकों पर इस समस्या का प्रभाव होगा। उनकी कहानियों के पश्चिमी देशों में लाखों पाठक हैं। क्या कारण है कि पश्चिमी दुनिया में उनके अपने लेखकों और अन्य देशों के लेखकों की वो रचनाएं लोकप्रिय होती हैं जिसका विषय अकेलापन और अवसाद होता है। मुराकामी मूल रूप से जापानी में लिखते हैं। अमेरिका में रहते हैं। विश्व की कई अन्य भाषाओं में उनकी कृतियों का अनुवाद होता है। अनूदित पुस्तकें लाखों की संख्या में बिकती हैं। क्या पश्चिमी देश के पाठक अकेलेपन की इस समस्या से स्वयं को जोड़ते हैं इसलिए उनको इस तरह का लेखन पसंद आता है ? इसका एक पहलू ये भी है कि नोबेल विजेता से लेकर बुकर से पुरस्कृत कई लेखक अध्यात्म और भारत की चर्चा करते हैं।  

बुकर पुरस्कार की घोषणा के पहले दैनिक जागरण हिंदी बेस्टसेलर की जुलाई सितंबर 2025 की तिमाही की सूची प्रकाशित हुई। ये सूची हिंदी में सबसे अधिक बिकनेवाली पुस्तकों के आधार पर विश्व प्रसिद्ध एजेंसी नीलसन तैयार करती है। इस सूची में कथा, कथेतर, अनुवाद और कविता की पुस्तकें होती हैं। इसमें जो पुस्तकें आई हैं उसकी अनुवाद श्रेणी पर नजर डालते हैं, द हिडन हिंदू (सभी खंड), महागाथा, पुराणों से 100 कहानियां, नागा वारियर्स दो खंड, शौर्य गाथाएं, संसार, देवताओं की घाटी में प्रवेश। इनको देखने पर ये प्रतीत होता है कि भारत में हिंदी के पाठक धर्म और अध्यात्म से जुड़ी कथाएं पढ़ने में रुचि ले रहे हैं। पाठकों को वर्गीकरण करना आसान नहीं है कि किस आयुवर्ग के कितने पाठक हैं और वो कौन सी पुस्तकें पसंद कर रहे हैं। लेकिन सूची को देखने से एक बात तो स्पष्ट होती है कि हिंदी में उन विषयों पर लिखी पुस्तकें खूब बिक रही हैं जहां धर्म है, अध्यात्म है और जहां मन की शांति की बातें है। पश्चिम के पाठक अकेलेपन, अवसाद और निराशा की कहानियां पढ़ रहें हैं वहीं हिंदी के पाठक उससे बिल्कुल अलग धर्म और अध्यात्म से जुड़ी कहानियों या पुस्तकों में रुचि दिखा रहे हैं। इसके पीछे क्या कारण हो सकते हैं इसपर विचार करने की आवश्यकता है। क्या पश्चिम के समाज में और भारतीय समाज में जो मूलभूत अंतर है वो इसका कारण है या जो पारिवारिक संस्कार भारत में पीढ़ियों से चले आ रहे हैं वो वजह है? 

अगर हम विचार करते हैं तो पाते हैं कि पश्चिम के समाज में जो संस्कार हैं वो भारतीय संस्कारों से अलग है। हमारे यहां जिस प्रकार के सामाजिक मूल्य, नैतिकता और मर्यादा की स्थापना की बात होती है वैसी बातें पाश्चात्य समाज में नहीं होती है। हमारे समाज में विवाह से संतान प्राप्ति की बात होती है, विवाह संस्कार के बाद सात जन्मों के रिश्ते की बात है। विवाहोपरांत संतानोत्पत्ति की महत्ता स्थापित है और उसको मोक्ष से जोड़ा जाता रहा है। पश्चिमी देशों में सात जन्मों के रिश्ते की बात तो दूर वहां एक ही जन्म में सात रिश्ते की बातें होती हैं। वहां मोक्ष आदि की अवधारणा नहीं है इस कारण संतानोत्पत्ति को एक जैविक क्रिया तक ही सीमित रखा जाता है। पश्चिम के लेखन में मानसिक अवसाद एक कला के तौर पर रेखांकित की जाती रही है जिसमें मानवीय संवेदना और सकारात्मकता अनुपस्थित होता है। पश्चिम के नाटकों में ट्रेजडी महत्वपूर्ण है। जबकि हमारे यहां का नाट्यशास्त्र फल-प्राप्ति पर आधारित है। कोई भी काम किया जाता है तो उसके पीछे के संदेश और समाज या मानव के बेहतरी का भाव रहता है। ज्ञान के प्रकार के बारे में श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय 18 के श्लोक 20, 21 और 22 में बताया गया है। कहा गया है कि जिस ज्ञान से मनुष्य पृथक -पृथक सब भूतों में एक अविनाशी परमात्मा भाव को विभाग रहित समभाव से देखता है, उस ज्ञान को सात्विक ज्ञान कहते हैं। अगले श्लोक में बताया गया है कि जिस ज्ञान के द्वारा मनुष्य संपूर्ण भूतों में भिन्न-भिन्न प्रकार के नाना भावों को अलग-अलग जानता है, उस ज्ञान को राजस ज्ञान कहा गया है। ज्ञान के अंतिम प्रकार के बारे में गीता में कहा गया है कि जो ज्ञान एक कार्यरूप शरीर में ही संपूर्ण के सदृश आसक्त है तथा जो बिना युक्तिवाला तात्विक अर्थ से रहित और तुच्छ है उसको तामस कहा गया है। गीता के इन तीन श्लोकों के ज्ञान के प्रकार को विश्लेषित करते हैं तो ये स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय लेखन क्यों और किस कारण से पश्चिमी लेखन से अलग है। समभाव की बात को रेखांकित किया जाना चाहिए। राष्ट्रीय शिक्षा नीति के संदर्भ में जिस भारतीय ज्ञान परंपरा की बात होती है उसके सूत्र भी गीता के इन श्लोकों में देखे जा सकता हैं। 

हिंदी में भी निर्मल वर्मा, कृष्ण बदलदेव वैद्य, स्वदेश दीपक जैसे कुछ लेखकों ने अकेलेपन और अवसाद को विषय बनाकर लिखा है लेकिन माना गया कि पाश्चात्य प्रभाव में ऐसा किया गया। वामपंथ के प्रभाव या दबाव में जो लेखन हुआ वो अति यथार्थवाद का शिकार होकर लोक से दूर होता चला गया क्योंकि उसमें विद्रोह तो था पर अविनाशी परमात्मा को विभाग रहित समभाव से देखने की युक्ति नहीं थी। स्वाधीनता पूर्व का अधिकतर हिंदी लेखन रचनात्मकता समभाव की जमीन पर खड़ी नजर आती है। हिंदी साहित्य में जितना पीछे जाएंगे ये भाव उतना ही प्रबल रूप में दिखता है। यह अकारण नहीं है कि साठोत्तरी कविता और कहानी ने इस भाव से दूर जाकर नई पहचान बनाने की कोशिश की। जब इस तरह का लेखन फार्मूलाबद्ध हो गया तो पाठक इससे दूर होने लगे। आवश्यकता इस बात की है कि हिंदी लेखन अपनी जड़ों की ओर लौटे, संकेत मिल रहे हैं लेकिन इसको प्रमुख स्वर बनाना होगा। 


Sunday, November 9, 2025

वादा तो निभाया


फिल्म जानी मेरा नाम आज से करीब 55 साल पहले प्रदर्शित हुई थी और जबरदस्त हिट रही थी। इस फिल्म से कई बेहद दिलचस्प कहानियां जुड़ी हैं। अभी बिहार विधान सभा के चुनाव चल रहे हैं तो सबसे पहले बिहार से जुड़ा एक किस्सा। शूटिंग के लिए हेमा मालिनी और देवानंद नालंदा विश्वविद्यालय के खंडहरों के पास चलनेवाले रोपवे पर रोमांटिक सीन शूट कर रहे थे। नीचे शूटिंग देखनेवालों की भीड़ जमा थी। अचानक रोपवे का केबिन रुक गया। पता चला कि बिजली कट गई है। सीढ़ी लगाकर देवानंद और हेमा को नीचे उतारा गया। शूटिंग देखनेवालों की भीड़ के बीच पुलिस ने घेरा बनाया। जब दूसरा सीन शूट होने लगा तो किसी ने देवानंद को बताया कि भीड़ के आगे कुर्ता पायजामा पहने एक व्यक्ति खड़े हैं वो जयप्रकाश नारायण हैं। वो शूटिंग देखने आए हैं। देवानंद ने चौंक कर उनकी ओर देखा। नजरें मिलीं। जयप्रकाश जी मुस्कुरा रहे थे। फिर दोनों मिले इस प्रसंग की चर्चा देवानंद ने अपनी आत्मकथा में की है। दोनों के बीच इस फिल्म के दौरान हुई भेंट एक रिश्ते में बदली और देवानंद ने इमरजेंसी में तमाम दबाव के बावजूद इंदिरा गांधी का समर्थन नहीं किया। 

ये तो हुई शूटिंग की बात। फिल्म बनाने के निर्णय के पहले भी काफी रोचक घटनाएं हुईं। इस फिल्म के प्रोड्यूसर थे गुलशन राय। इसके पहले उनकी फिल्म फ्लाप रही थी। उनके मित्र बी आर चोपड़ा ने उनको सलाह दी कि वो फिल्म डिस्ट्रीब्यूशन का ही काम किया करें। ये बात गुलशन राय को चुभ गई। उन्होंने तय किया कि वो एक ऐसी फिल्म जरूर बनाएंगे जो हिट हो। गुलशन राय का ज्योतिष में विश्वास था। वो पंजाब के होशियारपुर जाया करते थे। उन दिनों होशियारपुर में कई ज्योतिषी रहते थे जो महर्षि भृगु की परंपरा से खुद को जोड़ते हुए जन्मकुंडली बनाते थे। उनमें से एक ज्योतिष से गुलशन राय ने अपनी सफलता के बारे में जानना चाहा। उनको बताया गया कि गोल्डी नाम का एक व्यक्ति आपकी फिल्म बनाएगा तो बहुत हिट होगी। गुलशन राय की भी महर्षि भृगु में आस्था थी। आप याद करें उनकी फिल्मों में त्रिमूर्ति फिल्म्स के लोगो के पहले भृगु की तस्वीर आती थी। होशियारपुर से लौटकर उन्होंने गोल्डी (विजय आनंद) से बात की और फिल्म बनाना तय हुआ। विजय आनंद इस फिल्म का नाम ‘दो रूप’ रखना चाहते थे। गुलशन राय ज्योतिष और अंक गणना के हिसाब से फिल्म का नाम ज शब्द से रखना चाहते थे। आखिरकार फिल्म का नाम जानी मेरा नाम रखा गया। फिल्म में प्रेमनाथ का चयन भी ज्योतिष के कारण ही हुआ। प्रेमनाथ लगातार गोल्डी को फिल्म के लिए मना कर रहे थे। एक दिन गोल्डी उनसे मिलने पहुंच गए। अनीता पाध्ये ने लिखा है कि अचानक प्रेमनाथ को याद आया कि उनको हिमालय से आए एक ज्योतिषी ने कहा था कि उनको अगर किसी फिल्म का प्रस्ताव मिले तो मना मत करना। इसके बाद उन्होंने चेतन आनंद को स्वीकृति दे दी। 

राय ने फिल्म की नायिका के लिए हेमा का नाम सुझाया। गोल्डी को स्लिम नायिका चाहिए थी। उनको हेमा मालिनी के चलने का अंदाज और दक्षिण भारतीय उच्चारण भी नहीं भा रहा था। जब वो दोनों हेमा से मिले तो गोल्डी की राय बदल गई। हेमा मालिनी फिल्म में नायिका के तौर पर ले ली गईं। हीरो तो देवानंद थे ही। हीरो के भाई की खोज आरंभ हुई। गोल्डी को लगा कि प्राण से बेहतर कोई हो नहीं सकता। वो प्राण से मिलने पहुंचे। प्राण ने अपने अंदाज में डायरी उनके सामने रक दी और कहा कि जो डेट खाली हो ले लो। इतना सुनते ही गोल्डी वहां से उठे और चले गए क्योंकि उनको पता ता कि ये प्राण का मना करने का तरीका था। उधर प्राण को लग रहा था कि गोल्डी मिन्नतें करेंगे। जब ऐसा कुछ नहीं हुआ तो प्राण ने चकित होकर अपने सेक्रेट्री से कहा कि इस आदमी में कुछ तो बात है, इसको डेट्स दे दो। पद्मा खन्ना को चुने जाने की भी एक रोचक कहानी है। पद्मा जब चेतन आनंद से मिलने आईं तो उस समय् डंसर के रोल के लिए संघर्ष कर रही थीं। गोल्डी से जब मिलीं तो उनके दांत पान खाने के कारण लाल थे। बाल बिखरे हुए थे। बगैर मेकअप आदि के चेहरा भी पसीने से तरबतर था। चेतन आनंद ने पद्मा खन्ना से कहा कि डांसर का रोल तो दूंगा लेकिन पहले किसी अच्छे डेंटिस्ट से अपने दांत साफ करवाओ। वेस्टर्न कपड़े पहनो और पाश्चात्य डांस सीखो। पद्मा खन्ना ने ये सब किया। और आप याद करिए जानी मेरा नाम का पद्मा खन्ना पर फिल्माया गीत- हुस्न के लाखों रंग कौन सा रंग देखोगे। सेंसर बोर्ड ने इस गाने पर आपत्ति भी की थी। इन सबके बाद जब फिल्म रिलीज हुई तो जनता ने इसके गानों को, इसके फिल्मांकन को, इसके संवाद को, पात्रों के अभिनय को बेहद पसंद किया। हेमा मालिनी के करियर को नई राह मिली तो देवानंद भी नई ऊंचाई पर पहुंचे। पद्मा खन्ना को तो पहचान ही मिली। कहना ना होगा कि ये फिल्म जितनी अच्छी थी उतनी ही दिलचस्प है इसके बनने की कहानी।  


Saturday, November 8, 2025

इतिहास लेखन में प्रशासनिक ढिलाई


भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय के अंतर्गत एक स्वायत्त संस्था है भारतीय ऐतिहासिक अनुसंधान परिषद (इंडियन काउंसिल आफ हिस्टोरिकल रिसर्च यानि आईसीएचआर)। इसकी वेबसाइट पर इस संस्था के उद्देश्य का वर्णन है- भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद का प्राथमिक उद्देश्य ऐतिहासिक शोध को बढ़ावा देना और उसे दशा देना तथा इतिहास के वस्तुनिष्ठ एवं वैज्ञानिक लेखन को प्रोत्साहित और पोषित करना है। चौबीस बिंदुओं में विस्तार से वर्णित इस संस्था के उद्देश्यों में अंतिम उद्देश्य है समान्यत: देश में ऐतिहासिक अनुसंधान और उसके उपयोग को बढ़ावा देने के लिए समय-समय पर आवश्यक समझे जानेवाले सभी उपाय करना। अंतिम उद्देश्य का दायरा बहुत विस्तृत है। इस संस्था के शीर्ष पर एक अध्यक्ष होते हैं और एक सदस्य सचिव। 2022 में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर उमेश अशोक कदम को आईसीएचआर के सदस्य सतिव के तौर पर नियुक्त किया गया था। वो अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सके। वित्तीय अनियमितताओं के आरोप में करीब नौ महीने तक ही इस पद पर बने रह सके। प्रकाशित खबरों के मुताबिक वित्तीय अनियमितता के आरोप इतने गंभीर थे कि मंत्रालय ने लंबे समय तक संस्था को आर्थिक मदद रोक दी थी। पता नहीं उन वित्तीय अनियमिततताओं की जांच हुई या जांच पूरी नहीं हो पाई है। कोई दोषी पाया जा सका या नहीं। 

उमेश अशोक कदम जी के पद छोड़ने के बाद से ही आईसीएचआर में कार्यवाहक सदस्य-सचिव हैं। लंबे अंतराल के बाद शिक्षा मंत्रालय ने 1 मई 2025 को आईसीएचआर के अध्यक्ष को एक पत्र (एफ नंबर-3-15/2013-U.3) लिखकर सूचित किया कि प्रो अल्केश चतुर्वेदी को सदस्य सचिव के पद पर नियुक्त किया जा सकता है। पत्र के समय अल्केश चतुर्वेदी सांची विश्वविद्यालय में कुलसचिव थे। इस पत्र में आईसीएचआर के अध्यक्ष के पत्र संख्या एफ-1.1/2024/सीएचएमएन/आईसीएचआर दिनांक 9.11.2024 का हवाला देते हुए कहा कि मंत्रालय के सक्षम अधिकारी ने प्रो अल्केश चतुर्वेदी के सदस्य सचिव पद पर नियुक्ति को मंजूरी दे दी है। पहली नजर में ये पत्र सामान्य नियुक्ति पत्र लगता है लेकिन इसके तीसरे बिंदु में एक पेंच है। इस बिंदु में लिखा गया है कि आपसे अनुरोध किया जाता है कि नियुक्ति निर्देश जारी करें और इस क्रम में आईएचआर के नियमों का पालन करें। इसके बाद की पंक्ति को रेखांकित किया जाना चाहिए। इसमें कहा गया है कि नियुक्ति पत्र जारी करने के पहले संबंधित व्यक्ति के विजिलेंस क्लीयरेंस का ध्यान रखा जाए। पहली नजर में यह भी सामान्य बात लगती है, लेकिन इस पत्र में कहीं नहीं कहा गया है कि चयनित व्यक्ति के विजिलेंस क्लीयरेंस की प्रतीक्षा आईसीएचआर कब तक करे। इसके लिए कोई समय सीमा तय नहीं कि गई। दूसरा प्रश्म उठता है कि क्या चयन समिति ने जब इनके नाम पर विचार किया था या जब आईसीएचआर के अध्यक्ष ने इनके नाम की संस्सतुति मंत्रालय से की थी तो विजिलेंस क्लीयरेंस नहीं लिया गया था? 

यह तो निश्चित है कि मंत्रालय के 1 मई 2025 के सदस्य सचिव के पद पर प्रो अल्केश चतुर्वेदी को नियुक्त करने के आदेश को कार्यान्वयित करने के लिए अध्यक्ष ने कार्यवाही आरंभ की होगी। कार्यवाही के अंतर्गत ये माना जा सकता है कि अध्यक्ष ने अल्केश चतुर्वेदी से विजिलेंस क्लीयरेंस के लिए लिखा अवश्य होगा। परंतु छह महीने तक सदस्य सचिव के पद पर नियुक्ति नहीं होने से ऐसा प्रतीत होता है कि अल्केश चतुर्वेदी विजिलेंस क्लीयरेंस जमा नहीं करवा पाए हैं या उनके विजिलेंस क्लीयरेंस में कोई समस्या है। दोनों ही स्थितियों में आईसीएचआर के अध्यक्ष प्रोफेसर रघुवेंद्र तंवर को नियुक्ति की स्थितियों पर पुनर्विचार करना चाहिए। या ये माना जाए कि इस पत्र की आड़ में अनंत काल तक अल्केश चतुर्वेदी के विजिलेंस क्लीयरेंस की प्रतीक्षा की जाएगी और तबतक संस्था कार्यवाहक सदस्य सचिव के भरोसे चलता रहेगा। जिस चयन समिति ने अल्केश चतुर्वेदी का चयन किया उसने तीन नाम का पैनल भेजा था। अगर नियम अनुमति देते हों तो अध्यक्ष उस पैनल में से किसी अन्य व्यक्ति की नियुक्ति के लिए शिक्षा मंत्रालय को अनुरोध पत्र भेज सकते हैं। संभव है भेजा भी होगा लेकिन सदस्य सचिव के पद पर नियमित नियुक्ति में अनावश्यक देरी से संदेह उत्पन्न होता है। कहीं यथास्थिति बनाए रखने की कोशिश तो नहीं की जा रही है। सदस्य सचिव के पद पर नियमित नियुक्ति नहीं होने से संस्था का कामकाज भी सुचारू रूप से नहीं चल पा रहा है। संस्था के उद्देश्य भी पूरे नहीं हो पा रहे हैं। पाठकों को याद होगा कि इस स्तंभ में ही मदर आफ डेमोक्रेसी नामक पुस्तक के प्रकाशन और उसके मूल्य निर्धारण पर पहले लिखा जा चुका है। कुछ लोग तो ये कहते हैं कि लाखों रुपए मूल्य की पुस्तकें अब भी आईसीएचआर के गोदाम में धूल फांक रही है। पता नहीं कभी इसकी जांच हुई या नहीं या होगी भी या नहीं। दरअसल जिम्मेदार पद पर नियमित नियुक्ति नहीं होने से गड़बड़ियों को फलने फूलने का मैदान तैयार होता है।

गड़बड़ियों से आगे जाकर अगर हम शोध कार्यों पर ध्यान दें तो एक ही उदाहरण पर्याप्त होगा। 2022 में आईसीएचआर ने एक महात्वाकांक्षी परियोजना बनाई थी भारत के समग्र इतिहास लेखन की। योजनानुसार आठ खंडों में ये पुस्तक तैयार होनी थी। वरिष्ठ इतिहासकार सुष्मिता पांडे को इस परियोजना का जनरल एडीटर बनाया गया। प्रधानमंत्री मेमोरियल और संग्रहालय से एक व्यक्ति को प्रतिनियुक्ति पर आईसीएचआर लाया गया। करीब तीन वर्ष होने को आए अभी तक एक भी खंड पाठकों के लिए उपलब्ध नहीं हो पाया है। पहला खंड समग्र इतिहास की आवश्यकता को रेखांकित करनेवाला है। उसको अभी विशेषज्ञ देख रहे हैं यानि रेफरिंग पूल में डूब उतरा रहा है। इस हिसाब से देखा जाए तो अगले 24 वर्ष में शायद इस परियोजना को पूरा किया जा सकेगा। समग्र इतिहास लेखन अगर इस अगंभीरता से लिया जाएगा तो फिर भगवान ही मालिक हैं। आईसीएचआर जैसी संस्था का वामपंथी इतिहासकारों ने जितना उपयोग अपने विचार को फैलाने या एकांगी दृष्टि से इतिहास लिखने में किया उसका निषेध करना भी इस रफ्तार में संभव नहीं लगता है। आईसीएचआर जैसी संस्था को बेहद गंभीरता से चलाने की आवश्यकता है जिसमें निर्णय त्वरित हों, कार्य निर्धारित समय पर पूर्ण हों और प्रशासनिक बाधाओं से अकादमिक प्रक्रिया से मुक्त कराने की इच्छाशक्ति वाला कोई व्यक्ति संस्था में हो। 

2014 में जब से मोदी सरकार बनी है तभी से इतिहास को समग्र दृष्टि देने की बात हो रही है। गृहमंत्री अमित शाह ने बनारस में कुछ वर्षों पहले कहा था कि इतिहास लेखन में किसी की गलती बताने से बेहतर है हम अपनी लकीर लंबी करें। प्रधानमंत्री ने लालकिला की प्राचीर से पांच प्रण गिनाए थे उसमें से विरासत वाले प्रण का सिरा इतिहास से जुड़ता है। शिक्षा मंत्री धर्मेन्द्र प्रधान भी कई बार राष्ट्रीय शिक्षा नीति पर बात करते हुए इतिहास के समग्र लेखन की महत्ता को रेखांकित कर चुके हैं। प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और शिक्षा मंत्री की चिंता के केंद्र में इतिहास का समग्र लेखन है लेकिन बावजूद इसके आईसीएचआर में ढिलाई दिखती है। समग्र इतिहास लेखन परियोजना को लेकर व्याप्त आलस पूरे सिस्टम पर सवाल खड़े कर रहा है। जरूरत है कि शिक्षा मंत्री अपने स्तर पर इसमें दखल दें और प्रसासनिक बाधों को दूर करने की राह संस्था को दिखाएं।    


Saturday, November 1, 2025

धर्मांतरण की जुगत में उपराष्ट्रपति


भारत में आमतौर पर अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के बयान पर चर्चा होती है। कभी टैरिफ पर उनके बयान तो कभी आपरेशन सिंदूर रुकवाने के उनके दावे तो कभी प्रधानमंत्री मोदी को मित्र बताने पर तरह तरह की चर्चा होती है। पिछले दिनों अमेरिका के उपराष्ट्रपति जे डी वेंस ने मिसीसिपी विश्वविद्यालय के एक कार्यक्रम में अपनी पत्नी ऊषा वेंस के धर्म पर बयान दिया जिस पर अपेक्षाकृत कम चर्चा हुई। एक प्रश्न के उत्तर में उपराष्ट्रपति ने कहा कि उन्हें उम्मीद है कि जल्द ही उनकी पत्नी ऊषा वेंस ईसाई धर्म अपना लेंगी। जे डी वेंस की पत्नी ऊषा भारतीय मूल की हिंदू हैं। विवाह के बाद भी उन्होंने अपना धर्म नहीं बदला। उपराष्ट्रपति बनने के बाद वेंस जब अपनी पत्नी और बच्चों के साथ भारत आए थे तो पति-पत्नी अक्षरधाम मंदिर गए थे। अमेरिका में भी वेंस और ऊषा के हिंदू रीति-रिवाजों को निभाते फोटो दिखते रहते हैं। विश्वविद्यालय में वेंस के इस बयान के बाद उनके कंजरवेटिव समर्थकों ने जमकर तालियां बजाईं। बाद में इंटरनेट मीडिया पर वेंस के इस बयान की आलोचना आरंभ हो गई। एक व्यक्ति ने तो उनको एक्स पर टैग करते हुए लिखा कि ये अफसोस की बात है कि आप अपनी पत्नी के धर्म को सार्वजनिक रूप से बस के नीचे फेंक कर कुचलना चाहते हैं। जब आलोचना बढ़ी तो उपराष्ट्रपति को सफाई देनी पड़ी। उन्होंने कहा कि फिलहाल ऊषा के धर्म परिवर्तन की कोई योजना नहीं है। साथ ही उम्मीद भी जता दी कि जिस तरह से वो चर्च की ओर प्रेरित हुए उसी तरह से एक दिन उनकी पत्नी भी चर्च की ओर जाने की राह पर बढ़ेंगी। आपको बताते चलें विवाह के पूर्व वेंस नास्तिक थे। दरअसल अमेरिका में अंतर-धार्मिक विवाह को लेकर हमेशा से बहस चलती रही है। जब से ट्रंप राष्ट्रपति बने हैं और मेक अमेरिका ग्रेट अगेन का नारा दिया है, तब से ये बहस और तेज है। वर्तमान सरकार के कई सदस्य प्रवासियों से ये अपेक्षा करते हैं कि वो अमेरिका और ईसाई धर्म से प्यार करें। 

अमेरिका कई बार भारत को धर्म और कथित धार्मिक कट्टरता को लेकर नसीहत देता रहता है। धार्मिक कट्टरता पर तो कई रिपोर्ट प्रकाशित कर अंतराष्ट्रीय स्तर पर जारी भी करता रहा है। ट्रंप तो राष्ट्रपति चुनाव के समय से ही ईसाई धर्म और बाइबिल को लेकर लगातार श्रद्धापूर्वक अपनी रैली में बोलते रहे हैं। यहां ये भी याद दिलाता चलूं कि जब अमरिका में राष्ट्रपति चुनाव के लिए प्रचार हो रहा था तो ट्रंप की रैलियों और सभाओं में लार्ड जीजस और जीजस इज किंग के नारे गूंजते थे। ट्रंप, एलन मस्क और जे डी वेंस ने अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव के समय परिवार, शादी, बच्चे और ईसाई धर्म को आगे रखा था। उनके इस प्रचार ने अमेरिकी वोटरों को अपनी ओर खींचा था और कमला हैरिस परास्त हो गई थीं। ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के बाद इसको और बल मिला। चर्च और ईसाई धर्म से जुड़े लोग महत्व पाने लगे। मेक अमेरिका ग्रेट अगेन को उन्होंने प्राथमिकता देनी शुरु की। चार्ली किर्क ट्रंप के पारंपरिक वोटरों से संवाद करनेवाले महत्वपूर्ण व्यक्ति थे। ईसाई धर्म और अमेरिकी माटी को लेकर आक्रामक तरीके से भाषण देते थे और लोगों को एकजुट करते थे। पिछले दिनों चार्ली किर्क की हत्या हो गई। चार्ली  हत्या के बाद ट्रंप के इस एजेंडे को आक्रामक तरीके से आगे बढ़ाने वाला कोई बचा नहीं। कुछ दिनों पूर्व चार्ली किर्क की विधवा का बयान आया था। वो कह रही थीं कि चार्ली को रिप्लेस करनेवाला उनको कोई दिखाई नहीं देता लेकिन चार्ली और जे डी वेंस में कई समानताएं हैं। बहुत संभव है कि चार्ली के एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए ट्रंप ने वेंस को चुना हो। अगले राष्ट्रपति चुनाव में जे डी वेंस स्वाभाविक रूप से रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार हो सकते हैं। ऐसे में उनकी ईसाई धर्म समर्थक की छवि बनाने से लाभ होगा। उस समय उनके सामने उनकी पत्नी के धर्म को लेकर प्रश्न ना खड़े हों इस कारण से वेंस अभी से एक माहौल बनाना चाहते हैं। पिछले राष्ट्रपति चुनाव के परिणाम से ये बात साबित भी हो गई कि अमेरिकी राजनीति में धर्म का महत्वपूर्ण स्थान है। 

इस पूरे प्रकरण से एक और बात सामने आती है वो ये कि भारत को नसीहत देनेवाले अमेरिका के नेता धर्म को लेकर किस तरह का व्यवहार करते हैं। अब अगर हम भारत की बात कर लें तो स्थिति बिल्कुल भिन्न नजर आती है।  भारत में तो कभी भी ना तो किसी राजनेता की पत्नी के धर्म के बारे में चर्चा होती है, ना ही जिज्ञासा और ना ही वोटरों को फर्क पड़ता है। राजीव गांधी ने सोनिया गांधी से शादी की कभी किसी ने कोई आपत्ति उठाई हो या कभी राजीव गांधी ने उनपर हिंदू धर्म स्वीकार करने का दबाव बनाया हो, ऐसा सार्वजनिक तो नहीं हुआ। राजीव गांधी के निधन के बाद सोनिया गांधी का विदेशी मूल भले ही मुद्दा बना लेकिन तब भी किसी ने ये नहीं पूछा कि वो हिंदू हैं या अब भी ईसाई ही हैं। जिस तरह से वेंस ने सार्वजनिक रूप से अपनी पत्मी के धर्म परिवर्तन की बात कही वैसा तो भारत में सुना नहीं गया। विदेश मंत्री जयशंकर की पत्नी विदेशी मूल की हैं लेकिन उनके धर्म के बारे में ना तो किसी को कोई रुचि है और ना ही कोई जानना चाहता है। भारत के राष्ट्रपति रहे के आर नारायणन की पत्नी भी विदेशी रहीं, उन्होंने अपना नाम अवश्य बदला लेकिन उनके धर्म को लेकर भारत की जनता को कभी कोई आपत्ति हुई हो ऐसा ज्ञात नहीं है। अमेरिका खुद को बहुत आधुनिक और खुले विचारों वाला देश कहता है लेकिन धर्म को लेकर वहां के नेताओं के विचार बेहद संकुचित हैं। चुनाव में भी जिस तरह से धर्म का खुलेआम उपयोग वहां होता है वो भी देखनेवाली बात है। लेकिन जब दूसरे देशों को नसीहत देने की बात होती है तो सभी एकजुट हो जाते हैं।  

हम अमेरिकी समाज को देखें तो वहां आधुनिकता के नाम पर इस तरह की वितृतियां घर कर गई हैं कि वहां के मूल निवासी अब वापस अपनी जड़ों की ओर लौटना चाहते हैं। ये अनायास नहीं है कि ट्रंप ने शादी और बच्चों का मसला उठाया और उसको लोगों ने पसंद किया। ट्रंप और उनकी टीम लगातार परिवार व्यवस्था की बात करते रहते हैं और अमेरिकी उनकी बातों को ध्यान से सुनते हैं। अमेरिका में नास्तिकता की बातें बहुत पुरानी है और इसकी जड़े उन्नीसवीं शताब्दी में जाती हैं। जब पूरी दुनिया में कम्युनिस्टों की विचारधारा लोकप्रिय हो रही थी तब अमेरिका में भी चार्ल्स ली स्मिथ जैसे लोगों ने खुले विचारों के नाम पर नास्तिकता को बढ़ावा देने के लिए योजनाबद्ध तरीके से कार्य आरंभ किया। वहां की युवा पीढ़ी इसकी ओर आकर्षित भी हुई। इक्कसीवीं शताब्दी तक आते आते फिर से धर्म की ओर लोगों का रुझान बढ़ने लगा है। अब भी अमेरिका में नास्तिकता को बढ़ावा देनेवाले संगठन हैं लेकिन कमजोर हैं। हिंदू धर्म और उनके अनुयायियों जैसा सहिष्णु कहीं और नहीं है ये अमेरिकियों को समझना होगा।