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Saturday, November 15, 2025

जड़ों की ओर लौटता हिंदी लेखन


पिछले दिनों जब बुकर पुरस्कार की घोषणा हुई तो लेखक प्रभात रंजन ने फेसबुक पर एक टिप्पणी लिखी, देर रात बुक प्राइज की घोषणा हुई और इस बार ये पुरस्कार DAVID SZALAY के उपन्यास फ्लेश को मिला। वो कनाडा मूल के लेखक हैं। सबसे पहले उनके नाम का उच्चारण ढूंढा – वह है डेविड सोलले । अमेजन पर इनका उपन्यास खरीदा। सबसे सस्ता किंडल संस्करण मिला, 704 रु में।... एक बात समझ में आई कि इस बार शार्टलिस्ट में एक से अधिक उपन्यास ऐसे थे जिनमें अकेलापन, बेमेल दुनिया की बातें थीं। यह भी कुछ उसी तरह का उपन्यास है। अलग अलग भाषाओं में इस तरह की कहानियां और उपन्यास बहुत लिखे जा रहे हैं। प्रभात रंजन की इस टिप्पणी को पढ़ने के बाद ध्यान वैश्विक लेखन की ओर चला गया। कुछ दिनों पहले साहित्य के नोबेल पुरस्कार की घोषणा हुई थी। नोबेल पुरस्कार से सम्मानित लेखक लास्जलो क्रास्जनाहोरकाई के लेखन में भी अकेलापन और निराशा कई बार प्रकट होता है। पहले के लेखक भी इस तरह का लेखन करते रहे हैं। पश्चिमी देशों के अलावा जापान और कोरिया के कई लेखकों के उपन्यासों और कहानियों में भी अकेलापन और उसका दंश, उससे उपजी निराशा और फिर समाज पर उसका प्रभाव दिखाई पड़ता है। जापान के विश्व प्रसिद्ध लेखक हारुकी मुराकामी के उपन्यासों में भी अकेलापन प्रमुखता से आता है। जापान के समाज में अकेलापन एक बड़ी समस्या है तो जाहिर सी बात है कि वहां के लेखकों पर इस समस्या का प्रभाव होगा। उनकी कहानियों के पश्चिमी देशों में लाखों पाठक हैं। क्या कारण है कि पश्चिमी दुनिया में उनके अपने लेखकों और अन्य देशों के लेखकों की वो रचनाएं लोकप्रिय होती हैं जिसका विषय अकेलापन और अवसाद होता है। मुराकामी मूल रूप से जापानी में लिखते हैं। अमेरिका में रहते हैं। विश्व की कई अन्य भाषाओं में उनकी कृतियों का अनुवाद होता है। अनूदित पुस्तकें लाखों की संख्या में बिकती हैं। क्या पश्चिमी देश के पाठक अकेलेपन की इस समस्या से स्वयं को जोड़ते हैं इसलिए उनको इस तरह का लेखन पसंद आता है ? इसका एक पहलू ये भी है कि नोबेल विजेता से लेकर बुकर से पुरस्कृत कई लेखक अध्यात्म और भारत की चर्चा करते हैं।  

बुकर पुरस्कार की घोषणा के पहले दैनिक जागरण हिंदी बेस्टसेलर की जुलाई सितंबर 2025 की तिमाही की सूची प्रकाशित हुई। ये सूची हिंदी में सबसे अधिक बिकनेवाली पुस्तकों के आधार पर विश्व प्रसिद्ध एजेंसी नीलसन तैयार करती है। इस सूची में कथा, कथेतर, अनुवाद और कविता की पुस्तकें होती हैं। इसमें जो पुस्तकें आई हैं उसकी अनुवाद श्रेणी पर नजर डालते हैं, द हिडन हिंदू (सभी खंड), महागाथा, पुराणों से 100 कहानियां, नागा वारियर्स दो खंड, शौर्य गाथाएं, संसार, देवताओं की घाटी में प्रवेश। इनको देखने पर ये प्रतीत होता है कि भारत में हिंदी के पाठक धर्म और अध्यात्म से जुड़ी कथाएं पढ़ने में रुचि ले रहे हैं। पाठकों को वर्गीकरण करना आसान नहीं है कि किस आयुवर्ग के कितने पाठक हैं और वो कौन सी पुस्तकें पसंद कर रहे हैं। लेकिन सूची को देखने से एक बात तो स्पष्ट होती है कि हिंदी में उन विषयों पर लिखी पुस्तकें खूब बिक रही हैं जहां धर्म है, अध्यात्म है और जहां मन की शांति की बातें है। पश्चिम के पाठक अकेलेपन, अवसाद और निराशा की कहानियां पढ़ रहें हैं वहीं हिंदी के पाठक उससे बिल्कुल अलग धर्म और अध्यात्म से जुड़ी कहानियों या पुस्तकों में रुचि दिखा रहे हैं। इसके पीछे क्या कारण हो सकते हैं इसपर विचार करने की आवश्यकता है। क्या पश्चिम के समाज में और भारतीय समाज में जो मूलभूत अंतर है वो इसका कारण है या जो पारिवारिक संस्कार भारत में पीढ़ियों से चले आ रहे हैं वो वजह है? 

अगर हम विचार करते हैं तो पाते हैं कि पश्चिम के समाज में जो संस्कार हैं वो भारतीय संस्कारों से अलग है। हमारे यहां जिस प्रकार के सामाजिक मूल्य, नैतिकता और मर्यादा की स्थापना की बात होती है वैसी बातें पाश्चात्य समाज में नहीं होती है। हमारे समाज में विवाह से संतान प्राप्ति की बात होती है, विवाह संस्कार के बाद सात जन्मों के रिश्ते की बात है। विवाहोपरांत संतानोत्पत्ति की महत्ता स्थापित है और उसको मोक्ष से जोड़ा जाता रहा है। पश्चिमी देशों में सात जन्मों के रिश्ते की बात तो दूर वहां एक ही जन्म में सात रिश्ते की बातें होती हैं। वहां मोक्ष आदि की अवधारणा नहीं है इस कारण संतानोत्पत्ति को एक जैविक क्रिया तक ही सीमित रखा जाता है। पश्चिम के लेखन में मानसिक अवसाद एक कला के तौर पर रेखांकित की जाती रही है जिसमें मानवीय संवेदना और सकारात्मकता अनुपस्थित होता है। पश्चिम के नाटकों में ट्रेजडी महत्वपूर्ण है। जबकि हमारे यहां का नाट्यशास्त्र फल-प्राप्ति पर आधारित है। कोई भी काम किया जाता है तो उसके पीछे के संदेश और समाज या मानव के बेहतरी का भाव रहता है। ज्ञान के प्रकार के बारे में श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय 18 के श्लोक 20, 21 और 22 में बताया गया है। कहा गया है कि जिस ज्ञान से मनुष्य पृथक -पृथक सब भूतों में एक अविनाशी परमात्मा भाव को विभाग रहित समभाव से देखता है, उस ज्ञान को सात्विक ज्ञान कहते हैं। अगले श्लोक में बताया गया है कि जिस ज्ञान के द्वारा मनुष्य संपूर्ण भूतों में भिन्न-भिन्न प्रकार के नाना भावों को अलग-अलग जानता है, उस ज्ञान को राजस ज्ञान कहा गया है। ज्ञान के अंतिम प्रकार के बारे में गीता में कहा गया है कि जो ज्ञान एक कार्यरूप शरीर में ही संपूर्ण के सदृश आसक्त है तथा जो बिना युक्तिवाला तात्विक अर्थ से रहित और तुच्छ है उसको तामस कहा गया है। गीता के इन तीन श्लोकों के ज्ञान के प्रकार को विश्लेषित करते हैं तो ये स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय लेखन क्यों और किस कारण से पश्चिमी लेखन से अलग है। समभाव की बात को रेखांकित किया जाना चाहिए। राष्ट्रीय शिक्षा नीति के संदर्भ में जिस भारतीय ज्ञान परंपरा की बात होती है उसके सूत्र भी गीता के इन श्लोकों में देखे जा सकता हैं। 

हिंदी में भी निर्मल वर्मा, कृष्ण बदलदेव वैद्य, स्वदेश दीपक जैसे कुछ लेखकों ने अकेलेपन और अवसाद को विषय बनाकर लिखा है लेकिन माना गया कि पाश्चात्य प्रभाव में ऐसा किया गया। वामपंथ के प्रभाव या दबाव में जो लेखन हुआ वो अति यथार्थवाद का शिकार होकर लोक से दूर होता चला गया क्योंकि उसमें विद्रोह तो था पर अविनाशी परमात्मा को विभाग रहित समभाव से देखने की युक्ति नहीं थी। स्वाधीनता पूर्व का अधिकतर हिंदी लेखन रचनात्मकता समभाव की जमीन पर खड़ी नजर आती है। हिंदी साहित्य में जितना पीछे जाएंगे ये भाव उतना ही प्रबल रूप में दिखता है। यह अकारण नहीं है कि साठोत्तरी कविता और कहानी ने इस भाव से दूर जाकर नई पहचान बनाने की कोशिश की। जब इस तरह का लेखन फार्मूलाबद्ध हो गया तो पाठक इससे दूर होने लगे। आवश्यकता इस बात की है कि हिंदी लेखन अपनी जड़ों की ओर लौटे, संकेत मिल रहे हैं लेकिन इसको प्रमुख स्वर बनाना होगा। 


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