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Thursday, February 11, 2010

कांग्रेस का नया अर्जुन

आजादी के बाद के चुनावों में उत्तर प्रदेश में अल्पसंख्यकों के वोट कमोबेश कांग्रेस पार्टी को ही मिलते रहे हैं । सन बानवे में बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद मुसलमानों का कांग्रेस से मोहभंग हुआ और उसका वोट कांग्रेस की झोली से निकलकर मुलायम के पास पहुंच गया । लेकिन पिछले लोकसभा चुनाव के वक्त मुलायम सिंह यादव ने बाबरी मस्जिद विध्वंस के वक्त उत्तर प्रदेश के मुखयमंत्री रह चुके पूर्व भाजपा नेता कल्याण सिंह को अपना सहयोगी बना लिया । लोकसभा चुनाव के नतीजों ने यह साफ कर दिया कि मुलायम के लिए कल्याण की यह दोस्ती भारी पड़ी । उत्तर प्रदेश में ढाई साल बाद एक बार फिर से विधानसभा चुनाव होनेवाले हैं और लोकसभा चुनावों में पार्टी की सफलता से उत्साहित कांग्रेसियों की नजर एक बार फिर से मुस्लिम मतदाताओं पर है । पार्टी नेताओं को यह लगने लगा है कि अगर मुसलमानों को एक बार फिर से साध लिया गया तो प्रदेश में मरणासन्न पार्टी को नई संजीवनी मिल सकती है ।
अपनी इसी योजना को लेकर पार्टी के उत्तर प्रदेश प्रभारी दिग्विजय सिंह आजमगढ़ के संजरपुर पहुंचते हैं । संजरपुर वो कस्बा है जहां के कुछ युवकों पर आतंकवादी गतिविधियों में शामिल होने का आरोप लगता रहा है । वहां पहुंचकर दिग्विजय सिंह को अचानक दिल्ली ब्लास्ट के बाद हुए बटला एनकाउंटर की याद आती है । स्थानीय लोगों का जोरदार विरोध और काले झंडे के बावजूद जब दिग्विजय सिंह को बोलने का मौका मिला तो उन्होंने एक शातिर राजनेता की तरह लोगों की दुखती रग पर हाथ रख दिया । इशारों-इशारों में बटला हाउस एनकांउटर के फर्जी होने की बात कर डाली । दिग्विजय ने कहा कि उन्होंने बटला हाउस एनकाउंटर के फोटोग्राफ्स देखे हैं जिनमें आतंकवादियों के सर में गोली लगी है । उनके मुताबिक दहशतगर्दों के खिलाफ एनकाउंटर में इस तरह से गोली लगना नामुमकिन है । जाहिर है इशारा और इरादा दोनों साफ था । दिग्विजय सिंह को अगर बटला हाउस एनकाउंटर की सत्यता पर संदेह था तो डेढ साल से चुप क्यों थे । संजरपुर पहुंचकर ही दिग्गी राजा को बटला हाउस की याद क्यों आई । आपको याद दिलाते चलें कि दो हजार आठ के सितंबर में दिल्ली के बटला हाउस इलाके में हुए एक एनकाउंटर में दिल्ली पुलिस के जांबाज सिपाहियों ने दो आतंकवादियों को ढेर कर दिया था । आतंकवादियों से लड़ते हुए उस मुठभेड़ में दिल्ली पुलिस के जांबाज इंसपेक्टर मोहन चंद्र शर्मा शहीद हो गए थे और एक हेड कांस्टेबल बुरी तरह से जख्मी हो गया था । दो साल पहले जब यह एनकाउंटर हुआ था, उस वक्त भी इसपर सवाल खड़े हुए थे । लेकिन बाद में अदालत और सरकारी जांच में ये साबित हो गया कि मुठभेड़ सही था ।
जब दिग्विजय सिंह संजरपुर में ये बयान दे रहे थे उसके दो दिन पहले यूपी एसटीएफ ने दिल्ली समेत कई शहरों में हुए बम धमाकों के आरोपी आतंकवादी शहजाद को धर दबोचा था । शहजाद ने इस सिलसिले में कई सनसनीखेज खुलासे भी किए और यह भी माना कि दिल्ली पुलिस के इंसपेक्टर मोहनचंद शर्मा उसकी ही गोली का निशाना बने । लेकिन एनकाउंटर के फोटग्राफ्स को ध्यान से देखनेवाले कांग्रेस पार्टी के इस वरिष्ठ नेता को शहजाद के बयानों को पढने की फुर्त कहां । इन बातों से बेखबर दिग्विजय ने संजरपुर में बटला हाउस एनकाउंटर को ही संदेहास्पद करार दे दिया । ये इस एनकाउंटर में मारे गए शहीद मोहनचंद शर्मा का अपमान भी है ।
जाहिर था दिग्विजय सिंह के इस बयान के बाद सियासी गलियारों में हड़कंप मचा और भारतीय जनता पार्टी ने दिग्विजय सिंह के बहाने कांग्रेस पार्टी पर निशाना साधा । आनन फानन में कांग्रेस ने दिग्विजय के बयान से खुद को अलग कर लिया । दरअसल कांग्रेस में अल्पसंख्यकों को लुभाने की यह चाल बहुत पुरानी है । एक जमाने में दिग्विजय सिंह के गुरू और उनके ही प्रदेश के कांग्रेसी नेता अर्जुन सिंह भी इस तरह के राजनीतिक दांव चला करते थे । एक जमाने में जब सीताराम केसरी कांग्रेस के अध्यक्ष थे उस वक्त अर्जुन सिंह ने अल्पसंख्यकों को खुश करने के लिए आरएसएस पर गांधी की हत्या का आरोप जड़ दिया था । जब आरएसएस ने कानूनी कार्रवाई की धमकी दी तो अर्जुन के तेवर नरम पड़े थे और बयान में संशोधन करते हुए कहा था कि संघ ने जो वातावरण तैयार किया था वही गांधी हत्या की वजह बना । लेकिन उस वक्त बयान देते वक्त अर्जुन सिंह यह भूल गए थे कि जस्टिस कपूर की रिपोर्ट, कांग्रेस के नेता डी पी मिश्रा की आत्मकथा और सरदार पटेल के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के पत्रों में भी आरएसएस को गांधी की हत्या के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया गया था । लेकिन अर्जुन सिंह अपने राजनैतिक लाभ के लिए गांधी की हत्या का इस्तेमाल करते रहे । लेकिन आरएसएस के तत्कालीन प्रवक्ता राम माधव ने अर्जुन सिंह को हकीकत का आईना भी दिखाया था । राम माधव ने बताया था कि अर्जुन सिंह के परिवार के संबंध संघ के साथ कितने गहरे रहे हैं और उनके भाई राणा बहादुर सिंह एक जमाने में राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के जिला प्रमुख हुआ करते थे । लेकिन इन सबसे बेखबर अर्जुन सिंह ने अल्पसंख्यकों पर डोरे डालना नहीं छोड़ा ।
इसके बाद जब अर्जुन सिंह केंद्र में मानव संसाधन विकास मंत्री बने तो पाठ्य पुस्तकों को भगवा रंग से मुक्त करने की मुहिम के नाम पर भी अपनी राजनीति चमकाते रहे । इसपर भी जमकर विवाद हुआ था । जिसमें बाद में प्रधानमंत्री को दखल देना पड़ा था । अर्जुन सिंह ने एक वक्त अपने वक्तव्यों और सहयोगियों के साथ मिलकर ऐसा समां बांध दिया था कि लगने लगा था कि सेक्युलरिज्म के वो सबसे बड़े पैरोकार हैं । अपन बयानवीरता से उत्साहित अर्जुन सिंह यहीं नहीं रुके थे उन्होंने एक वक्तव्य में संघ और हिंदू महासभा को भारत के विभाजन का जिम्मेदार भी ठहरा दिया था । अर्जुन सिंह ने संघ पर इतिहास को गलत दिशा देने का आरोप भी जड़ा था । अल्पसंख्यकों को लुभाने के चक्कर में सिंह ने कई बचकाने तर्क दिए और यह भूल गए कि विभाजन का असली जिम्मेदार तो जिन्ना थे जिन्होंने द्वि-राष्ट्र के सिद्धांत का ना केवल प्रतिपादन किया बल्कि उसको मूर्त रूप भी दिलवाया, जिसको कांग्रेस के नेताओं का भी मूक समर्थन प्राप्त था । द्वि-राष्ट्र के सिद्धांत पर इतिहासकारों में मतैक्य नहीं है विद्वानों ने जमकर लिखा है ।
अब अर्जुन सिंह अस्वस्थ हैं और पार्टी में उनकी कोई पूछ नहीं रह गई है । कांग्रेस में कोई बड़ा अल्पसंख्यक नेता भी नहीं है जिसपर पार्टी को ये भरोसा हो कि वो अपने समुदाय का वोट पार्टी को दिला सकता है । मौका माकूल देखकर दिग्विजय सिंह ने अपने गुरू अर्जुन सिंह की राह पर चलने का फैसला कर लिया प्रतीत होता है । दिग्विजय सिंह को इसके दो फायदे हो सकते हैं एक तो पार्टी में उसकी पूछ बढ़ जाएगी और दूसरे अगर खुदा ना खास्ते उत्तर प्रदेश के आगामी विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को कोई फायदा होता है तो पार्टी आलाकमान की नजर में उनका ग्राफ भी उपर चढ़ जाएगा । कांग्रेस पार्टी में अपने प्रतिद्वदियों की राजनीति से राहुल के नाम के सहारे जूझ रहे दिग्गी राजा को अल्पसंख्यकों की पैरोकारी का ये फॉर्मूला बेहतर लगा और संजरपुर पहुंचकर उन्होंने इसकी शुरुआत कर दी । भविष्य में यह देखना और भी दिलचस्प होगा कि अल्पसंख्यकों के किन-किन मुद्दों पर दिग्विजय सिंह अपनी राय देते हैं और कांग्रेस उससे अपना पल्ला झाड़ लेती है । लेकिन दिग्विजय सिंह को यह याद रखना चाहिए कि अर्जुन सिंह के जमाने में राजनैतिक फिजां कुछ और थी और अब का राजनैतिक परिदृश्य अलहदा है । अब मुसलमानों को सिर्फ बयानबाजी से बरगलाना मुश्किल है उन्हें कुछ ठोस करके दिखाना होगा ।

2 comments:

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

मुसलमानों को विधानसभाओं-परिषदों-लोकसभा-राज्यसभा के सभी टिकिट सभी धर्मनिरपेक्ष पार्टियां दे दें तो झंझट ही खत्म.

इष्ट देव सांकृत्यायन said...

बिलकुल सही सवाल उठाए हैं. बुनियादी बात तो यह कि धर्म-जाति के आधार पर राजनीति करना भारत की राजनीतिक पार्टियां कब छोड़ेंगी? बेचारा मतदाता है कि वह लगातार इन बातों से अपना गला छुड़ाने में लगा हुआ है और नेता लोग बार-बार इसी शिकंजे में उसे कस देते हैं.