Translate

Tuesday, August 10, 2010

पच्चीस का ‘हंस’

आज से पच्चीस साल पहले जब अगस्त 1986 में राजेन्द्र यादव ने हंस पत्रिका का पुर्नप्रकाशन शुरू किया था तब किसी को भी उम्मीद नहीं रही होगी कि यह पत्रिका निरंतरता बरकरार रखते हुए ढाई दशक तक निर्बाध रूप से निकलती रहेगी, शायद संपादक को भी नहीं । उस वक्त हिदी में एक स्थिति बनाई या प्रचारित की जा रही थी कि यहां साहित्यिक पत्रिकाएं चल नहीं सकती । सारिका बंद हो गई, धर्मयुग बंद हो गया जिससे यह साबित होता है कि हिंदी में गंभीर साहित्यक पत्रिका चल ही नहीं सकती । लेकिन तमाम आशंकाओं को धता बताते हुए हंस ने अगस्त में अपने पच्चीस साल पूरे करते हुए यह सिद्ध कर दिया कि हिंदी में गंभीर साहित्य के पाठक हैं और पिछले पच्चीस सालों में इसे शिद्दत से साबित भी कर दिया । मेरे जानते हिंदी में व्यक्तिगत प्रयास से निकलने वाली हंस इकलौती कथा पत्रिका है जो लगातार पच्चीस सालों से प्रकाशित हो रही है और इसका पूरा श्रेय जाता है इसके संपादक और वरिष्ठ लेखक राजेन्द्र यादव को । जब इस पत्रिका का प्रकाशन शुरू हुआ था तब इस बात को लेकर खासी सुगबुगाहट हुई थी कि यह प्रेमचंद की पत्रिका हंस है या दिल्ली के हंसराज कॉलेज की पत्रिका हंस । लेकिन कालांतर में इस पत्रिका ने साबित कर दिया कि वह सचमुच में प्रेमचंद वाला हंस ही है । राजेन्द्र यादव स्वंय प्रतिष्ठित साहित्यकार हैं और नई कहानी आंदोलन के अवांगार्द । बहुत पहले यादव जी ने एक आलोचनात्मक पुस्तक लिखी थी- प्रेमचंद की विरासत बाद में कहानीकार होते हुए भी उन्होंने प्रेमचंद की विरासत को ही अपनाया और हंस का पुनर्प्रकाशन किया । पिछले पच्चीस सालों में हंस ने हिंदी साहित्य को ना केवल एक नई दिशा दी बल्कि उसने दलित और स्त्री विमर्श के साथ-साथ तत्कालीन प्रासंगिक मुद्दों को उठाकर हिंदी साहित्यिक पत्रकारिता का एक नया इतिहास भी लिखा और साहित्यिक पत्रकारिता के कुछ नए मानक भी स्थापित किए तरह की खुली बहस से दूसरी पत्रिका के संपादकों के हाथ पांव फूल जाते थे उसे राजेन्द्र यादव ने हंस में जोरदार तरीके से उठाया । खुद अपने संपादकीय में बिना किसी डर-भय और लाग लपेट के यादव जी ने अपनी बातें कहकर बहस में सार्थक हस्तक्षेप किया । अपने प्रकाशन के शुरुआती दिनों से ही हंस ने साहित्यिक माहौल को गर्मागर्म बनाए रखा और जो मुर्दनीछाप शास्त्रीय किस्म का माहौल था उसे सक्रिय करते हुए जुझारू तेवर भी प्रदान किए । हो सकता है कि राजेन्द्र यादव के स्टैंड से आप सहमत ना हों लेकिन पच्चीस बरसों की लंबी अवधि में यादव जी ने अनेक विचारोत्तेजक मुद्दे पर बहस चलाई और साहित्यकि माहौल को सजीव बनाए रखा । यादव जी के एजेंडे में सिर्फ साहित्यिक मुद्दे ही नहीं रहे । अनेक सामाजिक मु्द्दों को भी हंस ने अपनी परिधि में लेकर सार्थक बहसें चलाई । आज अगर दलित विमर्श या दलित चेतना, स्त्री विमर्श या स्त्री चेतना हमारे समय की महत्वपूर्ण प्रवृतियों के रूप में व्यापक रूप से मान्यता पा चुके हैं तो इसका काफी श्रेय हंस और इसके संपादक राजेन्द्र यादव को जाता है ।
इसके अलावा हंस ने पच्चीस सालों में तकरीबन चार पीढियों को साहित्य में दीक्षित करने का काम भी किया । मुझे मेरा साहित्यिक संस्कार जरूर परिवार से मिला लेकिन मुझे यह स्वीकार करने में तनिक भी हिचक नहीं है कि हंस ने उसे परिष्कृत किया । हंस को पढ़ते हुए ही कई मसलों को देखने समझने की नई दृष्टि भी मिली ।
इसके अलावा जो एक बड़ा काम यादव जी ने हंस के माध्यम से किया को यह कि कहानीकारों की एक लंबी फौज खड़ी कर दी । यह कहते हुए मुझे कोई संकोच या किसी तरह का कोई हिचक नहीं है कि पिछले ढाई दशक की हिंदी की महत्वपूर्ण कहानियां हंस में ही छपी । एक बार बातचीत में यादव जी ने इस बात को स्वीकार करते हुए कहा था – अगर झूठी शालीनता ना बरतूं तो कह सकता हूं कि हिंदी में अस्सी प्रतिशत श्रेष्ठ कहानियां हंस में ही प्रकाशित हुई हैं और ऐसे एक दर्जन से ज्यादा कवि हैं जिनकी पहली कविताएं हंस में ही छपी और आज उनमें से कई हिंदी के महत्वपूर्ण रचनाकार हैं। यादव जी की इस बात में कोई अतिशयोक्ति नहीं है , हंस ने अपने प्रकाशन के शुरुआती वर्षों में ही उदय प्रकाश की तिरिछ, शिवमूर्ति कू तिरिया चरित्तर, ललित कार्तिकेय का तलछट का कोरस, रमाकांत का कार्लो हब्शी का संदूक, चंद्रकिशोर जायसवाल की हंगवा घाट में पानी रे और आनंद हर्षुल की उस बूढे आदमी के कमरे में छापकर हिंदी कथा साहित्य का एक नया जीवनदान दिया । बाद में भी हंस में ही छपी उदय प्रकाश की चर्चित कहानियां – और अंत में प्रार्थना, पीली छतरी वाली लड़की, अरुण प्रकाश की जल प्रांतर, अखिलेश की चिट्ठी, स्वयं प्रकाश की अविनाश मोटू उर्फ..., सृंजय की कॉमरेड का कोट आदि कहानियों ने भी कथा साहित्य को झकझोर दिया था ।
यह लेख तो हंस के पच्चीस साल पूरे होने पर उसेक मूल्यांकन के तौर पर लिख रहा हूं लेकिन इसी महीने राजेन्द्र यादव बयासी साल के हो रहे हैं । उम्र के इस पड़ाव पर भी वो जिस मुस्तैदी और लगन के साथ हंस का संपादन करते हैं और पत्रिका को नियत समय पर निकालते हैं वो किसी के लिए भी रश्क की बात हो सकती है । अगर आप उनके संपर्क में हैं तो वो लगातार आपको कुछ नया करने के लिए उकसाते रहेंगे और तबतक नहीं मानेंगे जबतक कि वो आपसे कुछ करवा ना लें । एक संपादक के तौर पर राजेन्द्र यादव बेहद ही लोकतांत्रिक हैं । हंस में पाठकों के जो पत्र छपते हैं वो इस बात की ताकीद करते हैं कि राजेन्द्र यादव अपनी आलोचना को भी बेहद प्रमुखता से प्रकाशित करते हैं । आप उनके लेखन और विचार से अपनी असहमति लिखकर या मौखिक भी दर्ज करा सकते हैं । उनसे बातचीत करते वक्त आपको इस बात का बिल्कुल भी एहसास नहीं होगा कि आप हिंदी के इतने बड़े लेखक या संपादक से बात कर रहे हैं । उनका वयक्तित्व आतंकित नहीं करता बल्कि रचनाशीलता के लिए उकसाता है । उनके लेखन में ही नहीं बल्कि उनके स्वभाव में भी एक खिलंदड़ापन और छेड़छाड़ की प्रवृत्ति है । यादव जी अपने बातचीत में ही नहीं अपने लेखन में भी समकालीन बने रहना चाहते हैं । हाल के दिनों में उनके संपादकीय में गजब की पठनीयता आ गई है । यादव जी पर संपादकीय में अंग्रेजी के शब्दों के इस्तेमाल पर आलोतना भी झेलनी पड़ती रही है । अशोक वाजपेयी कहते हैं- अपने संपादकीयों में जिस तरह हर तीसरे वाक्य में बेवजह अंग्रेजी के वाक्य ठूंसते हैं, जबकि उनके लिए हिंदी में काफी दिनों से प्रचलित पर्याय सुलभ हैंट यह अंतत उन्हें बौद्धिक रूप से एक भाषा विपन्न लेखक बल्कि संपादक सिद्ध करता है । अशोक वाजपेयी और नामवर सिंह से यादव जी की नोंक झोंक चलती रहती है । लेकिन इन लोगों की इस नोंक झोंक से साहित्यिक परिदृश्य सजीव बना रहता है । हमारी कामना है कि यादव जी दीर्घायु हों और हंस का संपादन पचास साल तक करते रहें ।

No comments: