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Sunday, September 9, 2012

सालों बाद आरोप के तीर

बांग्लादेश की विवादास्पद और निर्वासन का दंश झेल रही विवादास्पद लेखिका तसलीमा नसरीन ने एक बार फिर से नए विवाद को जन्म दे दे दिया है । तसलीमा ने बंग्ला के मूर्धन्य लेखक और साहित्य अकादमी के अध्यक्ष सुनील गंगोपाध्याय पर यौन शोषण का बेहद संगीन इल्जाम जड़ा है । तसलीमा ने सोशल नेटवर्किंग साइट ट्विटर पर लिखा- सुनील गंगोपाध्याय किताबों पर पाबंदी के पक्षधर रहे हैं । उन्होंने मुझे और कई अन्य महिलाओं का यौन शोषण किया । वो साहित्य अकादमी के अध्यक्ष हैं । शर्म, शर्म । तसलीमा नसरीन के इस ट्विट ने साहित्य जगत में तूफान खड़ा कर दिया है । तसलीमा के अलावा लोगों ने सुनील गंगोपाध्याय से इस आरोप पर सफाई मांगनी शुरू कर दी । सुनील गंगोपाध्याय का कद साहित्य में बहुत बड़ा है और उनपर इसके पहले इस तरह के आरोप लगे हों ये ज्ञात नहीं है । इतना अवश्य है कि जब दो हजार चार में तसलीमा की आत्मकथा का तीसरा खंड दि्वखंडित प्रकाशित हुआ तो साहित्यक हलके में इस तरह की चर्चा हुई थी लेकिन उस वक्त किसी का नाम साफ तौर पर उभर कर सामने नहीं आया था । अब उस पुस्तक के प्रकाशन के आठ साल बाद तसलीमा ने वरिष्ठ और बुजुर्ग साहित्यकार लेखक सुनील गंगोपाध्याय पर खुलेआम आरोप लगाया है । जहां तक तसलीमा के सेक्सुअल हैरसमेंट के आरोप की बात है तो अब एक बड़ा सवाल खड़ा होता है कि वो अब तक इस मसले पर चुप क्यों रहीं । जब उनका यौन शोषण हुआ था तो उस वक्त उन्होंने हल्ला क्यों नहीं मचाया । तसलीमा ने इस बात का जबाव देते हुए कहा है कि एक उनके साथ कोलकाता के एक होटल में सुनील गंगोपाध्याय ने छेड़छाड़ की । तसलीमा के मुताबित कोलकाता में सुनील अपने एक दोस्त के साथ उनके कमरे में डिनर के लिए आए थे । जब जाने लगे तो उन्होंने विदाई आलिंगन के वक्त आपत्तिजनक हरकत की थी । लेकिन उस वक्त तसलीमा सुनील गंगोपाध्याय के रसूख को देखते हुए खामोश रही थी ।  
भारत में हमेशा पुलिस के पहरे में रहनेवाली तसलीमा ने हैरसमेंट के वक्त पुलिस को इस बात की जानकारी क्यों नहीं दी । उन्होंने जरूर इस बात का जिक्र किया है कि उनकी आत्मकथा द्विखंडित को बैन करवाने के पीछे सुनील गंगोपाध्याय ही मास्टरमाइंड थे । तसलीमा इतने पर ही नहीं रुकी और गंगोपाध्याय पर उनको बंगाल से निकलवाने की साजिश रचने और झूठ बोलने का भी आरोप जड़ दिया है । दरअसल तसलीमा नसरीन चर्चा और विवादों के केंद्र में बने रहना चाहती भी हैं और जानती भी हैं । जो लोग भी तसलीमा नसरीन को ट्विटर पर फॉलो करते हैं उन्हें इस बात का अंदाजा भी है । वो लगातार धर्म, स्त्री पुरुष संबंधों और पुरुषों के खिलाफ अजीबोगरीब ट्विटरबाजी से चर्चा में आने की जुगत में लगी रहती हैं ।
दरअसल तस्लीमा और सुनील गंगोपाध्याय के बीच ये पूरा विवाद शुरू हुआ है पश्चिम बंगाल के वरिष्ठ पुलिस अधिकारी डॉक्टर नजरुल इस्लाम की किताब- मुसलमान की करनीय (मुसलमानों को क्या करना चाहिए ) से । इस किताब के छपने के बाद पश्चिम बंगाल पुलिस ने बगैर किसी इजाजत के प्रकाशक के गोदाम और दफ्तर पर छापा मारा और उनको जमकर धमकाया । ड़ॉक्टर इसलाम की किताबों की बिक्री नहीं करना का फरमान जारी कर दिया गया । इस किताब में ममता बनर्जी सरकार की अल्पसंख्यकों के प्रति नीति की आलोचना की गई है और तमाम तर्कों और उदाहरणों के साथ ममता की नीति को वोट बैक की राजनीति और अल्पसंख्यकों को लुभाने वाली नीति करार दिया गया है । पिछले दिनों कई घटनाओं से ये साफ हो गया है कि ममता बनर्जी अपनी आलोचना बर्दाश्त नहीं कर पा रही है । पहले जब एक टेलीनिजन के कार्यक्रम में स्नातक की छात्रा तान्या भारद्वाज ने उनसे महिलाओं की सुरक्षा पर सवाल पूछा तो उसको माओवादी करार देते हुए कार्यक्रम को बीच में छोड़कर चली गई थी । उसके बाद एक जगह किसानों ने जब उनसे अपनी समस्याओं की बात की तो उनको जेल भेज दिया गया । बीच में फेसबुक पर कार्टून बनाने को लेकर जो हंगामा मचा वो तो अभी तक सबके जेहन में ताजा है ।  
नजरुल इस्लाम की इस किताब पर ममता बनर्जी सरकार की अघोषित पाबंदी और पुलिस के प्रकाशक के दफ्तर पर छापा मारने के बाद से पश्चिम बंगाल के कुछ बुद्धिजीवियों ने उसकी खिलाफत शुरू कर दी । इस खिलाफत में बयान जारी करनेवालों में से एक नाम सुनील गंगोपाध्याय का भी है । उन्होंने इस पाबंदी को अभिव्यक्ति की आजादी पर खतरा बताते हुए तगड़ा विरोध जताया । सुनील गंगोपाध्याय के इस विरोध के बाद तसलीमा नसरीन ने ताबड़तोड़ ट्विट करके ये साबित करने की कोशिश की सुनील गंगोपाध्याय का विरोध सिर्फ दिखावा मात्र हैं और अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर उनके दो चहरे हैं । तसलीमा ने पहले तो लोगों से अपील की कि वो नजरुल इस्लाम की अभिवयक्ति की आजादी के समर्थन में खड़े हों । इसी क्रम में उन्होंने कहा कि सुनील गंगोपाध्याय का विरोध छद्म है । सुनील गंगोपाध्याय को अभिव्यक्ति की आजादी से कोई लेना देना नहीं है । तसलीमा ने अपनी किताब का हवाला देते हुए कहा कि सुनील गंगोपाध्याय ने बुद्धदेव भट्टाचार्य की तत्तकालीन सरकार पर दबाव डालकर उनकी किताब द्विखंडित पर पाबंदी लगवाई थी । द्विखंडित को बुद्धदेव सरकार ने धार्मिक भावनाएं भड़काने के आरोप में बैन कर दिया था । बाद में मामला कोर्ट में गया और कलकत्ता हाईकोर्ट ने पहले तो कुछ विवादित अंशों को हटाकर किताब पर से बैन हटा दिया था । जब द्विखंडित हिंदी में छपा तो कई जगह खाली बॉक्स बनाकर यह लिख दिया गया था कि कलकत्ता उच्च न्यायालय द्वारा प्रतिबंधित पाठ्य सामग्री यहां नहीं छापी गई है । बाद में कोर्ट ने उन प्रतिबंधित अंशों को प्रतिबंध से मुक्त कर दिया था और कथित विवादास्पद अंशों को भी छापने की इजाजत दे दी थी ।
दरअसल अभिव्यक्ति की आजादी की आड़ लेकर लेखक अपनी अपनी चालें चल रहे हैं । नजरुल इस्लाम की किताब पर जब पाबंदी लगी तो तसलीमा को उसमें अपना पुराना हिसाब चुकाने की संभावना नजर आई । तमाम मुद्दों पर मुखर रहनेवाली तसलीमा आमतौर पर भारत के साहित्यक मसलों पर खामोश ही रहती हैं । लेकिन नजरुल के मामले में जब सुनील गंगोपाध्याय ने विरोध जताया तो वो भी कूद पड़ीं और उनपपर सेक्सुअल हैरसमेंट का आरोप जड़ दिया । उसका नतीजा क्या हुआ पूरे देश और मीडिया का ध्यान मूल प्रश्न से हटकर यौन शोषण पर केंद्रित हो गया । सारी बहस उस दिशा में मुड़ गई और अभिव्यक्ति की आजादी का बड़ा प्रश्न आरोप प्रत्यारोप में गुम सा गया । बाद में जब तसलीमा से इस बात पर सवाल जबाव किया गया तो उन्होंने कहा कि आई हैव हर्ड दैट सुनील हैज डन इट टू मैनी वूमन । अब सुनी सुनाई बातों पर किसी का चरित्र हनन करना कहां तक जायज है । अब तसलीमा ये भी सफाई दे रही हैं कि इस यौन शोषण की अभिव्यक्ति उन्होंने एक कविता रास्तेर छेले इबोंग कोबी लिखकर की थी । उनकी ये कविता उनके संग्रह खाली खाली लगे में संग्रहीत है ।  
सवाल यह उठता है कि तसलीमा इस तरह के प्रश्न उठाकर या आरोप लगाकर क्या हासिल करना चाहती है । इस बात की पड़ताल होनी चाहिए । बांग्ला के कई लेखक इस आरोप की टाइमिंग पर सवाल खड़े कर रहे हैं । टाइमिंग पर सवाल होना लाजमी है । इस वक्त सुनील गंगोपाध्याय साहित्य अकादमी के अध्यक्ष हैं । अकादमी का उनका कार्यकाल विवादित नहीं रहा है । क्या इसके पीछे साहित्य अकादमी की राजनीति है । क्या तसलीमा के इस बयान के निहितार्थ और भी हैं । क्या तसलीमा नसरीन नजरुल इस्लाम की किताब के बहाने से अपनी व्यक्तिगत खुन्नस निकाल रही हैं । क्या अभिव्यक्ति की आजादी के बड़े प्रश्न की आड़ में व्यक्तिगत झगड़ों का बदला चुकाया जा रहा है । या फिर सच में तसलीमा के साथ ऐसा हुआ था जिसपर उसने सालों बाद मुंह खोला है । लेकिन इतना तो तय है कि तसलीमा के इन आरोपों की गूंज देर तलक सुनाई देगी हो सकता है साहित्य अकादमी के चुनाव के वक्त भी इसकी अनुगूं सुनाई दे । हैरानी की बात नहीं है कि इस मामले में लेखकों की जमात से किसी तरह का कोई स्टैंड सामने नहीं रहा । लेखक संगठनों की चुप्पी भी चकित करनेवाली है । महिला अधिकारों के लिए गलाफाड़ कर चिल्लानेवाले संगठन भी खामोश क्यों हैं । क्या लेखक संगठनों को ये सवाल या आरोप बड़ा नहीं लगता । या फिर किसी पॉलिटिक्स के तहत लेखक संगठनों ने चुप्पी साध रखी है । लेखकों के इन संगठनों ने तो तसलीमा के बंगाल निष्कासन से लेकर उसकी किताब पर पाबंदी लगाने के वक्त भी चुप्पी साध ली थी । अपनी पार्टी का कर्ज चुका रहे थे । लेकिन अब वक्त आ गया है कि वो संगठन इस मसले में हस्तक्षेप करे और आरोपों के धुंध को साफ करने में एक भूमिका निभाए 

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