रोमन साम्राज्य के फर्डीनेंड-1 ने सोलहबीं
शताब्दी में ऐलान किया था कि - हर कीमत पर न्याय होना चाहिए चाहे
विश्व का नाश ही क्यों ना हो जाए । अपनी किताब आईडिया ऑफ जस्टिस में बाद में अमर्त्य
सेन ने न्याय के इस सिद्धांत के बारे में लिखते हुए कहा था कि यह एक कठोर नीति हो सकती
है पर यह न्याय कतई नहीं है । अमर्त्य सेन का मानना है कि समग्र विश्व के विध्वंस को
एक न्यायपूर्ण समाज कह पाना संभव नहीं है । विश्व के नाश के बाद अगर न्याय संभव होता
है तो उसका कोई मतलब नहीं रह जाएगा । कुछ इस तरह की बात ही जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल
में वरिष्ठ समाजशास्त्री आशीष नंदी ने कही जब उन्होंने मंच पर मौजूद एक वक्ता की बात
- करप्शन इज अ ग्रेट इक्वलाइजर के समर्थन में कुछ ऐसा कह दिया जिस पर
बवाल खड़ा हो गया । आशीष नंदी ने चर्चा में भाग लेते हुए कहा कि - इट इज अ फैक्ट दैट मोस्ट ऑफ द करप्ट कम फ्रॉम द ओबीसी एंड शेड्यूल कास्ट एंड
नाउ इंक्रीजिंगली द शेड्यूल ट्राइव । उन्होंने इसके समर्थन में पश्चिम बंगाल में सीपीएम
के शासनकाल का उदाहरण भी दिया । आशीष नंदी के इस बयान पर देशभर में बवाल मच गया । मीडिया पर उनके बयान को तोड़ मरोड़ कर पेश करने का
आरोप लगा, जो इस विवाद से बचकर
निकल जाने का सबसे आसान रास्ता था । लेकिन इन आरोपों के बीच आशीष नंदी के बयान के
दो शब्दों पर गौर नहीं करने की चूक होती चली गई । आशीष नंदी इस देश के सबसे बड़े
विचारक और ऋषितुल्य चिंतक हैं । उनके शब्दों के चयन पर संदेह करने की ना तो कोई
वजह है और ना ही कोई पृष्ठभूमि । आशीष नंदी अपने लेखन में पिछले चार पांच दशकों से
पिछड़ों और दलितों के हितों की वकालत करते रहे हैं । लेकिन 26
जनवरी को जयपुर में उन्होंने जो कहा उसके दो शब्द पर हमें गौर करना चाहिए ।
उन्होंने कहा कि - इट इज अ फैक्ट दैट मोस्ट ऑफ द करप्ट ...। इस वाक्य में फैक्ट और
मोस्ट पर ध्यान देना चाहिए । फैक्ट यानि तथ्य और मोस्ट यानि सबसे ज्यादा । आशीष
नंदी किस तथ्य की बात कह रहे थे, इस बात का खुलासा ना तो नंदी ने और ना ही उनके
समर्थन में तर्क दे रहे बुद्धिजीवियों ने किया । आशीष नंदी और उनके समर्थक भी यह
जानते हैं कि तथ्य बगैर किसी आधार के नहीं होते हैं । और जब आप सबसे ज्यादा कहते
हैं तो उसका भी आधार होता है । लेकिन दोनों शब्दों का कोई आधार अब तक सामने नहीं
आया है ।
अपने इस भाषण में नंदी ने कहा कि जबतक दलित और पिछड़े
भ्रष्टाचार करते रहेंगे तो भारतीय गणतंत्र सुरक्षित है । सवाल यह उठता है कि
भ्रष्टाचार, चाहे वो उच्च वर्ग के लोगों द्वारा किया जा रहा हो या निम्न वर्ग के
द्वारा, को कैसे जायज ठहराया जा सकता है । नंदी के समर्थकों का तर्क है कि पिछड़े
तबकों का भ्रष्टाचार उच्च वर्ग के खिलाफ विद्रोह है । हो सकता है लेकिन जब ए राजा
पर करोड़ों के भ्रष्टाचार का आरोप लगता है तो वो किस उच्च वर्ग के खिलाफ विद्रोह
है, यह बात समझ से परे है । यह तो उसी तरह की बात हुई कि सबको न्याय मिलना ही
चाहिए चाहे विश्व का नाश क्यों ना हो जाए । रिपब्लिक ऑफ आइडिया के सत्र में बोलते हुए आशीष नंदी ने पश्चिम बंगाल में सीपीएम के शासनकाल काल का उदाहरण देते हुए कहा था कि वो एक ऐसा राज्य है जहां भ्रष्टाचार न्यूनतम है क्योंकि पिछले सौ सालों से वहां पिछड़े, दलित और आदिवासी वर्ग का कोई नुमाइंदा सत्ता के करीब नहीं आया । आशी। नंदी के इस बयान को कई समाजशास्त्री तंज और व्यंग्य के रूप में व्याख्यायित कर रहे हैं । इस भाषण में कहां से तंज है यह बात समझ से परे है । 26 जनवरी की सुबह के सत्र के दौरान मैं पूरे वक्त मौजूद था और पूरी बातचीत और उसके कहने के अंदाज से कहीं भी नहीं लग रहा था कि आशीष नंदी व्यंग्य के रूप में यह बात कह रहे हैं । नंदी के इस बयान पर राजनीतिक दलों में दबरदस्त प्रतिक्रिया हुई और सभी दलों ने उनके इस बयान पर तीखी प्रतिक्रिया दी । मायावती से लेकर एससी कमीशन के अध्यक्ष पीएल पुनिया ने उनकी गिरफ्तारी की मांग की । पुनिया ने तो उनके बयान को आपराधिक प्रवृत्ति तक का करार दे दिया । पुनिया के इस बयान के किसी भी तरह से सहमत नहीं हुआ जा सकता है, ना ही नंदी की गिरफ्तारी की मांग को जायज करार दिया जा सकता है । पुनिया इस बहाने राजनीति की रोटियां सेंक रहे हैं । लेकिन हमारे देश के बुद्धिजीवियों का एक तबका राजनेताओं को नंदी के बयान पर राजनीति नहीं करने की सलाह दे रहे हैं । उनका तर्क है कि नंदी के बयान का प्रतिवाद तर्कों के आधार पर किया जाना चाहिए और इस मामले से राजनेताओं को अलग रहना चाहिए । दरअसल कुछ बुद्धिजीवियों का यह तर्क बेहद हास्यास्पद है । वो राजनेताओं को राजनीति ना करने की सलाह दे रहे हैं, उनकी अपेक्षा है कि मायावती या पुनिया या बीजेपी-कांग्रेस के नेता अखबारों और पत्रिकाओं में लेख लिखकर विरोध जताएं । लोकतंत्र में राजनेता राजनीति ही करते हैं और करेंगे । हमारे बुद्धिजीवी यह भूल गए हैं कि अगर आशीष दा की तरह का कोई बयान राजनेता देता तो उसके क्या तर्क होते । लोकतंत्र के नाम पर हमारे देश के बुद्धिजीवी एक और खेल खेलते हैं , वह है अपने विचारों को थोपने का खेल । अगर आप हमारे विचारों के साथ नहीं हैं तो आप अनपढ़, मूढ़ और दकियानूसी हैं जबकि होना यह चाहिए कि आशीष नंदी की तरह हर किसी को अपने विचारों को जताने का हक है ।
अमर्त्य सेन ने अपनी किताब में तीन बच्चों- अन्ना, बॉब और कार्ला ( हिंदी अनुवाद में इसे सरल करते हुए ए, बी और सी नाम दे दिया गया है ) के बीच एक बांसुरी के स्वामित्व को लेकर हुए विवाद का उदाहरण देते हैं । अन्ना यह कहकर बांसुरी पर अपना हक जताता है कि उसे ही बांसुरी बजानी आती है । वहीं बॉब का तर्क यह है कि वह बेहद गरीब है और उसके पास कोई खिलैना नहीं है लिहाजा बांसुरी उसको मिलनी चाहिए । कार्ला का तर्क है कि उसने कड़ी मेहनत करके बांसुरी बनाई है इसलिए उसपर उसका ही अधिकार है । अब इन तीन बच्चों के तर्क के आधार पर आपको फैसला करना है । सेन का मानना है कि मानवीय आनंदानुभूति, गरीबी निवारण और अपने श्रम के उत्पादन का आनंद उठाने के अधिकार पर आधारित किसी भी दावे को निराधार कहकर ठुकरा देना सहज नहीं है । आर्थिक समतावादी के लिए बॉब के पक्ष में निर्णय देना आसान है क्योंकि उनका आग्रह संसाधनों के अंतर कम करने को लेकर है । दूसरी ओर स्वातंत्र्यवादी सहज भाव से बांसुरी बनानेवाले यानि कार्ला के पक्ष में फैसला सुना देगा । सबसे अधिक कठिन चुनौती उपयोगिता आनंदवादी के समक्ष खडा़ हो जाता है लेकिन वह स्वातंत्र्यवादी और समतावादी की तुलना में अन्ना के दावे को प्रबल मानते हुए उसके पक्ष में फैसला दे देगा । उसका तर्क होगा कि चूंकि सिर्फ अन्ना को ही बांसुरी बजानी आती है इसलिए उसको सर्वाधिक आनंद मिलेगा । सेन का मानना है कि तीनों बच्चों के निहित स्वार्थों में कोई खास अंतर नहीं है फिर भी तीनों के के दावे अलग-अलग प्रकार के निष्पक्ष और मनमानी रहित तर्कों पर आधारित हैं । ठीक इसी तरह से नंदी, उनके पक्ष में खड़े बुद्धिजीवी और राजनेताओं के अपने अपने तर्क हैं, जिनको रोकना बौद्धिक तानाशाही को बढ़ावा देगा ।