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Saturday, August 24, 2013

राह से भटकी अकादमियां

हिंदी साहित्य जगत में मासिक पत्रिका हंस के कार्यक्रम के कथिक क्रांतिकारी लेखकद्वय के बहिष्कार के बीच मले कोलाहल को परिधि पर धकेलकर कुछ दिनों के लिए भोजपुरी साहित्य चर्चा के केंद्र में आ गया था । बिहार की लगभग मृतप्राय भोजपुरी अकादमी को लगा कि वो विवादों के ऑक्सीजन से अकादमी में जान फूंक सकती है । बिहार भोजपुरी अकादमी के अध्यक्ष ने मशहूर लोकगायिका मालिनी अवस्थी को अकादमी का अंतराष्ट्रीय सांस्कृतिक राजदूत बनाने का ऐलान कर दिया । इस ऐलान के बाद भोजपुरी भाषा और उसकी राजनीति करनेवालों ने खासा बवाल मचाया । उत्तर प्रदेश के गोरखपुर से समाजवादी पार्टी के टिकट पर योगी आदित्यनाथ के खिलाफ लोकसभा चुनाव लड़कर हार चुके गायक कलाकार मनोज तिवारी ने विरोध को वाणी देते हुए बिहार भोजपुरी अकादमी के इस फैसले पर कड़ा एतराज जताया । भोजपुरी गायक ,अभिनेता और राजनेता मनोज तिवारी ने आनन फानन में भोजपुरी अकादमी के इस फैसले के खिलाफ बिहार सरकार का सम्मान लौटाने की भी धमकी दी । इस प्रसंग में मनोज तिवारी और भोजपुरी अकादमी के बीच जमकर बयानों के तीर चले । इस विवाद का अंत किया मालिनी अवस्थी ने । मालिनी ने बेहद गरिमापूर्ण तरीके से खत लिखकर भोजपुरी अकादमी के सम्मान के इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया । मालिनी ने भोजपुरी अकादमी के अध्यक्ष को लिखा- मैं पूरब की बेटी हूं और पूरब में ही पली बढ़ी हूं । पूर्वी उत्तर प्रदेश में भोजपुरी की गंगा बहती है । मुझे गर्व है कि उन्हीं भोजपुरी संस्कारों ने सींचा और निखारा है और लोकप्रियता दिलाई है । महोदय आपने भोजपुरी के प्रति मेरा समर्पण और योगदान देखकर मुझे बिाहर भोजपुरी अकादमी का अंतराष्ट्री सांस्कृतिक राजदूत नियुक्त किया था । किंतु कुछ व्यक्तियों ने स्वार्थवश इस नियुक्ति पर अकारण सवाल खड़े किए । इस वजह से मेरा अंतर्मन कहता है कि मैं इसके लिए दी गई अपनी स्वीकृति वापस ले लूं । मालिनी के इस खत ने विवाद का तो पटाक्षेप कर दिया लेकिन इस विवाद के बीच कई बड़े सवाल खड़े हो गए ।
सबसे बड़ा और अहम सवाल तो बिहार भोजपुरी अकादमी के कामकाज पर खड़ा हो गया है । बिहार भोजपुरी अकादमी ने भोजपुरी भाषा के विकास के लिए अब तक क्या काम किया है इसबात की पड़ताल होनी चाहिए और उसको सार्वजनिक भी किया जाना चाहिए। साहित्य जगत को भोजपुरी अकादमी के कामकाज के बारे में ज्ञात नहीं है । भोजपुरी साहित्य और संस्कृति के विकास के लिए भोजपुरी अकादमी ने क्या कदम उठाए हैं वो भी भोजपुरी भाषा भाषियों के अलावा गैर भाषा के लोगॆं को भी पता चलना चाहिए नहीं है । क्या सिर्फ किसी मशहूर शख्सियत को अकादमी का सांस्कृतिक दूत बनाकर भोजपुरी साहित्य का भला हो सकता है या फिर भोजपुरी साहित्य को विस्तार और नए आयाम मिल सकते हैं, इस बारे में विचार करना होगा । इस पूरे विवाद पर फिल्म समीक्षा के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त लेखक विनोद अनुपम ने बेहद सटीक टिप्पणी की । उनका कहना है कि विश्व की किसी भी भाषा के लिए ब्रांड एंबेसडर की परिकल्पना नहीं गई थी । इसके साथ ही विनोद अनुपम ने सवाल भी उठाया कि क्या किसी भी भाषा का विकास ब्रांड एंबेसडर के सहारे हो सकता है । दरअसल ब्रांड एंबेसडर की नियुक्ति के पीछे भाषा के विकास से ज्यादा प्रचार की लालसा होती है । और उसी लालसा में मालिनी को सांस्कृतिक राजदूत बनाने का फैसला हुआ ।  
लेकिन अब वक्त आ गया है कि इन भाषा अकादमियों के कामकाज पर गंभीरता से विचार हो और उनके कर्ताधर्ताओं की अकाउंटिबिलिटी तय की जाए । हम गंभीरता से इन अकादमियों के कामकाज पर विचार करें तो उसके आधार पर बेहद आसानी से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि ये अकादमियां सरकारी कृपापात्रों के आरामगाह में तब्दील हो चुके हैं । आजादी के पहले 1944 में ब्रिटिश हुकूमत ने भारत में सैद्धांतिक रूप से साहित्यक सांस्कृतिक गतविधियां बढ़ाने के नेशनल कल्चरल ट्रस्ट बनाने के प्रस्ताव को मंजूरी दी थी । आजादी के बाद भारत सरकार ने इस सैद्धांतिक मंजूरी को अमली जामा पहनाने की दिशा में काम करते हुए साहित्य, कला और नाटक के लिए तीन अलग अलग अकादमियों का गठन किया । इन अकादमियों के गठन के पहले हर भाषा के विद्वानों में विस्तार से विमर्श हुआ और अकादमियों के उद्देश्यों और क्रियाकलापों पर जमकर चर्चा हुई । संसद के सेंट्रल हॉल में जब 12 मार्च 1954 को जब साहित्य अकादमी की शुरुआत हुई थी तो अपने भाषण में मौलाना अबुल कलाम आजाद ने अकादमी के उद्देश्यों पर बोलते हुए कहा था कि साहित्य का उच्चतम स्तर हासिल करना अकादमी का ध्येय होना चाहिए । उसी मौके पर तत्कालीन उपराष्ट्रपति डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने कहा था साहित्य अकादमी उन लोगों का जमावड़ा है जो मौलिक और आलोचनात्मक लेखन में रुचि रखते हैं ।
दरअसल साहित्य अकादमी की स्थापना और इसके नामकरण के पीछे यही भावना थी । साहित्य संस्कृत का शब्द है औक अकादमी ग्रीक भाषा का शब्द है । अकादमी शब्द एकेडेमस से लिया गया है । इस शब्द का पहली बार उपयोग महान दार्शनिक प्लूटो ने किया था जब उन्होंने अपने बगीचे में पौराणिक ग्रीक नायक एकेडमस के नाम पर एक स्कूल खोला था । बाद में उसे अंग्रेजी में एकेडमी और हिंदी में अकादमी कहा जाने लगा । इतना सब कहने के पीछे की सोच यही है कि भाषा की अकादमियों का गठन एक बेहद पावन उद्देश्य के लिए किया गया था जहां साहित्य विमर्श और लेखन से साहित्य का उच्चतम स्तर हासिल किया जा सके ।बाद में केंद्र की तर्ज पर राज्यों में भी भाषा अकादमियों का गठन हुआ । शुरुआत में तो राज्यों की ये भाषा अकादमियां ठीक से काम काज करती रहीं लेकिन कालांतर में इनके क्रियाकलापों पर राजनीति की छाप पड़ने लग गई । खास कर इमरजेंसी के बाद से इन अकादमियों का राजनीतिकरण शुरू हो गया । सीपीआई और उसके पिछलग्गू लेखक संगठन प्रलेस ने इमरजेंसी लगाने के इंदिरा गांधी के फैसले को जायज ठहराया और उसे अनुशासन पर्व तक कहकर इंदिरा गांधी का महिमामंडन किया । पुरस्कारस्वरूप इंदिरा गांधी ने साहित्य संस्कृति की कमान कथित प्रगतिवादियों के हाथों में सौंप दी। यहीं से इन अकादमियों के राजनीतिकरण की शुरुआत हुई । अकादमी के अध्यक्ष और अन्य पदों पर इन्हीं प्रगतिवादियों का बोलबाला हो गया । तमाम तरह के पुरस्कार और सांस्कृतिक आदान प्रदान के तहत लाल झंडा उठानेवाले लेखकों को विदेश यात्रा पर भेजा जाने लगा । अस्सी के दशक में तो दिल्ली स्थित साहित्य अकादमी के प्रांगण में दूसरी विचारधारा के लोगों को तो अस्पृश्य माना जाता था । सालों तक साहित्य अकादमी के पुरस्कार विचारधारा विशेष के लेखकों को दिए गए, चाहे वो किसी भी भाषा के क्यों ना हों। केंद्र की अकादमियों में व्याप्त विचारधारावाद का असर राज्य की अकादमियों पर भी हुआ और वहां भी राजनीति शुरू हो गई ।
नब्बे के दशक में लालू यादव के शासनकाल में बिहार में साहित्य संस्कृति नेपथ्य में चले गए । साहित्यक संस्थाओं पर ताले लगने शुरू हो गए । पटना के साहित्य सम्मेलन जैसे साहित्यक केंद्रों पर अपराधियों का कब्जा हो गया । तकरीबन डेढ दशक के बाद जब नीतीश कुमार ने सूबे की कमान संभाली तो इन अकादमियों में जान तो वापस लौटी लेकिन अब भी सारी संस्थाएं आईसीयू में वेंटिलेटर पर ही हैं । सुखदा पांडे के संस्कृति मंत्री रहते हुए इस दिशा में कुछ उम्मीद जगी थी , सूबे में सांस्कृतिक हलचलें शुरू हो गई थी । लेकिन राजनीतिक वजहों से बीजेपी और नीतीश कुमार को अलग होना पड़ा । इस अलवाग के बाद बिहार में कला और संस्कृति मंत्री का जिम्मा नीतीश कुमार के पास ही है । मशहूर लेखक पवन वर्मा के बिहार के मुख्यमंत्री के सांस्कृतिक सलाहकार हैं । उनकी नियुक्ति को भी लंबा अरसा हो गया है । पवन वर्मा का ध्यान भी इन मृतप्राय अकादमियों की तरफ नहीं जा पाया है । दरअसल अगर हम इन भाषा अकादमियों के गठन से लेकर बाद के दो तीन दशक तक देखें तो यह पाते हैं कि उस दौर के राजनेताओं की भी साहित्य और संस्कृति में रुचि थी । वो खुद भी रचते थे । विमर्श करते थे । लेकिन अब के नेताओं में यह रचने की प्रवृत्ति नहीं बची जिसकी वजह से उनकी प्राथमिकताओं में अकादमियां रही ही नहीं । अगर कोई शख्स जुगाड़ लगा पाने में कामयाब हो गया तो वो अकादमी का अध्यक्ष तो बन जाता है लेकिन सरकार से उसे काम करने में अपेक्षित सहयोग नहीं मिलता है । सरकारों को साहित्य के प्रति संवेदनशील बनाने का जिम्मा लेखकों को उठाना होगा और लेखक संघों की राजनीति से उपर उठकर संगठित होना होगा । अगर ऐसा हो पाता है तो साहित्य का भला होगा नहीं तो इसी तरह से कोई किसी को भी ब्रांड एबेंसडर बनाकर विवादों से घिरता रहेगा और अकादमियों की छीछालेदार होती रहेगी । यह स्थिति किसी भी भाषा के लिए अप्रिय होगी ।