लोकतंत्र के इस संक्रमण काल
में देश की संवैधानिक संस्थाएं एक एक करके राजनेताओं की कारगुजारियों की शिकार हो रही
है । इस माहौल में भी देश की न्यायपालिका और न्यायमूर्तियों में देश का भरोसा बरकरार
है । निचली अदालतों में भ्रष्टाचार की बातें गाहे बगाहे समाने आती रहती हैं लेकिन हाईकोर्ट
और सुप्रीम कोर्ट को अब भी कमोबेश भ्रष्टाचार और भाई भतीजावाद से मुक्त माना जाता है
। कोई भी संस्थान को जनता का यह भरोसा जीतने में सालों लग जाते हैं, पीढियां गुजर जाती
है । लेकिन हाल के दिनों में जिस तरह से देश के सर्वोच्च न्यायालय और चीफ जस्टिस के
बारे में खबरें छप रही हैं वो बेहद चिंता जनक हैं । सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस अल्तमस
कबीर के रिटायर होने के पहले उनकी बहन की कलकत्ता हाईकोर्ट में नियुक्ति को लेकर खबर
छपी, वो चौंकानेवाली थी । उस वक्त कलकत्ता हाई कोर्ट के जज रहे और अभी गुजरात हाईकोर्ट
के चीफ जस्टिस भास्कर भट्टाचार्य ने अल्तमस कबीर पर बेहद संगीन इल्जाम लगाते हुए राष्ट्रपति,
प्रधानमंत्री और सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को इस बारे में खत लिखा था । भास्कर
भट्टाचार्य ने आरोप लगाया कि उन्होंने जस्टिस कबीर की बहन के कलकत्ता हाईकोर्ट में
नियुक्ति का विरोध किया था जिसकी वजह से कबीर ने उनके सुप्रीम कोर्ट में प्रमोशन में
अडंगा लगाया । जस्टिस भट्टाचार्य ने अपने खत में बेहद कड़े शब्दों में कबीर की बहन
की नियुक्ति का विरोध किया था । भारत के सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश पर एक हाई
कोर्ट के चीफ जस्टिस का आरोप लोगों के विश्वास को हिला गया । इस बीच सुप्रीम कोर्ट
के चीफ जस्टिस अल्तमस कबीर रियाटर हो गए । उसके बाद एक और खबर ने सवाल खड़े कर दिए
। खबर ये थी कि अपने कार्यकाल के अंतिम दिनों में जस्टिस कबीर ने कोलोजियम की बैठक
बुलाकर सुप्रीम कोर्ट में एक जज की नियुक्ति को हरी झंडी दिलवाने की कोशिश की थी, लेकिन
नए बनने वाले चीफ जस्टिस सताशिवम के विरोध के बाद ये नहीं हो सका था । चीफ जस्टिस के
पद से रिटायर होने के बाद कबीर ने जस्टिस भट्टाचार्य के आरोपों और अंतिम दिन जस्टिस
की नियुक्ति के प्रयासों पर लिखित सफाई दी और आरोपों को सिरे से खारिज कर दिया ।
यह विवाद अभी ठंडा भी नहीं पड़ा था कि जस्टिस कबीर का एक और जजमेंट आया । वह था कॉमन मेडिकल टेस्ट कराने के मेडिकल काउंसिल के अधिकार को खत्म करने का । इस फैसले पर भी विवाद हुआ और स्वास्थय मंत्री गुलाम नबी आजाद ने फैसले की शाम ही रिव्यू पिटीशन की बात की । विवाद इस बात को लेकर भी हुआ कि जजमेंट के चंद घंटे पहले ही एक बेवसाइट ने फैसले की जानकारी सार्वजनिक कर दी थी । इस फैसले से प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों को राहत मिली । उसके बाद जस्टिस कबीर की ही एक बेंच ने एक निजी कंपनी पर सौ करोड़ के जुर्माने के हिमाचल हाईकोर्ट के फैसले पर बगैर स्टे दिए कंपनी को जुर्माने की राशि की किश्त जमा कराने की डेडलाइन में ढील दे दी । खबरों के मुताबिक जस्टिस सताशिवम ने चीफ जस्टिस का पद संभालने के बाद इस फैसले पर कड़ा एतराज जताया । हलांकि इस मामले में जस्टिस कबीर ने फिर से सफाई देते हुए एक इंटरव्यू दिया । मामला चाहे जो भी रहा हो लेकिन इस तरह की बातें सार्वजनिक होने से न्यायपालिका की साख और उसकी कार्यप्रणाली पर सवाल खड़े हो गए । अखबारों में खबर छपने के बाद उसपर विमर्श भी शुरू हो गया है । ज्यूडिशियरी की साख को लेकर यह कोई पहला मामला नहीं है । इसके पहले भी दो हजार नौ में कर्नाटक हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस पी डी दिनकरन को लेकर एक अप्रिय प्रसंग खड़ा हो गया था । बाद में जब उनपर महाभियोग की प्रक्रिया शुरू होने लगी तो उन्होंने पद से इस्तीफा दे दिया । उनपर जमीन पर कब्जे के आरोप लगे थे । इसी तरह कलकत्ता हाईकोर्ट के जस्टिस सौमित्र मोहन पर भी महाभियोग चला । उनपर भी संगीन इल्जाम लगे थे । पंजाब हरियाणा हाईकोर्ट की जस्टिस निर्मल यादव जब आरोपों के घेरे में आई तो उन्हें कोलिजियम ने लंबी छुट्टी पर भेज दिया । फिलहाल जस्टिस निर्मल यादव पर केस चल रहा है ।
भारत के लोगों को सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के जजों पर अगाध आस्था है, उनकी ईमनादारी और इंटीग्रिटी की मिसालें दी जाती हैं । यही आस्था हमारे लोकतंत्र को लंबे समय से मजबूती प्रदान करती रही है । लेकिन जब उच्च न्यायपालिका से इस तरह की घटनाएं सामने आती हैं, जजों के फैसलों को लेकर सवाल खड़े होते हैं, तो देश की जनता का न्याय के मंदिर पर से आस्था डिगने लगती है। किसी भी न्यायधीश के आचरण की वजह से अगर ज्यूडीशियरी की मर्यादा को ठेस पहुंचती है तो परिणामस्वरूप देश के लोगों के विश्वास को ठेस पहुंचती है । देश की सवा सौ करोड़ से ज्यादा जनता के इस विश्वास की हर कीमत पर रक्षा की जानी चाहिए । इसके लिए देश की न्यायपालिका को सरकार के साथ मिलकर ठोस कदम उठाने होंगे । जनता के इस विश्वास की रक्षा तभी हो सकेगी जब हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति प्रक्रिया को बेहद पारदर्शी बनाया जाए । दरअसल हमारे देश में उच्च न्यायपालिका में जजों को नियुक्त करने के लिए जो कोलिजियम सिस्टम है वह लंबे समय से सवालों के घेरे में हैं । अभी ज्यादा दिन नहीं बीते हैं जब दिल्ली हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रहे जस्टिस ए पी शाह को सुप्रीम कोर्ट का जज नहीं बनाने के फैसले की जमकर आलोचना हुई थी । लीगल सर्किल में यह माना जाता था कि जस्टिस शाह इंपेकेबल इंटिग्रिटी के न्यायाधीश हैं । उनको सुप्रीम कोर्ट में प्रोन्नति नहीं देना, हैरान करनेवाला फैसला था । दबी जुबान में इस तरह के फैसलों की आलोचना होती है लेकिन कोई ठोस कदम नहीं उठाया जा सका है । समय समय पर देश के कई कानून मंत्री ज्यूडिशियल स्टैंडर्ड एंड अकाउंटिबिलिटी बिल को लेकर उत्साह दिखाते रहे हैं लेकिन कानून मंत्रियों के उत्साह के बावजूद वह बिल अबतक ठंडे बस्ते में ही है । अब वक्त आ गया है कि उक्त बिल पर जल्द से जल्द गहन विचार-विमर्श हो और उसमें अपेक्षित बदलाव करके उसको संसद से पास करवाकर कानून बना दिया जाए । यह काम जितना जल्द होगा न्यायपालिका की साख के लिए वह उतना ही अच्छा होगा ।
यह विवाद अभी ठंडा भी नहीं पड़ा था कि जस्टिस कबीर का एक और जजमेंट आया । वह था कॉमन मेडिकल टेस्ट कराने के मेडिकल काउंसिल के अधिकार को खत्म करने का । इस फैसले पर भी विवाद हुआ और स्वास्थय मंत्री गुलाम नबी आजाद ने फैसले की शाम ही रिव्यू पिटीशन की बात की । विवाद इस बात को लेकर भी हुआ कि जजमेंट के चंद घंटे पहले ही एक बेवसाइट ने फैसले की जानकारी सार्वजनिक कर दी थी । इस फैसले से प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों को राहत मिली । उसके बाद जस्टिस कबीर की ही एक बेंच ने एक निजी कंपनी पर सौ करोड़ के जुर्माने के हिमाचल हाईकोर्ट के फैसले पर बगैर स्टे दिए कंपनी को जुर्माने की राशि की किश्त जमा कराने की डेडलाइन में ढील दे दी । खबरों के मुताबिक जस्टिस सताशिवम ने चीफ जस्टिस का पद संभालने के बाद इस फैसले पर कड़ा एतराज जताया । हलांकि इस मामले में जस्टिस कबीर ने फिर से सफाई देते हुए एक इंटरव्यू दिया । मामला चाहे जो भी रहा हो लेकिन इस तरह की बातें सार्वजनिक होने से न्यायपालिका की साख और उसकी कार्यप्रणाली पर सवाल खड़े हो गए । अखबारों में खबर छपने के बाद उसपर विमर्श भी शुरू हो गया है । ज्यूडिशियरी की साख को लेकर यह कोई पहला मामला नहीं है । इसके पहले भी दो हजार नौ में कर्नाटक हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस पी डी दिनकरन को लेकर एक अप्रिय प्रसंग खड़ा हो गया था । बाद में जब उनपर महाभियोग की प्रक्रिया शुरू होने लगी तो उन्होंने पद से इस्तीफा दे दिया । उनपर जमीन पर कब्जे के आरोप लगे थे । इसी तरह कलकत्ता हाईकोर्ट के जस्टिस सौमित्र मोहन पर भी महाभियोग चला । उनपर भी संगीन इल्जाम लगे थे । पंजाब हरियाणा हाईकोर्ट की जस्टिस निर्मल यादव जब आरोपों के घेरे में आई तो उन्हें कोलिजियम ने लंबी छुट्टी पर भेज दिया । फिलहाल जस्टिस निर्मल यादव पर केस चल रहा है ।
भारत के लोगों को सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के जजों पर अगाध आस्था है, उनकी ईमनादारी और इंटीग्रिटी की मिसालें दी जाती हैं । यही आस्था हमारे लोकतंत्र को लंबे समय से मजबूती प्रदान करती रही है । लेकिन जब उच्च न्यायपालिका से इस तरह की घटनाएं सामने आती हैं, जजों के फैसलों को लेकर सवाल खड़े होते हैं, तो देश की जनता का न्याय के मंदिर पर से आस्था डिगने लगती है। किसी भी न्यायधीश के आचरण की वजह से अगर ज्यूडीशियरी की मर्यादा को ठेस पहुंचती है तो परिणामस्वरूप देश के लोगों के विश्वास को ठेस पहुंचती है । देश की सवा सौ करोड़ से ज्यादा जनता के इस विश्वास की हर कीमत पर रक्षा की जानी चाहिए । इसके लिए देश की न्यायपालिका को सरकार के साथ मिलकर ठोस कदम उठाने होंगे । जनता के इस विश्वास की रक्षा तभी हो सकेगी जब हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति प्रक्रिया को बेहद पारदर्शी बनाया जाए । दरअसल हमारे देश में उच्च न्यायपालिका में जजों को नियुक्त करने के लिए जो कोलिजियम सिस्टम है वह लंबे समय से सवालों के घेरे में हैं । अभी ज्यादा दिन नहीं बीते हैं जब दिल्ली हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रहे जस्टिस ए पी शाह को सुप्रीम कोर्ट का जज नहीं बनाने के फैसले की जमकर आलोचना हुई थी । लीगल सर्किल में यह माना जाता था कि जस्टिस शाह इंपेकेबल इंटिग्रिटी के न्यायाधीश हैं । उनको सुप्रीम कोर्ट में प्रोन्नति नहीं देना, हैरान करनेवाला फैसला था । दबी जुबान में इस तरह के फैसलों की आलोचना होती है लेकिन कोई ठोस कदम नहीं उठाया जा सका है । समय समय पर देश के कई कानून मंत्री ज्यूडिशियल स्टैंडर्ड एंड अकाउंटिबिलिटी बिल को लेकर उत्साह दिखाते रहे हैं लेकिन कानून मंत्रियों के उत्साह के बावजूद वह बिल अबतक ठंडे बस्ते में ही है । अब वक्त आ गया है कि उक्त बिल पर जल्द से जल्द गहन विचार-विमर्श हो और उसमें अपेक्षित बदलाव करके उसको संसद से पास करवाकर कानून बना दिया जाए । यह काम जितना जल्द होगा न्यायपालिका की साख के लिए वह उतना ही अच्छा होगा ।
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