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Wednesday, August 21, 2013

रघुराज रामन की चुनौतियां

भारतीय मुद्रा का लगातार अवमूल्यन हो रहा है । डॉलर के मुकाबले रुपया हर दिन ऐतिहासिक निचले स्तर को छूते हुए 62 रुपए को चूम रहा है।  शेयर बाजार में खून खच्चर मचा है । भारतीय अर्थव्यवस्था पर पर मंदी का गंभीर संकट मंडरा रहा है । महंगाई अपने चरम पर है । अंतराष्ट्रीय क्रेडिट रेटिंग एजेंसियां लगातार भारतीय अर्थव्यवस्था की रेटिंग कम करने का दबाव बना रही हैं । रिटेल में विदेशी निवेश को मंजूरी के बाद भी देश में अपेक्षित पूंजी निवेश नहीं हो पा रहा है । रिटेल में एफडीआई के भविष्य को लेकर विदेशी कंपनियां सशंकित हैं । देश का राजकोषीय घाटा लगातार बढ़ता जा रहा है । आयात और निर्यात के बीच का संतुलन भी बिगड़ा हुआ है। अमेरिकी सरकार के फैसलों से बीपीओ इंडस्ट्री पर भी खतरा मंडरा रहा है । अगले साल लोकसभा के लिए चुनाव होने हैं । इन सारे मसलों को लेकर मनमोहन सिंह की सरकार चौतरफा घिरी हुई है । विपक्ष हमलावर है । घटाटोप समय में भारत सरकार ने रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया की कमान मशहूर अर्थशास्त्री रघुराम राजन को सौंपी है । रघुराज रामन इसके पहले अंतराष्ट्रीय मुद्रा कोष में अर्थशास्त्री और भारत सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार रह चुके हैं । यह सालों बाद हुआ है कि बैंक के काडर के बाहर का शख्स गवर्नर बना हो । इसके पहले नब्बे के दशक के आखिरी सालों में विमल जालान को रिजर्व बैंक का गवर्नर बनाकर भारत सरकार ने इस तरह का प्रयोग किया था ।
शिकागो के एक विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र पढ़ा चुके रघुराम राजन दो हजार आठ से भारत की अर्थव्यवस्था को बहुत नजदीक से देख रहे हैं । रघुराम राजन लगातार इस बात की वकालत करते रहे हैं कि रिजर्व बैंक की भूमिका को महंगाई दर पर नजर रखने तक तक सीमित करना चाहिए और भारतीय बैंकों और उनकी नीतियों को नियंत्रित करने के लिए एक अलग संस्था होनी चाहिए । रघुराम राजन ने जब दो हजार आठ में यह प्रस्ताव दिया था तब इसको लेकर अर्थशास्त्रियों के बीच लंबी बहस चली थी । वर्तमान गवर्नर डी सुब्बा राव ने इस प्रस्ताव का यह कहते हुए विरोध किया था कि भारतीय अर्थव्यवस्था के मद्देनजर इस तरह के फैसले व्यावहारिक नहीं हैं ।  सुब्बा राव को रिजर्व बैंक के कई पूर्व गवर्नरों का भी समर्थन प्राप्त हुआ । रघुराम राजन की सिफारिश पर एक अलग संस्था तो बनी लेकिन रिजर्व बैंक की भूमिका को सीमित नहीं किया जा सका । अब जब रघुराम राजन को रिजर्व बैंक का गवर्नर नियुक्त किया गया है तब उनके सामने अपने ही प्रस्ताव को प्रभावी तरीके से लागू करने-करवाने की चुनौती है । यह देखना भी दिलचस्प होगा कि रिजर्व बैंक के अधिकारों में कमी के अपने प्रस्ताव के समर्थन में बैंक के अन्य आला अफसरों को कैसे तैयार कर पाते हैं ।  रिजर्व बैंक के अधिकारियों का एक बड़ा वर्ग यह मानता है कि राजन के प्रस्ताव के प्रभावी ढंग से लागू होने से उनके अधिकारों में कटौती होगी । सरकारी बाबू चाहे जो हो जाए अपने अधिकारों में कटौती बर्दाश्त नहीं कर पाते हैं । आखिरी दम तक लड़ते हैं । लेकिन रघुराम राजन के पक्ष में एक बात जाती है कि उनको सरकार खासकर वित्त मंत्री पी चिदंबरम और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का विश्वास प्राप्त है । इसी विश्वास की ताकत से सरकार और जनता दोनों की अपेक्षा भी उनसे ज्यादा है । सरकार की अपेक्षा यह है आगामी लोकसभा चुनाव के मद्देनजर महंगाई कम करने के लिए रिजर्व बैंक कोई ठोस कदम उठाए । डी सुब्बा राव ने अपने कार्यकाल में सरकार की लोकलुभान योजनाओं पर पानी फेर दिया और वही किया जो अर्थव्यवस्था के लिहाज से उनको बेहतर लगा । सुब्बा राव ने वित्त मंत्री को कई बार प्रत्यक्ष तो कई बार परोक्ष रूप से यह जता दिया कि वो एक स्वायत्तशासी संस्थान के मुखिया हैं और वो सरकार के दबाव में नहीं आएंगे । उधर जनता की अपेक्षा यह है कि रिजर्व बैंक ब्याज दरों में कटौती का ऐलान करे ताकि महीने की किश्तों पर चलनेवाले मध्यम वर्ग के लोगों पर ईएमआई का बोझ कम हो सके ।
लेकिन रघुराम राजन के सामने सबसे बड़ी चुनौती है रुपए की गिरती कीमत को संभालना । दो हजार ग्यारह में एक डॉलर के मुकाबले रुपए की कीमत पैंतालीस रुपए थी जो अब बढ़कर इकसठ को पार करती नजर आ रही है । रिजर्व बैंक और सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद रुपए की गिरावट को रोका नहीं जा सका है । भारतीय जनता पार्टी के नेता इसको यूपीए की विफलता के रूप में पेश कर सरकार को घेरने का कोई मौका नहीं चूक रहे हैं । रुपए की गिरावट का असर सबसे ज्यादा पेट्रोल और डीजल की कीमतों पर पड़ता है । कच्चे तेल का आयात महंगा होता है तो बढ़े हुए दाम का बोझ आम आदमी पर डाल दिया जाता है । सरकार ने बेहद चालाकी से पेट्रोल और डीजल की कीमतें बाजार के हवाले कर अपना पल्ला झाड़ रखा है । पेट्रोल और डीजल की कीमत का असर तमाम उपभोक्ता वस्तुओं पर तो पड़ता ही है बच्चों की शिक्षा और यातायात पर भी पड़ता है । शिक्षा पर यों कि बच्चों के स्कूल जाने के बस का किराया बढ़ जाता है । मध्यम वर्ग सीधा प्रभावित होता है । रुपए की कीमत को रोकने की चुनौती के साथ राजन पर सरकार इस बात का भी दबाव बनाएगी कि ब्याज दरों में कटौती कर आम आदमी को राहत दी जाए । मौजूदा हालात में अगर रिजर्व बैंक ब्याज दरों में कटौती करता है तो इस बात की आशंका है कि रुपए की कीमत और गिर जाए । इन हालात में रघुराम राजन को अपनी पुरानी सोच से अलग जाकर काम करना पड़ सकता है ।

अगर इस वित्त वर्ष की दूसरी तिमाही के नतीजों पर गौर करें तो अर्थव्यवस्था की हालत पतली नजर आती है । सेंसेक्स तय करनेवाली प्रमुख कंपनियों के मुनाफे में भारी कमी दर्ज की गई है, जो अर्थव्यवस्था के लिए अच्छे संकेत नहीं है । सरसरी तौर पर स्टील,सीमेंट, उपभोक्ता वस्तु बनाने वाली कंपनियों के बैंलेंस सीट का विश्लेषण करें तो यह तिमाही मुनाफा पिछले चार साल के सबसे निचले स्तर पर है । सिर्फ टेलीकॉम और साफ्टवेयर कंपनियों के नतीजे बेहतर हैं । सॉफ्टवेयर कंपनियों के नतीजे तो रुपए के अवमूल्यन से ठीक हुए हैं । इस तरह के हालात में रघुराम राजने के सामने अपने आपको साबित करने की तो चुनौती है ही साथ ही सबकी अपेक्षाओं पर भी खरा उतरना है । अपने नाम के ऐलान के बाद हलांकि रघुराम राजन ने साफ कहा कि उनके पास कोई जादू की छड़ी नहीं है कि वो आते ही सारी समस्याओं का हल पेश कर देंगे । उन्होंने साफ तौर पर कहा था कि इस स्थिति से उबरने में कई साल लग सकते हैं। रघुराम राजन ने उम्मीद जताई थी कि सरकार और रिजर्व बैंक मिलकर इस समस्या से उबरने के लिए कदम उठाएंगे । लेकिन उम्मीद की जानी चाहिए कि विद्वान अर्थशास्त्री रघुराम राजन सरकार के कंधा से कंधा मिलाने के क्रम में रिजर्व बैंक की स्वायत्ता के साथ कोई समझौता नहीं करेंगे । खुद उन्होंने इस बात को कहा भी है कि वो देश की केंद्रीय बैंक की समृद्ध परंपराओं से परिचित हैं और उस विरासत को ठेस पहुंचानेवाले कोई काम नहीं करेंगे । लेकिन चुनावी साल में राजन को बहुत संभलकर सरकार के साथ काम करना होगा क्योंकि सरकार जनता को भाने वाले कदम उठाने का दबाव बनाएगी । उसी वक्त रघुराम राजन की असली परीक्षा होगी कि वो सरकार के दबाव में आ जाते हैं या फिर रिजर्व बैंक की गौरवाशाली परंपरा को कायम रखते हुए देशहित में फैसला लेते हैं ।  

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