Translate

Tuesday, January 16, 2018

‘चश्मे’ के लेखन के विरोधी थे दूधनाथ

करीब तेरह साल पहले की बात होगी जब तस्लीमा नसरीन पहली बार दो हजार चार में किसी सार्वजनिक कार्यक्रम में भाग लेने के लिए दिल्ली आई थी, जहां इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में उनका कार्यक्रम था। तस्लीमा के दिल्ली आने के दस साल पूर्व ही उनका उपन्यास लज्जा हिंदी में प्रकाशित होकर खासा चर्चित हो चुका था। लज्जा के प्रकाशन के दस वर्ष बाद वो दिल्ली आई थीं। गर्मी का मौसम था और इंडिया इंरनेशनल का पूरा हॉल खचाखच भरा था,लोग बाहर तक खड़े थे, सुरक्षा बेहद कड़ी थी। समय पर पहुंचने के बावजूद हमें हॉल के एक कोने में पीछे से दूसरी पंक्ति में जगह मिल पाई थी। तस्लीमा आई और उनको घेरे में मंच पर ले जाया गया। तस्लीमा के साथ अशोक वाजपेयी और अरुण माहेश्वरी थे। एक दो लोग और भी। जब ये लोग मंचासीन हो गए तो मेरे पीछे बैठे लोगों में एक व्यक्ति लगातार कमेंट कर रहे थे। कभी तस्लीमा के जीन्स टॉप पर तो कभी उनके चलने बोलने, बैठने के अंदाज पर। मैं और मेरे आसपास बैठे लोग असहज हो रहे थे और सब उस शख्स को घूर कर देखते थे और फिर मंच पर होनेवाली गतिविधियों में रम जाते थे। कमेंट लगातार हो रहे थे। मंच पर स्वागत का कार्यक्रम शुरू हुआ। इस बीच तस्लीमा नसरीन हाथ में एक गुलाब लेकर बढ़ीं तो उनके बगल में खड़े अशोक वाजपेयी को लगा कि तस्लीमा उनको गुलाब भेंट करना चाहती हैं। वो  गुलाब लेने के लिए आगे बढ़े। तस्लीमा उनको नजरअंदाज करते हुए थोड़ा और आगे बढ़ीं और अशोक जी के बाद खड़े अरुण माहेश्वरी को गुलाब भेंट कर दिया। पिछली पंक्ति में बैठे शख्स ये सब बातें गौर से नोट कर रहा था। चंद पलों का ये वाकया जब घटित हो गया तो पीछे से कमेंट आया कि अशोक वाजपेयी हर जगह गुलाब झपट लेना चाहता है लेकिन इस बार तस्लीमा का गुलाब अरुण की झोली में गिरा और अशोक टापते रह गए। इस बार टिप्पणी थोड़ी लंबी थी लेकिन कुछ असंसदीय शब्दों के इस्तेमाल के बावजूद बेहद मजेदार थी। आसपास बैठे लोग जो अब तक उस शख्स को नाराजगी भरी नजरों से घूर रहे थे उन सबने अशोक वाजपेयी पर की गई उनकी टिप्पणी पर ठहाका लगाया। पूरे कार्यक्रम के दौरान पीछे से टिप्पणियां आती रहीं। कार्यक्रम खत्म होने तक मेरी उत्सुकता बढ़ रही थी कि सफेद दाढ़ी वाला ये शख्स कौन है। कार्यक्रम खत्म होने के बाद बाहर निकलने पर मैं उनके पास गया और अपना परिचय देते हुए उनके बारे में अपनी जिज्ञासा प्रकट की। उन्होंने कंधे पर हाथ रखते हुए कहा कहा कि मेरा नाम दूधनाथ सिंह है और मैं हिंदी का लेखक हूं। अब मेरे लिए चौंकने की बारी थी क्योंकि दूधनाथ जी की कहानियां का मैं प्रशंसक था। उनसे इस रूप में मिलना होगा, सोचा भी नहीं था। अभी उनके निधन के बारे में पता चलते ही सबसे पहले इस मुलाकात की यादें ताजा हो गईं।
दूधनाथ जी से साक्षात परिचय के बहुत पहले उनकी कहानी रीछ पढ़ चुका था, जो कि भीष्म साहनी के संपादन में निकलनेवाली पत्रिका नई कहानियां में जून 1966 में प्रकाशित हुई थी। उस कहानी के प्रकाशन के बाद हिंदी साहित्य जगत में खासा विवाद हुआ था, कह सकते हैं कि लगभग साहित्यिक हंगामे जैसी स्थिति बन गई थी। रीछ कहानी और इसके कहानीकार पर वयक्तिवाद, विकृत सेक्स और यौन कुंठा जैसे आरोप लगाते हुए जबरदस्त प्रहार किए गए। लेकिन इससे कहानीकार के रूप में दूधनाथ जी की प्रसिद्धि और बढ़ गई थी। दरअसल दूधनाथ जी की कहानियों में व्यक्तिगत जीवनानुभूतियों के तनाव और ग्रंथियां प्रमुख स्वर के तौर पर दिखाई देते हैं। कई बार तो उनकी कहानियों में साथी लेखकों की जिंदगी भी जीवंत होकर उनको विवादास्पद बनाती रही हैं। इनकी एक लंबी कहानी है नमो अन्धकारम। इस कहानी के बारे में कहा जाता है कि इसके केंद्र में कथाकार मार्कण्डेय हैं। हलांकि दूधनाथ जी लगातार इससे इंकार करते रहे थे। और इस बात को प्रचारित करने का दोष वो हमेशा से अपने साथी रवीन्द्र कालिया के सर मढ़ते रहे। उन्होंने तब कहा था कि नमो अन्धकारम पिछसे पचास साल के राजनीतिक जीवन पर टिप्पणी है। कैसे पुराने आदर्शवादी लोग, विचारक, नेता, माफिया डॉन में परिवर्तित होते चले जा रहे हैं, यह कहानी इस दुखद राजनीतिक जीवन का तर्पण है। इस कहानी के बारे में दुष्प्रचार करनेवालों के लिए वो एक ही वाक्य कहा करते थे कि कला संरचनाएं मूर्खों के लिए नहीं होती। 
उनकी कहानियों में जीवन के उन निषेध पक्षों की प्रबलता भी दिखाई देती है जो उनको नई कहानियों के कथाकारों से अलग करती है। कह सकते हैं कि नई कहानी के दौर के बाद कहानीकारों, जिनमें ज्ञानरंजन, रवीन्द्र कालिया काशीनाथ सिंह और महेन्द्र भल्ला प्रमुख हैं, की कहानियों में नई अनुभूति का प्रस्थान बिन्दु रेखांकित किया जा सकता है। इन कहानीकारों ने निषेधों और विकृतियों को अपनी रचना में व्यक्त करते हुए उनसे लड़ने का एक माहौल तैयार करना शुरू कर दिया था। उस दौर की कहानियों का यह भी एक महत्व है। दूधनाथ सिंह ने विपुल लेखन किया। कहानी, उपन्यास, कविता, आलोचना, निबंध,संस्मरण और नाटक लिखे। उनका उपन्यास आखिरी कलाम बेहद चर्चित रहा था। इस तरह निराला की कविताओं पर भी उन्होंने संपूर्णता में विचार किया जिसको उनकी पुस्तक निराला: आत्महंता आस्था में देखा जा सकता है।
दूधनाथ सिंह की प्रतिबद्धता भले ही वामपंथ के साथ रही हो लेकिन वो वामपंथ के अंतर्विरोधों पर खुलकर बोलते रहे हैं। अपने विचारों को प्रकट करने में उन्होंने कभी परहेज नहीं किया। एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा कि – मैं बराबर इसलिए कहता हूं कि लेखक को कार्ड होल्डर नहीं होना चाहिए। कार्ड होल्डर होने के बाद दल अपना एक चश्मा देता ही है। और वह चश्मा पहनकर समाज में जाने पर आप बहुत सारी चीजों को रंगीन तो देख सकते हैं किन्तु वास्तविकता की सच्ची पहचान आप नहीं कर सकते हैं। इसलिए मैं बार बार कहता हूं कि लेखक को आवारा होना चाहिए। आवारा का मतलब दुश्चरित्र या अनार्किस्ट नहीं, बल्कि वैचारिक दृष्टि से समर्थ और समझदार और वैशिष्ट्यहीन, मिलनसार, एक सहभागी व्यक्ति जो अपने समाज में घुल सके और अपने को उसमें जज्ब कर सके। उसमें घुला सके। उनकी समस्याओं को देख भी सके, परख भी सके, भुगत भी ले। उसके लिए कीमत अदा करने में भी उसे कोई हिचक ना हो। और साथ ही उसमें इकनी ताकत होनी चाहिए कि वह उनके द्वारा, फिर मैं कहता हूं उन सारी स्थितियों के द्वारा खा ना लिया जाए। उसमें इतनी अतिरिक्त ताकत और संवेदनशीलता तो होनी ही चाहिए कि वह उनको बटोरे। अगर भुगतता है, अगर उसके लिए वह मूल्य देता है तो कहीं ना कहीं सबके सामने उसको उजागर भी करे। उसे रचे। इसलिए मैं दास्तोवस्की को गोर्की से बड़ा लेखक मानता हूं। क्योंकि एक सीधे के सीधे अपने समाज के माहौल को भुगतता है। दूसरा भुगतता भी है लेकिन इस भुगतने को एक रंगीन चश्मे से देखता है। दोनों की मौलिकता और दोनों की रचनात्मकता में जो गुणात्मक अंतर है वह इसी कारण आया हुआ है। चाहे वो कोई अमेरिकन लेखक हो, या कोई रूसी लेखक हो, या चीनी लेखक हो, या हिन्दुस्तानी लेखक हो, जब भी हम किसी एक दल से संबद्ध होते हैं तो कहीं-न-कहीं हमको एक चश्मा तो मिलता ही है। दूधनाथ सिंह के इन विचारों से ये पता चलता है कि वो बहुत बेबाकी से अपनी राय रखते थे । इस तरह के विचारों के बावजूद वो जनवादी लेखक संघ के अध्यक्ष थे। इस बात का पता नहीं चल पाया कि वो जनवादी लेखक संघ से जुड़े अपने कितने लेखकों को चश्मे से मुक्त कर पाए या बाद के दिनों में उन्होंने खुद भी चश्मा पहन लिया। हलांकि दो साल पहले मैंने उनसे ये सवाल पूछा था तब उन्होंने कहा था कि मेरा झुकाव वामपंथ की ओर है, मैं मानता हूं। मुझे आदमी की सही तकलीफों से लेना देना है, सिद्धातों से नहीं। अगर सिद्धांत आदमी को समझने में आड़े आता है तो मैं उसको नकारने का साहस रखता हूं। उन्होंने तब ये भी कहा था कि अगर मार्क्सवाद को जिंदा रखना है तो उसको व्यक्ति ती मुक्ति के संदर्भ में खुद को फिर से जांचना पऱखना चाहिए। दूधनाथ जी की इस बात को उनके लेखक संगठन के लेखक कितना मानते जानते हैं इसको देखा जाना चाहिए। दूधनाथ जी को सच्ची श्रद्धांजलि तो उनके विचारों के आलोक में ही दी जा सकती है और उनके विचारों को पऱखने के लिए यह आवश्यक भी है कि उनका सम्रगता में मूल्यांकन हो ।


No comments: