शशि थरूर की
राजनेता के अलावा एक विशिष्ट लेखक की भी पहचान है। उनकी अबतक 15 पुस्तकें प्रकाशित
हो चुकी हैं। अभी हाल ही में वाणी प्रकाशन से उनकी हिंदी में एक पुस्तक अंधकार
काल, भारत में ब्रिटिश साम्राज्य प्रकाशित हुई है। एक और अन्य पुस्तक मैं हिंदू
क्यों हूं, भी हिंदी में प्रकाशित होनेवाली है। हिंदी में पुस्तकों का प्रकाशन और
संयुक्त राष्ट्र में हिंदी का आधिकारिक भाषा का दर्जा दिलाने का विरोध। इन सारे
मुद्दों पर डॉ शशि थरूर ने मुझसे खुलकर बातचीत की।
प्रश्न- सबसे पहले
तो हिंदी में आपकी किताब प्रकाशित होने पर मेरी बधाई स्वीकारें। हिंदी में छपने का
विचार कैसे आया
थरूर- धन्यवाद।
मेरा मानना है कि गुलामी या परतंत्रता के जो हमारे अनुभव रहे हैं वो हमारे पाठकों
तक उनकी अपनी भाषा में पहुंचे। हिंदी में मेरी पुस्तक के प्रकाशित होने से इस वजह
से मैं बहुत खुश हूं। हलांकि मैंने इस पुस्तक को मूल रूप में अंग्रेजों की भाषा
में ही लिखा है लेकिन अब तो अंग्रेजी भी भारतीय भाषा बन चुकी है। फिर भी लाखों लोग
इस पुस्तक के संदेश को तबतक समझ नहीं सकते जबतक कि वो उनकी मातृभाषा में ना हो। इस
लिहाज से हिंदी में इसका प्रकाशन मेरे लिए महत्वपूर्ण है ।
प्रश्न- संयुक्त राष्ट्र में हिंदी को आधिकारिक भाषा
बनाने का आपने संसद में विरोध किया। अगर ऐसा होता है तो क्या इस पर भारतीयों को
गर्व नहीं होगा?
थरूर- देखिए इस मसले पर मेरा रुख तीन तर्कों पर आधारित है। पहला तो ये कि अबतक
अगर हिंदी संयुक्त राष्ट्र की भाषा की आधिकारिक भाषा नहीं बन पाई तो देश को क्या
नुकसान हुआ? जब वाजपेयी जी,
मोदी जी या सुषमा जी चाहती हैं कि संयुक्त राष्ट्र में हिंदी में भाषण दें तो वो
ऐसा करते ही हैं। होता यह है कि उस वक्त कोई भारतीय राजनयिक उनके भाषण का अंग्रेजी
अनुवाद करता है जो संबंधित देशों की भाषा में अनुदित हो जाती है। दूसरा ये कि संयुक्त राष्ट्र में बोलने का उद्देश्य
पूरी दुनिया तक अपने विचारों को पहुंचाना होता है। जब एक भारत की एक आधिकारिक भाषा,
अंग्रेजी, वहां समझी जा रही है तो फिर दूसरी को लाने का मतलब क्या है? मेरा मानना है कि जो भी भारतीय
नेता संयुक्त राष्ट्र में हिंदी बोलता है वो अपने देश की जनता से बात कर रहा होता
है, पूरी दुनिया से नहीं। मैं जानना चाहता हूं कि क्या अरुण जेटली विश्व बैंक की
बैठकों में हिंदी में बात करते हैं? क्या
वो हिंदी में बात करके उतने प्रभावी रह पाएंगें। तीसरी और अंतिम बात कि सुषमा जी
के लिए ये सुविधाजनक है कि वो संसद में ये बयान दें कि सरकार हिंदी को संयुक्त
राष्ट्र की आधिकारिक भाषा बनाने के लिए 400 करोड़ देने को तैयार है। लेकिन हमें ये
नहीं भूलना चाहिए कि हमारा देश बहुभाषी है और हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा नहीं है। उस
स्थिति की कल्पना कीजिए जब कोई गैर हिंदी भाषी देश का प्रधानमंत्री या विदेश
मंत्री बनेगा!
प्रश्न- हिंदी का विरोध करके क्या आप 2019 के लोकसभा
चुनाव को ध्यान में रखकर भाषाई राजनीति करना चाहते हैं?
थरूर – 2019 का चुनाव लड़ने के लिए कई अन्य महत्वपूर्ण मुद्दे हैं। मोदी सरकार
की नाकामी, अर्थव्वस्था की पतली हालत, पेट्रोल, डीजल और गैस के दामों में इजाफा,
युवाओं के सामने बेरोजगारी की समस्या आदि। पर आपको बता दूं कि हिंदी पर मेरा जो
स्टैंड है वो दक्षिण भारत में बहुत लोकप्रिय है। सिर्फ वहीं नहीं बल्कि पूरे देश
में जो लोग हिंदी, हिंदू और हिन्दुत्व की राजनीति के विरोधी हैं उन्होंने भी मेरे
रुख का समर्थन किया है। मेरा मत बिल्कुल साफ है कि किसी पर कोई भाषा थोपी नहीं
जानी चाहिए।
प्रश्न- अंधकार काल जैसी ऐतिहासिक किताब लिखने की योजना
कैसे बनी और इसके लिए कितना रिसर्च करना पड़ा?
थरूर- देखिए आपको बताऊं कि 15 मिनट का भाषण देना एक बात है और करीब साढे तीन
सौ पेज की किताब लिखना अलग। मेरे सामने जो सबसे बड़ी चुनाती थी वो ये कि मैंने जो
बोला उसको विस्तार से तर्कों और तथ्यों के साथ प्रस्तुत करूं। इसके लिए गहन शोध की
जरूरत थी।मैं चाहता था कि तिथियां सही हों, तथ्य ठोक बजाकर रखे जाएं, आंकड़े
त्रुटिहीन हों। इस वक्त ये करना सत्तर के दशक की तुलना में आसान है जब मैंने
पीएचडी की थी। अभी तो 18वीं और 19वीं शताब्दी के दस्तावेज से लेकर किताबें तक ई
फॉर्मेट में उपलब्ध है । जब मैंने लिखना शुरू किया तो मुझे मालूम था कि क्या लिखना
है लेकिन मुझे उसके समर्थन में अकाट्य तथ्यों को जुटाना था। पुरानी पुस्तकों के
अलावा मैंने इस वक्त के विद्वानों के इस विषय के लेखन को खंगाला और उसको पढ़ा।
प्रश्न- आपकी 15 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं, अंधकार काल और पूर्व की पुस्तकों को लिखने के दौरान क्या
फर्क महसूस किया आपने?
थरूर- “अंधकार काल’ इस मायने में
अलहदा है कि इसको लिखने की वजह मेरा एक भाषण बना। पूर्व की मेरी सारी पुस्तकें
मेरी सोच और योजना का मूर्तरूप हैं। इस बार मैं अपने सार्वजनिक भाषण के समर्थन में
पुस्तक लिखने बैठा था। हां और जैसा कि मैंने उपर कहा कि इस पुस्तक में मेरे शोध का
स्तर मेरे पूर्ववर्ती शोध से काफी गहन रहा। अपनी पीएचडी थीसिस के बाद इतना गहन शोध मैंने नहीं किया था।
प्रश्न- आपने
अपनी किताब ‘अंधकार काल’ में विस्तार से इस बात का निषेध किया है कि लोकतंत्र और राजनीतिक एकता अंग्रेजों
की देन है। दैनिक जागरण के पाठकों को इस बारे में बताइए।
थरूर- सबसे पहले मैं ये बात साफ कर दूं कि ‘आइडिया ऑफ इंडिया’ की परिकल्पना ‘आइडिया ऑफ ब्रिटेन’ से काफी पहले का है।
हमारे वेदों में भारतवर्ष की भौगोलिक सीमा हिमालय से लेकर समुद्र तक बताई गई है ।
हमारे जो भी शासक रहे हैं, चाहे वो 2400 साल पहले के चंद्रगुप्त मौर्य हों या 300
साल पहले के औरंगजेब, सभी की ख्वाहिश इस भूभाग पर राज करने की रही। भारतीय इतिहास
में, चाहे वो मौर्य हों, गुप्त हों या मुगल हों, जिस तरह की राजनीतिक एकता की ललक
दिखाई देती है उसके मद्देनजर ये कहा जा सकता है कि अगर अंग्रेज भारतीय उपमहाद्वीप
को एक सूत्र में नहीं बाधते तो मराठा या कोई अन्य जोड़ता। मराठा और मुगलों के
संबंध को देखकर हम ये कह सकते हैं कि बहुत संभव है कि हमारे यहां भी ब्रिटिशर्स की
तरह संवैधानिक राजतंत्र होता। यहां हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि अंग्रेजों ने ‘बांटो और राज करो’ की नीति के तहत
योजनाबद्ध तरीके से हिंदुओं और मुस्लमानों के बीच नफरत के बीज बोए। 1857 की
क्रांति के वक्त हिंदुओं और मुसलमानों को कंधे से कंधा मिलाकर लड़ते देख अंग्रेजों
को होश फाख्ता हो गए थे। उन्होंने उसी वक्त प्रण किया था कि ऐसा फिर नहीं होने
देना है। लॉर्ड एलफिस्टन ने लिखा था ‘बांटो और राज करो’ के पुराने रोमन सिद्धांत को अपनाना चाहिए। इसी योजना के तहत मुसलमानों के लिए अलग वोटिंग की व्यवस्था की गई थी ताकि
मुसलमान सिर्फ मुसलमानों को चुन सकें। आसन्न राष्ट्रीय आंदोलन को कमजोर करने के
लिए विभाजन के बीज बोए गए थे।
प्रश्न- एक जगह आप कहते हैं कि महात्मा गांधी का अहिंसा
का सिद्धांत अन्य औपनिवेशिक शासन में फल फूल नहीं सकता था, क्यों?
थरूर- भारत की स्वतंत्रता ने औपनिवेशिक काल के खात्मे
की शुरुआत की थी लेकिन कई देशों में आजादी के लिए लोगों को बेतरह यातना सहनी पड़ी
थी। आंदोलनकारी बूटों से कुचले गए थे, शासकों के कहर से बचने के लिए लोगों को घर
बार छोड़कर भागना पड़ा था। खूनी संघर्ष हुए थे। अहिंसा उस तरह के माहौल के लिए
उचित नहीं था। अहिंसा का सिद्धांत वहीं काम कर सकता है जहा के शासक नैतिकता की और
राष्ट्रीय अंतराष्ट्रीय माहौल का लिहाज करते हों। अहिंसा का सिद्धांत हिटलर के
खिलाफ नहीं चल सकता था। जहां गैस चैंबर जैसी यातना का प्रावधान हो वहां अहिंसा के
सिद्धांत की सफलता संदिग्ध रहती है। स्टालिन और माओ के राज में गांधी का ये
सिद्धांत कारगर नहीं हो सकता है। गांधी के अहिंसा का सिद्धांत वहीं चल सकता है
जहां के शासकों की मानसिकता हो कि आप हमें हमारी गलती बताओ हम खुद को सजा देंगे।
मुझे इस बात पर कोई आश्चर्य नहीं हुआ था जब नेल्सन मंडेला को रंगभेद के खिलाफ
अहिंसा का सिद्धांत अपनाते नहीं देखा जबकि उन्होंने खुद मुझसे कहा था कि गांधी जी
उनके लिए हमेशा से विराट प्रेरणा के स्त्रोत रहे हैं। मुंबई पर आतंकी हमले के बाद
गांधी का आतंक के खिलाफ एकमात्र विरोध होता उपवास, लेकिन इससे आतंकियों पर क्या
कोई फर्क पड़ता । बावजूद इसके गांधी की महानता कम नहीं होती है। महात्मा ने हमें
सत्य, अहिंसा और शांति की राह दिखाई। उन्होंने औपनिवेशक शक्तियों की साख पर प्रहार
किया था। अहिंसा अन्य दुश्मनों के खिलाफ सफल नहीं हो सकती है ये तथ्य है, मेरी
मंशा गांधी का अनादर करना नहीं है।
प्रश्न- आपने ये
भी कहा है कि ब्रिटिश प्रधानमंत्री को 2019 में जालियांबाग नरसंहार के लिए माफी
मांगनी चाहिए। इस प्रतीकात्मकता से क्या होगा?
थरूर- जालियांवाला बाग अंग्रेजों की बर्बरता का प्रतीक है। जालियांवाला बाग
नरसंहार को अंजाम देने के पहले कोई चेतावनी नहीं दी गई। हजारों मासूम औरतों और
बच्चों को मौत के घाट उतार दिया गया। ये
कांड अंग्रेजों की स्वशासन देने की वादाखिलाफी को भी दर्शाता है, जिसका वादा उन्होंने
प्रथम विश्वयुद्ध के समर्थन के एवज में किया था। बावजूद उस वादे के रॉलेट एक्ट पास
किया गया था। इतना ही नहीं इस नरसंहार को अंजाम देनेवाले जनरल डायर को पुरस्कृत
किया गया। 13 अप्रैल 2019 को इस बर्बर नरसंहार के सौ साल पूरे हो रहे हैं।
अंग्रेजों के पास अपनी बर्बरता पर माफी मांगने का इससे बेहतर अवसर क्या होगा।
प्रश्न- क्या आपको लगता है कि ब्रिटिश कभी भारतीयों से
माफी मांगेगे?
थरूर- कुछ दिनों पहले तक मैं भी कहता था कि वो माफी नहीं मांगेंगे क्योंकि अगर
वो भारत से माफी मांगेगें तो उनको 130 अन्य देशों से माफी मांगनी होगी। लेकिन वक्त
बदलता दिख रहा है। जब मैंने पिछले साल ब्रिटेन में ये मांग उठाई तो आश्चर्यजनक रूप
से मुझे सकारात्मक संकेत महसूस हुए। मैंने उनको
कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो का उदाहरण दिया जिसमें उन्होंने
कोमगाटा मारू की घटना के लिए माफी मांगी। लेबर पार्टी के सांसद वीरेन्द्र शर्मा ने
हाउस ऑफ कामंस में भारत से माफी की मांग उठाई। अगर कोई ब्रिटिश प्रधानमंत्री भारत
से माफी मांगने का साहस नहीं जुटा पाता है तो ब्रिटिश रॉयल परिवार को माफी मांगनी
चाहिए क्योंकि सारी बर्बरता तो उनके ही नाम पर की गई।
प्रश्न- आपकी नई किताब व्हाई आई एम अ हिंदू अंग्रेजी में प्रकाशित हुई है, क्या इसको भी हिंदी में प्रकाशित करवाने की योजना है?
थरूर- जी, बिल्कुल। मुझे लगता है कि वाणी प्रकाशन इस पुस्तक को भी प्रकाशित
करने के लिए उत्सुक है। लेकिन अनुवाद में तो वक्त लगेगा ।
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