लोकसभा के हाल में ही समाप्त हुए सत्र में हिंदी
को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा का दर्जा दिलाने को लेकर विदेश मंत्री सुषमा
स्वराज के बयान का कांग्रेस सांसद शशि थरूर ने जोरदार विरोध किया। उनका कहना था कि
हिंदी राष्ट्रभाषा नहीं है, वो अंग्रेजी के साथ-साथ राजकाज की भाषा है। उनका एक
तर्क ये भी था कि अगर हिंदी को यूएन की आधिकारिक भाषाओं में शामिल करवा लिया जाता
है तो भविष्य में गैर हिंदी भाषी प्रधानमंत्री या विदेशमंत्री को दिक्कत हो सकती
है। इस बात को लेकर शशि थरूर के अपने तर्क हैं जो उन्होंने अपनी पुस्तक ‘अंधकार काल,भारत में ब्रिटिश
साम्राज्य’ के विमोचन समारोह के दौरान भी रखे। बाद में एक
साक्षात्कार में शशि ने कहा कि यूएन में हिंदी को आधिकारिक भाषा का दर्जा दिलाना
बगैर समस्या के उसका हल सुझाने जैसा है। उनकी मशहूर पुस्तक ‘एन एरा ऑफ डार्कनेस, द ब्रिटिश एंपायर इन इंडिया’ के हिंदी अनुवाद के विमोचन के दौरान मैंने जब
उनसे हिंदी विरोध का कारण जानना चाहा। प्रश्न था कि अपने दो संसदीय काल में
उन्होंने कभी भाषा का प्रश्न नहीं उठाया। अब क्यों? क्या
उसके पीछे 2019 में होनेवाले लोकसभा चुनाव में
भाषाई आधार पर अपने मतदाताओं को रिझाने की मंशा तो नहीं है? क्या वो अपने पड़ोसी राज्य तमिलनाडू के डीएमके
नेताओं की राह पर तो नहीं चल रहे हैं जहां चुनाव के वक्त तो हिंदी में पोस्टर
छपवाए जाते हैं और चुनाव खत्म होते ही हिंदी विरोध का झंडा थाम लेते हैं? शशि थरूर ने साफ किया कि वो हिंदी के विरोधी नहीं
है लेकिन हिंदी को जबरन थोपे जाने का विरोध करते हैं।
शशि थरूर का जोर इस बात पर था कि हिंदी हमारे देश
की राष्ट्रभाषा नहीं है। अबतक तो बिल्कुल नहीं है। वो यह भी कहते हैं कि हमारे
संविधान मे राष्ट्रभाषा
जैसी कोई अवधारणा नहीं है। मैं बहुत विनम्रतापूर्व शशि थरूर जी को संविधान सभा में
इस विषय पर हुई बहस की याद दिलाना चाहता हूं। देश की भाषा समस्या पर 12 सितंबर
1949 को बहस शुरू हुई थी जो तीन दिनों तक चली थी । 14 सितंबर 1949 को संविधान सभा
में ये फैसला हुआ कि देवनागरी लिपि में लिखी जानेवाली हिंदी संघ-सरकार की भाषा
होगी तथा उसमें हिंदी के अंकों के साथ-साथ अंतराष्ट्रीय अंकों का प्रयोग किया
जाएगा। उस वक्त हिंदी को संविधान सभा ने राष्ट्रभाषा मान लिया था। सरदार वल्लभ भाई
पटेल ने इसके बाद बंबई से पत्र लिखकर पार्टी को इसके लिए बधाई भी दी थी। गौरतलब है
कि यह प्रस्ताव तब पास हुआ था जब संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ राजेन्द्र प्रसाद ने भाषा
समस्या पर विचार शुरू करने के पहले सदस्यों को चेताते हुए कहा था- ‘इस सभा का निर्णय सारे देश को स्वीकार्य होना
चाहिए। इसलिए सदस्यों को इस बात का ध्यान रखना चहिए कि कोई खास बात हासिल करने के
लिए बहस करना काफी नहीं है। बहुमत के बल पर अगर हमने कोई प्रस्ताव पारित करवा भी
लिया जो उत्तर या दक्षिण में बहुत से लोगों को नापसंपद हो, तो संविधान को अमल में
लाना भारी समस्या हो जाएगी।‘ संविधान सभा में
हिंदी और हिन्दुस्तानी को लेकर भी लंबी चर्चा हुई थी। कांग्रेस पार्टी के अंदर भी
हिंदी और हिन्दुस्तानी को लेकर मत विभाजन हुआ था जिसमें हिंदी को बहुमत मिला था।
लेकिन गांधी जी की इच्छा का सम्मान करते हुए
संविधान की धारा 351 में हिन्दुस्तानी का उल्लेख कर दिया गया था । दरअसल गांधी
हिन्दुस्तानी के पक्ष में थे। इस बावत 18 मार्च 1920 को वी एस श्रीनिवास शास्त्री
को लिखा उनका खत देखा जा सकता है– ‘हिन्दी और उर्दू के
मिश्रण से निकली हुई हिन्दुस्तानी को पारस्परिक संपर्क के लिए राष्ट्रभाषा के रूप
में निकट भविष्य में स्वीकार कर लिया जाए। अतएव, भावी सदस्य इम्पीरियल कौंसिल में
इस तरह काम करने को वचनबद्ध होंगे, जिससे वहां हिन्दुस्तानी का प्रयोग प्रारंभ हो
सके और प्रांतीय कौंसिलों में भी वे इस तरह काम करने को प्रतिज्ञाबद्ध होंगे। (संपूर्ण
गांधी वांग्मय खंड 17)। लेकिन गांधी जी जितनी मजबूती से हिन्दुस्तानी का साथ दे
रहे थे, हिंदी साहित्य सम्मेलन के सदस्य उतनी ही ताकत से उनका विरोध कर रहे थे ।
ये विरोध इतना बढ़ा था कि गांधी जी को 28 मई 1945 को सम्मेलन से अपना इस्तीफा देना
पड़ा था। इन सबका असर संविधान सभा में भी देखने को मिला था । जब संविधान की धारा 351
में हिन्दुस्तानी का उल्लेख हो गया तब कई लोग ये प्रचारित करने में जुट गए कि जिस
हिन्दी की बात संविधान में है ये वो हिंदी नहीं है जो हिन्दीभाषी राज्यों में में
बोली जाती है। इस बात को जमकर प्रचारित कर हिंदी विरोधी माहौल बनाया गया।
संविधान में यह प्रावधान रखा गया था कि इसके लागू
होने के पंद्रह वर्षों तक अंग्रेजी चलती रहेगी और अगर पंद्रह वर्षों के बाद संसद
को लगता है कि कुछ विषयों के लिए अंग्रेजी का प्रयोग आवश्यक है तो कानून बनाकर उन
विषयों में अंग्रेजी का प्रयोग जारी रखा जा सकता है। लेकिन इन पंद्र वर्षों तक
हिंदी के प्रयोग पर प्रतिबंध नहीं था। इसको साफ करने के लिए 27 मई 1952 को
राष्ट्रपति ने एक आदेश जारी किया था जिसमें उल्लिखित था कि राज्यपालों, सर्वोच्च
और उच्च न्यायालय के न्यायधीशों की नियुक्ति पत्रों में अंग्रेजी के साथ साथ हिंदी
और अंतराष्ट्रीय अंकों के साथ देवनागरी अंकों का भी प्रयोग किया जाएगा। इसके बाद 3
दिसंबर 1955 को राष्ट्रपति ने एक और आदेश जारी किया जिसमे जनता के साथ
पत्रव्यवहार, संसद को दी जानेवाली रिपोर्ट, प्रशासनिक रिपोर्ट, सरकारी संकल्प और
विधायी अधिनियम, संधियां, अन्य देशों के सरकारों के साथ पत्रव्यवहार, राजयनियों को
जारी किए जानेवाले औपचारिक दस्तावेजों में अंग्रेजी के साथ हिन्दी का भी प्रयोग
होगा।
बावजूद इसके संविधान के लागू होने के एक दशक बाद
भी हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की दिशा में कोई काम नहीं हुआ। ऐसा प्रतीत होता है
कि उस वक्त के प्रधानमंत्री जवाहलाल नेहरू गांधी जी के हिन्दुस्तानी की पक्षधरता
के प्रभाव में थे। क्योंकि संविधान सभा ने जब संविधान की धारा 351 में
हिन्दुस्तानी का उल्लेख किया था तब नेहरू ने कहा था कि ‘इस प्रस्ताव में कोई बात है जिसपर ज्यादा जोर पड़ना
चाहिए था, फिर भी अगर वो चीज प्रस्ताव में नही रहती तो तो मैं इसे स्वीकार नहीं कर
सकता था।‘ इससे यह बात स्पष्ट है कि हिंदी को लेकर नेहरू
के मन में कोई उत्साह नहीं था। नेहरू ने संभवत: 1963 में संसद में
ये घोषणा कर दी थी कि ‘जबतक अहिन्दी भाषी भारतीय अंग्रेजी को चलाना
चाहेंगे तबतक हिंदी के साथ केंद्र में अंग्रेजी भी चलती रहेगी।‘ नतीजा यह हुआ कि जब 1963 में भाषा अधिनियम बना
तो नेहरू की उपरोक्त भावना का ख्याल रखा गया। जिसमें ये फैसला हो गया कि हिन्दी के
साथ-साथ अंग्रेजी में काम-काज चलता रहेगा, जबकि संविधान में साफ तौर पर कहा गया था
कि इसके लागू होने के 15 साल बाद सिर्फ जरूरी कामों ही अंग्रेजी का उपयोग हो
सकेगा। इस तरह से अगर हम देखें तो 1963 का भाषा अधिनियम संविधान की मूल भावना के
विरुद्ध थी। 1965 में हिंदी के विरोध में मद्रास में आंदोलन हुआ और नेहरू की घोषणा
को कानून बनाने की मांग उठी जिसे लालबहादुर शास्त्री ने दबाव में मान लिया।
इस पृष्ठभूमि में यह बात साफ होती है कि संविधान
में हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की बात थी जिसे बाद में नहीं माना गया और कानूनी
और राजनीतिक दांव-पेंच में फंसा कर इसको बेहद जटिल बना दिया गया। लोग ये भूल गए कि
हिन्दी को बढ़ाने और उसको मजबूत करने का सबसे ज्यादा उपक्रम गैर हिंदी भाषी लोगों
ने किया और उन सबका मानना था कि स्वाधीन भारत में एक ऐसी भाषा का विकास होना चाहिए
जो अन्तर्प्रांतीय भाषा के तौर पर स्वीकार्य हो सके। बंगाल से इसकी शुरुआत हुई थी
और माना जाना है कि सबसे पहले ये विचार बंकिम चंद्र के मन में आया था। भूदेव
मुखर्जी ने अदालतों की भाषा के तौर पर हिंदी को मान्यता दिलाने के लिए बड़ा आंदोलन
चलाया था। राजा जी ने दक्षिण भारत में हिन्दी प्रचार सभा का नेतृत्व किया था। ‘प्रजातंत्र’ नाम की एक पुस्तिका
में उन्होंने विश्वास जताया था कि हिन्दी इस देश की राष्ट्रभाषा होकर रहेगी। इन
परिस्थियों के आलोक में वर्तमान केंद्र सरकार को विचार करना चाहिए और यूएन में
हिंदी को आधिकारिक भाषा का दर्जा दिलाने जैसे प्रतीकात्मक कदम उठाने की बजाए उसको
राष्ट्रभाषा बनाने की दिशा में विचार प्रारंभ करना चाहिए क्योंकि संविधान
निर्माताओं की यही राय भी थी। सरकार को हिंदी के विकास के लिए बनाई गई संस्थाओं की
चूलें भी कसनी चाहिए। वर्धा में महात्मा गांधी के नाम पर स्थापित विश्वविद्यालय में
हिंदी के नाम पर जो हुआ वो दुखद है, सरकार को उसपर ध्यान देना चाहिए।
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