लेखकों और साहित्यकारों को राजनीति करनी चाहिए या
नहीं, इसको लेकर पूरी दुनिया में एक बहस चली थी जिसमें दुनिया भर के विचारकों ने
अपने मत प्रकट किए थे। लुकाच से लेकर ब्रेख्त और बेंजामिन जैसे विश्वप्रसिद्ध
लेखकों की राय है कि लेखक और राजनीति का संबंध होना चाहिए। अज्ञेय से लेकर
मुक्तिबोध तक ने लेखकों में राजनीतिक चेतना की वकालत की है। हिंदी में भी अगर हम
देखें तो कई लेखक सक्रिय राजनीति में रहे तो कइयों ने परोक्ष रूप से राजनीति की। हिंदी
के मशहूर आलोचक नामवर सिंह ने तो लोकसभा का चुनाव तक लड़ा था। कवि रामधारी सिंह दिनकर,
मैथिली शरण गुप्त और श्रीकांत वर्मा, भारतीय ज्ञान परंपरा पर विपुल लेखन करनेवाले
विद्यानिवास मिश्र के अलावा भी कई लेखकों ने सक्रिय राजनीति की। प्रत्यक्ष रूप से
राजनीति में शामिल होने वाले इन लेखकों के अलावा कई लेखक परोक्ष रूप से राजनीति
करते रहे। हिंदी में राजनीतिक कविता का एक लंबा इतिहास रहा है। नागार्जुन ने तो
कांग्रेस के खिलाफ कई कविताएँ लिखीं, नेहरू जी के खिलाफ भी कविता लिखी, रघुवीर
सहाय और सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने भी ।
समकालीन कविता की दुनिया में सक्रिय कई कवियों ने वर्तमान राजनीति पर भी
कविताएं लिखी। पर पिछले पांच साल से एक नया ट्रेंड मजबूती के साथ सामने आ रहा है
वो है चुनाव के समय राजनीतिक विषयों पर किताबें आना। दो हजार चौदह के लोकसभा चुनाव
के थोड़ा पहले मोदी पर दर्जनों किताबें आईं तो राहुल गांधी और सोनिया गांधी को
केंद्र में रखकर भी किताबें लिखी गईं। 2014 में राकेश पांडे ने ‘जननायक राहुल गांधी’ नाम से एक किताब लिखी थी, जिसका विमोचन प्रियंका
गांधी ने किया था। इसी तरह से उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के पहले अखिलेश यादव को
केंद्र में रखकर ‘समाजवाद का सारथी’ नाम से
संजय लाठर ने एक किताब लिखी गई थी। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और उनके
कार्यों पर कई किताबें लिखी गईं।
अब फिर से लोकसभा चुनाव सर पर हैं। फिर से इस तरह
की किताबें बाजार में आने लगी हैं। हाल ही में हर्षवर्धन त्रिपाठी और शिवानंद
द्विवेदी के संपादन में एक किताब आई जिसका नाम है ‘नए भारत
की ओऱ’ । इस किताब में मोदी सरकार की नीतियों को कसौटी
पर कसने का दावा किया गया है। पुस्तक के संपादक शिवानंद द्विवेदी और हर्षवर्धन
त्रिपाठी का कहना है कि किसी भी सरकार के कार्यकाल के खत्म होने पर उसकी नीतियों
और कार्यक्रमों की पड़ताल होती रही है। उनके मुताबिक मोदी सरकार नए भारत के
निर्माण की बात करती रही है, यह पुस्तक इस दिशा में हुए कार्यों की पड़ताल करती
है। इसमें उन्नीस लेख हैं जो अलग अलग क्षेत्र के लोगों ने लिखे हैं और भूमिका
वित्त मंत्री अरुण जेटली ने लिखी है। इस किताब में लेखकों ने नीतियों और
कार्यक्रमों की पड़ताल करने के साथ साथ अपने सुझाव भी दिए हैं। शिवानंद द्विवेदी
साफ तौर पर यह स्वीकार करते हैं कि चुनाव को ध्यान में रखते हुए इस पुस्तक की
योजना बनाई गई थी। दूसरी तरफ एक किताब आई है ‘वादा फरामोशी’, जिसके लेखक हैं संजॉय बसु, नीरज कुमार और शशि
शेखर। इस पुस्तक में भी मोदी सरकार की पच्चीस स्कीमों को परखने का दावा किया गया
है। इस पुस्तक के लेखकों में से एक शशि शेखर के मुताबिक चयनित स्कीमों को लेकर
सरकार से सूचना के अधिकार के आधार पर जानकारी मांगी गई और सरकार से मिले जवाब के
आधार पर उसका विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है। ‘नए भारत की ओर’ का विमोचन केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने
किया तो ‘वादा फरामोशी’ का विमोचन दिल्ली
के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने किया।
इसी तरह से लेखक विजय त्रिवेदी की किताब ‘बीजेपी कल आज और कल’ प्रकाशित हुई है। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है
कि यह पुस्तक भारतीय जनता पार्टी की स्थापना से लेकर अबतक की कहानी कहती है।
पुस्तक परिचय में लिखा भी गया है कि यह उस पार्टी की कहानी है जिसने सामूहिक
नेतृत्व की शुरुआत की, नागपुर में अपना रिमोट कंट्रोल रहने दिया, और 7 लोक कल्याण
मार्ग तक आते आते वन मैन पार्टी बन गई। ये किताब 2019 के चुनावों के बरअक्स भारत
की राजनीति के सबसे दिलचस्प और सबसे नए अध्याय- भारतीय जनता पार्टी को समझने का
प्रयास है।‘ विजय त्रिवेदी ने इसके पहले उत्तर प्रदेश के
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और अटल बिहारी वाजपेयी पर भी किताब लिखी है जो दैनिक
जागरण हिंदी बेस्टसेलर में शामिल रही है। ‘नरेन्द्र मोदी
सेंसर्ड’ के नाम से अशोक श्रीवास्तव की एक किताब प्रकाशित
हुई है। इसके लेखक का कहना है कि पिछले साढे चार साल में जिस तरह से अभिव्यक्ति की
आजादी को लेकर फेक नैरेटिव खड़ा किया जा रहा है, उसको उनकी पुस्तक निगेट करती है। इसमें
2014 में दूरदर्शन पर मोदी के इंटरव्यू को सेंसर करने की कोशिशों की कहानी भी है। 2014 के लोकसभा चुनाव के पहले ‘मोदी मंत्र’ लिखनेवाले हरीश
बर्णवाल की इस लोकसभा चुनाव के पहले भी ‘मोदी नीति’ के नाम से एक किताब प्रकाशित हुई है। हरीश का
कहना है उनकी यह किताब चुनाव को ध्यान में रखकर नहीं लिखी गई है बल्कि वो इस बात
को स्थापित करना चाहते हैं कि प्रधानमंत्री मोदी जब कुछ बोलते हैं तो वो सुचिंतित
होता है और कुछ भी अचानक नहीं होता है। उनका दावा है कि इसके लिए उन्होंने
प्रधानमंत्री मोदी के सैकड़ों भाषणों को देखा और उनमें से तथ्यों को इकट्ठा कर
उसकी व्याख्या की। इस किताब में एक अध्याय हरीश बर्णवाल और रामबहादुर राय ने मिलकर
लिखा है।
चुनावी मौसम में एक और राजनीतिक किताब आ रही है
जिसका नाम है ‘भगवा का राजनीतिक पक्ष, वाजपेयी से मोदी तक’। इस पुस्तक की लेखिका हैं पत्रकार सबा नकवी। सबा
ने यह पुस्तक पहले अंग्रेजी में लिखी थी जिसका हिंदी अनुवाद शीघ्र ही प्रकाशित हो
रहा है। सबा की इस किताब के शीर्षक से भी स्पष्ट है कि उन्होंने भारतीय जनता
पार्टी और दक्षिणपंथी राजनीति को कसौटी पर कसा है। अटल बिहारी वाजपेयी और मोदी के
वक्त दक्षिणपंथी राजनीति में क्या बदलाव आया है इसको परखने की कोशिश की गई है। राजनीति
को केंद्र में रखकर दर्जनों किताबें प्रकाशित हुई हैं। ऐसा नहीं है कि सिर्फ हिंदी
में इस तरह की पुस्तकों का प्रकाशन हो रहा है, देशभर की अलग अलग भाषाओं में इस तरह
की पुस्तकों का प्रकाशन हो रहा है।
चुनाव के वक्त इस तरह की पुस्तकों के प्रकाशन का
मकसद लगभग साफ होता है। एक तो पुस्तक की चर्चा हो जाए और जिसको केंद्र में रखकर
प्रशंसात्मक या आलोचनात्मक किताब लिखी गई हो उसपर पुस्तक का प्रभाव पड़े। पुस्तक
की मार्फत राजनीति का ये ट्रेंड भारत में नया है। अमेरिका में हर चुनाव के पहले
राष्ट्रपति पद के उम्मीदवारों को केंद्र में रखकर प्रशंसात्मक और विध्वंसात्मक
किताबें आती रही हैं। वहां तो संभावित उम्मीदवारों के निजी प्रसंगों तक पर किताबें
लिखने का ट्रेंड रहा है। अब अगर हिंदी के लेखकों ने इस ट्रेंड को अपनाया है तो उनसे
पाठकों की एक अपेक्षा यह बन रही है कि ये पुस्तकें भक्तिभाव से ऊपर उठकर वस्तुनिष्ठ
होकर लिखी जाए ताकि फौरी तौर पर चर्चित होने के बाद ये किताबें गुमनाम ना हो जाएं।
1 comment:
जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार २९ मार्च २०१९ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
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