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Saturday, March 9, 2019

फॉर्मूलाबद्ध लेखन की बेड़ी में साहित्य


आगामी सितंबर में स्कॉटलैंड में इंटरनेशनल क्राइम राइटिंग फेस्टिवल का आयोजन होना है। इस क्राइम राइटिंग फेस्टिवल का नाम ब्लडी स्कॉटलैंड है। इस फेस्टिवल में दुनिया की अलग अलग भाषाओं के अपराध कथा लेखक शामिल होते हैं। इस फेस्टिवल की चर्चा इस वजह से हो रही है क्योंकि पिछले दिनों एक साहित्योत्सव के दौरान संस्कृतिकर्मी मित्र संदीप भूतोडिया ने बातचीत के दौरान बताया कि ब्लडी स्कॉटलैंड इंटरनेशनल क्राइम राइटिंग फेस्टिवल ने तय किया है कि वो हिंदी से भी एक अपराध कथा लेखक को इस फेस्टिवल में निमंत्रित करेंगे। तीन चार साहित्यिक मित्र वहां खड़े थे। इस खबर को सुनने के बाद सबके चेहरे पर खुशी का भाव था क्योंकि उनको लग रह था कि हिंदी लेखकों की पूछ वैश्विक स्तर पर बढ़ रही है। हम सब लोग खुश हो ही रहे थे कि संदीप भूतोड़िया ने हमसे हिंदी के एक क्राइम फिक्शन या अपराध कथा लेखक का नाम पूछा ताकि ब्लडी स्कॉटलैंड फेस्टिवल के आयोजकों को सुझा सकें। वहां खड़े सबके मुंह से निकला सुरेन्द्र मोहन पाठक। फिर पता चला कि पाठक जी का स्वास्थ्य ठीक नहीं है। पाठक जी के अलावा किसी क कोई नाम सूझ नहीं रहा था। लंबी चर्चा के बाद भी हम सब हिंदी के किसी अपराध कथा लेखक का नाम नहीं सुझा पाए। हिंदी के अपराध कथा लेखक पर बात चल निकली। जितने भी नाम आए लगभग सभी पॉकेट बुक्स के लेखक के आए चाहे वो कर्नल रंजीत हों, वेद प्रकाश शर्मा हों या ओम प्रकाश शर्मा हों। तथाकथित मुख्यधारा के साहित्यकारों में से कोई भी ऐसा नाम नहीं आया जिसको हिंदी में अपराध कथा लेखक के तौर पर स्वीकृति मिली हो। ले देकर एक गोपाल राम गहमरी का नाम याद पड़ता है जिन्होंने अपनी पत्रिका जासूस के लिए कई जासूसी उपन्यास लिखे। खूनी की खोज, अद्भुत लाश, बेकसूर की फांसी और गुप्तभेद उनके चर्चित उपन्यास रहे हैं। आजादी के कुछ दिनों पहले ही गोपाल राम गहमरी का निधन हो गया। दरअसल अगर हम देखें तो गहमरी ने हिंदी साहित्य की अन्य विधाओं के अलावा जासूसी उपन्यास लिखे। उन्होंने जमकर अनुवाद भी किए। गहमरी के निधन के बाद उनके कद का तो छोड़ दें, कोई उनसे कमतर जासूसी लेखक भी हिंदी साहित्य को नहीं मिला। अपराध कथा पढ़ने वाले हिंदी के पाठक अपनी पाठकीय क्षुधा मेरठ से छपनेवाले पॉकेट बुक्स से पूरी करते रहे। एक जमाना था जब रेलवे स्टेशन के व्हीलर के स्टॉल पर राजन-इकबाल सीरीज के जासूसी उपन्यासों के लिए किशोरों की लाइन लगा करती थी। नए-नए पाठक राजन-इकबाल सीरीज के नए उपन्यासों की प्रतीक्षा करते थे। उसकी अग्रिम बुकिंग हुआ करती थी।  
अब इस बात की पड़ताल करनी चाहिए कि हिंदी में अपराध कथा लेखक क्यों नहीं हुए या क्यों बहुत कम हुए। हिंदी समेत पूरी दुनिया की अलग अलग भाषाओं में अपराध कथा का विशाल पाठक वर्ग है। अंग्रेजी में तो क्राइम फिक्शन लिखनेवाले लेखकों की एक बेहद समृद्ध परंपरा है। अमेरिकी क्राइम फिक्शन लेखक जेम्स पैटरसन दुनिया के सबसे अमीर लेखकों में से एक हैं। वो जासूसी उपन्यास के साथ साथ, रोमांस और एडल्ट फिक्शन भी लिखते हैं। उनके जासूसी उपन्यासों के लोग दीवाने हैं। लेकिन हिंदी साहित्य में अगर इस विधा पर विचार करें तो एक सन्नाटा नजर आता है। सुरेन्द्र मोहन पाठक को भी हाल के वर्षों में तथाकथित मुख्यधारा के लेखकों के बराबर सम्मान मिलना शुरू हुआ जब उनको हार्पर कॉलिंस जैसे प्रतिष्ठित प्रकाशन गृह ने छापना शुरू किया। दरअसल हिंदी साहित्य लेखन में एक खास किस्म की वर्ण व्यवस्था दिखाई देती है। इसमें अलग अलग विधाओं में लेखन करनेवाले और अलग अलग प्रकाशकों से छपनेवाले वर्णव्यवस्था के अलग अलग पायदान पर हैं। ये वर्ण व्यवस्था इतनी कठोर या रूढ़ है कि इसके खांचे को तोड़ पाना लगभग नामुमकिन है। इसको समझने के लिए एक उदाहरण ही काफी होगा। हिंदी में प्रेम पर लिखनेवाले दो उपन्यासकार हुए। एक धर्मवीर भारती जिनका लिखा गुनाहों का देवता बहुत प्रसिद्ध हुआ। दूसरे हुए गुलशन नंदा जिनके कई उपन्यास बेहद लोकप्रिय हुए, उनके लिखे उपन्यासों पर खूब फिल्में बनीं। प्रेमकथा लिखनेवाले धर्मवीर भारती और गुलशन नंदा में साहित्यिक वर्ण व्यवस्था में धर्मवीर भारती केंद्र में रहे और गुलशन नंदा तमाम लोकप्रियता और फिल्मों में स्वीकार्यता के बावजूद उसकी परिधि के भी बाहर रहे। क्यों? तथाकथित मुख्यधारा के आलोचकों ने कभी गुलशन नंदा की कृतियों को विचार योग्य भी नहीं समझा। क्यों? जब भी गुनाहों का देवता का नया संस्करण छपता उसपर चर्चा होती, उसको और मजबूती प्रदान की जाती। अगर अब भी गुलशन नंदा के किसी एक उपन्यास की प्रतियों की संख्या और गुनाहों के देवता की अबतक बिकी प्रतियों की तुलना की जाए तो बेहद दिलचस्प आंकड़े और नतीजे सामने आ सकते हैं।  
साहित्य की इस वर्ण व्यवस्था को वामपंथी विचारधारा ने बहुत मेहनत से तैयार और मजबूत किया। इस विचारधारा को मानने वाले लेखकों और आलोचकों ने एक ऐसा मजबूत घेरा तैयार किया जिसमें बाहरी विचारधारा के लेखकों को मान्यता ही नहीं दी। गुलशन नंदा, कुशवाहा कांत और इन जैसे अन्य लेखकों का मूल्यांकन क्या उसपर चर्चा ही नहीं की गई । इनको लुगदी लेखक कहकर साहित्यिक वर्णव्यवस्था से बहिष्कृत रखा। यही हाल वर्षों तक फिल्मों और गीत संगीत पर लिखनेवालों का रहा। उनको भी गंभीर लेखक नहीं माना गया। फिल्मों और गीत संगीत को लेकर वामपंथी आलोचकों की राय अच्छी नहीं रही। उनको वो बुर्जुआ के लिए किया गया उपक्रम मानते रहे। नतीजा यह हुआ कि इस विधा पर लिखने वालों का विकास नही हो सका और हिंदी फिल्मों को लेकर जितना अच्छा और अधिक अंग्रेजी में लिखा गया उतना हिंदी में नहीं लिखा जा सका। हिंदी साहित्य जब वामपंथ के जकड़न से मुक्त होने लगी तो फिल्म और संगीत पर लेखन बढ़ने लगा। लेकिन अबतक हिंदी में इन विषयों पर लेखन इतना पीछे रह गया है कि उसको अंग्रेजी के बराबर आने में काफी वक्त लगेगा। अपराध कथा और जासूसी उपन्यासों को लेकर भी यही स्थिति रही। जासूसी उपन्यासों के लेखकों को हिंदी साहित्य में प्रतिष्ठा नहीं मिली लिहाजा इस विधा में हाथ आजमाने वाले कम हुए। साहित्य के वाम विचारधारा काल में यथार्थवादी लेखन या मजदूरों और दबे कुचलों के पक्ष में इतना अधित लेखन हुआ, और उस लेखन को प्रतिष्ठा दिलाने का चक्र चला कि बाकी विधाएं या तो दम तोड़ गईं या फिर उनमें लिखनेवाले कम होते चले गए। इतना ही नहीं जनलेखक और अभिजन लेखक के खांचे में बांटकर भी लेखकों को उठाने और गिराने का खेल खेला गया। जनवादिता, प्रगतिशीलता और क्रांतिकारिता के नाम पर जिस तरह से साहित्यिक यथार्थ गढे गए उसने भी लेखकों को एक फॉर्मूला दिया। उस फॉर्मूले को अपनाकर पुरस्कार और प्रसिद्धि दोनों मिले। लेकिन उसने हिंदी साहित्य का नुकसान किया। उसके विस्तार को बाधित किया। फॉर्मूलाबद्ध लेखन लंबे समय तक चल नहीं सकता है।
जासूसी कथा या अपराध कथा नहीं लिखे जाने की एक औक वजह समझ में आती है वो है कि यह विधा लेखक से बहुत मेहनत की मांग करती है। इसमें पॉर्मूलाबद्ध लेखन नहीं हो सकता है, इसमें पाठकों के लिए हर पंक्ति में आगे क्या की रोचकता बरकरार रखनी होती है। यहां काल्पनि यथार्थ नहीं चलता है। दूसरी बात ये कि अपराध कथा में सूक्षम्ता से स्थितियों का वर्णन करना होता है जिसके लिए कानून और अपराध दोनों का ज्ञान होना आवश्यक है। अन्य विधा में इतनी सूक्ष्मता से वर्णन की अपेक्षा नहीं की जाती है वहां काल्पनिक यथार्थ से भी काम चल जाता है। एक और वजह ये हो सकती है कि हिंदी के प्रकाशकों ने भी लंबे समय तक अपराध कथा को छापने का साहस नहीं किया। लेखकों से अपराध कथा या जासूसी उपन्यास लिखवाने की कोई योजना नहीं बनाई। पिछले दिनों जब कॉलेज की कहानियां बेस्टसेलर होने लगी तो हिंदी के तमाम प्रकाशकों ने एक खास तरह के लेखन को ना केवल स्वीकारा बल्कि उसको बढ़ावा देने के लिए कमर कस कर तैयार हो गए। जासूसी उपन्यासों को लेकर हिंदी के प्रकाशकों में किसी तरह का उत्साह नहीं दिखा क्योंकि अगर उत्साह दिखता तो उसको छापने का प्रयत्न भी सामने आता। प्रकाशकों की उदासीनता ने भी लेखकों को जासूसी कथा लिखने से दूर किया। उपन्यासकार प्रभात रंजन कहते भी हैं कि अगर वो जासूसी उपन्यास लिख भी देगें तो छापेगा कौन। इअगर छपेगा ही नहीं तो लिखने का क्या फायदा। दरअसल अगर हम देखें तो भारतीय प्रकाशन जगत के एक बड़े हिस्से पर भी वामपंथी विचारधारा और रूस के धन का व्यापक प्रभाव लंबे समय तक रहा। उसने भी कायदे से हिंदी में अलग अलग तरह के लेखन का विकास अवरुद्ध किया। मार्क्स और मार्क्सवाद की आड़ में ना केवल पौराणिक लेखन को प्रभावित किया बल्कि अलग अलग विधा को भी पनपने से रोका। जबकि मार्क्स ने तो साफ कहा था कि पुराणों में अतिलौकिक और धार्मिक तत्व ही नहीं होते वो मनुष्य की नैतिक मान्यताओं और यथार्थ के प्रति उसके सौंदर्यात्मक दृष्टिकोण को भी प्रतिबिंबित करते हैं।जरूरत इस बात की है कि इन कारगुजारियों पर हिंदी साहित्य विचार करे।    


5 comments:

Chandan Kumar chhawindra said...

बहुत ही शानदार ...

विकास नैनवाल 'अंजान' said...

ये बात सही है कि हिन्दी में अपराध साहित्य को वो मुकाम नहीं मिला जो मिलना चाहिए था। अपराध साहित्य ही नहीं विज्ञान गल्प,हॉरर इत्यादी को भी वो नहीं मिला। लेकिन फिर भी लोग लिखते रहे। आज भी लिख रहे हैं। एम इकराम फरीदी, कँवल शर्मा, शुभानन्द, अमित श्रीवास्तव,मोहन मौर्य इत्यादि ऐसे लेखक हैं जो इस श्रेणी के उपन्यास लिख रहे हैं। ऐसे में प्रभात रंजन का वक्तव्य की 'वो जासूसी नावेल लिख तो देंगे लेकिन छापेगा कौन?' मुझे अटपटा लगता है। उन्होंने तो खुद ही जो नेसबो के एक उपन्यास का अनुवाद किया था। जो प्रकाशक अनुवाद छाप सकता है वो मौलिक उपन्यास भी छाप सकता है। फिर अब तो किंडल जैसे माध्यम भी लेखको के पास मौजूद हैं। आनंद कुमार सिंह जो पेशे से पत्रकार हैं उन्होंने अपना पहला जासूसी उपन्यास हीरोइन की हत्या किंडल पर ही प्रकाशित किया था।

हाँ, प्रकाशकों की उदासीनता जरूर मन में निराशा पैदा करती हैं। जिन प्रकाशकों ने पाठक साहब को छापा उन्होंने भी इस साहित्य में नई प्रतिभाओं को खोजने का उपक्रम नहीं किया। यही कारण है उनके पास पाठक साहब को छोड़कर कोई और विकल्प मौजूद नहीं रहे। और पाठक साहब ने जैसे उन्हें छोड़ा उन प्रकाशकों के पास पाठकों को देने के लिए कुछ नहीं बचा। पहले हार्पर के साथ ऐसा हुआ, फिर वेस्टलैंड के साथ भी ऐसा हुआ। प्रकाशकों के अंदर भी विज़न की कमी लगती है। अगर विजन होता तो वो स्टार अट्रैक्शन के अलावा भी अपने बुके में कुछ और लेखकों को रखते।

खैर, अभी रवि पॉकेट बुकस और सूरज पॉकेट बुकस से नया सेट आया है। उसमें कुछ नए उपन्यास भी है। फिंगर्स क्रॉस्ड हैं। देखना है पाठकों के लिए क्या नया आ रहा है।

सुशील कुमार जोशी said...

सुन्दर और सटीक आलेख।

writer raja said...

Sher - ek dahaadti Pukar पढ़िए क्राइम सस्पेंस की एक अलग ही गाथा है।

Amit Singh said...

सही बात है। जिसतरह बालक के संतुलित विकास के लिए प्रोटीन, विटामिन, खनिज-लवण सबकी जरूरत होती है, उसी तरह साहित्य के विकास के लिए भी हर तरह के तत्व को मुख्य धारा भी शामिल करना होगा। उन्हें लुगदी साहित्यकार कहकर कब तक उपेक्षित किया जाएगा!


बेहतरीन लेख रचना!👌👍