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Saturday, May 25, 2019

कनॉट प्लेस में चलते थे तांगे


सुरेश ऋतुपर्ण हिंदी के वरिष्ठ कवि हैं। 31 साल तक दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदू कॉलेज में अध्यापन करने के बाद दस वर्षों तक जापान के एक युनिवर्सिटी में काम किया। वहां से लौटकर पिछले छह साल से के के बिरला फाउंडेशन के निदेशक हैं।

मैं 1962 में भारत और चीन के बीच युद्द होने के थोडा पहले मथुरा से दिल्ली आ गया था। मेरे माता-पिता यहां व्यापार के सिलसिले में आते थे। हम लोग उस वक्त दिल्ली में झील खूरेंजी में रहते थे। वहीं के नगर निगम स्कूल में मैंने पढ़ाई की। उसके बाद मैं जुलाई 1965 में हिंदू कॉलेज में हिंदी ऑनर्स में एडमिशन लिया। उस वक्त दिल्ली युनिवर्सिटी में बेहद सकारात्मक और सर्जनात्मक माहौल था और इसके हर कॉलेज में हिंदी के बड़े बड़े लेखक आया जाया करते थे। हमने पहली बार अज्ञेय को श्रीराम कॉलेज ऑफ कॉमर्स में देखा था। हिंदी विभाग में उस वक्त डॉ नगेन्द्र की तूती बोलती थी लेकिन हमारे देखते देखते ही उनका साम्राज्य ध्वस्त हो गया। सुधीश पचौरी ने डॉ नगेन्द्र के खिलाफ मोर्चा खोला था जिसको लेफ्ट के कई लोगों का समर्थन था। विश्वनाथ त्रिपाठी भी छुप-छुपकर सुधीश जी का साथ देते थे। पचौरी का साथ तो उस वक्त अज्ञेय ने भी दिया था। तब अज्ञेय दिनमान के संपादक हुआ करते थे और उस पत्रिका का एक संवाददाता नियमित रूप से आर्ट्स फैकल्टी में रहा करता था । नगेन्द्र के खिलाफ दिनमान के हर अंक में कुछ ना कुछ छपता ही था। हमने उस दौर में प्रज्ञा नाम से एक संस्था बनाई थी जो साहित्यिक गोष्ठियों का आयोजन करती थी। उसी दौर में जब अशोक चक्रधर दिल्ली आए तो उन्होंने प्रगति नाम से एक संस्था बनाई जो लेफ्ट विचारधारा के लोगों के लिए गोष्ठियां आदि आयोजित करती थी।  
जब मैं हिंदू कॉलेज में था तो व्यंग्यकार हरीश नवल और सिंधुराज के साथ हमारी मित्र-त्रयी थी। हरीश नवल चांदनी चौक में रहते थे। हिंदू कॉलेज से हम बस से चांदनी चौक पहुंच जाया करते थे। 15 मिनट लगते थे। चांदनी चौक से हमलोग नई सड़क जाते थे जहां कोने पर आसाराम की चाय की दुकान हुआ करती थी जो रातभर खुली रहती थी। टाउन हॉल का लॉन हमारा अड्डा हुआ करता था। हमलोग कई बार रात में भी आसाराम की चाय पीकर टाउन हॉल के लॉन में पहुंच जाते थे और देर रात तक वहीं बैठकर अपनी-अपनी कविताएं सुनाया करते थे। जब भी मन करता था मैजेस्टिक सिनेमा के पास पहुंचकर फटफटिया पर बैठ जाते थे जो कनॉट प्लेस पहुंचा देता था। उस वक्त चार आने में मैजेस्टिक सिनेमा से ओडियन सिनेमा तक फटफटिया चला करती थी जिसे फोर सीटर भी कहते थे। उस दौर में हौज काजी से लेकर ओडियन सिनेमा तक तांगे की सवारी भी की जा सकती थी। ।जब हम मस्ती के मूड में होते तो तांगे से कनॉट प्लेस जाते थे। तांगा मैजेस्टिक सिनेमा से दरियागंज होते हुए ओडियन सिनेमा तक जाता था। तब कनॉट प्लेस के सर्किल में दोनों तरफ से ट्रैफिक चला करती थी जिसको बाद में वन वे कर दिया गया। हिंदी के वरिष्ठ लेखक विष्णु प्रभाकर जी चांदनी चौक के कुंडेवालान इलाके में रहते थे। मैं देखता था कि वो कई बार पैदल ही अपने घऱ से मिंटो रोड होते हुए कनॉट प्लेस के कॉफी हाउस तक पहुंच जाते थे। कॉफी हाऊस का किस्सा भी बेहद दिलचस्प है। चीन की लड़ाई के बाद इसका निर्माण हुआ था। आज जहां आप पालिका बाजार देखते हैं वहां एक थिएटर कम्युनिकेशन बिल्डिंग हुआ करती थी। उसी बिल्डिंग में इंडियन कॉफी हाऊस खुला था जहां तमाम बुद्धिजीवी जमा हुआ करते थे। मुझे याद है कि उसी समय मैंने मशहूर चित्रकार एम एफ हुसैन को कॉफी हाउस में देखा था तो अपनी रंगी हुई फिएट कार से वहां आया करते थे। उनकी फिएट कार अलग से ही पहचान में आ जाती थी। अब दिल्ली काफी बदल गई है। हम उस वक्त रात में 11-12 बजे लाल किले के सामने खड़े होते थे फतेहपुरी की सड़कें खाली दिखाई देती थीं, अब का हाल आपके सामने है।(अनंत विजय से बातचीत पर आधारित)

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