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Wednesday, May 15, 2019

सुधीश पचौरी की दिल्ली की यादें


प्रो सुधीश पचौरी प्रख्यात आलोचक हैं। उन्होंने लंबे समय तक दिल्ली विश्वविद्यालय में शिक्षण कार्य किया और वहां के उप कुलपति भी रहे। उनकी दर्जनों पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है। हिंदी में उत्तर-आधुनिकता की अवधारणा को स्थापित करने का श्रेय उनको ही दिया जाता है। उन्होंने दिल्ली को लेकर मुझसे अपनी यादें साझा कीं।     

मैं आज से 51 साल पहले आगरा से चलकर एम फिल करने दिल्ली आया था। पहले गाजियाबाद में रुका, फिर मिंटो रोड आ गया। उसके बाद शक्तिनगर के पास रहने लगा था। वो दौर मेरी जिंदगी का एक ऐसा दौर था, जिसमें मैंने बहुत काम किया और बहुत कुछ सीखा भी। तब दिल्ली की इतनी आबादी नहीं हुआ करती थी। कमलानगर दिल्ली के पुराने सेठों का इलाका था। कमलानगर की पहचान राजधानी दिल्ली के फैशन स्ट्रीट के तौर पर भी थी। कहा जाता था कि देश में नए फैशन के कपड़े सबसे पहले कमलानगर की दुकानों में ही पहुंचते थे। लिहाजा कमलानगर में बहुत रौनक हुआ करती थी। कमलानगर में उस वक्त एक बेहद लोकप्रिय कैफे हुआ करता था, जहां जाकर दिल्ली युनिवर्सिटी के छात्र गमजदा गाने सुना करते थे। वहां गाने सुनने के लिए एक ऐसा यंत्र लगा था जिसमें पहले पैसा डालना होता था उसके बाद मनपसंद गाने सुन सकते थे। उस मशीन में सबसे ज्यादा पैसे किशोर कुमार और तलत महमूद के गानों के लिए डाले जाते थे। फिल्में देखने के लिए हम शक्तिनगर से मॉडल टाउन पैदल जाते थे, कई बार तो दिन मे दो-दो चक्कर लग जाते थे।
उन दिनों लोग पैदल खूब चला करते थे। नामवर सिंह तिमारपुर में कोने की एक मकान में फर्स्ट फ्लोर पर रहते थे। वहां से वो पैदल ही दरियागंज जाते थे या फिर जनयुग के कार्यलय भी पैदल ही जाया करते थे। उस समय बसों में टिकट बहुत कम था, दस पैसे के टिकट पर आप बस से दिल्ली घूम सकते थे। बाद के दिनों में हम रीगल सिनेमा के पास एक बाएं हाथ पर एक अरबी-अफगानी खाने का ठिकाना था। वहां भी अड्डा जमाते थे। मेरे साथ एक सहूलियत ये हो गई थी कि मैं सीपीएम में सक्रिय होने की वजह से ट्रेड यूनियन की बैठकों में होटलों आदि में भी जाया करता था। तो होटल का स्टाफ हमें पहचानता था। जब हम खाने जाते थे तो अतिरिक्त आतिथ्य मिलता था। फिर मेरी नौकरी लग गई। मैं पार्टी, एसएफआई, जनवादी लेखक संघ और शिक्षकों के मूवमेंट में इतना व्यस्त रहता था और इतना घूमता था कि मेरे सारे पैसे खत्म हो जाते थे। लेकिन तब इसकी चिंता भी नहीं होती थी। युवावस्था का जुनून और विचारधारा का रोमांटिसिज्म था।
उस वक्त दिल्ली विश्वविद्यालय में मार्क्सवाद की लहर थी और दिल्ली वाम विचारधारा का गढ़ हुआ करता था। युनिवर्सिटी में आइडियोलॉजिकल डिबेट की जमकर तैयारी होती थी। सारे लोग जमकर पढ़ाई करते थे, संदर्भ नोट करते थे और बेखौफ होकर अपनी बात रखते थे। विरोध का स्पेस होता था। बहस आदि में बड़ों को गिराकर या उनको मात देकर छोटे मानेजाने वाले लोग अपनी प्रतिभा का एहसास करवाते हुए आगे आते थे। उसको सभी स्वीकार भी करते थे। उन दिनों दिल्ली में जमकर धरना प्रदर्शन का भी कल्चर था। मुझे याद पड़ता है कि 1975 में धर्मवीर भारती दिल्ली में अखिल भारतीय साहित्य सम्मेलन करने आए। हमने उनका विरोध करने की ठानी। मैं और कवि स्वर्गीय पंकज सिंह कार्यक्रम स्थल पर जा पहुंचे और नारेबाजी कर अपनी आपत्ति दर्ज करवाई। ये वही दौर था जब दिल्ली युनिवर्सिटी में डॉ नगेन्द्र की तूती बोलती थी। जब वो क्लास लेकर निकलते थे तो कॉरीडोर खाली हो जाता था। वो किसी को भी किसी कॉलेज में नौकरी दे सकते थे, देते भी थे। डॉ नगेन्द्र से मेरी टकराहट हो गई थी, ये कहानी फिर कभी।
(अनंत विजय से बातचीत पर आधारित)

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