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Saturday, April 18, 2020

‘महाभारत’:संवाद लेखन का अर्धसत्य


कोरोना के चलते लॉकडाउन में लोगों के सामने बेहतरीन सीरियल प्रस्तुत करने की दूरदर्शन की कोशिशों के चलते ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ के अलावा कई पुराने पर बेहद लोकप्रिय रहे सीरियलों का पुनर्प्रसारण प्रारंभ हुआ। ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ के फिर से प्रसारण का समाचार सार्वजनिक होते ही इनके निर्माण से जुड़ी कहानियां भी फिर से सामने आने लगीं। ऐसी ही एक कहानी, जो बहुत जोर-शोर से प्रचारित की गई कि वो महाभारत से जुड़ी थी। ये प्रचारित किया गया कि महाभारत का संवाद, मशहूर लेखक राही मासूम रजा ने लिखे। पर इस सचाई में एक और सचाई जरा दब सी गई, वो ये है कि राही मासूम रजा साहब को पंडित नरेन्द्र शर्मा का भी साथ मिला था। किस्से इस तरह गढ़े गए कि इस संदर्भ में नरेन्द्र शर्मा का नाम कोई लेता नहीं है, जबकि इस सीरियल के निर्माण के दौरान जब राही मासूम रजा इसके संवाद लिख रहे थे तो पंडित नरेन्द्र शर्मा उनकी काफी मदद कर रहे थे। कहना न होगा कि महाभारत की पटकथा से लेकर संवाद तक में दोनों लेखकों की भूमिका थी। प्रचारित तो यह भी किया गया कि राही मासूम रजा ने ‘भ्राताश्री’, ‘माताश्री’ जैसे शब्द गढ़े लेकिन ऐसा प्रचारित करनेवाले ये भूल गए कि ‘महाभारत’ के पहले ही ‘रामायण’ का प्रसारण हो चुका था और उसमें मेघनाद अपने पिता राक्षसराज रावण को पिताश्री कहकर ही संबोधित करता है। ‘रामायण’ के सवाद तो रामानंद सागर ने लिखे थे। इसलिए इन शब्दों को गढ़ने का श्रेय रजा साहब को देना अनुचित है। इस सीरियल को लिखने के दौरान होता ये था कि रजा साहब और नरेन्द्र शर्मा में लगातार विमर्श होता रहता था और दोनों एक दूसरे की मदद करते थे। यह भी सर्विविदित तथ्य है कि राही मासूम रजा जो भी लिखकर भेजते थे उसको पंडित नरेन्द्र शर्मा देखते थे और उनकी सहमति के बाद ही सीरियल में उसका उपयोग होता था। पंडित नरेन्द्र शर्मा की पुत्री लावण्या शाह के मुताबिक, राही मासूम रजा ने कहा था कि ‘महाभारत की भूल भूलैया भरी गलियों में, मैं , पंडित जी की अंगुली थामे, आगे बढ़ता गया’

दरअसल हिंदी फिल्मों से जुड़े एक खास वर्ग के लोग और मार्क्सवादी विचारधारा के अनुयायियों की ये पुरानी तकनीक है जिसके तहत वो फिल्मों की लोकप्रियता का श्रेय उन संवाद लेखकों को देते रहे हैं जो हिन्दी-उर्दू मिश्रित भाषा का प्रयोग करते रहे हैं। ये लोग इसको हिन्दुस्तानी कहकर प्रचारित प्रसारित करते हैं। गानों या संवादों में भी हिंदी शब्दों की बहुलता को लेकर बहुधा उपहास किया जाता रहा लेकिन इतिहास गवाह है कि जब भी हिंदी में संवाद लिखे गए, लोगों ने उसको खूब पसंद किया, जब भी विशुद्ध हिंदी की शब्दावली में गीत लिखे गए तो वो काफी लोकप्रिय हुए। पंडित नरेन्द्र शर्मा का लिखा, 1961 की फिल्म ‘भाभी की चूड़ियां’ का एक गीत ‘ज्योति कलश झलके’ बेहद लोकप्रिय हुआ था। इस गीत को संगीतबद्ध किया था महान मराठी संगीतकार सुधीर फड़के ने। या अगर हम 1951 की एक फिल्म ‘मालती माधव’ का गीत याद करें ‘मन सौंप दिया अनजाने में, नैनों ने दरस रस किया पान, कर दिया पलक में ह्रदय दान’ तो पते हैं कि ये गाना भी काफी लोकप्रिय हुआ था। इसको भी पंडित नरेन्द्र शर्मा ने लिखा था, लता ने अपनी आवाज दी थी और संगीतबद्ध किया था सुधीर फड़के ने। ऐसे कई गीत हैं जहां हिंदी के शब्दों को लेकर रचना की गई लेकिन ना तो गानेवालों को और ना ही संगीत देनेवालों को कोई दिक्कत हुई. कर्णप्रिय भी हुए और लोकप्रिय भी। यह तो गंभीर और गहन शोध की मांग करता है कि कैसे फिल्म जगत में हिंदी को हिंदी और उर्दू मिश्रित जुबान से विस्थापित करने की कोशिश हुई और हिंदुस्तानी के नाम पर भाषा के साथ खिलवाड़ किया गया।
इतना ही नहीं अगर हम ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ के संवाद को देखें तो उसमें भी हिंदी अपनी ठाठ के साथ खिलखिलाती है।जब ये पहली बार दर्शकों के लिए दूरदर्शन पर दिखाए गए तब भी और जब अब एक बार फिर से दूरदर्शन पर दिखाए जा रहे हैं तब भी, बेहद लोकप्रिय हैं। उस दौर के दर्शक अलग थे और जाहिर सी बात है कि तीन दशक के बाद दर्शक बदल गए हैं लेकिन लोकप्रियता में कोई कमी नहीं आई। भाषा को लेकर किसी को कोई दिक्कत नहीं हुई। ना सिर्फ ‘महाभारत’ या ‘रामायण’ बल्कि अगर हम बात करें तो ‘कौन बनेगा करोड़पति’ या ‘क्योंकि सास भी कभी बहू थी’ की भाषा हिंदी ही थी। सभी बेहद लोकप्रिय हुए। इस तरह के सीरियल न केवल लोकप्रि. हुए बल्कि इन्होंने हिंदी का विकास ही किया, उसको मजबूती दी, उसको विस्तार दिया। सीरियल के माध्यम से लोगों का हिंदी के कई शब्दों से परिचय हुआ, वो उनका उपयोग बढ़ा और शब्द चलन में आ गए। ‘कौन बनेगा करोड़पति’ ने हिंदी के कई ऐसे शब्द फिर से जीवित कर दिए। ‘पंचकोटि’ जैसे शब्द तो लगभग चलन से गायब ही हो गए थे। ये इस सीरियल की लोकप्रियता ही थी जिसने शब्दों में फिर से जान डाल दी। मुझे याद है कि 2012 में जोहानिसबर्ग में आयोजित विश्व हिंदी सम्मेलन के उद्घाटन सत्र में मॉरीशस के तत्कालीन कला और संस्कृति मंत्री चुन्नी रामप्रकाश ने कहा था कि ‘हिंदी के प्रचार प्रसार में बॉलीवुड की फिल्में और टीवी पर चलनेवाले सीरियल्स का बहुत बड़ा योगदान है। उन्होंने इस बात को स्वीकार किया कि उनकी जो भी हिंदी है वो सिर्फ हिंदी फिल्मों और टीवी सीरियल्स की बदौलत है ।‘ और वो हिंदी बोल रहे थे तथाकथित हिन्दुस्तानी नहीं। सीरियल और फिल्मों का प्रभाव सिर्फ देश में नहीं बल्कि विदेशों में भी है, चुन्नी रामप्रकाश के वक्तव्य से इसको रेखांकित किया जा सकता है।
वामपंथ के प्रभाव में हिंदी के साथ भी खिलवाड़ शुरू हुआ और भाषा को सेक्युलर बनाने की कोशिश शुरू हो गई। गंगा-जमुनी तहजीब के नाम पर हिंदी में उर्दू को मिलाने की कोशिशें सुनियोजित तरीके से शुरू की गईं। हिंदी को कथित तौर पर सुगम बनाने की कोशिश शुरू हुई। नतीजा यह हुआ कि हिंदी के कई शब्द अपना अर्थ खोने लगे। वो चलन से बाहर होने लगे। फिल्मों के प्रभाव को देखते हुए वहां भी कथित तौर पर हिन्दुस्तानी को स्थापित करने की कोशिशें शुरू हुईं। इसके लिए पंडित नरेन्द्र शर्मा जैसे लेखक हाशिए पर धकेले जाने लगे। हिंदी उर्दू मिश्रित संवाद और गीत लिखनेवाले लोगों को प्रमुखता दी जाने लगी। अब यह तो नीति का हिस्सा होता है कि जिको प्रमुखता देनी हो उसके पक्ष में एक माहौल बनाओ और जिसको गिराना हो उसके विपक्ष में माहौल बनाओ। इसके तहत हिंदी को कठिन बताकर उर्दू मिश्रित हिंदी को बेहतर बताकर स्थापिकत किया गया। इस आधारभूत नियम का पालन बॉलीवुड में हुआ। इसका प्रकटीकरण साफ तौर पर महाभारत को लेकर राही मासूम रजा और नरेन्द्र शर्मा वाले प्रकरण में होता है। लेकिन न तो रामायण की भाषा को हिंदुस्तानी किया गया न महाभारत की भाषा को, परिणाम सबके सामने है।
भाषा को दूषित करने के इस खेल में वामपंथियों ने भले ही उर्दू को अपना हथियार बनाया हो लेकिन वो न तो उर्दू के हितैषी हैं और न रही मुसलमानों के। अगर राही मासूम रजा की इतनी ही कद्र या फिक्र होती तो उनको हिंदी में बेहतरीन कृतियां लिखने पर साहित्य अकादमी पुरस्कार मिल जाता। साहित्य अकादमी में तो उन्नीस सौ पचहत्तर के बाद से वामपंथियों का ही बोलबाला रहा। सिर्फ राही मासूम रजा ही क्यों किसी भी मुसलमान लेखक को इन वामपंथियों ने आजतक हिंदी में लिखने के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार नहीं दिया, शानी के ‘काला जल’ को भी नहीं, रजा के आधा गांव को भी इन्होंने इस लायक नहीं समझा। दरअसल ये अपनी विचारधारा को मजबूत बनाने और अपने और अपने राजनीतिक आकाओं के हितों की रक्षा के लिए भाषा, धर्म समाज सबका उपयोग करते रहे हैं। ये विचारधारा समावेशी नहीं है। कई बार ऐसा प्रतीत होता है कि इसका वैचारिक आधार स्वार्थ है और ये राजसत्ता हासिल करने के लिए भाषा, संस्कृति या धर्म का उपयोग करना चाहते हैं। साहित्य और संस्कृति को इस विचारधारा वालों ने राजनीति का औजार बनाकर इन विधाओं का इतना नुकसान किया जिसकी भारपाई निकट भविष्य में तो संभव नहीं है। जकरूरत इस बात की है कि भाषाई अस्मिता के साथ खिलवाड़ न किया जाए, भाषा के नियमों के साथ छेड़-छाड़ नहीं की जाए। बॉलीवुड में विचारधारा के नाम पर लंबे समय तक बहुत ही खतरनाक खेला गया, अब भी कई लोग ये खेल खेलना चाहते हैं, खेल भी रहे हैं लेकिन अब बेहद चालाकी से ऐसा करते हैं ताकि पकड़ में न आ सकें लेकिन वामपंथी ये भूल जाते हैं कि ये जनता है और वो सब जानती है। महाभारत के लेखन के लिए राही मासूम रजा को भी श्रेय मिले और बराबरी से पंडित नरेन्द्र शर्मा को भी। अर्धसत्य का दौर समाप्त होने को है। 

7 comments:

Dr.Rajaneesh Shukla said...

वाह। आनन्द आ गया। सटीक विश्लेषण कहीं कोई कटाक्ष नही।

कौशल लाल said...

बहुत सार्थक एवं सारगर्भित। ये विचार तो संभवतः महाभारत पहले प्रसारण के समय संवाद लेखक के नाम देखने पर कौंधता था। वैसे राजा साहब के सामर्थ्य पर कोई प्रश्नचिन्ह नही है,किन्तु शब्दो के इस्तेमाल पर कई बार संशय अवश्य हुआ। अब आपके इस आलेख से पुरानी धारणा का निवारण हुआ।

अर्चना तिवारी said...

आंशिक रूप से सहमत। पोस्ट एक पक्ष की ओर ही लुढ़की हुई है। लेखक को संतुलित होना चाहिए। नरेंद्र शर्मा वाली बात सत्य हो सकती है किंतु वामपंथियों ने हिंदी में जबरदस्ती उर्दू मिलाया यह आपकी एकतरफा मानसिकता को प्रदर्शित कर रही है। फेसबुक पर पोस्ट देखी किंतु वहाँ कमेन्ट बाक्स लाॅक था इसलिए यहाँ टिप्पणी दे रही हूँ। पोस्ट पब्लिक और कमेन्ट बाक्स लाॅक करना भी एक तरह से अपनी बात थोपने जैसा है।

Sanjiv Gupta said...

Adhbut likha hai Aapne

Anonymous said...

Very well written article 👌👏🙏
I like this.
Please di write such article frequently. 🙏

Vijay Gaur said...

मात्र टिप्पणी करने से आपकी टिप्पणी तथ्य नहीं हो जाती माननीया! एक ओर लुड़की होने का आरोप लगाने से पूर्व आपने अपने तथ्य रखने थे और विषयवार विवरण देना था। महाभारत के साक्षात्कार देखें, उसमें स्पष्ट वर्णन हैं कि संवाद को अंतिम मानने से पूर्व पंडित जी का कथन सामान्य बात थी। बॉलीवुड ने हिंदी को संस्कृतनिष्ठ होने से दूर किया इस पर कोई प्रश्नचिन्ह है ही कँहा? अरबी/फारसी शब्द प्रयोग बॉलीवुड के वामपंथी लेखकों की प्रमुखता रही है, इस पर प्रश्न कर सकती हैं आप? चलचित्रों के मात्र नाम ही देख लें, अधिक चिंतन की आवश्यकता नहीं होगी।

गजेन्द्र कुमार पाटीदार said...

आज ही एक जगह गाजीपुरी विद्वान ने राही साहब के सम्मान में खूब वाह वाह की लेकिन पं नरेंद्र शर्मा जी को बिसरा दिया। आप सही कहते हैं कि वामी अपना अर्धसत्य बताने में किसी के कंधे का प्रयोग बखूबी करते हैं, जिससे बेचारे के कंधे छिल जाते हैं।

मैंने इधर नेट पर उपलब्ध महाभारत के सभी ९४ एपीसोड देखे, जिसमें रामायण से अधिक जगह उर्दू शब्दो का उपयोग था, निश्चित ही यह रजा साहब की ही चूक थी जो मखमल में टाट का पैबंद जैसी लगी है।