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Saturday, November 11, 2023

आचार्य रामचंद्र शुक्ल का हिंदू मन


भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला में पिछले दिनों भारतीय भाषाओं के अंतरसंबंध पर आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी में भाग लेने का अवसर मिला। उस दौरान आचार्य रामचंद्र शुक्ल का अंग्रेजी में लिखा लेख हिंदी एंड द मुसलमान्स पर चर्चा हुई। उसी क्रम में रामचंद्र शुक्ल की तुलसी की भक्तिपरक और काव्य पद्धति को पढ़ने का मौका मिला। उसके बाद ऐसा प्रतीत हुआ कि रामचंद्र शुक्ल के साथ बाद के लेखकों ने न्याय नहीं किया। तुलसी काव्य की उनकी व्याख्या और उसके धार्मिक आधारों की विवेचना कम हुई। चर्चा इस बात की अधिक होती रही कि रामचंद्र शुक्ल ने तुलसी के सामने कबीर को याद नहीं किया। इतना ही नहीं कोशिश तो ये भी हुई कि तुलसी और कबीर को लेकर आचार्य शुक्ल और आचार्य द्विवेदी को प्रतिद्वंदी की तरह पेश किया गया। रामचंद्र शुक्ल के तुलसी काव्य पर लिखे को आगे बढ़ाने का प्रयास न के बराबर हुआ। अगर शुक्ल के लेखन के समग्र आयामों पर अगर बात होती तो उनका हिंदू मन या सनातन धर्म में उनकी आस्था सामने आ जाती। ये बात वामपंथ में आस्था रखनेवाले लेखकों और आलोचकों को स्वीकार नहीं होता, लिहाजा इस तरह का प्रपंच रचा गया कि शुक्ल के लेखन के हिंदू पक्ष के बारे में बात ही न हो। यह कार्य निराला के साथ भी किया गया, प्रेमचंद के साथ भी किया गया और कल्याण पत्रिका में प्रकाशित उनके लेखों को हिंदी के नए पाठकों से दूर रखने का बौद्धिक षडयंत्र रचा गया। इस षडयंत्र की चर्चा आगे होगी लेकिन पहले देख लेते हैं कि शुक्ल जी ने क्या लिखा है। 

तुलसी की भक्ति पद्धति में आचार्य शुक्ल ने दिल खोलकर हिंदूओं और उनके धर्म प्रतीकों पर लिखा है। लेख के आरंभ में आचार्य शुक्ल कहते हैं कि देश में मुसलमान साम्राज्य के पूर्णतया प्रतिठित हो जाने पर वीरोत्साह के सम्यक संचार के लिए वह स्वतंत्र क्षेत्र न रह गया, देश का ध्यान अपने पुरुषार्थ और बल-पराक्रम की ओर से हटकर भगवान की शक्ति और दया-दाक्षिण्य की ओर गया। देश का वह नैराश्य काल था जिसमें भगवान के सिवा कोई सहारा नहीं दिखाई देता था। आचार्य शुक्ल ने आगे कहा कि सूर और तुलसी ने इसी भक्ति के सुधारस से सींचकर मुरझाते हुए हिंदू जीवन को फिर से हरा कर दिया। भगवान का हंसता खेलता रूप दिखाकर सूरदास ने हिंदू जाति की नैराश्यजनित खिन्नता हटाई जिससे जीवन में प्रफुल्लता आ गई। पीछे तुलसीदासजी ने भगवान का लोक-व्यापारव्यापी मंगलमय रूप दिखाकर आशा और शक्ति का अपूर्व संचार किया। अब हिंदू जाति निराश नहीं है। आचार्य शुक्ल इतने पर ही नहीं रुकते हैं वो आगे कहते हैं कि सूरदास की दिव्य वाणी का मंजु घोष घर-घर क्या, एक एक हिंदू के ह्रदय तक पहुंच गया। यही वाणी हिंदू जाति को नया जीवनदान दे सकती थी। इसके बाद वो तुलसी के रामचरित की जीवनव्यापकता पर आते हैं और कहते हैं कि राम के चरित से तुलसी की जो वाणी निकली उसने राजा, रंक, धनी, दरिद्र, मूर्ख, पंडित सबके ह्रदय और कंठ में बसा दिया। गोस्वामी जी ने समस्त हिंदू जीवन को राममय कर दिया।

आचार्य शुक्ल ने सूफियों के ईश्वर को केवल अपने मन के भीतर समझने और ढूढ़ने की अवधारणा पर भी प्रहार किया। उन्होंने कहा कि भारतीय परपंरा का भक्त अपने उपास्य को बाहर लोक के बीच प्रतिष्ठित करके देखता है, अपने ह्रदय के कोने में नहीं। गोस्वामी जी भी ललकार कर कहते हैं कि भीतर ही क्यों देखें, बाहर क्यों न देखें- अन्तर्जामिहु तें बड़ बारहजामी हैं राम जो नाम लिए तें। पैज परे प्रह्लादहु को प्रगटे प्रभु पाहन तें, न हिए तें। वो स्पष्ट रूप से कहते हैं कि अगर भगवान को देखना है तो उन्हें व्यक्त जगत के संबंध से देखना चाहिए। वो यह मानते थे कि भगवान को मन के भीतर देखना योगमार्ग का सिद्धांत है भक्ति मार्ग का नहीं। सूफियों की इस अवधारणा के बाद गोस्वामी जी ने उपासना या भक्ति का केवल कर्म और ज्ञान के साथ ही सामंजस्य स्थापित नहीं किया, बल्कि भिन्न भिन्न उपास्य देवों के कारण जो जो भेद दिखाई पड़ते थे, उनका भी एक में पर्यवसान किया। इसी एक बात से ये अनुमान हो सकता है कि उनका प्रभाव हिंदू समाज की रक्षा के लिए ,उसके स्वरूप को रखने के लिए कितने महत्व का था। तुलसी के इस महत्व को बाद के दिनों में बहुत ही कम रेखांकित किया गया। आचार्य शुक्ल ने तुलसी के काव्य को लेकर इस प्रकार के जो विचार प्रस्तुत किए थे उसको भी दबाने का प्रयास किया गया। धर्म और जातीयता के समन्वय पर भी आचार्य शुक्ल ने विचार किया। उनका मानना था कि तुलसी ने अपने काव्य में जो रामरसायन तैयार किया जिसके सेवन से हिंदू जाति विदेशी मतों के आक्रमणों से बहुत कुछ रक्षित रही और अपने जातीय स्वरूप को दृढ़ता से पकड़े रही। उनका मानना था कि सारा हिंदू जीवन राममय हो गया था। वो तो यहां तक कह गए कि राम के बिना हिंदू जीवन नीरस है, फीका है, यही रामरस उनका स्वाद बनाए रहा और बनाए रहेगा। राम का मुंह देख हिंदी जनता का इतना बड़ा भाग अपने धर्म और जाति के घेरे में पड़ा रहा। न उसे तलवार हटा सकी, न धनमान का लोभ, न उपदेशों की तड़क भड़क। जिन राम को जनता जीवन के प्रत्येक स्थिति में देखती आई, उन्हें छोड़ना अपने प्रियजन को छोड़ने से कम कष्टकर न था। आचार्य शुक्ल ने बहुत बोल्ड तरीके से अपनी बात कही थी कि हमने चौड़ी मोहरी का पायजामा पहना, आदाब अर्ज किया पर राम-राम न छोड़ा। कोट पतलून पहनकर बाहर ‘डैम नानसेंस’ कहते हैं पर घर आते ही राम-राम।

अब आते हैं बौद्धिक षडयंत्र पर जहां कि रामचंद्र शुक्ल के हिंदू मन को हिंदी पाठकों से छिपाने का प्रयत्न हुआ। यशपाल से लेकर प्रकाशचंद्र गुप्त तक ने शुक्ल जी को सामंतवाद का विरोधी और जनवादियों से सहानुभूति रखनेवाला बताया। महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय की त्रैमासिक पत्रिका बहुवचन के प्रवेशांक( अक्तूबर-दिसंबर 1999) में सुधीश पचौरी का एक लेख प्रकाशित हुआ था, रामचंद्र शुक्ल की धर्म भूमि। विखंडनवाद के औजारों से लैस होकर सुधीश पचौरी ने रामचंद्र शुक्ल को एक धार्मिक विमर्शकार करार दिया था। लेख जब आगे बढ़ता है तो वो शुक्ल जी को एक हिंदू विमर्शकार के रूप में रेखांकित करते हैं और कहते हैं कि वो एक हिंदू विमर्शकार हैं जो अपने समय के प्रतिबिंब तो हैं ही अपने समय को सत्ता विमर्श में बदलनेवाले भी हैं और हिंदी आलोचना अभी तक उनके विमर्श से बाहर नहीं निकली है। इस लेख में सुधीश पचौरी ने शुक्ल जी की आलोचना करते हुए उनको एकार्थवादी हिंदुत्व के औजार बनते देखते हैं। सुधीश पचौरी की स्थापनाओं पर तब काफी विवाद हुआ था। यह साहित्यिक विमर्श का विषय हो सकता है लेकिन शुक्ल जी ने जिस प्रकार से हिंदी आलोचना की अस्मिता को तुलसी और सूर के काव्य के माध्यम से राम और कृष्ण से जोड़ा वो उनके हिंदू मन को सामने लाता है। आचार्य शुक्ल ने उस हिंदू मन को पकड़ा और रेखांकित किया है जो अपने अतीत को याद रखते हुए अपनी ज्ञानदृष्टि को समायनुकूल बनाने में नहीं हिचकता है। शुक्ल जी ने जर्मन वैज्ञानिक हैकल की एक पुस्तक का अनुवाद किया था जो ‘विश्वप्रपंच’ के नाम से प्रकाशित है उसकी भूमिका में उनकी समयानुकूल दृष्टि दिखती है। अपनी परंपरा और जड़ों से जुड़े रहकर भी आधुनिक बने रहने की। कहना न होगा कि शुक्ल हिंदी आलोचना के ऐसे हिरामन हैं जिनकी वैश्विक दृष्टि ने भारतीय साहित्य को समृद्ध किया। जरूरत इस बात की है कि उनके हिंदू मन पर समग्रता में विमर्श हो। 

2 comments:

सुशील कुमार जोशी said...

लाजवाब

Anonymous said...

क्या बात है अनंत जी! रामचंद्र शुक्ल जी को नमन और आपको साधुवाद🙏🙏🙏