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Monday, November 13, 2023

मन के अंदर हों श्रीराम - मिश्र


हिंदी साहित्य के इतिहास में रामदरश मिश्र संभवत: पहले ऐसे लेखक हैं जो अपनी जन्म शताब्दी की देहरी पर खड़े हैं। अस्सी वर्षों से निरंतर साहित्य की विभिन्न विधाओं में सार्थक लेखन से उन्होंने हिंदी साहित्य को समृद्ध किया। इस उम्र में भी वो साहित्यिक बैठकी में जमकर संस्मरण सुनाते हैं और युवा लेखकों का उत्साहवर्धन भी करते हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में शिक्ष रहे रामदरश मिश्र के अंदर अब भी उनका गांव बसता है। गांव की चर्चा होते ही उनका चेहरा प्रफुल्लित हो जाता है। वो मानते हैं कि अनुभव और मानवीय मूल्य ही किसी रचना को उत्तम बनाते हैं। दैनिक जागरण के एसोसिएट एडिटर अनंत विजय ने  रामदरश मिश्र से उनके आरंभिक जीवन, शिक्षण के अनुभव, उनकी रचना प्रक्रिया, समकालीन साहित्यिक, सामाजिक, राजनीतिक परिदृश्य और अयोध्या में भव्य राम मंदिर निर्माण को लेकर उनसे लंबी बातचीत की। यह भी जानने का प्रयास किया गया कि उनके शतायु होने का राज क्या है। प्रस्तुत है उनसे विस्तृत बातचीत के प्रमुख अंशः

-आज का जो साहित्यिक परिदृश्य है, जिस तरह की चीजें लिखी जा रही हैं, उससे आपको कितनी संतुष्टि होती है या जितना आप पढ़ पाते हैं इस अवस्था में आने के बाद, जितना आपको सुनाया जाता है, या जितना आप जानते हैं, कोई आश्वस्ति होती है या लगता है कि जैसे कुछ छूट रहा है?

- पहली बात, मेरा लिखना-पढ़ना दोनों बंद हो गया है। जब लिखने की क्षमता कम हुई तो अपनी सर्जना को डायरी के माध्यम से, कभी-कभी गजल के माध्यम से व्यक्त करता रहा हूं।  मुझे लगता है कि इन दिनों चाहे गजल या कविता हो या कहानी, उनमें वो ऊंचाई नहीं है, गहराई नहीं है जो कुछ समय पहले तक थी। नागार्जुन, केदारनाथ, भवानी भाई के साथ जुड़ा हूं। इन लोगों को पढ़ने का जो एक आनंद था, वो मुझे महसूस नहीं होता है। किसी अच्छे कवि से संपर्क होता है, तो पता चलता है कि कुछ अच्छा भी लिखा जा रहा है। लेखन कोई भी हो, उसमें अपनापन होना चाहिए। जब जब हम चीजों को जीते हैं, तो जो रचनाएं उनकी अभिव्यक्ति होती हैं, वे प्रभावशाली होती हैं। उनमें अपने परिवेश से उपजा अनुभव होता है। हालांकि कई बार मात्र अनुभव ही पर्याप्त नहीं होता। लेखक अपने अनुभव से लिखते हैं, लेकिन लेखक का अपना निर्णय भी होता है कि क्या देना चाहिए और क्या नहीं।

- आपकी एक कविता है कि आप पहुंचे छलांगे लगाकर वहां मैं पहुंचा धीरे-धीरे। आप धीरे-धीरे लक्ष्य तक पहुंचे। साहित्य में प्रतिष्ठा मिली जो एक आलोचना का परिदृस्य था, काफी समय तक आपके साहित्य को मान्यता नहीं दी। उसमें कभी ऐसा लगा कि आपका देय आपको नहीं मिला?

- मेरा स्वभाव महत्वाकांक्षी नहीं है। मैं अपना काम करता हूं और यदि वो काम अच्छा होता है तो संतोष मिलता है, नहीं तो यह भी विश्वास रहता है कि कल वहां ये पहुंचेगा, जहां इसे पहुंचना चाहिए। लोगों की उपेक्षा से दुख इसलिए भी नहीं हुआ क्योंकि मैं मानता था कि एक विचारधारा है, एक दल है, वही सब कुछ निर्णय कर रहा है। वे अपने से अलग लोगों को हाशिये पर डाल रहे हैं, इसलिए उनकी चिंता मत करो, बस लिखते जाओ। यदि मैं उसमें शामिल हो गया होता तो मुझे भी वही मिलता, लेकिन मैं किसी दल से संबद्ध नहीं हुआ। बीएचयू में रहते हुए दो तीन-साल के लिए कम्युनिस्ट हुआ था लेकिन जल्दी ही ज्ञात हो गया कि उसके प्रभाव में जो लिख रहा हूं वो ठीक नहीं है। जब मेरी किताब आई तो उन कविताओं को हटा दिया। मैंने कोशिश की कि अपना रास्ता बनाऊं। अपने रास्ते पर चलने वालों की तारीफ करूं।  जिन पत्रिकाओं को मैं समझता था कि कुछ खास लोगों की हैं, जैसे अशोक बाजपेयी की 'पूर्वाग्रह', नामवर सिंह की 'आलोचना' हो, राजेंद्र यादव की 'हंस' हो वहां मैंने कुछ दिया ही नहीं, उन्होंने सम्मान से कुछ मांगा भी नहीं, एक तरह से अच्छा ही हुआ । मेरी नियति कुछ अजीब है। लगता है कि मेरा अपकार कर रही हैं, दुख दे रही है, फिर लगता है कि उस क्रिया में ही तो इतना सम्मान था। यौवनकाल में सब मस्ती से जी लेते हैं, लेकिन बुढा़पा सन्नाटों में भर जाता है, मेरी नियति ने बुढ़ापे को सम्मान से भर दिया। मुझे वृद्धावस्था में सम्मान और लोगों का प्यार मिल रहा है।

नियति पर बहुत भरोसा है, क्या आप भाग्यवादी हैं?

- भाग्यवादी नहीं हूं लेकिन जैसा मैंने अनुभव किया है उसके माध्यम से ये बात कह रहा हूं कि जब मेरे साथ दुर्घटना होती है तो लगता है कि एक बुरी नियति से जुड़ा हुआ हूं, लेकिन जब उसका दूसरा परिणाम आता है तो लगता है कि उस नियति का एक दूसरा पहलू भी है।

- आप बीएचयू के उस हिंदी विभाग में रहे हैं, जिसकी तुलना नामवर सिंह ने कैंब्रिज यूनिवर्सिटी से की है कि वहां भी तीन बड़े आलोचक रहे। उन्होंने रामचंद्र शुक्ल रचनावली की भूमिका में ये बात कही बीएचयू में आचार्य शुक्ल, नंददुलारे वाजपेजी, हजारीप्रसाद द्विवेदी की त्रिमूर्ति थी। द्विवेदी जी की यादें साझा करेंगे कि वे कैसे छात्रों से मिलते थे। उन पर आरोप लगा कि वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से संबंधित थे?

- द्विवेदी जी कहते थे कि साहित्य मनुष्य के लिए है। मनुष्य के हित के लिए जो भी साहित्य लिखा जाए वो अच्छा साहित्य है। जब द्विवेदी जी आरएसएस में बोलने गए तो बड़ी बदनामी हुई, लेकिन जब स्टालिन की मृत्यु हुई थी, तो उन्होंने जो भाषण दिया वो अद्भुत था। न वो आरएसएस के थे, ना कम्युनिस्ट थे। वे मानवता से जुड़े थे। उनके अध्यापन की विशेषता थी कि वो कोई विषय बहुत व्यापक रूप में लेते थे। कबीर का दोहा है, वो मात्र दोहा नहीं रह जाता था है, उस दोहे के भाव में जो भी है, वो जहां से भी संभव हो लाकर डाल देते थे। पूरा साहित्य उसमें मूर्त हो जाता था। बेहद प्रसन्नचित्त थे। छात्रों को बहुत प्यार करते थे। उनके साथ शाम को घूमना बहुत अच्छा लगता था। उस समय वे ऐसी बातें कहते थे जो शायद क्लास में नही कह सकते थे। वे ऐसे ढंग से कहते थे कि वो भीतर तक पहुंच रही है। एक बार उनके घर में बैठे थे, एक संन्यासी का फोन आया। पंडित जी आ जाऊं। उन्होंने कहा आ जाइए। उस संन्यासी ने एक किताब लिखी थी, जो द्विवेदी जी को पढ़ने को दी। उन्होंने कहा कि हर लेखक का लक्षित पाठक होता है। आपने लिखा है कि हमारे घर की औरतों को श्रृंगार नहीं करना चाहिए, सिनेमा नहीं देखना चाहिए। क्या वो पढ़ेंगी इसको। हमारे घर की जो स्त्रियां श्रृंगार नहीं करती, वे उसे पढ़ेंगी, लेकिन वह उनके काम की नहीं है।

- एमए के दौरान कभी आपको ऐसा लगा कि शुक्ल जी ने तुलसी की व्याख्या की, लेकिन दिवेदी जी ने तुलसी पर विचार न करके कबीर को पकड़ा। क्या आपको लगा कि वे तुलसी के बरअक्स कबीर को खड़ा करना चाहते थे?

- देखिए कबीर को मानना का क्या होता है। जिसने निर्भीकता से आडंबर का विरोध किया, उसके प्रस्तोता आचार्य दिवेदी जी थे। ऐसा नहीं था कि उन्होंने तुलसीदास की उपेक्षा की थी। उन्हें लगा कि तुलसीदास को तो मिल गया है, उन्होंने जो छूट गया यानी कबीरदास जी को संभाला, ये बड़ी बात थी।

-आप डेढ़ दो साल के लिए कम्युनिस्ट हुए। नागार्जुन की वो पंक्ति याद आती है कि जब उन्होंने 1975 के बाद कहा था कि कोई 24 घंटे कम्युनिस्ट नहीं हो सकता। घंटा दो घंटा तो ठीक। नामवर जी ने चुनाव लड़ा था। क्या आप राजनीति में आना चाहते थे?

- जब मैं एएमए फाइनल में था तब भाई साहब ने मुझे चुनाव लड़ने को कहा। कालेज की छुट्टियां थीं। भाई साहब मुझे लेकर चुनाव प्रचार को जाते थे। पूरे गांव का समर्थन था। इतना समां बंध गया था कि लगा कि जीत जाऊंगा लेकिन एक नुक्ता रह गया था जिसकी वजह से पर्चा खारिज हो गया। हमारे भाई साहब उस फैसले के खिलाफ हाइकोर्ट तक गए थे, पर मैं सोचता हूं जो हुआ अच्छा हुआ। राजनीति में वो जाए जो मोटी चमड़ी का हो।

-आपने स्वतंत्रता से पहले और उसके बाद की राजनीति देखी है। क्या अंतर महसूस करते हैं?

-पुराने समय में राजनेता साहित्य में रुचि रखते थे। उनका सम्मान भी करते थे। उनकी भाषा संसद या संसद के बाहर ऐसी नहीं थी, जैसी आज हो गई है। बाबू जगजीवनराम का एक आत्मीय था, वो मेरा शिष्य। मुझे बताने लगा कि बाबू जी आपको बहुत याद करते हैं। मिलने चलिए उनसे।बहुत आग्रह के बाद उनके घर मिलने गया। उनका बाहरी कमरा नेताओं से भरा हुआ था। उस लड़के ने बाबू जी से जाकर बताया तो वे दौड़कर मिलने आए और गले लगा लिया। राजनीति और साहित्य के संबंध में एक घटना याद आती है। लाल किले पर एक विशाल वार्षिक कवि सम्मेलन हुआ करता था। उसमें दिनकर जी आए हुए थे। जवाहर लाल मंच जी सीढ़ी जी चढ़ रहे थे, फिसल गए तो दिनकर जी ने संभाल लिया और कहा, नेहरू जी जब राजनीति लड़खड़ाती है तो साहित्य उसे संभालता। अब तो किसी नेता को साहित्य से कोई वास्ता नहीं है। 

-नए लेखकों को कोई संदेश देना चाहेंगे?

- सबसे मैं यही कहता हूं कि अपना रास्‍ता बनाओ। बड़े लोगों से कुछ पाने के लिए उन जैसा न लिखो। इनके जैसा लिखूंगा, इनसे मिलूंगा तो यह मिल जाएगा तो तुम्‍हारा अपना नहीं होगा। तुम खुद अपना रास्‍ता चुनो। गिरो, पड़ो, उठो। जो तुम्‍हारा अपना रास्‍ता होगा, वही तुम्‍हारा अपना लेखन होगा। वही तुम्‍हे ताकत देगा। लोग उसी को याद करेंगे। यही मैं सबसे कहता हूं कि अपना रास्‍ता बनाओ।

-सौ साल तक जीने का क्या राज है?

- जिसने मुझे बनाया है, उससे पूछो। मैं क्‍या जवाब दूं। मैं यही जवाब दे सकता हूं कि मैंने कभी महत्‍वाकांक्षा नहीं पाली। महत्‍वाकांक्षा बहुत मारती है। वह पूरी नहीं होती है, तो लोग रोते हैं, तड़पते हैं और जिनसे आपका काम पूरा नहीं होता, उसे गाली देते हैं। मन में द्वेष रखते हैं। दूसरी बात यह कि नशा नहीं किया। बनारस में रहकर पान नहीं खाया। ये भी एक कारण है कि मैं कभी उम्र के संकट में नहीं पड़ा। बीमार तो पड़ता गया लेकिन मुझे कोई ऐसा रोग नहीं है जो कि यकायक मुझे खत्‍म कर दे। तीसरी बात यह है कि पत्‍नी के होने से सब चीजें घर में ही मिल जाती रहीं। बाजार से संबंध नहीं होना भी एक कारण हो सकता है। बाकी तो ईश्‍वर जानें।

आपकी दिनचर्या क्या रहती है?

- देखिए ऐसा है कि पत्‍नी बीमार हैं। मेरे पैर में फ्रैक्‍चर हो गया था। सर्जरी के बाद अब आराम हो गया है, लेकिन अब चाहे बुढ़ापा कहिए या कुछ और, दोनों पांवों में दर्द होता है। मैं चल तो लेता हूं। ठीक से चल लेता हूं, लेकिन दर्द होता रहता है। दिन में सो लेता हूं। अब तो खाली ही रहता हूं।

अपनी लेखन प्रक्रिया के बारे में बताइए?

- मेरे लेखन की एक प्रक्रिया रही है। सबकी अलग अलग होती है। मैं केवल सुबह लिखता था। सुबह के मतलब नाश्ता आदि करने के बाद। लेकिन जिस दिन क्‍लास लगती थी, उस दिन नहीं लिखता था। लिखने के लिए दो घंटे चाहिए होता है। मैं किस्‍तों में लिखता था। लेकिन लिखते लिखते मैं इतना लिख गया कि देखकर खुश होता हूं कि अरे इसे मैंने लिखा है। ये उपन्‍यास, ये कहानियां मैंने लिखी हैं। मैं ये सब देखकर अब आश्‍चर्य करता हूं।

आपके देखकर लगता नहीं कि आप क्रोध करते होंगे। क्या सचमुच ऐसा है?

- नहीं, मुझे भी क्रोध  आता है। खासकर जहां गलत काम देखता हूं। जब नागरिकता बोध को खंडित होते देखता हूं तो उस पर बहुत गुस्‍सा आता है। 

-रावण वध के बाद श्रीराम के अयोध्या पहुंचने के उपलक्ष्य में हर साल दीवाली मनाई जाती है, लेकिन पांच सौ साल बाद रामलला भव्य मंदिर में विराजमान होने जा रहे हैं। इस अर्थ में क्या यह दीवाली कुछ खास है। ?

- राम मंदिर बनना अपने आपमें एक बड़ी चीज है। हालांकि मैं सोचता हूं कि श्रीराम ने तो रावण का वध कर दिया, लेकिन क्या वह सचमुच में मर गया है? एक गजल याद आ रही है- वह न मंदिर में, न मस्जिद में, न गुरुद्वारे में हैं। वह पराई पीर वाली आंख के तारे में है…। अपने मन के भीतर एक मंदिर बनाइए। राम मंदिर तो एक प्रतीक है। उसके माध्‍यम से श्रीराम को भीतर ले आइये। कृष्‍ण और राम के रूप में ईश्वर की जो सगुण कल्‍पना की गई है, यह बहुत बड़ी बात है। ईश्वर के उन गुणों को अगर आपने नहीं अपनाया तो फिर मंदिर भी व्‍यर्थ है और बाकी सब कुछ भी।


1 comment:

Anonymous said...

रामदरश मिश्र जी स्वस्थ रहें यही ईश्वर से प्रार्थना है! अनंत जी आपने उनसे साक्षात्कार करके बहुत बढ़िया किया! इसी बहाने मैने आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी पर आपका लिखा लेख भी पढ़ लिया🙏🙏🙏